विवेकानंद ग्रंथावली:ज्ञान-योग/२१ विश्वव्यापी धर्म की प्राप्ति का मार्ग
मनुष्य को ब्रह्म-जिज्ञासी से बढ़कर कोई जिज्ञासा प्रिय नहीं है। चाहे प्राचीन समय में हो वा वर्तमान काल में, मनुष्य का ध्यान जीवात्मा, ब्रह्म वा मनुष्य के भाग्य के विचार से अधिक और विषयों पर नहीं गया है। हम अपने नित्य के झमेलों में कितने ही व्यस्त क्यों न रहें, कभी न कभी हमें विराग हो ही जाता है और हम में परलोक के जानने की इच्छा उत्पन्न होती है। कभी न कभी हमारा ध्यान इंद्रियातीत विषय पर जाता है। परिणाम यह होता है कि हम उसे प्राप्त करने की चेष्टा करते हैं। मनुष्य सदा से परोक्ष के जानने की इच्छा करता आया हैं और अपनी वृद्धि का आकांक्षी रहा है; और जिसे उन्नति वा विकास कहते हैं, वह सदा केवल इसी जिज्ञासा से होता आया है; अर्थात् इस जिज्ञासा से कि मनुष्य का परिणाम क्या है, ब्रह्म क्या है।
जिस प्रकार भिन्न भिन्न जातियों में हमारे सामाजिक झमेले नाना प्रकार के सामाजिक संघटन के रूप में प्रकट हुए हैं, उसी प्रकार मनुष्य के आध्यात्मिक झमेलों से नाना धर्मों का प्रादु- र्भाव हुआ है। जिस प्रकार भिन्न भिन्न सामाजिक संघटन सदा से एक दूसरे से लड़ते झगड़ते आ रहे हैं, वैसे ही यह धार्मिक संघटन भी परस्पर सदा से लड़ते झगड़ते आते हैं। एक प्रकार के सामाजिक संघटनवाले यह समझते हैं कि हम ही को रहने का स्वत्व है। जहाँ तक उनसे हो सकता है, वे निर्बलों के ऊपर अपने उस स्वत्व को काम में लाते रहते हैं। हम जानते हैं कि इस समय ऐसा ही भयानक झगड़ा दक्षिणी अफ्रिका में चल रहा है। इसी प्रकार सब धार्मिक संप्रदाय स्वयं अपना रहने का स्वत्व समझ रहे हैं। और इस प्रकार हम देखते हैं कि धर्म से बढ़कर मनुष्य के कल्याण का हेतु कोई दूसरा नहीं था, पर साथ ही उससे बढ़कर किसी से हानि भी नहीं हुई होगी। मनुष्य में धर्म से बढ़कर कोई दूसरा शांति और प्रेम का उत्पन्न करनेवाला नहीं हुआ है और उससे बढ़कर किसी ने भयानक घृणा भी न उत्पन्न की होगी। न तो धर्म से बढ़कर किसी ने मनुष्य में भ्रातृभाव को दृढ़ किया होगा और न इससे बढ़कर किसी ने मनुष्यों में घोर शत्रुता उत्पन्न की होगी। धर्म के कारण मनुष्यों के हित के लिये जितने दान- सत्र और चिकित्सालय स्थापित हुए, उतने और किसी के कारण नहीं हुए; और न जितना रक्तपात धर्म के कारण हुआ, उतना और हेतु से हुआ होगा। हम यह भी जानते हैं कि सदा से एक और विचार की लहर भी भीतर ही भीतर काम करती आ रही थी। अर्थात् दार्शनिक और धर्मों का तुलनात्मक रीति से अध्ययन करनेवाले ऐसे लोग होते आए हैं, जिनका यह प्रयत्न रहा है और अब भी है कि यह सांप्रदायिक झगड़े और विवाद सब शांत हो जायँ। कुछ देशों के संबंध में तो इन प्रयत्नों से काम चल गया है, पर सारे संसार के संबंध में ये सफलीभूत नहीं हुए।
कुछ ऐसे भी धर्म हैं जो बहुत प्राचीन काल से चले आ रहे हैं; जिनमें वह भाव है कि सब धार्मिक संप्रदाय रहने दिए जायँ; या यह कि सब धार्मिक संप्रदायों के भीतर कुछ अर्थ वा उत्तम विचार छिपे हैं। अतः संसार की भलाई के लिये उनकी आवश्यकता है और उन्हें सहायता देनी चाहिए। आधुनिक समय में भी वही भाव फैल रहा है और यथा समय उसको काम में लाने का उद्योग हो रहा है। इन प्रयत्नों का फल सदा हमारे इच्छानुकूल नहीं हो रहा है कि उनसे पूरा काम चल जाय। नहीं, दुःख की बात तो यह है कि कभी कभी यह देखा जाता है कि हमारा झगड़ा और भी बढ़ रहा है।
अब सिद्धांत की बात को अलग कर दीजिए और विवेक ही से देखिए तो जान पड़ेगा कि सभी बड़े बड़े धर्मों में बहुत बड़ी जीवनदायिनी शक्ति है। कुछ लोग यह कहेंगे कि हो, पर हमें इसका ज्ञान तो नहीं है। पर आपके न जानने से होता क्या है। यदि कोई यह कहे कि मुझे इसका ज्ञान नहीं कि संसार में क्या हो रहा है अतः संसार की बातें हैं ही नहीं, तो यह उसका दोष है। आप लोगों में से जिन्होंने संसार में धर्मों की गति देखी है, यह जानते हैं कि संसार के बड़े धर्मों में एक भी नष्ट नहीं हुआ है; केवल यही नहीं, बल्कि सब बढ़ते जा रहे हैं। ईसाई बढ़ते जाते हैं, मुसलमान बढ़ रहे हैं, हिंदू लोग भी पीछे नहीं हैं और यहूदी लोग भी बढ़ रहे हैं। संसार में चारों ओर सब फैलते जा रहे हैं और उनकी संख्या बढ़ रही है।
