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लेखाञ्जलि/४—अद्भुत मक्खियाँ

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लेखाञ्जलि
महावीर प्रसाद द्विवेदी

कलकत्ता: हिंदी पुस्तक एजेंसी, पृष्ठ २३ से – २७ तक

 


४-अद्भुत मक्खियाँ।

ईश्वरकी सृष्टिमें अनेक जीव-जन्तु ऐसे हैं जिनकी विचित्रताको वृत्तान्त सुनकर आश्चर्यचकित होना पड़ता है। अभी, कुछ ही समय पूर्व, जान जे वार्ड (John J. Ward) नामक एक सज्जन ने एक प्रकारकी अद्भुत मक्खियोंका पता लगाया है। इन मक्खियोंकी विचित्रताका हाल सुनकर प्राणितत्त्व-वेत्ता अवाक रह जाते हैं।

वार्ड साहब कई सालसे अपने बागीचेमें देख रहे थे कि एक नियत समयपर बहुत सी मक्खियां आकर गुलाबके पौधोंपर बैठ जाती हैं। दो चार दिन के भीतर ही ये मक्खियाँ इतनी अधिक हो जाती हैं कि इनसे बागीचेके प्रायः सभी पेड़-पौधे ढक जाते हैं। वार्ड साहब इनको इस बढ़तीपर बड़े चकित हुए। वे अनुसन्धान करने लगे कि एकाएक ये मक्खियां इसी समय यहाँ कैसे आ पहुँचती हैं और इनकी इतनी अधिक वृद्धि इतनी जल्दी कैसे हो जाती है। बहुत दिनोंके बाद वार्ड साहबको इनके विषयमें जो बातें मालूम हुई वे बहुत ही कौतूहल-जनक हैं।

वार्ड साहब कहते हैं कि शरहतु के अन्तिम भाग में ये मक्खियां उनके बागीचेमें आती हैं। इनका आकार साधारण मक्खीसे कुछ छोटा होता है। रङ्ग इनका हरा होता है। बागीचेमें आते ही ये वहां के वृक्षोंके पत्तोंपर अण्डे देने लगती हैं। अण्डोंके साथ ही एक प्रकारका रस निकलता है। इस रस के प्रभावसे अण्डे वृक्षों के पत्तोंपर चिपक जाते हैं। अण्डों का ऊपरी भाग मज़बूत होता है, इसी कारण अधिक-से-अधिक ठण्ढ पड़नेपर भी इन्हें कुछ भी हानि नहीं पहुँचती। वसन्त का प्रारम्भ होते ही अण्डे फूटने लगते हैं। अण्डों से स्त्री-जातीय बच्चे निकलते हैं। इनके पङ्ख नहीं होते। तीन-चार दिनके भीतर ही ये बढ़कर बड़े हो जाते हैं। इन अंडोंसे पुरुष-जातीय मक्खियों नहीं पैदा होतीं। पुरुष-जातीय मक्खियों के न होनेपर भी नई पैदा हुई मक्खियाँ बच्चे जनती हैं। इनके भी बच्चे स्त्री-जाति हीके होते हैं। पर ये अंडों से नहीं, माताके गर्भसे निकलते हैं। इनके भी पङ्ख नहीं होते। वार्ड साहब लिखते हैं कि ये मक्खियां केवल शरहतुके अन्तिम ही भागमें अंडे देती है, और समय में बच्चे पैदा करती रहती हैं। इसके सिवा सबसे बड़ी आश्चर्यकी बात यह है कि पुरुष -जाति की मक्खियों की सहायताके बिना ही इनके बच्चे पैदा होते हैं।

नवजात पक्षविहीन मक्खियाँ ज्योंही चार-पांच दिनोंमें बढ़कर बड़ी हो जाती हैं त्योंही उनके पक्षविहीन स्त्री-जातीय बच्चे पैदा होते

हैं। बड़े हो जानेपर इन बच्चोंसे भी उसी तरह पक्षविहीन स्त्रीजातीय बच्चे पैदा होते हैं। इस प्रकार इनका यह व्यापार निरन्तर जारी रहता है। किन्तु एक स्थानपर जब ये इतनी बढ़ जाती हैं कि इनके रहनेके लिये काफी जगह नहीं रहती, तब इनके गर्मसे पचयुक्त स्त्री-जातीय बच्चे पैदा होते हैं। ये बच्चे उड़कर अन्यत्र चले जाते हैं। वहीं जाकर फिर पङ्खविहीन स्त्री-जातीय बच्चे पैदा करने लगते हैं।

