राबिन्सन-क्रूसो/क्रूसो का रोज़नामचा

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क्रूसो का रोज़नामचा

३० दिसम्बर सन् १६५९ ईसवी—मैं दीन मतिहीन अभागा राबिन्सन क्रूसो, जहाज डूब जाने पर, इस भय दूर जनशून्य टापू में आपड़ा था र। इस टापू का नाम मैंने 'नैराश्य द्वीप' [ ७१ ]
रक्खा था। मेरे साथी सभी डूब कर मर गये । मैं ही अधमरा सा होकर किसी किसी तरह किनारे आ लगा ।

भोजन, वस्त्र, आश्रय और अस्त्र से रहित होकर मैं अपने चारों ओर मृत्यु की भीषण मूर्ति देखने लगा । वन्य पशुओं के ग्रास से या असभ्य निर्दय मनुष्य के हाथ से या क्षुधा की ज्वाला से अपनी अनिवार्य मृत्यु की बात सोच कर मैं अपने जीवन से हताश होगया था । रात को मैं जंगली पशुओं के भय से पेड़ पर चढ़ कर सो रहा । उस अवस्था में भी सारी रात पानी बरसता ही रहा, तो भी मैं खूब गाढ़ी नींद में सोया ।

पहिली अक्तूबर--मैंने सबेरे उठकर देखा, हम लोगों का भग्न जहाज़ ज्वार में उपलाता हुआ स्थल भाग के समीप आ लगा है । यह देखकर मेरे मन में हर्ष और विषाद दोनों हुए । हर्ष का कारण यह था कि हवा कुछ थम जाने पर मैं जहाज़ पर से अपनी आवश्यकता के अनुसार चीजें ले आ सकूँगा । विषाद का कारण यह था कि हम लोग नाव पर न चढ़ कर यदि जहाज़ ही पर रहते तो सब के सब बच जाते ।

पहिली अक्तूबर से २४ वीं अक्तूबर तक--इन कई दिनों में मैं वर्षा के पानी में भीग भीग कर, ज्वार के समय, बेड़ा तैयार करके जहाज़ पर से बराबर चीज़ वस्तु ढोता रहा ।

२० अक्तूबर को मेरा बेड़ा उलट जाने से सब चीजें पानी में गिर गई और मैं भी गिर पड़ा । भाटे के समय मेैं प्रायः वस्तुओं को निकाल लाया ।

२५ अक्तूबर—-जहाज़ टूट फूट कर ग़ायब हो गया । दिन रात पानी बरसता रहा । [ ७२ ]२६ अक्तूबर से ३० अक्तूबर तक--रहने के लिए जगह की खोज, और पहाड़ की तलहटी में स्थान का निरूपण । किले का निर्माण ।

३१ अक्तूबर-—द्वीप देखने के लिए बाहर निकल कर मैंने बकरी का शिकार किया और मरी हुई बकरी और उसके जीवित बच्चे को घर ले आया ।

३ नवम्बर--दिन के पिछले पहर से मैं मेज़ बनाने में लगा । तीन दिन में मेज़ बन कर तैयार हो गई ।

५ नवम्बर—-बन्दूक़ और कुत्ते को साथ ले जाकर मैंने एक वनविड़ाल मारा । उसका चमड़ा बहुत मुलायम था । मैं जिस जन्तु का शिकार करता था उसका चमड़ा निकाल कर रख लेता था । समुद्र के किनारे घूमते-फिरते मैंने भाँति भाँति के कितने ही अपरिचित पक्षी देखे । अजीब तरह के दो तीन जन्तु देख कर मैं चकित और भयभीत सा हो गया । ये जानवर कौन हैं ? यह तजवीज़ करके मैं देख ही रहा था कि वे भाग गये । मैं उनका शिकार न कर सका ।