केवल एक ही धर्म―संसार का प्राचीन धर्म―जो धुँँधुला पड़ रहा है, वह जरतुश्त का धर्म है―प्राचीन फारसवालों का धर्म है। मुसलमानों के आक्रमण करने के कारण लगभग एक लाख मनुष्यों ने भागकर भारतवर्ष में शरण ली थी और कुछ वहा रह गए थे। जो लोग फारस में रह गए थे, मुसलमानों के अत्याचार से उनका क्षय हो गया और अब उनमें से केवल दस हजार बच रहे हैं। भारतवर्ष में उनकी संख्या अस्सी हजार है, पर वे बढ़ नहीं रहे हैं। इसमें संदेह नहीं कि इसका प्रधान कारण यही है कि वे दूसरों को अपने धर्म में नहीं लेते। और थोड़े से लोग जो भारतवर्ष में रह गए हैं, सगोत्र विवाह की निकृष्ट प्रथा रखते हुए भी बढ़ नहीं रहे हैं। एक इसी धर्म को छोड़कर संसार के सब धर्म जीवित हैं, फैल रहे हैं और उन्नति करते जाते हैं। हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि संसार के बड़े बड़े धर्म बहुत पुराने भी हैं। इनमें से एक भी आजकल का नहीं है और सब धर्म गंगा और फरात नदियों के बीच के देशों से निकले हैं। इन धर्मों में से एक भी न युरोप से निकला है न अमेरिका से; सब धर्म एशिया खंड से निकले हैं। उनका मूल स्थान संसार के उसी खंड में है। यदि आजकल के वैज्ञा- निकों का यह कहना ठीक है कि ‘युक्ततमेऽवस्थानं’ ही कसौटी है, तो इन धर्मों के अब तक रह जाने से प्रमाणित होता है कि वे अब भी बहुतो के काम के हैं। उनके रह जाने का यही कारण है कि उनसे बहुतों का कल्याण होता है। मुसलमानों को देखिए, वे कैसे दक्षिणी एशिया के कुछ देशों में फैलते जा रहे हैं और अफ्रिका में आग की तरह बढ़ रहे हैं। बौद्ध धर्म के लोग सारे मध्य एशिया में फैले जा रहे हैं, यद्यपि मुझे इसका निश्चय नहीं है। उनका प्रसार उसी वेग से हो रहा है जैसे पहले होता था। हिंदू लोग भी यहूदियों की भाँति दूसरों को अपने धर्म में नहीं लेते; फिर भी और जातियाँ धीरे धीरे हिंदू धर्म में घुसती जा रही हैं और उनकी रीति-नीति का अवलंबन करके उनमें आपसे आप मिल रही हैं। आप जानते हैं कि ईसाई धर्म भी फैलता ही जाता है, यद्यपि मुझे निश्चय नहीं है कि यह उस वेग से बढ़ रहा जैसा कि उसके लिए जोर लगाया जाता है। ईसाई धर्मवाले एक बड़ी भूल कर रहे हैं और वही उनके फैलने में बाधक है। वह दोष प्रायः सभी युरोपीय संस्थाओं में है। कलों में सैकड़े नब्बे शक्ति नष्ट हो जाती है; और युरोप में बहुत अधिक कलों का ही काम है। उपदेश करना सदा से एशिया- वालों का काम था। पश्चिम के लोग संघटन का काम अच्छा जानते हैं। वे सामाजिक संस्था, सेना, शासन आदि का काम अच्छा करते हैं; पर जब धर्मोपदेश की बारी आती है, तब वे एशियावालों की बराबरी नहीं कर सकते। एशियावाले सदा से यही करते आ रहे हैं और वे जानते हैं कि उपदेश कैसे किया जाता है। वे बहुत सी कलों से काम नहीं लेते।
मनुष्य जाति के वर्तमान काल के इतिहास में यह एक सच्ची बात है कि संसार के बड़े बड़े धर्म बने हुए हैं, फैलते जा रहे हैं और बढ़ रहे हैं। इसमें एक गूढ़ तत्व है। यदि सर्वज्ञ, दयामय जगत्कर्ता की यही इच्छा होती कि इन धर्म्मों में से एक ही रह जाय और शेष सब नष्ट हो जायँ, तो यह कभी का हो गया होता। यदि यह बात ठीक होती कि इन धर्म्मों में कोई एक ही सच्चा और दूसरे सब मिथ्या है, तो अब तक उसी का राज्य होता। पर सब धर्मों की कभी वृद्धि होती है, कभी ह्रास होता है। अब तनिक इधर ध्यान दीजिए। आपके देश में छःकरोड़ मनुष्य बसते हैं। उनमें केवल दो करोड़ दस लाख भिन्न भिन्न मतों के माननेवाले हैं। अतः यह वृद्धि नहीं है। यदि सब देशों की जन-संख्या पर दृष्टिपात किया जाय तो जान पड़ेगा कि धर्मों में कभी वृद्धि होती है और कभी ह्रास। संप्रदाय सदा बढ़ते जाते हैं। यदि किसी धर्म का यह कथन ठीक होता कि उसमें सत्य ही सत्य है और ईश्वर ने किसी पुस्तक-विशेष में सारे सत्य को लिखकर भर दिया है, तो फिर संसार में इतने धर्म क्यों होते? पचास वर्ष भी नहीं बीतते
और एक ही पुस्तक के आधार पर बीस संप्रदाय उठ खड़े
होते हैं। यदि ईश्वर ने सारी सच्चाई किसी पुस्तक-विशेष में
लिख रखी हो तो उसने हमें वह पुस्तक इस भय से नहीं दी
है कि हम उसके मूल के ऊपर कट न मरें। यह बात सच्ची
जान पड़ती है। कारण यह है कि यदि ईश्वर ने ऐसी पुस्तक
दी होती जिसमें उसने सारी सचाइयाँ भर रखी हैं, तो उससे
काम भी न चलता, कोई उसे समझता तो है ही नहीं। उदा-
