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लेखाञ्जलि/३—एक अद्भुत जीव

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लेखाञ्जलि
महावीर प्रसाद द्विवेदी

कलकत्ता: हिंदी पुस्तक एजेंसी, पृष्ठ १५ से – २२ तक

 


३–एक अद्भुत जीव ।

"जा तस्य हि ध्रुवो मृत्युध्रुवं जन्म मृतस्य च"— यह संसारका अटल नियम है। यह कभी टल नहीं सकता। जो पैदा होता है वह मरता जरूर है। एक भी प्राणी ऐसा नहीं जो मृत्युके पजेसे बच सके। मनुष्य, पशु, पक्षी, कीट, पतङ्ग, सरीसृप, वृक्ष, लता आदि सभी पैदा होते और मरते हैं। परन्तु इस लीलानिकेतन विश्वमें कुछ ऐसे भी अद्भुत जीव हैं जिनकी मृत्यु नहीं होती जो सदा जीवित रहते हैं; अथवा यह कहना चाहिए कि जिनके मरने-जीनेका पता मनुष्य को नहीं। सम्भव है, संसारके पूर्व निर्दिष्ट नियमके अनुसार वे भी जन्म-मरणके जालसे न बचे हों; परन्तु वे कब, किस तरह मरते हैं, यह बात विज्ञान-वेत्ता भी अबतक नहीं जान पाये।

जलाशयोंके पैदेमें एक प्रकारके अत्यन्त सूक्ष्म प्राणी होते हैं। उनके शरीरमें जरा भी जटिलता नहीं होती। उनकी देह सूक्ष्म-कोश-

मय होती है। उसमें अङ्ग-प्रत्यङ्ग बिलकुल नहीं होते। अच्छा, यह कोश होता कैसा है? यह एक अत्यन्त स्वल्प थेली सी होती है, उसमें किसी गाढ़े, पर तरल, पदार्थका एक बिन्दु-मात्र भरा रहता है। कभी-कभी इस थैलीका भी पता नहीं लगता; केवल बिन्दुमय पतला पदार्थ ही देख पड़ता है। यह पदार्थ स्वच्छ और वर्णविरहित होता है। न यह बहुत पतला ही होता है और न जमाही हुआ। हाँ, गाढ़ा अवश्य होता है। जीवनी शक्तिका जैसा विकास इस पदार्थ में देख पड़ता है वैसा अन्यत्र नहीं। जान पड़ता है, मानों जीवनका आदि लीलाक्षेत्र यही है। अँगरेजी में इसे प्रोटोप्लाज्म अर्थात् प्राणिजीवनका मूलतत्त्व कहते हैं। इस प्रोटोप्लाज़्म ही से जीवन का विकास होता है। यदि किसी प्रकार प्रोटोप्लाज्म तैयार किया जा सके तो मनुष्यद्वाग प्राणिजीवन की सृष्टि करना शायद सम्भव हो जाय। योरपके विज्ञानवेत्ताओंने आशा की थी कि रासायनिक प्रक्रियाके द्वारा जैसे अनेक जटिल रासायनिक मिश्रण तैयार किये जा सकते हैं वैसेही प्रोटोप्लाज़्म भी तैयार किया जा सकेगा और उसकी सहायतासे मनमाने पदार्थों में जीवनो शक्ति सञ्चारित की जा सकेगी। परन्तु अनवरत श्रम, उद्योग और गवेषणा करनेपर भी उनकी सभी परीक्षायें अब तक व्यर्थ सिद्ध हुई हैं। अतएव उनकी वह आशा अद्यावधि दुराशा ही बनी हुई है।

विज्ञानवेत्ता पहले समझते थे कि अन्यान्य रासायनिक यौगिक पदार्थों की तरह प्रोटोप्लाज़म भी वैसा ही कोई पदार्थ है। परन्तु उनकी यह धारणा निराधार ज्ञात हुई है। वे जान गये हैं कि इस

