लेखाञ्जलि/१७—देहाती पञ्चायतें

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१७—देहाती पञ्चायतें।


पञ्चायतें इस देशकी बहुत पुरानी संस्थाएं हैं—इतनी पुरानी जितनी कि शायद हमारे वेद भी न हों। एकत्र होकर मनुष्य जब एकही जगह रहने लगते हैं तब, स्वभावके वैचित्र्य या भेदभावके कारण, झगड़े-बखेड़े अवश्य ही होते हैं—सबल निर्बलको अवश्य ही, कभी-कभी, सताने लगते हैं। सभ्यताकी प्रारम्भिक अवस्थामें न तो कोई राजा ही होता है और न कोई न्यायालय ही होता है। अतएव आपसके झगड़ोंका फैसला यदि कोई कर सकता है तो बस्तीके प्रमुख मनुष्यही कर सकते हैं। इसीसे विद्वानोंका कथन है कि पञ्चायतें भारतवर्षकी अत्यन्त प्राचीन संस्थाएं हैं। उनका अस्तित्व अबतक लोप नहीं हुआ। अबतक भी प्रायः प्रत्येक गांवमें—हम अपने सूबेकी कहते हैं—कोई-न-कोई जगह ऐसी निश्चित रहती है जहाँ सबलोग, आवश्यकतानुसार, शामको एकत्र होते और आपसी झगड़ोंको आपसहीमें तै कर लेते हैं। इन [ १५१ ]पञ्चायतोंका बल यद्यपि उच्च-जातियोंमें घट गया है, तथापि नीच जातियोंमें इनका अबतक प्रचाराधिक्य है। वे लोग अपने सामाजिक ही नहीं, दीवानी ओर फ़ौजदारीके भी मामले, बहुधा अपनीही पञ्चायतोंके सामने पेश करते हैं।

हमारे वर्तमान शासकोंकी राय है कि प्रतिनिधि-सत्ताक राज्य-प्रणाली पश्चिमी देशोंकी उपज है। भारतके लिए वह अश्रुतपूर्व वस्तु है। उसका बीज यहाँकी अनुर्वर भूमिमें तबतक उगकर बड़ा नहीं हो सकता जबतक कि उनकी दी हुई शिक्षारूपी खादसे वह भूमि खूब उर्वरा न बना दी जाय। इसीसे वे लोग कुछ समयसे हमें इस राज्यप्रणालीका सबक सिखा रहे हैं। मालूम नहीं, कितनी शताब्दियों या कितने कल्पोंमें भारतवासी इसे सीखकर पञ्चायती राज्य कायम करने योग्य हो जायँगे।

शासकोंकी ये बातें कुछ भारतवर्षी विद्या-विशारदोंको बेतरह खटकी हैं और अबतक खटक रही हैं। वे इन्हें कपोल-कल्पना-मात्र समझते हैं; क्योंकि इनकी दृष्टिमें जातीय पञ्चायतोंकी तो बात ही नहीं, यहां तो किसी समय बड़े-बड़े प्रजातन्त्र राज्यतक कायम थे। इस बातके अनेक प्रमाण, प्राचीन पुस्तकोंमें, पाये जाते हैं। हाँ, उनका नाम प्रजातन्त्रके बदले गणतन्त्र था। पर नामभेद होनेहीसे उनका अभाव नहीं माना जा सकता। इन गणतन्त्र राज्यों के वर्णनोंसे बौद्ध-धर्मर्मके अनुयायी लेखकोंके लिखे कितने ही ग्रन्थ अबतक मौजूद हैं। उनको भी आप जाने दीजिये। आप रामायण और महाभारतहीको लीजिये। उनमें भी आपको ऐसे कितनेही [ १५२ ]उदाहरण मिलेंगे जिनसे जन-समुदाय किंवा प्रजाजनोंकी अबाध सत्ताका अस्तित्व सूचित होता है। गणतन्त्र या प्रजासत्ताक राज्य न होनेपर भी प्रजाकी प्रभुता, यहाँ, इस देशमें, किसी समय, इतनी प्रबल थी कि प्रजा दुराचारी नरेशोंको राजासनसे गिरा तक देती थी। किसी भी राजाको राजासन-प्राप्ति तभी हो सकती थी जब उसका अनुमोदन प्रजा करती थी। मतलब यह कि गण-तन्त्र-राज्योंहीमें नहीं, राजतन्त्र-राज्योंमें भी प्रजा ही राजाको बना या बिगाड़ सकती थी।

