विवेकानंद ग्रंथावली:ज्ञान-योग/२२ विश्वव्यापी धर्म का आदर्श

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(२२) विश्वव्यापी धर्म का आदर्श।
(भिन्न भिन्न विचारों और रीतियों का इसमें कैसे समावेश रहे)

हमारी इंद्रियाँ जहाँ तक पहुँचती हैं, हम अपने मन में जिन बातों को सोच सकते हैं, सर्वत्र हमें दो शक्तियाँ परस्पर विरुद्ध काम करती देख पड़ती हैं। उन्हीं की करतूत हमें संसार के सब कर्मों में दिखाई पड़ती है। सब उन्हीं से उत्पन्न हुए हैं। बाह्य जगत् में परस्पर विरुद्ध शक्तियाँ आकुंचन और संप्रसारण वा ऊर्ध्वगामिनी और अधोगामिनी शक्तियाँ कह- लाती हैं; और आभ्यंतर जगत् में उन्हीं के नाम प्रेम, घृणा, शुभ, अशुभ आदि हैं। हम एक से राग करते हैं, दूसरे से द्वेष करते हैं। कभी एक को हमसे राग होता है, दूसरे को द्वेष होता है। हम देखते हैं कि हमें कभी कभी अपने जीवन में अका- रण किसी से राग उत्पन्न हो जाता है। फिर दूसरे समय दूसरों से द्वेष भी होता है। यही सबकी दशा है। जितना ही जिसको अधिक काम पड़ता है, उतना ही इन शक्तियों का उस पर प्रभाव भी अधिक पड़ता है। मनुष्य के विचार और जीवन की सर्वोच्च भूमि धर्म है; और हम देखते हैं कि धर्म में इन दोनों शक्तियों के कर्म बड़े ही अद्भुत होते हैं। सबसे गाढ़ा प्रेम जिसका बोध कभी मनुष्य को हुआ है, धर्म से उत्पन्न हुआ है। और सबसे घोर पैशाचिक घृणा जिसका अनुभव मनुष्य जाति को कभी हुआ है, धर्म से उत्पन्न हुई है। अति [ १३२ ]मनोहर शांति का शब्द जो मनुष्य जाति को कभी सुनाई पड़ा है, वह धर्म की भूमि के लोगों के मुँह से सुनाई पड़ा है; और अत्यंत कटु वाक्य भी यदि कभी मनुष्य जाति के सुनने में आया होगा, तो वह भी धार्मिक लोगों ही के मुँह से सुनाई पड़ा होगा। किसी धर्म के आशय जितने ही ऊँचे हैं, जितने ही सूक्ष्म उसके संविधान हैं, उतने ही अधिक अपूर्व उसके व्यव- साय भी होते हैं। मनुष्य के किसी और उद्देश से संसार में उतना रक्तप्रवाह नहीं हुआ है, जितना कि धर्म से हुआ है। पर साथ ही इतने चिकित्सालय, धर्मशालाएँ और अनाथालय आदि भी और उद्देशों के कारण नहीं खुले होंगे। मनुष्य के किसी और भाव से, मनुष्य की तो बात क्या है, जीव जंतु तक की रक्षा का भी उतना काम कभी न हुआ होगा जितना धर्म से हुआ है। धर्म से बढ़कर न कोई क्रूर बना सकता है और न दयालु। ऐसा प्राचीन काल से होता आया है और संभवतः भविष्यत् में भी ऐसा ही होता जायगा। फिर भी धर्म और संप्रदायवालों के इस कलकल कोलाहल, इस मारकाट, इस लड़ाई-झगड़े, इस ईर्ष्या और घृणा में समय समय पर एक प्रबल शब्द उन सबको बाता हुआ होता आया है जो एक छोर से दूसरे छोर तक सुनाई पड़ता है कि शांति धारण करो, समता का अवलंबन करो। क्या यह शब्द सदा आता रहेगा?