हरण के लिये इंजील को और ईसाई धर्म के सारे संप्रदायों
को ले लीजिए। सब एक ही वाक्य का अपना अपना अर्थ करते
हैं और अपने अर्थ को ठीक और दूसरे के अर्थ को भ्रमात्मक
बतलाते हैं। यही दशा अन्य धर्मों को भी है। मुसलमानों में
अनेक संप्रदाय हैं, बौद्धों में भी अनेक मत हैं और हिंदुओं में
तो सैकड़ों संप्रदाय होंगे। अब मैं आपके सामने इन बातों को
इस अभिप्राय से रखता हूँ कि यह वात सिद्ध हो जाय कि
सारे मनुष्यों को एक ही प्रकार के आध्यात्मिक विचार पर
लाने के लिये जब जब प्रयत्न किया गया, तब तब सदा से
विफलता ही होती आई है। यदि कोई मनुष्य कोई सिद्धांत
निर्धारित करता है तो यह देखने में आता है कि जब वह अपने
अनुयायियों से बीस मील पर जाता है,तो उनमें बीस संप्रदाय
हो जाते हैं। आप देखिए कि यह सदा होता ही रहता है।
आप सबको एक ही विचार पर नहीं ला सकते। यह सच्ची
बात है और ईश्वर का धन्यवाद है कि ऐसा ही है। मैं किसी
और मेरी इच्छा है कि वे दिन दूने रात चौगुने होते जायँ।
क्यों? कारण यह है कि यदि आप और मैं और सब लोग
एक ही बात को सोचें, तब तो फिर कोई नया विचार करने को
बचता ही नहीं। हम जानते हैं कि गति को उत्पन्न करने के
लिये दो या अधिक शक्तियों के संघर्ष की आवश्यकता है।
यह विचारों का संघर्ष है, विचारों का भेद है जिससे विचार की
जाग्रति होती है। अब यदि हम सब लोगों का एक ही विचार
हो तब तो हम लोग मिस्र की मोमियाई हो जायँगे, जो चुप-
चाप अजायबघर में पड़ी पड़ी एक दूसरे का मुँह ताका करती
हैं। इसकी तो कुछ बात ही नहीं। भँवर और चक्कर तो बहती
नदी ही में होते हैं। ठहरे पानी में कहीं भँवर नहीं उठते।
जब धर्म मृत धर्म है, तब उसमें संप्रदाय कहाँ से होंगे? भेद
जीवन का चिह्न है। जहाँ जीवन है, वहाँ वह अवश्य रहेगा।
मेरी तो प्रार्थना है कि उनकी वृद्धि हो और अंत को जितने
मनुष्य हैं, उतने ही संप्रदाय हो जायँ। एक एक का मार्ग अलग
हो, प्रत्येक का धार्मिक विचार निराला हो।
पर यह अब भी है। इसमें प्रत्येक अपने ढंग पर विचार करता है। पर यह स्वाभाविक प्रवाह सदा से रोका जाता चला आया है और अब भी रोका जा रहा है। यदि तलवार खुले- आम न चलेगी तो कुछ और रास्ता निकलेगा। तनिक सुनिए कि न्यूयार्क के प्रसिद्ध उपदेशकों में से एक का क्या कथन है। उसका उपदेश है कि फिलिपाइन्सवालों को विजय कर लेना
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चाहिए, क्योंकि बिना इसके उन्हें ईसाई धर्म की शिक्षा नहीं दी
जा सकती। वे इस समय कैथलिक हैं; पर वह उनको प्रेस-
बिटीरियन बनाना चाहता है; इसी लिये यह अपनी जाति
पर इस रक्तपात का घृणित दोष लादना चाहता है। कितनी
भयानक बात है! और वह मनुष्य इस देश के बड़े उपदेशकों
और बहुश्रुतों में गिना जाता है। संसार की दशा को देखिए
कि ऐसे लोगों को ऐसी उद्धत बातें करते लजा नहीं आती;
और यह भी देखिए कि लोग उसकी बातें सुनकर हर्ष से
तालियाँ बजाते हैं! क्या यही सभ्यता है? यह बाघ, राक्षस
या बनमानुष की रक्तपिपासा है जो अवस्थानुसार नया नाम
धारण करके प्रकट हुई है। यह और हो ही क्या सकती है?
भला सोचिए तो सही कि संसार के लिये यह कितनी
भयानक बात है, कि प्राचीन काल में एक संप्रदाय के लोग
दूसरे संप्रदायवालों को जहाँ तक उनसे बन पड़ता, मारने
काटने का प्रयत्न करते थे। यह घटना पूर्वकाल में हो चुकी
है; इतिहास इसका साक्षी दे रहा है। बाघ सो गया है, पर
मरा नहीं है। अवसर मिलने की देर है। बस अवसर मिला
कि वह कूदा और चीरने फाड़ने लगा। तलवार को जाने
दीजिए और हथियारों की बात छोड़िए। यहाँ सारे हथियारों
से भयानक हथियार उपस्थित है―घृणा, सामाजिक विद्वेष,
सामाजिक बहिष्कार। उस समय इनकी चोट कड़ी ही नहीं
भारी भी होती है, जब इनका प्रहार उन लोगों पर होता है जिनके विचार हमारे विचारों से विरुद्ध हैं। सब लोगों के
विचार हमारे ही से क्यों हों? मुझे तो कोई कारण नहीं देख
पड़ता। यदि मैं युक्तिप्रमाण माननेवाला मनुष्य हूँ, तो मुझे
प्रसन्न होना चाहिए कि उनके विचार हमारे से नहीं हैं। मैं
श्मशानवत् स्थान में नहीं रहना चाहता; मैं तो मनुष्य होकर
मनुष्यों के बीच में रहना चाहता हूँ। विचारवान् मनुष्यों में
मतभेद अवश्य रहेगा। विचारमत्ता का पहला लक्षण मतभेद
ही है। यदि मैं विचारवान् मनुष्य हूँ, तो मैं तो विचारवानों में
ही, जहाँ मतभेद है, रहना चाहूँगा।