परन्तु दैवयोगसे उन पुरानी प्रथाओं और पुरानी सत्ताओंको जब स्वयं भारतवासी ही भूल-सा गये हैं तब हमारे शासक उनके अस्तित्वका अस्वीकार करें तो कोई आश्चर्य नहीं। जहाँ हमलोगोंने अपने और कितने ही गुणोंका त्याग और विस्मरण कर दिया है तहाँ उनमेंसे यह भी एक है।

शासकों और उनके देशवासी पण्डितोंने जब यह कहना शुरू किया कि भारतमें कभी प्रजातन्त्र-प्रणाली प्रचलित न थी तब भारतवासी विद्वानोंने बड़े-बड़े लेख और पुस्तकें लिखकर उनकी इस कल्पनाका खण्डन किया और इस बातको सप्रमाण सिद्ध कर दिया कि किसी समय यहाँ बड़े-बड़े प्रजातंत्र-राज्य थे। स्वराज्य-सञ्चालनकी चर्चा तो बहुत पहलेहीसे हो रही थी। अब उसने और भी जोर पकड़ा। गवर्नमेन्टपर दबाव-पर-दबाव डाला गया कि अभी और कुछ नहीं करते तो पुरानी पञ्चायतोंकी जगह नयी पञ्चायतें ही क़ायम कर दो और उन्हें दीवानी, फ़ौजदारी और सफ़ाईके सम्बन्धके [ १५३ ]छोटे-छोटे मामले-मुकद्दमे सुननेका अधिकार दे दो। बहुत समयतक इस सम्बन्धमें जद्दोजेहद होनेपर गवर्नमेन्टका आसन थोड़ा-सा डिगा और उसने प्रजाके प्रतिनिधियोंकी बात मान ली। प्रायः सभी प्रान्तोंमें सरकारी पञ्चायतें खोल दी गयीं। उनके अधिकार और सङ्घटन आदिके नियामक कानून भी बन गये। पर प्रत्येक प्रान्तका नियमन जुदा रहा। किसी प्रान्तकी पञ्चायतोंको कुछ कम अधिकार मिले, किसी प्रान्तकी पञ्चायतोंको कुछ अधिक। उनके सङ्घटन आदिमें भी कुछ-न-कुछ भिन्नता रही। शासकोंने इस तरहके प्रान्तिक कानून बनाकर गोया देहातियोंपर बड़ा एहसान किया और स्वराज्य सञ्चालनका काम, थोड़े पैमानेमें, करना सीखनेके लिए गोया उन्होंने दरवाज़ा खोल दिया। एतदर्थ धन्यवाद। संयुक्त-प्रान्तके लेजिस्लेटिव कौंसिलने इस विषयका जो क़ानून बनाया है उसका नम्बर ६ है। वह सन् १९२० ईसवीमें बना था। अर्थात् उसे बने कोई सात-आठ वर्ष हुये। उसकी मुख्य-मुख्य बातोंका उल्लेख, इस मतलबसे, नीचे किया जाता हैं जिसमें जहाँ ऐसी पञ्चायतें न खुली हों वहाँवाले उन्हें खुलाकर अपना राज्य आप ही सञ्चालन करनेकी वर्णमाला सीखनेकी चेष्टा करें।

पञ्चायतोंका खोला जाना।

जिस ज़िले या जिलेके जिस हिस्सेमें पञ्चायत ऐक्ट जारी कर दिया जाता है उसके किसी भी मौज़े में पंचायत खुल सकती है। अगर मौज़ा छोटा है तो पास-पड़ोसके कई मौज़ोंको मिलाकर पञ्चायतका एक हलका मुक़र्रर कर दिया जाता है। पञ्चायतका दफ़्तर [ १५४ ]किसी एकही मौज़े में रहता है। वहीं सब पञ्च, नियत समयपर, उपस्थित होते और मामले-मुक़द्दमे करते हैं। पञ्चोंकी संख्या ५ से कम और ७से ज़ियादह नहीं होती। उन्हींमेंसे एक आदमी सरपञ्च मुकर्रर कर दिया जाता है। उसमें लिख-पढ़ सकनेकी योग्यताका होना आवश्यक है; क्योंकि पञ्चायतके रजिस्टरों वग़ैरहकी ख़ानापुरी उसीको करनी पड़ती है।

