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लेखाञ्जलि/२—प्राचीन काल के भयंकर जन्तु

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लेखाञ्जलि
महावीर प्रसाद द्विवेदी

कलकत्ता: हिंदी पुस्तक एजेंसी, पृष्ठ ८ से – १४ तक

 


२—प्राचीन कालके भयंकर जन्तु ।

प्राणिविद्या, भूगर्भविद्या, खनिजविद्या, कोट-पतङ्गविद्या आदि जितनी प्राकृतिक विद्यायें हैं उनका अध्ययन करने के लिए प्रत्यक्ष अनुभवकी बड़ी आवश्यकता होती है। केवल पुस्तकोंके सहारे इन विद्याओं का अध्ययन अच्छी नरह नहीं किया जा सकता। इसी से प्रत्येक देशमें अजायबघर और पुराणवस्तु-संग्रहालय स्थापित किये जाते हैं। कलकत्ते में भी ऐसे अजायबघर और संग्रहालय हैं। ऐसे संग्रहालयों में अध्ययनशीलों के सुमीते के लिए भिन्न-भिन्न विद्या- विभागों से सम्बन्ध रखनेवाले पदार्थोंका नया-नया संग्रह दिन-पर-दिन बढ़ता ही रहता है।

पुराण-वस्तु-संग्रहालयों के प्राणिविद्या-सम्बन्धी विभागमें प्रायः सभी जीव-जन्तुओं के शरीरों, और भूगर्भ-विद्या-विशारदों के द्वारा, आविष्कृत प्राचीन समयके जीव-जन्तुओं के कङ्कालों का संग्रह किया जाना है। परन्तु, प्राचीनकालके जन्तुओंके कङ्कालमात्र देखने से

देखनेवालोंको उन जन्तुओंकी आकृतियों और डील-डौलका पूरा पूरा ज्ञान नहीं प्राप्त हो सकता। इस कारण अब विद्वान् और विज्ञानवेत्ता लोग, पुस्तकोंमें लिखे हुए वर्णनोंके अनुसार, कङ्कालोंकी बनावटको आधार मानकर, उन जन्तुओंकी मूर्तियां बनाने लगे हैं।

जर्मनी में हैम्बर्गके पास स्टेलिंजन (Stellingen) नामक एक शहर है। वहां कार्ल हेजनबेक (Carl Hagenback) नामक एक महाशयकी विख्यात पशु-शाला है। इस पशु-शालामें अतिप्राचीन समय के भयङ्कर जन्तुआंकी अनेक मूर्तियां बनवाकर रक्खी गई हैं। जिन जन्तुओंकी ये मूर्तियाँ हैं उनका वंश नाश हो चुका है। अब वे कहीं नहीं पाये जाते। करोड़ों वर्ष पूर्व वे इस पृथ्वीपर विद्यमान थे। जर्मनीके प्रसिद्ध पशु-मूर्तिकार जे० पालेनबर्ग (J. Pallenberg) ने इन मूर्तियोंका निर्माण किया है। ये आश्चर्यजनक मूर्तियाँ सिमेंटकी बनाई गई हैं और एक छोटेसे जलाशयके इर्द-गिर्द-चारों तरफ-रक्खी गई हैं। जलाशयका विस्तार सात-आठ बीघमें है। कुछ मूर्तियाँ पानीके पास ही, तट से लगी हुई झाड़ियोंके भीतर, खड़ी की गई हैं। कुछ पानीके भीतर भी हैं। वे हैं मगरों, घड़ियालों आदि जलचर जीवोंकी। कई मूर्तियोंमें ये जन्तु अपने सजातियों के साथ लड़ते-भिड़ते भी दिखाये गये हैं।

सबसे पहले जो मूर्ति बनाई गई थी वह इगुएनोडन नामके एक जन्तुकी है। यह प्राणी एक प्रकार का तृणभोजी जन्तु था। इसकी लम्बाई बहुधा ८० फुट तक पहुँच जाती थी। उक्त पशु-शाला में इस जन्तुकी लम्बाई कोई ६६ फुट है। यह जीव अब संसारमें

नहीं पाया जाता; इसकी जाति ही नष्ट हो गई है। १८६८ ईसवीमें इसी तरहके और भी कोई पच्चीस नमूने तैयार किये गये थे। जिन कङ्कालोंको देखकर ये नमूने तैयार किये गये थे वे सब बेलजियम देशके वनिसोर्ट नामक स्थानको कोयलेकी खानसे निकले थे। इस जन्तुके चार पैर होते थे। आगेके पैर छोटे और पीछेके बड़े होते थे। प्राणि-विद्या-विशारदोंका अनुमान है कि इस जन्तु को केवल पिछले पैरोंके सहारे भी चलनेका अभ्यास था। इसके अगले पैरोंकी उँगलियाँ कटारके सदृश होती थीं। उनकी लम्बाई १८ इंच तक थी। यह २५ फुट तक ऊंचा उठ सकता था। उस अवस्थामें इसका सिर आस-पासके पेड़ोंकी चोटीसे भी ऊपर निकल जाता था। .