फिर प्रश्न यह उठता है कि ये सब भेद सत्य कैसे हो सकते हैं? यदि एक बात सत्य है तो जो उसके विरुद्ध है, वह मिथ्या होगी। परस्पर विरुद्ध मत एक ही समय में सत्य कैसे हो सकते हैं? यही प्रश्न है जिसका समाधान करना मुझे अभीष्ट है। पर मैं पहले आपसे यह प्रश्न करूँगा कि क्या संसार के सब धर्म सचमुच परस्पर विरुद्ध हैं? मेरा अभि- प्राय उनके बाहरी रूप से नहीं है, जिसके भीतर बड़े बड़े विचार छिपे हुए हैं। मेरा अभिप्राय मंदिरों से, भाषा से, कर्मकांड से और पुस्तकादि से नहीं है, जिनका काम भिन्न भिन्न मतों में पड़ता है; अपितु मेरा आशय धर्म के भीतरी तत्व से है। प्रत्येक धर्म की आड़ में उसका तत्व है। एक धर्म का वह तत्व दूसरे धर्म के तत्व से विभिन्न हो सकता है, पर क्या वे दोनों
परस्पर विरुद्ध हैं? क्या उनसे औरों का खंडन होता है वा
पूर्ति होती है? जब मैं नितांत बच्चा था, तभी से मेरा विचार
इसकी ओर गया और मैं जन्म भर इसीको विचारता रहा
हूँ। यह समझकर कि मेरे निकाले परिणाम से आपको
भी कुछ सहायता मिलेगी, मैं उसे आपके सामने प्रकट करता
हूँ। मेरा विश्वास है कि वे विरोधी नहीं हैं, वे पूरक हैं।
प्रत्येक धर्म, बड़े व्यापक धर्म के एक अंश को ले लेता है और
उसी अंश को लेकर उसे आकार देने और आदर्श बनाने में
अपना सारा बल लगाता है। यही कारण है कि यह अन्वय
है, व्यतिरेक नहीं है। यही विचार है। मत पर मत उत्पन्न
होते जाते हैं। सबमें कुछ न कुछ महत्वपूर्ण विचार होते हैं
और आदर्श पर आदर्श बढ़ते जाते हैं। मनुष्यता की गति यही
है। मनुष्य मिथ्या से सत्य की ओर नहीं जाता, अपितु
सत्य से सत्य को पहुँचता है; कम सत्य से बड़े सत्य को
पहुँचता है। पर मिथ्या से कभी सत्य की उत्पत्ति नहीं होती।
पुत्र पिता से कितना ही क्यों न बढ़ जाय, इससे क्या पिता
कुछ था ही नहीं? पुत्र में पिता भी है और कुछ और भी है।
यदि आपका ज्ञान इस समय आपके बचपन के ज्ञान से अधिक
है, तो क्या आप बचपन के ज्ञान का तिरस्कार करेंगे? क्या उसे
देखकर यह कहेंगे कि वह कुछ नहीं था? क्यों? आपके वर्त-
मान ज्ञान में बचपन का ज्ञान और कुछ और बात मिली हुई है।
और फिर हम यह भी जानते हैं कि एक ही पदार्थ के
विषय में संभव है, नितांत विरुद्ध मत हो, पर वे सब एक ही
के ज्ञापक हों। मान लीजिए कि एक मनुष्य सूर्य्य की ओर
जा रहा है और ज्यों ही वह आगे जाता है, सूर्य्य की एक एक
प्रतिकृति स्थान स्थान से लेता जाता है। वह आकर सूर्य्य
की बहुत सी प्रतिकृतियाँ हमारे सामने रख देता है। हम
देखते हैं कि कोई दो एक सी नहीं हैं। पर यह कौन कहेगा
कि यह सूर्य्य की प्रतिकृति नहीं है जो भिन्न स्थान से ली गई
है। इसी गिरजे की चार प्रतिकृतियाँ भिन्न भिन्न कोनों से
लीजिए; वे कितनी विभिन्न देख पड़ेंगी। पर वे सब इसी गिरजे
की हैं। इसी प्रकार हमने सत्य को भिन्न भिन्न स्थानों से देखा
है। यह अंतर हमारे जन्म, शिक्षा और संसर्ग आदि के कारण
है। हम सब सत्य को देखते हैं। अवस्थाओं या परिस्थितियों
के अनुसार हम उसे ग्रहण करते हैं। हम उस पर अपने
अंतःकरण का रंग देते हैं, अपनी बुद्धि के अनुसार उसे सम-
झते हैं और अपने मन में उसे धारण करते हैं। हम सत्य को
उतना ही जान पाते हैं जितना हमसे संबंध है, जितना हम
उसके पाने के योग्य हैं। इसी से मनुष्य मनुष्य में भेद पड़ता
है और इसी से कभी कभी विरुद्ध विचार भी उत्पन्न होते हैं;
पर हम सब उसी महान् व्यापक सत्य के साथ संबद्ध हैं।
मेरा अनुमान है कि ये सब भिन्न भिन्न धर्म ईश्वर की नीति में भिन्न शक्तियाँ हैं जो मनुष्य की भलाई के लिये काम कर रही हैं। इनमें से एक भी नष्ट नहीं हो सकती और न किसी
का नाश है। जैसे आप प्रकृति की किसी शक्ति का नाश नहीं
कर सकते, वैसे ही आप इन आध्यात्मिक शक्तियों का भी नाश
नहीं कर सकते। आप जानते हैं और देख चुके हैं कि सब
धर्म ज्यों के त्यों जीते जागते हैं, समय समय पर उनका ह्रास
वा वृद्धि भले ही होती रहे। कभी वे अपने अनेक अवरोधों
को छिन्न भिन्न कर डालते हैं, कभी उनके अवरोध बढ़कर
उनको घेर लिया करते हैं। पर बात एक ही है। तत्व उनमें
भरा रहता है, उसका नाश नहीं होता। वह आदर्श जो प्रत्येक
धर्म अपने सामने रखता है, सदा बना रहता है। अतः सब
धर्म सोच-विचार के साथ आगे बढ़ते जा रहे हैं।