पञ्चायत खोलने की इच्छा होनेपर मौज़ के ख़ास-ख़ास बाशिन्दोंको जिलेके हाकिमको दरख्वास्त देनी पड़ती है। हाकिम इस बातकी जाँच करता है कि पञ्चायत खोलनेकी ज़रूरत है या नहीं और काफ़ी तादादमें काम करने योग्य पञ्च मिल सकते हैं या नहीं। जाँचकी रिपोर्ट अनुकूल होनेपर कलेक्टर या डिपुटीकमिश्नर पञ्च नामज़द कर देता है और उन्हींमेंसे एकको सरपञ्च बना देता है। पञ्च और सरपञ्च मुक़र्रर और बरख़ास्त करनेका अधिकार उसीको है। और सब कार्रवाई हो चुकनेपर रजिस्टर, फारम, क़ानूनकी क़िताब वग़ैरह सामान पञ्चायतको भेज दिया जाता है और दिन मुकर्रर हो जाते हैं कि हफ्तेमें किस-किस दिन पञ्चायत बैठकर काम किया करेगी। बैठकके रोज़ काम तभी हो सकता है जब कम-से-कम ३ पञ्च (जिनमें सरपञ्चको भी शामिल समझिये ) उपस्थित हों।

पञ्चायतोंके अधिकार।

क़ानूनकी रूसे पञ्चायतोंको दीवानी और फ़ौजदारी दोनों मदोंके कुछ अधिकार प्राप्त हैं। सफ़ाई और आवारा घूम-फिरकर नुकसान पहुंचानेवाले मवेशियोंके सम्बन्धमें भी उन्हें कुछ अधिकार दिये गये हैं— [ १५५ ]

दीवानी।

पञ्चायतें नीचे लिखी हुई दीवानीकी नालिशें सुन सकती हैं—

(१) क़ौलो-क़रारपर दिये गये नक़द रुपयेकी बाबत।

(२) जायदाद मनकूलाको दिलवानेकी बावत।

(३) माल मनकूलाको नुक़सान पहुंचानेके मुआविज़े की बाबत।

शर्त यह है कि दावेकी मालियत २५) से ज़ियादह न हो।

फौज़दारी।

पञ्चायतों को नीचे लिखे हुए फ़ौजदारीके जुर्मोंके मुक़द्दमे, और उनमेंसे किसी जुर्ममें मदद पहुँचाने या जुर्म करनेकी कोशिशके मुकद्दमे, सुननेके अधिकार दिये गये हैं—

(क) ताज़ीरात हिन्दके अनुसार।

दफ़ा
(१) जान-बूझकर चोट पहुँचाना। ३२३
(२) भड़काये जानेपर हमला करना। ३५८
(३) भड़काये बिना ही हमला करना। ३५२
(४) चोरी, यदि चुराये गये मालकी क़ीमत १०) से ज़ियादह न हो। ३७९
(५) नुक़सान पहुँचाना, यदि १०) से ज़ियादहका नुक़सान न हुआ हो। ४२६
(६) दङ्गे-फिसादकी नीयतसे किसीकी बेइज्ज़ती (तौहीन) करना। ५०४
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नम्बर (४) जुर्मके सम्बन्धमें शर्त यह है कि पञ्चायत तभी मुकद्दमेकी समात कर सकेगी जब चोर चोरी करते वक़्त पकड़ या पहचान लिया गया हो।

(ख) ऐक्ट मदाख़िलत बेजा मवेशी के अनुसार।

दफ़ा

मदाख़िलत बेजा करनेके कारण किसी पशुको यदि किसीने पकड़ा हो और कोई उस ज़बरदस्ती छुड़ा ले या उसे पकड़नेसे रोके।

२४

(ग) सफ़ाई और तन्दुरुस्तीके कानूनके अनुसार।

ऐसे क़ायदोंके ख़िलाफ़ काम करना जो दफ़ा १५ के अनुसार बनाये गये हों और जिनकी बाबत दफ़ा १५ के अनुसार सज़ा दी जा सकती हो।