पूर्वनिर्दिष्ट नमूनोंको यथाशक्ति विशुद्ध बनाने की पूरी चेष्टा की गई है। मूर्तिकारने इस कार्यका आरम्भ करनेके पहले इंगलैंडके प्रायः सभी पुराण-वस्तु-संग्रहालयोंको देखा, विज्ञान-विशारदोंसे इस विषयमें सम्मतियां लों और जितने कङ्काल आजतक इस तरहके प्राप्त हुए हैं सबके चित्र बनाये। इसके सिवा न्यूयार्क (अमेरिका) के आश्चर्यजनक पदार्थालयके अधिकारियोंने भी मूर्तिकार को कितने ही बहुमूल्य चित्र और हड़ियोंकी माप आदि देकर उसकी सहायता की। इस प्रकार आवश्यक ज्ञान प्राप्त करके मूर्तिकारने पहले कुछ मिट्टीके नमूने तैयार किये। फिर उन्हें प्रतिष्ठित विज्ञान-वेत्ताओंके पास सम्मतिके लिए भेजा। जिस नमूनेके विषयमें कुछ मत-भेद हुआ उसे तोड़कर उसने दूसरा नमूना बनाया और फिर उसे विद्वानों के

पास अवलोकनार्थ भेजा। जब सब नमूने विशुद्ध स्वीकृत हो गये तब उनके आधारपर सिमेंट की बड़ी बड़ी मूर्तियां बनाई गई।

इन मूर्तियोंमें छिपकलीकी जानिके कई महाभयङ्कर प्राणियोंकी भी मूर्तियाँ हैं। ये प्राणी कोई ५० लाखसे लेकर एक करोड़ वर्ष पहले पृथ्वीपर जीवित थे। इन सबके चार-चार पैर होते थे। इनमेंसे कितने ही जीव इगुएनोडनकी तरह केवल पिछले पैरोंके बल भी चल सकते थे। किन्तु अधिकांश प्राणी चारों पैर ज़मीनपर रखकर ही चलते थे। जब वे ज़मीनपर घूमते थे तब कोई एक वर्ग गज़ भूमि उनके पैरों के नीचे छिप जाती थी। विद्वानोंका अनुमान है कि जल और थल, दोनोंजगह, रहनेवाले प्राचीन समयके जन्तुओं में यही जन्तु सबसे बड़े थे। इनके रूप और आकारमें परस्पर बहुत अन्तर होता था। किसीका चमड़ा चिकना होता था, किसीका ढालके चमड़े की तरह मोटा और सहन। इनमेंसे एक दो शाक-भोजी थे; शेष सब मांस-भोजी। उक्त पशु-शालामें डिप्लोडोकस नामक जन्तुकी भी एक मूर्ति है। उसकी भी लम्बाई ६६ फुट है । इस जन्तुका एक कङ्काल अमेरिका के एक आश्चर्यजनक पदार्थालयमें रक्खा है। यह मूर्ति उसीके आधार पर बनाई गई है। यह कङ्काल १८९६ ईसवीमें मिला था।

प्राणि-विद्याके वेत्ताओंने निश्चित किया है कि डिप्लोडोकसकी पूँछ छिपकलीकी पूँछकी तरह होती थी और खूब मोटी होती थी। उसकी गर्दन शुतुमुर्ग की गर्दनकी तरह लम्बी और लचीली होती थी। बदन छोटा, पर बहुत मोटा होता था। पैर हाथीके पैरोंकी तरह बड़े और मोटे होते थे।
जीवितावस्थामें इन जन्तुओंका वजन ६७५ से ८१० मनतक होता रहा होगा। ये जन्तु जलमें भी रहते थे और आवश्यकता होनेपर थलमें चले आते थे। किन्तु उथले जलमें रहना ये अधिक पसन्द करते थे और घास-पात आदि खाकर जीवन-निर्वाह करते थे। यद्यपि इन जन्तुओं का आकार चतुष्पाद जन्तुओंमें सबसे बड़ा था, तथापि ये आत्मरक्षा करनेमें असमर्थ थे। इसीसे बहुधा इनसे छोटे भी मांसभक्षक जन्तु इन्हें मार डालते थे। इनका मस्तिष्क बहुत छोटा होता था। इसी से शायद ये अपनी रक्षा न कर सकते थे, क्योंकि बड़ा मस्तिष्क आत्मरक्षा करनेकी अधिक शक्ति और अधिक बुद्धि रखनेका प्रदर्शक है।