और वह विश्वव्यापक धर्म जिसका स्वप्न दार्शनिक आदि देख चुके हैं, अब तक है। वह यहीं है। जैसे मनुष्यों का विश्वव्यापक भ्रातृभाव अब तक है, वैसे ही विश्वव्यापक धर्म भी है। आपमें कौन ऐसा है जो देश देशांतर गया हो और जिसे सब जातियों में भ्रातृभाव न मिला हो? मुझे तो सारे संसार में भ्रातृभाव ही मिला। सब अपने ही भाई देख पड़े। भ्रातृभाव है, बना है; केवल कुछ लोगों को दिखाई नहीं देता और वे नए भ्रातृभाव के लिये चिल्ला रहे हैं। विश्वव्यापक धर्म भी पहले से है। यदि उपदेशक और धर्माचार्य्य लोग, जिन्होंने अपने सिर भिन्न भिन्न धर्मों के प्रचार का ठेका ले रखा है, थोड़ी देर के लिये प्रचार रोक दें, तो देखिए कि वह मातृभाव प्रकट होता है कि नहीं। वे उसमें सदा बाधा डाला
करते हैं। इसी में उनका लाभ है। आप देखते हैं कि सब देशों
में बड़े बड़े पक्षपाती होते हैं। इसका कारण क्या है? संसार में
बहुत कम ऐसे प्रचारक वा पंडे होंगे जो मनुष्यों के नेता हों।
उनमें अधिकतर लोगों के पीछे जानेवाले और उनके दास
हैं। यदि आप कहें कि सूखा है, तो वे सूखा बतावेंगे; आप कहें
काला है, तो वे काला कहेंगे। यदि लोग आगे बढ़ते हैं तो पुजारी-
पंडे भी आगे बढ़ते हैं। उनका पैर पीछे न रहेगा। अतः पंडों
को दोष देने की जगह―जैसी कि पंडों के सिर दोष देने की
चाल पड़ गई है―अपने आपको दोष देना चाहिए। आप
जिसके पात्र हैं, वही आप पाते हैं। उस उपदेशक की क्या
दशा होगी जो आपको नए और उच्च विचार का ज्ञान दे और
आपको आगे बढ़ावे? उसके लड़के भूखों मर जायँगे और
वह ठिकाने लग जायगा। उसे भी तो संसार में वैसे ही रहना
है, जैसे आप रहते हैं। यदि आप आगे बढ़ेंगे तो वह भी कहेगा
कि आगे बढ़िए। इसमें संदेह नहीं कि ऐसे इने गिने ही लोग
होंगे जिन्हें लोकापवाद का भय न हो। ऐसे लोग सत्य ही को
देखते और सत्य ही का आदर करते हैं। उन पर सत्य का
अधिकार हो गया है; वे सत्य के वश में हैं; उनके लिये लोक है
ही नहीं। उनके लिये तो एक ईश्वर ही है। वही उनके सामने
प्रकाश कर रहा है और वे उसके पीछे जा रहे हैं।
मैं इस देश के एक मोरमन सज्जन से मिला जा। उसने मुझसे अपना धर्म स्वीकार करने के लिये कहा। मैंने उससे कहा
कि मैं आपके विचार का आदर करता हूँ; पर कुछ बातों में
मैं आपके साथ सहमत नहीं हूँ। मैं संन्यासी हूँ, आप बहु-
विवाह के पक्षपाती हैं। पर आप भारतवर्ष में जाकर उपदेश
क्यों नहीं करते? यह सुनकर वह विस्मित हो गया और बोला
कि आप तो विवाह न करने को अच्छा मानते हैं और मैं बहु-
विवाह को अच्छा मानता हूँ; फिर भी आप कहते हैं कि मैं
आपके देश में जाऊँ। मैंने कहा, मैं ठीक कहता हूँ। मेरे देश में
लोग सब धर्मों की बातें सुनते हैं, वे चाहे किसी धर्म के क्यों न
हों। मेरी इच्छा है कि आप भारतवर्ष में जाइए। पहली बात तो
यह है कि मैं वर्णाश्रम को मानता हूँ। दूसरी यह कि भारतवर्ष
में ऐसे भी लोग हैं जो वर्णाश्रम धर्म से तुष्ट नहीं हैं और इसी
असंतोष के कारण उनको धर्म से कोई काम नहीं है। संभव
है कि वे आपकी बातें सुनें। जितने ही संप्रदाय अधिक होंगे,
उतनी ही लोगों की धर्म पर रुचि अधिक होगी। जहाँ दूकान
पर अनेक भाँति के व्यंजन हैं, वहाँ लोग यथा रुचि भोजन कर
सकते हैं। अतः मैं तो यह चाहता हूँ कि संप्रदाय बढ़ते जायँ
और लोगों को धार्मिक होने का अवकाश मिलता रहे। यह
मत समझो कि लोगों की रुचि धर्म पर नहीं है। मैं इसे न
मानूँगा। प्रचारक उन्हें उनकी आवश्यकता के अनुसार उप-
देश नहीं करते। उसी मनुष्य की, जिसे लोग नास्तिक आदि
कहां करते हैं, यदि किसी ऐसे मनुष्य से भेंट हो जाय जो उसकी
आवश्यकता के अनुसार धर्म की शिक्षा दे, तो वही समाज में
हैं। हम अपनी उँगलियों से जैसे उठाकर खा सकते हैं, आप
वैसे उठाकर नहीं खा सकते। आपके लिये भोजन ही की
आवश्यकता नहीं है, अपनी रीति पर खाने की भी आवश्य-
कता है। आपको न केवल आध्यात्मिक विचार की आवश्य-
कता है, अपितु आपकी रीति के अनुसार ही उसके उपदेश
करने की भी आवश्यकता है। आवश्यकता है कि वे आप ही
की भाषा बोलते हों―जो आपकी आत्मा की भाषा है―और
तभी आपको संतोष होगा। जब कोई ऐसा मनुष्य आता है जो
हमारी भाषा बोलता है और हमारी भाषा में सत्य का उपदेश
करता है, तो वह झट हमारी समझ में आ जाता है और हम
उसे स्वीकार कर लेते हैं। यह नितांत सत्य बात है।