७ नवम्बर से १२ तक--आकाश बिलकुल साफ़ हो गया था । इन कई दिनों में किसी तरह मैंने एक कुरसी बना ली । किन्तु उसकी गढ़न मेरे पसन्द की न हुई । मैंने उसको तोड़ ताड़ कर अपने पसन्द लायक बनाने की कई बार कोशिश की, पर मैं कृत-कार्य न हो सका ।

१३ नवम्बर से १७ तक--फिर खूब जोर शोर से वर्षा, वायु, बिजली और वज्राघात का भयंकर दृश्य दिखाई दिया । मैंने डर कर बारूद को थोड़ी थोड़ी करके अलग

अलग रखने का विचार किया । छोटी छोटी थैलियाँ और बक्स [ चित्र ]
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बना करके उन में बारूद भर दी और पहाड़ के नीचे गढ़ा

खोद कर उन्हें अलग अलग गाड़ रक्खा । गढ़ा खोदने का काम मैंने सिर्फ़ बाँस की टोकरी और गैंती से लिया । उस समय मुझे खनती और कुदाल के अभाव का अनुभव हुआ ।

१८ नवम्बर--वन में घूमते फिरते मैंने एक प्रकार का पेड़ देखा । उसकी लकड़ी बहुत मज़बूत और भारी थी । इस कारण ब्रेज़िल में लोग उसे लौहकाष्ठ कहते थे । मैंने उस पेड़ की एक डाल को बड़े बड़े कष्ट से, अपनी कुल्हाड़ी को नष्टप्राय करके, काटा । वह डाल बहुत भारी थी, इससे उसे किसी तरह घसीट कर घर ले आया । रोज़ रोज़ उसे थोड़ा थोड़ा छील छाल कर ठीक कुदाल की तरह बनाया । कसर इतनी ही रही कि उसकी धार को कुदाल की तरह झुका न सका । वह बेंट के साथ सीधी ही रही । किन्तु एक टोकरी की कमी तब भी मुझे बनी ही रही । टोकरी बिनने के काम की सहज ही में जमने येाग्य कोई चीज़ ढूँढ़ने से भी अब तक मुझे न मिली ।

२३ वीं नवम्बर से ३१वीं दिसम्बर तक--मेरे तम्बू के पीछे जो एक खोह थी उसे खेद कर धीरे धीरे उसके द्वार को बढ़ाने तथा उसके बीच की जगह को मैं विस्तृत करने लगा । १० वीं दिसम्बर को खोह की छत एकाएक नीचे धँस गई । यदि मैं उस समय खोह के भीतर रहता तो जीता जागता ही कब्र में गड़ जाता । इस दुर्घटना से मैं बहुत ही डरा । फिर कहीं ऐसी ही घटना न हो जाय, इस कारण छत में नीचे से खम्भा लगा दिया । छत की मिट्टी जो धँस गई थी उसे काट कर बाहर फेंक दिया और छत के नीचे तख़्ता लगा कर खम्भे [ ७४ ]
पर साध दिया। इस तरह छत को सुरक्षित करके ताक़ (रैक) बनाया। जो चीजें ताक़ पर रखने योग्य थीं उन्हें ताक़ पर रक्खा और कितनी ही वस्तुएँ दीवाल में खूँटी गाड़ कर लटका दीं। इससे थोड़ी सी जगह में बहुत वस्तुओं के रखने का सुभीता हुआ।

२७ दिसम्बर को एक बकरी के बच्चे को गोली से मारा और एक के पाँव में छर्रा मार कर उसे लँगड़ा कर दिया। लँगड़ा हो जाने के सबब वह भाग नहीं सका। उसे पकड़ कर मैं घर ले आया और उसके टूटे हुए पाँव में पट्टी बाँध दी। मेरे यत्न से वह थोड़े ही दिनों में अच्छा हो गया। फिर छोड़ देने पर भी वह भागता न था। यह देख कर मेरा ध्यान पशुपालन की ओर गया। उससे लाभ यह था कि खाद्य-सामग्री समाप्त हो जाने और गोली-बारूद न रहने पर भी क्षुधा का निवारण हो सकेगा।