पञ्चायत किसी ऐसे जुर्मके सम्बन्धका मुकदमा नहीं सुन सकती जिसमें मुक़द्दमा दायर करनेवाला या मुलज़िम ऐसा सरकारी मुलाज़िम हो जो उसी ज़िलेमें काम करता हो जहाँ पञ्चायत क़ायम है।

सजाएं।

ज़ियादह-से-ज़ियादह सज़ाएं जो पञ्चायत दे सकती है वे ये हैं—

(क) ताजीरात हिन्दके अनुसार।

जुर्माना जो १०) से या जो नुकसान या घाटा हुआ हो उसके दूनेसे अर्थात् उन दोनोंमेंसे जो रकम बड़ी हो उससे ज़ियादह न हो। [ १५७ ]

(ख) ऐक्ट मदाख़िलत बेजा मवेशीके अनुसार

जुर्माना जो ५) से ज़ियादह न हो।

(ग) सफाई और तन्दुरुस्तीके कानूनके अनुसार

जुर्माना जो १) से ज़ियादह न हो।

कोई पञ्चायत असली सज़ाके तौरपर या जुर्माना अदा न करनेकी सूरतमें कै़दकी सज़ाका हुक्म नहीं दे सकती। वह सफ़ाई और तन्दुरुस्तीके क़ानूनके खिलाफ़ किये गये जुर्मोंकी समात भी तब तक नहीं कर सकती जबतक वह क़ानून उसके हलकेमें जारी न कर दिया जाय।

जुर्माना करते वक्त पञ्चायतको यह हुक्म देने का अधिकार है कि कुल जुर्माना या उसका कुछ हिस्सा, वसूल होनेपर, नीचे लिखे हुए कामोंमें खर्च किया जाय—

(क) उस ख़र्चको पूरा करनेमें जो मुक़द्दमा दायर करनेवालेने उस मुकद्दमे में मुनासिब तौरपर किया हो।

(ख) किसी ऐसे माली नुक़सान या घाटेकी बाबत मुआविज़ा देनेमें जो उस जुर्मसे हुआ हो जो किया गया है।

अगर पञ्चायतको मालूम हो जाय कि किसीने कोई झूठा मुक़द्दमा दायर कर दिया है तो वह उससे ५) तक मुआविज़ा लेकर मुलज़िमको दिला सकती है।

दीवानीको नालिशें और फ़ौजदारीके मुक़दमे लेने और जुर्माना करने की बाबत जिन अधिकारोंका उल्लेख ऊपर हुआ है उससे अधिक [ १५८ ]अधिकार भी ख़ास-ख़ास पञ्चायतोंको दिये जा सकते हैं। शर्त यह है कि गवर्नमेंट इस बातकी मंज़ूरी पहिलेसे दे दे और बतला दे कि अमुक-अमुक पञ्चायतको ये अधिकार दिये जाते हैं।

अगर किसी नालिश या मुक़द्दमे में पञ्चायतका कोई पञ्च फरीक़ हो या उससे निजका कुछ सम्बन्ध रखता हो तो वह उस नालिश या मुक़द्दमेकी कार्‌रवाईमें शरीक न हो सकेगा और किसी तरहकी राय (वोट) न दे सकेगा। मुक़द्दमों और नालिशोंका फैसला कसरतरायसे होता है। यदि विपक्ष और पक्षमें बराबर बराबर रायें हों तो सरपञ्चको एक और राय (अर्थात् क़तईराय-Casting vote) देनेका अधिकार है।

पञ्चायतोंमें जो नालिशें दायर की जाती हैं उनमें मुद्दईको पूरा दावा दाख़िल करना पड़ता है। कल्पना कीजिये कि देवदत्तको शिवदत्तसे ३) पाना है। अतएव वह उतने का दावा नहीं दायर कर सकता। क्योंकि साधारण पञ्चायतोंको २५) से अधिककी नालिशें सुननेका अधिकार ही नहीं। अगर देवदत्त चाहे कि २५) का दावा आज करे और उसकी डिगरी हालिस कर लेनेपर, बाक़ीके २५) का दावा फिर कभी, तो वह यह नहीं कर सकता। हाँ अगर वह ५०) मेंसे २५) छोड़ दे तो बाक़ीके २५) की नालिश वह कर सकता है। मतलब यह है कि जिसे पञ्चायतोंसे फ़ायदा उठाना हो और मुंसिफ़ी अदालतमें जाकर ज़ेरबारी और ख़र्चसे बचना हो वह अपने दावेका कुछ हिस्सा छोड़कर २५) तककी नालिश कर सकता है। छोड़े हुए रुपयेका दावा फिर कभी किसी भी अदालतमें नहीं दायर हो सकता। [ १५९ ]