अब इससे स्पष्ट है कि संसार में मनुष्यों के नाना भाँति के विचार होते हैं और धर्म का उन पर कैसा प्रभाव पड़ता है। एक मनुष्य दो तीन बातों को लेकर यह कहने लगता है कि मेरे धर्म से सब मनुष्यों को संतोष हो जायगा। वह संसार में ईश्वर के पशु-संग्रहालय (Menagerie) में एक पिंजरा हाथ में लिए जाता है और कहता है कि ईश्वर और हाथी और सब कुछ जो संसार में है, इसी पिंजरे में समा जायँगे। यहाँ तक कि हाथी को चाहे टुकड़े टुकड़े क्यों न करना पड़े, वह इसमें अवश्य आवे। फिर संसार में कोई ऐसा संप्रदाय भी हो सकता है जिसमें कुछ अच्छे विचार हों। वे लोग यह कहेंगे कि सब इसी
के अनुयायी हो जायँ; पर उसमें उनके लिये अवकाश ही नहीं
है। कुछ परवाह नहीं, उनको टुकड़े टुकड़े कर डालो और उन्हें
उसी में जैसे हो, भर दो। यदि वे उसमें न आवें, तो उन्हें बुरा-
भला क्यों कहा जाय? आज तक मुझे कोई ऐसा संप्रदाय वा
उपदेशक नहीं मिला जो तनिक रुककर यह तो पूछता कि भला
इसका कारण क्या है कि लोग हमारी बात नहीं सुनते। इसमें
संदेह नहीं कि वे लोगों को कोसा करते हैं और कहा करते हैं
कि लोग बुरे हैं। पर वे अपने मन में यह नहीं विचारते कि
लोग क्यों मेरी बात नहीं सुनते। मैं उन्हें सत्य क्यों नहीं दिखा
सकता। मैं उनकी भाषा में क्यों नहीं उपदेश करता। मैं उनकी
आँखें क्यों नहीं खोल देता। इसमें संदेह नहीं कि यह उन्हें
समझना चाहिए कि यदि लोग मेरी बातें नहीं सुनते,तो इसमें
मेरा ही दोष है। पर इसमें वे लोगों का दोष बतलाते हैं। वे
अपने संप्रदाय को इतना विस्तृत नहीं बनाते कि सब उसमें
आ सकें।
हम देखते हैं कि इस संकुचित-हृदयताका कारण यही है कि अंग अंगी होने का गर्व करता है, परिमित अपरिमित होने की डींग मारता है। भला एक छोटे संप्रदाय की ओर तो देखिए। अभी सौ दो सौ वर्ष हुए, भ्रमशील मनुष्य के मस्तिष्क से उत्पन्न हुआ है; पर फिर भी यह अभिमान कि मुझे ईश्वर के अनंत सत्य का पूरा ज्ञान है। तनिक इस उद्धत्ता को तो देखिए। कहीं ठिकाना है! यदि इससे कुछ प्रकट होता है तो वह यही कि मनुष्य भी कैसे वृथाभिमानी होते हैं। और इसमें आश्चर्य्य क्या है, यदि उनका यह मान ध्वंस हुआ हो; और ईश्वर की कृपा से वह सदा ध्वंस होता रहेगा। इस संबंध में मुसलमान लोग अच्छे रहे। उनकी गति पग पग में तलवार के बल पर थी―एक हाथ में कुरान था और दूसरे हाथ में तलवार। कुरान पर विश्वास करो वा मरो। और कोई उपाय नहीं। आप इतिहास से जानते होंगे कि उनके धर्म का प्रसार कैसा बिजली की तरह हुआ है। छः सौ वर्ष तक कोई उनकी गति का अवरोध ही नहीं कर सका। फिर वह समय भी आया कि उनको रुकना पड़ा। यही परिणाम और धर्मों का भी होगा, यदि वे उसी मार्ग का अवलंबन करेंगे। हम ऐसे बाल-धी हैं; सदा मानवी प्रकृति को भूल जाया करते हैं। जब हमारा जन्म होता है, तब हम समझते हैं कि हम अलौकिक सफलता लेकर आए हैं; और चाहे कुछ हो, हम अपनी बात नहीं छोड़ते। पर ज्यों ज्यों बड़े होते जाते हैं, विचार बदलते जाते हैं। यही दशा धर्मों की भी है। जब वे प्रारंभिक अवस्था में रहते हैं और कुछ प्रसार हो चलता है, तब उनका यह अनुमान होता है कि थोड़े ही वर्षों में हम सारी मनुष्य जाति को पलट देंगे और मार- काट करते हुए बलपूर्वक अपना अनुयायी बनाते जाते हैं। पर अंत में जब उनको विफलता होती है, तब उनकी बुद्धि ठिकाने आती है। हम देखते हैं कि ये संप्रदाय अपने उद्देश को, जिसके लिये उनका आरंभ हुआ था और जो बड़ा ही लाभ- दायक था, पूरा नहीं कर सके हैं। तनिक सोचिए तो सही, यदि कोई ऐसा धर्मोन्मत्त संप्रदाय संसार भर में फैल गया होता, तो आज मनुष्य को कहाँ ठिकाना मिलता। ईश्वर का धन्यवाद है कि उनको सफलता नहीं मिली। पर फिर भी सब में एक न एक सच्चाई है; प्रत्येक धर्म में कुछ न कुछ विशेषता है―वही उसमें सार है। मुझे एक पुरानी कहानी याद आती है। कुछ राक्षस थे जो नाना भाँति के उपद्रव और मनुष्यों का संहार करते थे; पर उनका नाश नहीं होता था। अंत को एक मनुष्य को इस बात का पता चला कि उनके मन एक चिड़िया में रहते हैं; और जब तक वह विड़िया अछूती है, उनका नाश किसी प्रकार नहीं हो सकता। इस प्रकार हम सबके लिये कोई ऐसी चिड़िया है जिसमें हमारे मन बसते हैं; वही हमारा आदर्श है, वही हमारे जीवन का उद्देश है जिसको हमें पूरा करना है। प्रत्येक मनुष्य ऐसे आदर्श, ऐसे उद्देश का रूप है। चाहे जो कुछ जाता रहे, जब तक वह आदर्श बना है, उस उद्देश पर आघात नहीं पहुँचा है, आपका नाश किसी से न होगा। संपत्ति आवे और चली जाय, पर्वत के समान विपत्ति फट पड़े, पर जब तक आपका आदर्श सुर- क्षित है, आपका नाश किसी से न होगा। आप बुड्ढे क्यों न हो जायँ, आपकी आयु सौ वर्ष की क्यों न हो गई हो, पर यदि आपका मन नवीन और अभिनव बना है, तो आपका नाश कौन कर सकता है? पर जब वह आदर्श चला गया, उस
