विकिस्रोत:आज का पाठ/२४ मई
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उन्माद प्रेमचंद द्वारा रचित मानसरोवर २ का एक अध्याय है जिसका प्रकाशन १९४६ ई॰ में सरस्वती प्रेस "बनारस" द्वारा किया गया था।
"मनहर ने अनुरक्त होकर कहा—यह सब तुम्हारी कुर्बानियों का फल है बागी, नहीं आज मैं भी किसी अँधेरी गली में, किसी अँधेरे मकान के अन्दर अपनी अंधेरी ज़िन्दगी के दिन काटता होता। तुम्हारी सेवा और उपकार हमेशा याद रहेंगे। तुमने मेरा जीवन सुधार दिया—मुझे आदमी बना दिया।
वागीश्वरी ने सिर झुकाये हुए नम्रता से उत्तर दिया—यह तुम्हारी सज्जनता है मानू, मैं बेचारी भला तुम्हारी ज़िन्दगी क्या सुधारूँगी, हाँ, तुम्हारे साथ मैं भी एक दिन आदमी बन जाऊँगी।..."(पूरा पढ़ें)