क्या यह संभव है कि इस पृथ्वी पर जहाँ घोर धार्मिक युद्ध मचा हुआ है, कभी अविछिन्न शांति का प्रसार हो, [ १३३ ]सकेगा? इस शताब्दी के अंतिम भाग में संसार में साम्य भाव का प्रश्न उत्पन्न हुआ है। समाज के लिये नए ढंग सोचे गए और उन्हें काम में लाने के लिये अनेक प्रयत्न हुए; पर यह हम जानते हैं कि यह काम कितना कठिन है। जीवन में जो झमेले हैं, उन्हें मिटाना और मनुष्यों की दुर्बलताओं को दबाना लोगों को असंभव जान पड़ता है। यदि संसार में व्यवहार की दशा में शांति और समता का स्थापन करना, जो बाह्य, स्थूल और ऊपरी अवस्था है, इतना कठिन है तो मनुष्य के आभ्यं- तर पर शांति और साम्य भाव स्थापित करना तो इससे सहस्र-गुणा कठिन है। मैं आपसे अनुरोध करूँगा कि थोड़े समय के लिये शब्द के जाल से बाहर निकल आइए और तनिक सोचिए तो सही कि हम लोग बचपन से ही प्रेम, शांति, दान, समदर्शिता और विश्वव्यापी भ्रातृभाव के नाम सुनते आ रहे हैं, पर वे आज तक हमारे लिये अर्थरहित शब्द- मात्र बने रहे हैं। हम उन्हें तोतों की भाँति बिना उनके वाच्यार्थ को समझे हुए कहते आ रहे हैं। ऐसा करना हमारे लिये सहज हो गया है। हम इसे छोड़ नहीं सकते। महात्माओं ने, जिनके हृदय में पहले पहल उत्तम भाव उदय हुए, इन शब्दों की रचना की और तब से अनेकों ने उनके वाच्यार्थों को समझा। उनके पीछे मूखौं ने उन शब्दों को ले लिया और धर्म केवल शब्दों का खेल बन गया, उस कर्तव्य का विषय नहीं रहा। यह हमारे बापदादों का धर्म है, यह हमारा जातीय धर्म [ १३४ ]है, यह हमारा देशधर्म है, इत्यादि हम कहा करते हैं। धर्म का रखना एक प्रकार की देशभक्ति हो गई है और भक्ति एकदेशी हुना करती है। धर्म में समता का लाना सदा से कठिन काम रहेगा। पर फिर भी हम धर्म की इस समता पर विचार करेंगे।