दीवानीकी नालिश दायर करने का हक़ प्राप्त होनेके तीन वर्ष बाद तक ही दावे पञ्चायतोंमें किये जा सकते हैं। तीन वर्ष बीत जानेपर नालिश करनेका हक़ जाता रहता है।

नालिशें उसी हलकेकी पञ्चायतके सामने दायर की जा सकती हैं जिसमें मुद्दआइलेह, या यदि एकसे अधिक मुद्दआइलेह हों तो सब, नालिश दायर करनेके वक्त रहते हों। इस बातका कुछ विचार नहीं किया जाता कि बिनाय दावा किस जगह पैदा हुई या मुद्दई कहांपर रहता है। इसी तरह फ़ौजदारीके मुकद्दमे उस हलकेकी पञ्चायतके सामने दायर किये जाते हैं जिसमें जुर्म किया गया हो।

बहुत दफ़े ऐसा होता है कि पञ्चोंसे अनबन होने, या और किसी कारणसे, लोग पंचायतोंके सामने फ़ौजदारीके मुकद्दमे दायर न करके हाकिम तहसीलकी अदालतमें दायर कर देते हैं। ऐसी दशामें हाकिम को क़ानूनन यह अख़तियार हासिल है कि वह उस मुक़द्दमेको उसी पंचायतमें मुंतक़िल कर दे जिसमें कि उसे दाख़िल होना चाहिये था। हां, यदि वैसा न करनेके लिए कोई ख़ास वजह हो तो वह उस वजह को लिखकर अपनी ही अदालतमें उस मुक़द्दमेको सुन सकता है।

नालिशों और मुक़द्दमोंका दायर किया जाना।

पञ्चायतोंमें जो नालिशें दायर की जाती हैं उनमें नीचे लिखे अनुसार फीस देनी पड़ती है—

(क) दस रुपये तककी नालिशोंके लिए ।)

(ख) दस रुपयेसे अधिक पञ्चीस रुपये तककी नालिशोंके लिए ॥) फ़ौजदारीके हर मुक़द्दमेकी बाबत ।) देने पड़ते हैं। इसके सिवा [ १६० ]हर गवाह, हर मुद्दआइलेह और हर मुलाज़िमके नाम समन जारी करनेके लिए -) बतौर तलवाने के लिया जाता है। यह -) उस चौकीदारको दिया जाता है जो समनकी तामील करता है। चौकीदार यदि न मिल सके तो कोई भी आदमी समन ले जा सकता है।

नालिश या मुक़द्दमा दायर करनेके लिए पञ्चायतके सरपंचके सामने हाज़िर होकर तहरीरी या ज़बानी दरख़ास्त देनी पड़ती है और और फ़ीस अदा करनी पड़ती है। फ़ीस अदा की जानेपर उसकी रसीद मिलती है। सरपंच नालिश या दावेको पञ्चायतके रजिस्टरमें दर्ज कर लेता है और बता देता है कि कब, किस वक्त, दरख़ास्त सुनी जायगी। वक्त मुक़र्ररपर पञ्च इकट्ठे होते हैं। कमसे कम तीन पंच इकट्ठे हो जानेपर दरख़ास्तपर विचार किया जाता है। उस वक्त दरख़ास्त देनेवाला भी हाज़िर रहता है। यदि पञ्चोंने समझा कि नालिश या दावा ठीक नहीं तो वह उसी वक्त ख़ारिज कर दिया जाता है। ठीक होनेकी हालतमें मुद्दआइलेह या मुलजिमके नाम समन निकाले जाते हैं, पेशीकी तारीख़ मुक़र्रर की जाती है और मुद्दई या मुस्तग़ीसको उसकी इत्तिला दी जाती है।

पञ्चायत गवाहोंको भी तलब कर सकती है और दस्तावेज़ वग़ैरह पेश करनेके लिए भी लोगोंको तलब कर सकतो है।