पदार्थका रहस्य समझनेमें अबतक उनकी बुद्धि काम नहीं दे सकी। कोई भी वैज्ञानिक इस पदार्थका विश्लेषण करके यह नहीं बता सका कि इसमें किन-किन रसों, तत्त्वों या मूल पदार्थों का योग है। इस विषयमें इसकी जटिलता देखकर बेचारे विज्ञान-विशारदोंकी पैनी बुद्धि भी चक्कर खा रही है।

जीवनके मूलरूपको जीवनकोश कहते हैं। खुर्दबीनके द्वारा देखनेसे मालूम हुआ है कि जीवनकोशमें तैलबिन्दु, श्वेत, सारबिन्दु आदि कई जटिल रासायनिक पदार्थोके कण मौजूद हैं। जीवनकोशके भीतर एक और भी क्षुद्र कोश होता है। वह सूक्ष्मातिसूक्ष्म आवरणसे परिवेष्टित रहता है। उसे अन्तःकोश (Nucleus) कहते हैं। उसके भीतर भरा हुआ पदार्थ और भी रहस्यमय होता है। वह जीवनकोशके रससे कुछ अधिक गाढ़ा होता है। अन्तःकोश के रस या धातु में जिन रासायनिक पदार्थों का मेल या मिश्रण रहता है, वे जीवनकोशके मिश्रणसे बिलकुल ही भिन्न होते हैं। अर्थात् दोनोंमें दो तरहके रस रहते हैं। दोनों की क्रियाशक्ति में भी भिन्नता होती है। विज्ञानवेत्ताओं को पता लगा है कि अन्तःकोशके बीच में कुछ तन्तु-सदृश पदार्थ भी होते हैं।

अन्तःकोशमें जितने पदार्थ होते हैं, वे सभी जीवन के आदि तत्त्व हैं। जीवनकोश, जड़ पदार्थोकी तरह, निर्जीव नहीं होते। उनमें सजीवोंकी सी चेष्टा पाई जाती है। वे भी एक प्रकारके प्राणी हैं। जलाशयोंकी तहमें, कीचड़के ऊपर, इस प्रकारके चेतन-चेष्टा-विशिष्ट एककोशी जीव ढेरके ढेर पाये जाते हैं। वे कई प्रकारके होते

हैं। उनमेंसे सबसे अधिक सरल देहधारी जीवको आमिवा कहते हैं।

आमिवा प्राणि-जगत् की आदिम और निकृष्टतम प्रजा है। वह बड़ा ही अद्भुत जीव है। उसके एक भी अवयव नहीं होता। उसके विषयमें कोई यह नहीं कह सकता कि उसका आकार क्या है। वह गोल होनेपर भी लम्बा होता है। हस्तपाद-विहीन होनेपर भी वह अनेक पाद और अनेक हस्तधारी होता है। निर्मुख होनेपर भी मुखमय कहा जा सकता है। यद्यपि उसके पेट नहीं, तथापि उसके उदरयुक्त होनेमें सन्देह नहीं। उसके नासा नहीं, तिसपर भी उसका सर्वांश नासिकाका काम देता है। मतलब यह कि जिस चेतनाविशिष्ट धातुसे आमिवाका शरीर बना होता है उसका कोई निर्दिष्ट आकार तो नहीं, पर काम वह सभी अवयवों के देता है।

खुर्दबीनमें आंख लगाकर देखनेसे मालूम हुआ है कि आमिवा स्थान-परिवर्तन भी करता है। उसके पैर, पंख, डैने आदि कुछ भी दृग्गोचर नहीं, परन्तु चलता वह अवश्य है। अपने अद्भुत आकार का सङ्कोचन, प्रसारण और परिवर्तन करके आगे बढ़ता या पीछे हटता है। यही उसका चलना है यही उसकी गति है।

आमिवाको काहिली या निष्क्रियता से घृणा है। वह बड़ा ही क्रियाशील प्राणी है और कुछ-न-कुछ किया ही करता है। कभी वह सिकुड़ता, कभी फैलता, कभी लम्बा हो जाता और कभी वर्तुलाकार बन जाता है। कभी वह चक्राकार धारण कर लेता है और कभी तारकाओंके जैसे रूपमें परिवर्तित हो जाता है। वह इतना मायावी