उद्देश पर आघात पहुँचा, तब आपकी रक्षा नहीं। आपको
कोई बचा नहीं सकता; सारी संपत्ति, संसार की सारी
शक्तियाँ आपकी रक्षा नहीं कर सकतीं। और जातियाँ क्या
हैं, व्यष्टियों के समूह ही तो हैं। जब तक जातियाँ अपने आदर्श
को बनाए हुए हैं, कोई उनका नाश नहीं कर सकता। पर यदि
कोई जाति अपने जीवन के उद्देश को त्याग दे और किसी और
ओर चली जाय, तो उसकी आयु अल्प हो जाती है और वह
जाति नष्ट हो जाती है।
यही अवस्था धर्म की भी है। इस बात से कि सब प्राचीन धर्म अब तक बने हैं, यह सिद्ध होता है कि वे अपने उद्देश को ज्यों का त्यों बनाए हुए हैं, उनका अंतःकरण, उनकी सारी भूलों, कठिनाइयों, विरोधों और उनके ऊपर कितनी ही तहों के चढ़ने के बाद भी हृष्ट पुष्ट है; उनका अंतःकरण धड़क रहा है और वे जीवित हैं। उनका एक भी उद्देश जिसे लेकर वे आए हैं, नष्ट नहीं हुआ है। उस उद्देश को जानना बड़े महत्व का काम है। उदाहरण के लिये मुसलमानी धर्म को लीजिए। ईसाई लोग संसार के किसी धर्म से इतनी घृणा नहीं करते जितनी मुसलमानी धर्म से करते हैं। उनका अनुमान है कि इससे निकृष्ट मत संसार में कोई है ही नहीं। ज्यों ही कोई मनुष्य मुसलमान होता है, सारे मुसलमान हाथ फैलाकर बिना किसी विचार के उसका स्वागत करते हैं। और कोई धर्म ऐसा नहीं करता। यदि कोई अमेरिकन इंडियन मुसलमान हो जाय तो टर्की के सुलतान तक को उसके साथ खाने में कोई आपत्ति न होगी। यदि उसमें बुद्धि है तो उसे किसी पद की प्राप्ति में कोई बाधा नहीं है। इस देश में मैंने कोई गिरजा ऐसा नहीं देखा जहाँ गोरे और हबशी साथ साथ घुटने टेककर प्रार्थना करते हों। तनिक इस पर तो ध्यान दीजिए; मुसलमानी धर्म अपने सारे अनुयायियों को बराबर बनाता है। देखिए; मुसल- मानी धर्म में यही विशेषता है। कुरान में बहुत स्थलों में अनेक विषयों को बातें पाई जाती हैं। पर इसकी कोई चिंता नहीं। मुसलमानी धर्म संसार में जो उपदेश करता है, वह यही अपने धर्मवालों का स्पष्ट भ्रातृभाव है। यही मुसलमानी धर्म का मुख्य मार्ग है; और सारी बातें जो स्वर्गादि के विषय में हैं, वे मुसलमानी धर्म नहीं हैं। वे सब बढ़ावे की बातें हैं।
हिंदुओं में भी एक जातीय भाव है। वह आध्यात्मिकता है। संसार के किसी धर्म में, किसी धर्म-पुस्तक में ईश्वर के लक्षण करने पर इतना श्रम नहीं किया गया है। उन लोगों ने आत्मा का ऐसा लक्षण करने का प्रयत्न किया है कि किसी सांसारिक संसर्ग से उसका नाश नहीं हो सकता। आत्मा ईश्वरी है; और आत्मा के स्वरूप को समझकर उसे शरीर न जानना चाहिए। वही अद्वैत का भाव, ईश्वर का साक्षात्कार, सर्व- व्यापक के विचार का सर्वत्र उपदेश किया गया है। उनका विचार है कि यह बात कि वह स्वर्ग में है और अन्य सारी बातें प्रलाप मात्र हैं। यह सब केवल मनुष्यों के विचार हैं कि सब को मनुषयों ही का रूप दे रखा है। स्वर्गादि जो पहले थे, वे अब भी हैं और यहीं हैं। ये न तो सिद्धांत के मानने की, न उस पर विश्वास करने की और न कहने की बातें हैं। यदि ईश्वर है तो क्या आपने उसे देखा है? यदि आप कहें―'नहीं' तो आपको उसपर विश्वास करने का अधिकार क्या है? यदि आपको संदेह है कि ईश्वर है वा नहीं, तो उसे देखने का प्रयत्न आप क्यों नहीं करते? फिर आप संसार को छोड़ क्यों नहीं देते और अपना सारा जीवन इसी पर क्यों नहीं लगाते हैं? त्याग और आध्यात्मिकता भारतवर्ष के दो बड़े भाव हैं; और यही कारण है कि इन दोनों भावों से उसके सारे दोषों की गिनती कुछ नहीं मानी जाती।
ईसाइयों में भी प्रधान बात, जिसका उपदेश है, वही है; अर्थात् जागते रहो और प्रार्थना करते रहो, क्योंकि स्वर्ग का राज्य आनेवाला है। इसका आशय यही है कि अपने मन को शुद्ध करो और उद्यत रहो। आपको स्मरण होगा कि ईसाई लोग यहाँ तक कि घोर अंधकार के समय में,अत्यंत पक्षपातपूर्ण ईसाई देशों में सदा भगवान् के आने के लिये दूसरों की सहा- यता करके, चिकित्सालय आदि बनवाकर अपने को उद्यत रखने का प्रयत्न करते रहे हैं। जब तक ईसाई लोग यह आदर्श बनाए हुए हैं, उकना धर्म बना है।