अगर कोई मुलज़िम या मुद्दआइलेह, समन जारी होनेके वक्त पञ्चायतके हलकेके बाहर हो तो समन ज़िलेके हाकिम या पञ्चायत अफ़सरके पास भेज दिया जाता है। वह उसे अपनीही अदालतका समन समझकर उसकी तामील करा देता है। [ १६१ ]

कोई औरत अपनी मर्ज़ी के ख़िलाफ पञ्चायतके सामने हाज़िर होनेके लिए मजबूर नहीं की जा सकती।

फरीक़ैनके लिए यह लाज़मी नहीं कि वे असालतन ही पञ्चायतके सामने, पैरवीके लिए, हाज़िर हों। अगर वे चाहें तो इस कामके लिए अपने नौकर, मुनीम, गुमाश्ता, किसी कुटुम्बी या दोस्तको भेज सकते हैं। वकील, मुख़्तार या क़ानून-पेशा कोई और आदमी पञ्चायतके सामने किसी नालिश या मुक़द्दमेकी पैरवी नहीं कर सकता।

नालिशों और मुकद्दमोंका सुना जाना।

पञ्चायत नालिशों और मुकद्दमोंको उसी तरह सुन सकती है जिस तरह कि सरकारी अदालतें सुनती हैं। मुलज़िम या मुद्दआइलेहसे वह जवाब तलब करती है और सबूत और सफ़ाईके गवाहों की शहादत लेती है। जो बयान उसके सामने होते हैं उनका सारांश-मात्र सरपञ्च अपने रजिस्टरमें लिख लेता है। ज़रूरत होनेपर मामले मुल्तवी भी कर दिये जाते हैं; पर क़ानून कहता है कि जहाँतक हो सके पंचायतोंको फ़ैसले जल्द सुना देने चाहिये; व्यर्थ तूल न देना चाहिये। मुलज़िम और मुद्दआइलेहकी गैरहाज़िरीमें भी पंचायत अपना फ़ैसिला दे सकती है; मगर फ़ौजदारीके मामलोंमें यह लाज़मी है कि कम-से-कम एक दफ़े मुलज़िम हाज़िर होकर अपने ऊपर लगाया गया इलज़ाम सुने और यदि कुछ जवाब रखता हो तो दे। समनकी बाक़ायदा तामील हो जानेपर भी यदि वह पंचायतके सामने हाज़िर न आवे तो रिपोर्ट की जानेपर ज़िलेका हाकिम उसे जबरन हाज़िर करानेकी कार्‌रवाई कर सकता है। [ १६२ ]

पञ्चायतके किये हुए फैसलोंकी अपील नहीं। हाँ, यदि कुछ ग़ैर-क़ानूनी कार्‌रवाई हुई हो तो ज़िलेके हाक़िमको दरख़्वास्त देनेपर "नज़रसानी" ज़रूर हो सकती है। और सब हालतोंमें पञ्चायतके फैसले क़तई होते हैं। जजों और हाईकोर्टों के फैसले मंसूख़ हो सकते हैं, पञ्चायतोंके नहीं।

नालिशोंमें डिगरी देनेपर पञ्चायतें,६) सैकड़े सालानाके हिसाबसे, डिगरीकी तारीख़से रुपया अदा होनेतक, सूद भी दिला सकती हैं। वे चाहें तो डिगरीके रुपयेको किस्तोंमें अदा करनेका हुक्म भी दे सकती हैं। डिगरीका रुपया यदि एक महीनेके अन्दर अदा न किया जाय तो ज़िलेके हाकिमको लिखनेपर वह बक़ाया मालगुज़ारीके तौरपर जबरन वसूल किया जा सकता है।

फ़ौजदारीके मुक़द्दमोंमें किये गये जुरमानेको अदा करनेकी मीयाद १० दिन है। यदि उस दरमियानमें रुपया न अदा किया गया तो कलेक्टर या डेपुटी कमिश्नरको लिखनेसे वे लोग उसे भी जबरन वसूल कराकर पञ्चायतमें जमा करा देते हैं।

मुक़द्दमों या नालिशोंके दौरानमें उनका फैसला फ़रीक़ैनकी रज़ामन्दीसे क़सम या हलफ़पर भी किया जा सकता है। यदि फ़रीक़ैन आपसमें कोई समझौता कर लें और मुक़द्दमा या नालिश उठा लेना चाहें तो उनकी ऐसी दरख्वास्तको भी पञ्चायत चाहे तो मंजूर कर सकती है।