है कि इन्द्रजालके सदृश सैकड़ों आश्चर्यजनक खेल खेला ही करता है। उसके बहुरूपियेपनका यह हाल है कि उसका नन्हा सा शरीर प्रतिक्षण भेष बदलता ही रहता है। कभी-कभी वह अपनी देहसे, कितने ही स्पर्शकारक तन्तु, उँगलियोंकी तरह, बाहर निकाल देता है और फिर उन्हें ज़रा ही देरमें भीतर समेट लेता है।

श्वासक्रियाके लिये आमिवा कीदेहमें कोई अवयव या यन्त्र नहीं। परन्तु उसका श्वासोच्छ्वास-कार्य निरन्तर और अनवरत बराबर चलता रहता है। जलमें जो वायु मिली रहती है उसीसे वह अपने शरीरके सर्वांश-द्वारा आक्सिजन नामक वायु ग्रहण करता है और फिर उसी शरीर हीके द्वारा अंगारक वायुको बाहर निकाल देता है। बस इसी तरह उसका जीवन-यन्त्र सतत चलता रहता है।

आमिवा भिन्न-भिन्न आकार धारण करता हुआ अपने स्थानका परिवर्तन करता रहता है। इस परिवर्तनके समय यदि उसका कोई स्पर्श करनेवाला तन्तु या देहका अंश किसी क्षुद्र उद्भिज या प्राणिज पदार्थसे छू जाता है, तो वह अपनी कोमल देह उस पदार्थकी तरफ़ ठेल देता है। ऐसा करनेसे वह पदार्थ आमिवा की तरल देहज धातु-द्वारा पूर्णरूपसे परिवेष्टित ओर आवृत हो जाता है। अथवा यह कहना चाहिये कि वह पदार्थ उसकी देहके भीतर चला जाता है; वह उसका खाद्य बन जाता है। आमिवा इसी तरह भोजन करता है। कुछ ही देरमें वह ग्रस्त या भुक्त पदार्थ आमिवा की देहके साथ पूर्णतया न सही, आंशिक रूपसे अवश्य ही सम्मिलित हो जाता है। यदि उसका कुछ अंश आमिवाकी देहसे संश्लिष्ट नहीं हो

सकता, तो वह वहां चिपका नहीं रहता; तत्काल ही बाहर फेंक दिया जाता है। मतलब यह कि जितनी खुराक वह हजम कर सकता है, उतनी ही ग्रहण करता है; अवशिष्ट अंश को वह निकाल बाहर करता है। आमिवा के न पेट है, न मुंह। अर्थात् वह आहार्य पदार्थ ग्रहण करने के लिए कोई अङ्ग या अवयव नहीं रखता, तथापि उसकी देहके जिस अंशसे आहार्य पदार्थ छू जाता है वही उसका मुँह हो जाता है और उसीके द्वारा वह उसे अपने पेट या आमाशय में पहुँचा देता है। इस प्रकार आमिवा मुख-विवरहीन होनेपर भी भोजन करता है और उदरदरी-हीन होनेपर भी खाद्यवस्तुको हज़म कर लेता है।

आमिवा विवेक-शक्ति भी रखता है और उसकी वह शक्ति बहुत तीव्र भी होती है। वह खाद्या- खाद्य वस्तुओंको खूब पहचानता है। चलते फिरते समय दैवात् यदि उसकी देहसे बालूका कण, लकड़ी या तृणका कोई टुकड़ा,या और ही कोई अखाद्य वस्तु छू जाय, तो वह तुरन्त पीछे हट आता है; उसे ग्रहण नहीं करता। उस नि:सार पदार्थको एक तरफ छोड़कर वह दूसरी तरफ से आगे बढ़ता है। आमिवाके शरीरसे यदि किसी उत्तेजक या अवसादक पदार्थका संसर्ग किया जाय, तो वह सहम उठता है। वह जान जाता है कि यह पदार्थ मेरे लिए घातक है। अतएव या तो वह उससे मागता है या वहीं निर्जीव सा होकर चुपचाप रह जाता है।