इन प्रकाण्ड जन्तुओंके नामोंकी कल्पना यद्यपि अलग-अलग भी की गई है, तथापि ये सब एक ही साम्प्रदायिक नामसे अभिहित होते हैं। वह नाम है-दाइनोंसौर (Dionosaur) जो संस्कृतशब्द दानवासुरसे बहुत कुछ मिलता-जुलता है। यह नाम बहुत ही अन्वर्थक है। जीवधारियोंमें, उस समय, ये निःसन्देह असुर या दानव के अवतार थे।

उक्त पशुशाला में एक और जन्तुकी मूर्ति है। उसका नाम स्टेगोसौरस (Stegosaurs) कल्पित किया गया है। यह जन्तु अपनी श्रेणीके जन्तुओंमें सबसे अधिक बलवान् था। इसकी लम्बाई कोई २५ फुट थी। इसकी पीठपर बहुत कड़े छिलके या दायरेसे होते थे। कोई-कोई छिलका, व्यासमें, एक-एक गज होता था। इसकी पूछरर लम्बे-लम्बे आठ कांटे होते थे। इस अदभुत जन्तुके

पन्द्रह बीस कङ्काल एक पहाड़पर अध्यापक मार्शको मिले थे। इन कड़्कालों लोंके दांतोंकी बनावट देखकर विद्वानोंने निश्चय किया है कि ये जीवधारी वनस्पति-भोजी थे।

दाइनोसौर श्रेणीका एक और विलक्षण जन्तु ट्राइसरट्राप (Tricertrop) कहाता है। इस जन्तुकी मी ठठरियां पहाड़ों-पर मिली हैं। इसकी खोपड़ी कोई सात फुट लम्बी है और त्रिकोणावृत्ति है। खोपड़ीकी हड्डीमें भी विलक्षणता पाई जाती है। यहजन्तु कई वातोंमें दरियाई घोड़े और गैंडेसे मिलता-जुलता जान पड़ता है। किन्तु इसमें दरियाई घोड़ेसे एक विशेषता है। वह यह कि इसकी पीठकी हड्डीके टुकड़े गोल हैं और इसके मस्तकपर तीन सींग हैं। इसका भी मस्तिष्क बहुत छोटा होता था। अध्यापक मार्शका मत है कि इसके अङ्गोंकी बनावट बहुत अस्वाभाविक होनेके कारण ही इसकी जाति नष्ट होगई। पशु-शालामें इस जन्तुके दो नमूने रक्खे गये हैं। एकमें यह जन्तु जलाशयके किनारे, पानीके भीतर, खड़ा दिखाया गया है। दूसरेमें वह पानीमें आधा डबा हुआ है।

दाइनोसौर श्रेणी के जन्तुओंकी उत्पत्तिके पहले पृथ्वीपर प्लेसिओसौरियन (Plesiosaurian) अर्थात् एक प्रकारकी सामुद्रिक छिपकलियोंका निवास था। उनकी शकल-सूरत आधी मछली की और आधी सरीस्टपकी थी। उनकी गर्दन लम्बी होती थी और सिर छिपकली के सिरकी तरहका। दाँत घड़ियालके दानोंसे मिलते-जुलते थे। डैने ह्वेल के डैनोंके समान होते थे। वे जलके

भीतर भी तैर सकते थे और उसकी सतहके ऊपर भी। ऊपर तैरते समय वे पास उड़ती हुई चिड़ियोंको लपककर पकड़ लेते और उन्हें निगल जाते थे।

पुराकालके इन भयङ्कर जन्तुओंके, सब मिलाकर, कोई तीस नमूने बनाये और पूर्वोल्लिखित पशु-शालामें रक्खे गये हैं। उनमें कई घड़ियालों, विलक्षण मछलियों और डैनेवाली छिपकलियोंकी भी मूर्तियां हैं। कुछ मूर्तियां जलाशयके जलमें तैरती हुई भी दिखाई गई है।

ऊपर जिन मूर्तियोंका वर्णन किया गया है उनमेंसे अधिकांश मूर्तियां एकसे अधिक संख्यामें तैयार करके अलग भी रख दी गई हैं। कुछ मूर्तियां बड़ी, कुछ छोटी, कुछ म भोले आकारकी हैं। वे सब बेचनेके लिए हैं। जो चाहे खरीद सकता है। प्राणि-विद्या में प्रवीणता प्राप्त करनेके इच्छुकों को इस प्रकारकी मूर्तियाँ देखने और उनके अवयव तथा संगठनका ज्ञान प्राप्त करनेसे बहुत लाभ होता है।

[फरवरी १९२३]