मुक़द्दमा सुनते वक्त अगर पञ्चायतको यह मालूम हो जाय कि मामला सङ्गीन है। अतएव जो सज़ा वह दे सकती है वह मुजरिमके [ १६३ ]लिए काफ़ी न होगी तो वह मुक़द्दमेकी रिपोर्ट ज़िलेके हाकिमको कर सकती है। इस हालतमें मुक़द्दमा पञ्चायतसे उठकर सदरमें, या किसी ऐसी अदालतमें जो उसे सुननेका अधिकार रखती हो, चला जायगा।

पंचायतोंमें सबसे बड़ी बात यह है कि इनसाफ़ करनेकी सारी ज़िम्मेदारी पञ्चोंपर छोड़ दी गयी है। पञ्चायत ऐक्टमें जो कुछ लिखा है उसे छोड़कर पञ्चायतें और किसी क़ानूनकी पाबन्द नहीं। इसीसे पञ्चायतोंको हिदायत है कि धर्म और ईमानको वे हाथसे न जाने दें। शहादतकी वे वहींतक परवा करें जहाँतक कि धर्म्म, न्याय या इनसाफ़ उन्हें इजाज़त दें। जिस मामलेकी सचाईकी वे क़ायल हैं उसे, झूठी शहादतों के आधारपर, वे झूठ न समझ लें; क्योंकि पञ्चायतोंके लिए क़ानून शहादतकी पाबन्दी लाज़िमी नहीं। पञ्चायतोंके पञ्च पास-पड़ोसकी हालत, मामलों-मुकद्दमोंकी असलियत और फ़रीकैनके चाल-चलन आदिसे पूरी जानकारी रखते हैं। अतएव उस जानकारीसे फ़ायदा उठाकर उन्हें दूधका दूध और पानीका पानी अलग कर देना चाहिये। यह बहुत बड़ी बात है। पर खेद है, इस तरहके पञ्च मुश्किलसे मिल सकते हैं, यह बात लेखक अपने निजके तजरुबेसे कह सकता है।

पञ्चायतोंके विशेषाधिकार।

अगर कोई पञ्चायत अच्छा काम करे, उसके सरपञ्च और पञ्च विशेष योग्य साबित हों, दरख़्वास्त देनेपर ज़िलेका हाकिम सिफ़ारिश करे तो गवर्नमेंट उस पञ्चायतके अधिकार बढ़ा सकती है। ऐसी पञ्चायतें— [ १६४ ]

(१) पचास रुपये मालियततककी नालिशें सुन सकती हैं।

(२) बीस रुपये तककी क़ीमतकी चीज़ चोरी जानेपर चोरीके जुर्मके दावे ले सकती हैं।

(३) बीस रुपयेके नुक़सान या घाटेके मुआविज़े के मुकद्दमोंकी समात कर सकती हैं।

(४) फ़ौजदारीके और मुक़द्दमोंमें बीस रुपये तक या जो नुक़सान या घाटा हुआ हो उसकी दूनी रक़म तक जुर्माना कर सकती हैं। (५) ऐक्ट मदाखिलत बेजा मवेशीके अनुसार दस रुपये तक और ऐक्ट सफ़ाई और तन्दुरुस्तीके अनुसार दो रुपये तक जुर्मानेकी सज़ा दे सकती हैं।

फुटकर बातें।

मुक़द्दमों और नालिशोंकी फीस, जुर्माने और मुआविजेका रुपया, और ऐसी रक़में जो गवर्नमेंट या और कोई दे, सब पञ्चायतके कोशमें जमा होती रहेंगी। यह रुपया पञ्चायतके हलकेकी सफ़ाई वग़ैरह तथा उसमें रहनेवालोंकी बेहतरीके और कामों—उदाहरणार्थ नालोंपर पुल बनवाने, कुवे और तालाब खुदाने या उनकी मरम्मत कराने, तथा आम रास्तोंकी मरम्मत और सफ़ाई—में खर्च किया जायगा। मगर ख़र्च करनेके पहले हाकिम-ज़िला या पञ्चायत-अफ़सरकी मंजूरी दरकार होगी।

