विकिस्रोत:आज का पाठ/२ मई
महादेवी वर्मा रामचंद्र शुक्ल द्वारा रचित हिन्दी साहित्य का इतिहास का एक अंश है, जिसके दूसरे संस्करण का प्रकाशन काशी के नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा १९४१ ई॰ में किया गया।
"महादेवी वर्मा––छायावादी कहे जानेवाले कवियों में महादेवीजी ही रहस्यवाद के भीतर रही हैं। उस अज्ञात प्रियतम के लिये वेदना ही इनके हृदय का भाव-केंद्र है जिससे अनेक प्रकार की भावनाएँ छूट छूटकर झलक मारती रहती हैं। वेदना से इन्होंने अपना स्वाभाविक प्रेम व्यक्त किया है, उसी के साथ वे रहना चाहती हैं। उसके आगे मिलन-सुख को भी वे कुछ नहीं गिनतीं। वे कहती हैं कि––"मिलन का मत नाम ले मैं विरह में चिर हूँ"। इस वेदना को लेकर इन्होंने हृदय की ऐसी ऐसी अनुभूतियाँ सामने रखी हैं जो लोकोत्तर है। कहाँ तक वे वास्तविक अनुभूतियाँ हैं और कहाँ तक अनुभूतियों की स्मणीय कल्पना हैं यह नहीं कह जा सकता। ..."(पूरा पढ़ें)