अब मेरे मन में एक और आदर्श आ रहा है। संभव है कि वह स्वप्न की बात हो। मैं नहीं जानता कि कभी संसार में लोग इसे साक्षात् करेंगे वा नहीं। पर फिर भी कभी कभी अच्छे स्वप्न देखना भी सूखी सच्ची बातों पर प्राण देने से शुभ ही होता है। महान् सत्य यदि स्वप्न में भी हो तो बुरी सच्ची बातों से तो अच्छा ही है। अतः हमें, स्वप्न ही सही, देखना चाहिए।
आप जानते हैं कि संसार में भिन्न भिन्न प्रकार के मनुष्य होते हैं। संभव है कि आप सचमुच युक्ति-प्रमाणवादी हो; आप भेद और रीति को न मानते हों; आपको बुद्धिग्राह्य, ठोस और सच्ची बातें चाहिएँ और उन्हीं से आपको संतोष है। फिर संसार में प्योरिटन (Puritan) और मुसलमान भी तो हैं। वे अपने मंदिरों में किसी चित्र वा प्रतिमा को जाने देना भी नहीं चाहते। बहुत अच्छा। पर एक और भी मनुष्य है जो बड़ा चित्र- कार है। उसे चित्रकारी की बहुत अधिक आवश्यकता है― जैसे रेखाओं की, वलय की, रंगों की, फूलों की और रूपों की सुंदरता की। उसे ईश्वर के दर्शन के लिये दीपक, प्रकाश और अन्य कर्मकांड से बँधे उपाकरणों की आवश्यकता है। उसके मन में ईश्वर उन्हीं रूपों में दिखाई पड़ता है, जैसे आप उसे अपनी बुद्धि से देखते हैं। उसमें और किसी ईश्वर का भाव ही नहीं है। वह ईश्वर को पूजना और उसकी स्तुति मात्र करना जानता है। फिर संसार में दार्शनिक लोग भी हैं, जो सबसे, न्यारे हैं। वे सब का ठट्ठा करते हैं। उनका विचार है कि ये लोग कैसे मूर्ख हैं, ईश्वर को क्या समझा रहे हैं।
वे लोग एक दूसरे पर भले ही हँसें, पर संसार में सब के लिये स्थान हैं। भिन्न भिन्न विचारों और भिन्न भिन्न रीतियों का होना आवश्यक है। यदि कभी कोई आदर्श धर्म होनेवाला है, तो उसे विस्तृत होना चाहिए; उसमें इतना अवकाश होना आवश्यक है कि सब विचारवालों को उसमें अनुकूल स्थान मिल सके। उसमें दार्शनिकों को दर्शन की शक्ति मिल सके, उपासकों के मन में श्रद्धा उत्पन्न हो, कर्मकांडियों को उचित क्रियाकलाप मिले, पूजा करनेवालों को उचित प्रतीक मिले, और कवियों के लिये अपनी प्रतिभा दिखलाने की सामग्री रहे; और जिसे जो चाहिए, उसमें सब मिल सके। ऐसा विस्तृत धर्म बनाने के लिये हमें उस समय में जाना पड़ेगा जब सारे धर्मों का आरंभ हुआ था और उनकी सब बातों को एकीभूत करना पड़ेगा।
हमारा मूल मंत्र अन्वय होना चाहिए, व्यतिरेक नहीं। “गंगा गए गंगानाथ, यमुना गए यमुनाथ” न करना चाहिए। हाँ हाँ करना बुरी बात है। मैं इसे नहीं मानता। मैं तो अन्वय करने का पक्षपाती हूँ। मैं हाँ में हाँ क्यों मिलाऊँ? इसका तो अभिप्राय यही है कि मैं समझता हूँ कि आप भ्रम में हैं, और मैं आपको उसी में रहने देना चाहता हूँ। क्या यह अनुचित नहीं है कि हम और आप एक दूसरे को भ्रम में पड़ा रहने दें? मैं सभी प्राचीन धर्मों को मानता हूँ और सब का आदर करता हूँ। मैं तो ईश्वर को सबके साथ जिस रूप में वे पूजें, पूजता हूँ। मैं मुसलमानों के साथ मसजिद में जाऊँगा, ईसाइयों के साथ गिरजे में जाऊँगा और क्रास के सामने घुटने टेकूँगा; मैं बौद्धों के मंदिर में भी जाऊँगा और बुद्ध और धर्म की शरण को प्राप्त हूँगा। मैं जंगल में जाऊँगा और हिंदुओं के साथ बैठूँगा जो उस प्रकाश को देखने के लिये प्रयत्न कर रहे हैं जो प्रत्येक हृदय में प्रकाशमान हो रहा है।
मैं न केवल यही करूँगा अपितु उन सबके लिये जो भविष्य में आनेवाले हैं, अपने हृदय में अवकाश रखूँँगा। क्या ईश्वर की पुस्तक पूरी हो गई है वा अब भी साक्षात्कार होता जा रहा है? यह अद्भुत पुस्तक है―संसार का श्रृंखलाबद्ध साक्षात्कार। इंजील, कुरान, वेद और दूसरे पवित्र धर्मग्रंथ केवल उसके थोड़े से पन्ने हैं; अभी असंख्य पन्ने बंद पड़े हैं। मैं उन्हें सबके लिये खोल दूँँगा। मैं वर्तमान काल में खड़ा हूँ, पर अपने को भविष्य में प्रकट करूँगा। मैं उन सबको जो पहले के हैं, ले लूँगा, वर्तमान काल के प्रकाश से लाभ उठाऊँगा और अपने अंतःकरण की एक एक खिड़की को उनके लिये खोल रखूँँगा जो भविष्य में आनेवाले हैं। नमस्कार है प्राचीन काल के धर्माचार्य्यों को, नमस्कार है इस समय के महापुरुषों को और नमस्कार है उनको जो भविष्य में होनेवाले हैं।