शरहतुके अन्तिम भागमें पक्षविहीन मक्खियोंका एक अन्तिम दल पैदा होता है। वही अंडे देता है। उसके पैदा होनेके बाद ही, कुछ दिनोंमें, एक पुरुष-जातीय दल भी पैदा होता है। पुरुषजातीय मक्खियोंका यह दल वर्षमें एक ही बार उत्पन्न होता है। स्त्री-जातीय मक्खियोंका अंतिम दल, जो अंडे देता है, इसी पुरुष-जातीय दलकी सहायतासे देता है। अंडे देनेके बाद ही इन दोनों दलों की सब मक्खियाँ मर जाती हैं। इनके अडे ही वसन्त-ऋतुके प्रारम्भमें फटते हैं और उनसे निकली हुई स्त्री-जातीय मक्खियाँ क्रमशः अपने-आप ही स्त्री-जातीय पक्षविहीन और पक्षयुक्त बच्चे पैदा करती रहती हैं।

एक प्राणितत्त्व-वेत्ताने हिसाब लगाकर देखा है कि एक-एक मक्खी अपने जीवन-समयमें, अर्थात् कई सप्ताहोंके भीतर, छः,अरब मक्खियोंके जन्मका कारण होती है। विलायतमें हक्सले (Huxley) नामक एक प्राणितत्त्व-वेत्ता हो गया है। उसका कथन है कि एक मक्खीकी दस पीढ़ियोंकी सब मक्खियां यदि इकट्ठी की जा सकें तो उन सबका वज़न इतना होगा

जितना कि साढ़े तीन मनके वज़नवाले ५० करोड़ मनुष्योंका होता है। इस बढ़तीका कुछ ठिकाना है!

ये मक्खियाँ वृक्षों और पौधोंके पत्ते,फल-फल और उनके नवीन-नवीन अङ्कुरों को खाकर अपना जीवन-निर्वाह करती हैं। यदि ये सारी मक्खियां एक साल भी जीवित रहें, तो देशभरमें कहीं कोई उद्भिज वृक्ष और पौधे न रह जायँ। पर, प्रकृति-देवीने इनके नाशका भी उपाय नियत कर दिया है। सब प्रकारके जीव-जन्तु, कीट-पतङ्ग और पक्षी आदि इन मक्खियोंको अपना आहार बनाते हैं। इसप्रकार उनके द्वारा इनकी करोड़ोंको संख्या विनष्ट हो जाती है।

वार्ड साहबने इन मक्खियों के एक प्रबल शत्रुका भी वर्णन किया है। वह एक प्रकारकी बर्र-जातिका कीड़ा है। परन्तु उसका आकार बर्र के आकारसे बहुत छोटा होता है। वह उन हरे रंगकी मक्खियोंका किस प्रकार नाश करता है, सो भी सुन लीजिये—

ये कीड़े अण्डे देनेके समय हरे रंगकी मक्खियोंको ढूँढ़ते फिरते हैं। मक्खियोंको पाकर ये उनमें से एकके ऊपर बैठ जाते हैं। फिर ये उस मक्खीके पेटमें अपनी गर्भनली डालकर उसमें अपना अण्डा रख देते हैं। अण्डे के साथ ही एक प्रकार का विषैला रस निकलकर मक्खी के पेटमें भर जाता है और दो-चार दिनके बाद ही वह उसे मार डालता है। इस प्रकार मरी हुई मक्खियां पेड़ों और पौधों के पत्तों और डालियोंपर पड़ी रहती हैं। कुछ समय बाद बर्र-जातीय कीड़ेका अण्डा फट जाता है और उसमें से बच्चा निकलकर उस हरी मक्खी का मांस खाता रहता है । बड़ा होने पर वह उड़ जाता है। इस प्रकार बर्र-जातीय कीड़े प्रतिदिन हज़ारों मक्खियोंका नाश किया करते हैं।

प्रकृति-देवी यदि इन मक्खियोंकी बढ़ती रोकनेका ऐसा उपाय न करती, तो इनसे देश-के-देश सत्यानाश हो जाते। सब प्रकारके उद्भिज्ज और अनुद्भिज्ज-भोजी प्राणी संसारसे चल बसते और यहां केवल मक्खियों ही मक्खियोंका साम्राज्य हो जाता।

आप अपने देशके टिड्डी-दल होको देखिये। टिड्डियोंका असंख्य समूह जब आता है तव किसानोंके होश उड़ जाते हैं। सैकड़ों कोस- तक खेती और बाग-बगीचे सफाचट हो जाते हैं। जहाँ सघन वृक्षों की गहरी छाया देख पड़ती थी, क्षणभरमें वहीं सूर्यकी किरणोंका प्रखर प्रकाश फैल जाता है। पर इनके नाशका भी प्रबन्ध प्रकृतिदेवी ने कर रक्खा है। सैकड़ों प्रकारके पक्षी, सरीसृप आदि इनको अपना आहार बना लेते हैं।

[जून १६२५]