सुभीते के साथ भोजन मिलने और बहुत खा जानेसे आमिवाकी देह शीघ्र ही मोटी-ताजी हो जाती है। पेटके भीतर यथेष्ट भोज्य-

पदार्थो के जाने और हज़म होनेसे शरीरकी पुष्टि और वृद्धि होना अवश्यम्भावी है। पर इस पुष्टि और वृद्धिकी भी सीमा होती है। इसलिए आमिवाका शरीर उस सीमाका उल्लङ्घन नहीं कर सकता। कुछ दिनोंतक बढ़नेके बाद उसकी देहमें एक अद्भुत व्यापार सङ्घटित होता है। उसके कारण ही उसकी शरीर-वृद्धि वहीं रुक जाती है। शरीरके उपचयकी सीमाका अन्त हो जाने पर आमिवा मन्थरगति हो जाता है। उस समय उसके देह-कोशके मध्यभागमें स्थित अन्तःकोश के दो टुकड़े हो जाते हैं। वह दो भागोंमें विभक्त हो जाता है। वे दोनों भाग देहकोशके दोनों ओर अलग-अलग अवस्थित हो जाते हैं। इस परिवर्तनके साथ ही साथ देहकोशका मध्यभाग सङ्कुचित होने लगता है। यह सङ्कोचन क्रम-क्रम से बढ़त जाता है। फल यह होता है कि कुछ समय के उपरान्त यह बिलकुल ही लुप्त हो जाता है और एकके बदले दो देहकोश अस्तित्वमें आ जाते हैं। अर्थात् एकके दो आमिवा हो जाते हैं।

पूर्व-निर्दिष्ट दोनों आमिवा अपने मूलभूत पहले आमिवाके अर्द्धांश होते हैं। अर्थात् उनमें से प्रत्येक आमिवा मूल आमिवाके आधे-आधे अंशके बराबर होता है। ये दोनों आमिवा पहले आमिवा ही के सदृश चलते-फिरते और खाते-पीते हैं। यथासमय बड़े होकर वे भी नई सृष्टि उत्पन्न करते हैं। अर्थात् दोके चार हो जाते हैं। यह क्रम बराबर जारी रहता है और यदि कोई दुर्घटना न हुई, तो चारके आठ, आठके सोलह, और सोलहके बत्तीस हो जाते हैं। उनका वंश-विस्तार इस तरह आगे भी होता ही जाता है। इन

प्राणियोंमें स्त्रीत्व और पुँस्त्व का भेद नहीं होता। सन्तानोत्पादन के लिए वे नर-मादा की योजनाकी अपेक्षा नहीं करते।

अच्छा, तो जब एक अमिवाके दो आमिवा हो जाते हैं तब प्रथम आमिवा क्या नष्ट हो जाता है, अथवा मर जाता है? नहीं, यह बात नहीं। उसका वह अंश अवसन्न नहीं पड़ा रहता। वह अपना नित्य-नैमित्तिक काम भी नहीं बन्द करता। जिस दशामें नया रहता है उसी दशामें पुराना भी। अर्थात् बाप-बेटे तुल्य अवस्था को प्राप्त हो जाते हैं। बेटेके जुदा होनेकी तैयारी होनेपर बापको कुछ शिथिलता ज़रूर प्राप्त हो जाती है; परन्तु वह निष्क्रिय नहीं हो जाता। कुछ-न-कुछ वह फिर भी किया ही करता है। दोनोंके जुदा-जुदा हो जानेपर तो बाप-बेटे अपने-अपने काममें जी-जानसे लग जाते हैं। इनके इस क्रिया-कलाप को देखकर यह सन्देह होता है कि कहीं ये अमर तो नहीं; क्योंकि इनकी मृत्युका दृश्य विज्ञान-विशारदों के देखनेमें नहीं आया। (सङ्कलित)

[अक्टोबर १९२३]