क़ानूनकी रूसे पञ्चायतोंका यह कर्तव्य माना गया है कि वे निश्चित नियमोंके अनुसार अपने हलक़ेमें शिक्षाकी उन्नतिके लिए, लोगोंकी तन्दुरुस्ती क़ायम रखनेके लिए, पानीकी कमी दूर करनेके [ १६५ ]लिए और सर्वसाधारणके काम आनेवाली ज़मीनों और इमारतोंकी मरम्मत वग़ैरहके लिए यथाशक्ति प्रबन्ध करें।

यदि गवर्नमेंट हुक्म दे तो पंचायतोंका यह भी कर्त्तव्य होगा कि वे, जरूरत पड़नेपर, सरकारी उहदेदारों और अहलकारोंको उनके काममें मदद दें। अपने ज़िलेके डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के साथ मिलकर काम करने के लिए भी ये क़ानूनन बाध्य की जा सकती हैं।

ये पञ्चायतें एक प्रकारकी सरकारी अदालतें समझी गयी हैं और इनके पञ्च सरकारी मुलाज़िम (Public Servants) क़रार दिये गये हैं। उनके कामोंमें रुकावट डालने और बेजा दस्तन्दाज़ी करनेवालोंपर मुक़द्दमा चलाया जा सकता है और उन्हें ५०) तक जुर्माने की सज़ा दी जा सकती है।

किसी पंच या पंचायतके ख़िलाफ, उसके किसी कामकी बाबत, न कोई दीवानी कार्‌रवाई की जा सकती है और न कोई फ़ौजदारी मुक़द्दमा ही चलाया जा सकता है। शर्त यह है कि उसने अपने अधिकारोंका बर्ताव नेकनीयती और साफदिलीसे किया हो।

किसी मैजिस्ट्रेटके हुक्मसे फ़ौजदारीके मामलों में पंचायतें मौकेपर तहक़ीकात भी कर सकती हैं और हाकिम-मालके हुक्मसे क़ानून आराज़ीसे सम्बन्ध रखनेवाली जाँच भी कर सकती हैं। अब तो गवर्नमेंट पंचायतोंके अधिकार, दिन-पर-दिन, और भी बढ़ा रही है। उसने अब ऐसे क़ायदे बना दिये हैं जिनके मुताबिक चोरीके मामूली हादसोंकी रिपोर्ट भी चौकीदार पंचायतोंहीको करते हैं। पंचायतें यदि मुनासिब समझती हैं तो पुलिस-स्टेशनके अफ़सरको उसकी [ १६६ ]ख़बर करती हैं और नहीं समझतीं तो नहीं करतीं। दुर्घटनाओंके कारण हुई मौतों और ख़ुदकुशीके मामलोंतककी जाँच अब पंचायतोंहीको, मौक़े पर जाकर, करनी पड़ती है। उन्हें नक़शे मिले हुए हैं। उनकी वे ख़ानापुरी करती हैं और अपनी रिपोर्ट थानेको भेजती हैं। ऐसे मामलोंमें पुलिस सभी तहक़ीक़ातके लिए आती है जब पंचायतें उसके आनेकी ज़रूरत बताती हैं।

यहाँतक लिखी गयी बातोंसे ज्ञात होगा कि ये देहाती पंचायतें बड़े कामकी चीज़ हैं। यदि पंच ईमानदार हों और अपने कर्तव्यका पालन करें तो उनके हलके में रहनेवाले देहातियोंको बहुत लाभ पहुँच सकता है। मुंसिफी अदालतें दस-दस पन्द्रह-पन्द्रह कोस दूर हैं। दस-बीस रुपयेकी नालिशोंके लिए लोग वहाँ जाना, व्यर्थ खर्च करना और जेरबारी उठाना नहीं चाहते। पंचायतोंमें नालिश करनेसे उनका रुपया भी नहीं डूब सकता और अनेक कष्टोंसे भी उनका परित्राण हो सकता है। इसी तरह फ़ौजदारीके मामलोंमें भी पंचायतें निर्बलोंकी बहुत-कुछ रक्षा दुष्टों और हुर्मदोंसे कर सकती हैं। सज़ा पानेके डरसे ऐसे आदमियोंकी शरारतें यदि समूल ही नहीं दूर हो जातीं तो उनका बहुत-कुछ प्रतिबन्ध अवश्य ही हो जाता है।

[जनवरी १९२८]