हम देखते हैं कि सब धर्मों में तीन बातें हैं। यहाँ मेरा अभिप्राय संसार के बड़े बड़े सर्वमान्य धर्मों से है। उनमें सबसे पहले तो दर्शन का अंश है, जिसमें उस धर्म का सारा तात्पर्य्य है; जैसे उसके मूल सिद्धांत, उद्देश और उसकी प्राप्ति के साधन। दूसरा अंश पुराण है। वह स्थूल रूप में दर्शन ही रहता है। उसमें महात्माओं, देवताओं और ऋषियों आदि की कथाएँ होती हैं। उसमें दर्शनों के सूक्ष्म तत्व का स्थूल रूप में देव, ऋषि और महापुरुष आदि की प्रायः कल्पित कथाओं के द्वारा वर्णन होता है। तीसरा अंश कर्मकांड है। यह और स्थूल होता है। इसमें आचार, संस्कार, उपासना की पद्धतियाँ जैसे धूप, दीप, पुष्प, चंदन, मुद्रादि जिनसे देखनेवालों पर प्रभाव पड़ता है, रहा करते हैं। यह सब क्रिया-कलाप की बातें हैं। आपको ज्ञात होगा कि सर्वमान्य धर्मों में यही तीनों अंश वर्तमान हैं। अंतर यही है कि किसी में किसी की प्रधानता है, किसी में किसी की है। अब हम पहले दर्शन के ही अंश पर विचार आरंभ करते हैं। क्या कोई विश्वव्यापी दर्शन है? उत्तर यही है कि अब तक तो नहीं है। प्रत्येक धर्म के सिद्धांत न्यारे न्यारे हैं और वे उन्हीं को सत्य बतलाते हैं। वे न केवल इतना ही कहते हैं, [ १३५ ]अपितु उनका विश्वास है कि जो इनकी बातें नहीं मानता, वह नरक में पड़ेगा। कितने तो दूसरों को मनवाने के लिये तलवार लेकर खड़े हो जाते हैं। इसका कारण दुष्टता नहीं है, अपितु यह मस्तिष्क का एक विशेष रोग है जिसे धर्मोन्माद कहते हैं। ये धर्मोन्माद रोग-ग्रस्त लोग बड़े सच्चे होते हैं। ऐसे सच्चे कम मनुष्य मिलते हैं। पर दुःख इतना ही है कि जैसे अन्य पागल संसार में अपने उत्तरदायित्व को नहीं समझते, वैसे इन्हें भी उसका बोध नहीं है। यह धर्मोन्माद का रोग सारे रोगों से अत्यंत दारुण रोग होता है। इससे मनुष्य की प्रकृति के सारे दुर्गुण जाग्रत हो जाते हैं। क्रोधाग्नि प्रज्वलि हो उठती है, नाड़ियों में रक्त का प्रवाह उबलने लगता है और मनुष्य पशु वा हिंसक जंतु बन जाता है।

क्या पुराणों में एकता है? क्या सबके पुराणों की बातें मिलती जुलती हैं? क्या कोई ऐसा भी पुराण है जिसकी बातें सब धर्मवाले मानते हों? इन प्रश्नों का उत्तर यही है कि ऐसा कहीं नहीं है। सब धर्मवालों के पुराण अलग अलग हैं। भेद यही है कि सब यह कहते हैं कि हमारी कथाएँ सत्य हैं। हम इस बात को उदाहरण से स्पष्ट करना चाहते हैं। उदाहरण से मेरा अभिप्राय किसी का खंडन करना नहीं है। ईसाइयों का विश्वास है कि ईश्वर पंडुक का रूप धारण करके पृथ्वी पर आया। वे इस कथा को सत्य मानते हैं; और पुराणों की बातें नहीं मानते। हिंदुओं का विश्वास है कि गौ ईश्वर का रूप है। [ १३६ ]ईसाई कहते हैं कि ऐसा मानना पुराण की मिथ्या बात है; इति- हास की बात वा सत्य नहीं, अंध-विश्वास की बात है। यहू- दियों का विश्वास है कि यदि कोई मंजूषा की आकृति की ऐसी प्रतिमा बनाई जाय जिसके दोनों ओर देवदूत बने हों, तो वह पवित्र से पवित्र स्थान में भी रखी जा सकती है; वही जेहोवा के लिये है। पर यदि किसी सुंदर स्त्री वा पुरुष की आकृति की प्रतिमा है, तो वे उसे त्याज्य बताते हैं और तोड़ डालने को कहते हैं। यही हमारे पुराणों की एकता है। यदि कोई खड़ा होकर यह कहता है कि हमारे धर्माचार्य्य ने अमुक अमुक बातें कीं, तो दूसरे यह कहने को झट उठ पड़ते हैं कि 'यह अंध विश्वास मात्र है'। पर वे यह नहीं सोचते कि जब वे अपने धर्माचार्य्य के संबंध में उससे भी अद्भुत अद्भुत बातों का करना वर्णन करते हैं, तब उन्हें ऐतिहासिक क्यों समझते हैं। इतिहास और पुराण में इन लोगों ने क्या अंतर समझ रखा है? जहाँ तक लोग मुझे मिले हैं, किसी की समझ में आज तक यह बात नहीं आई है। ऐसी कथाएँ चाहे जिस धर्म की हों, सच- मुच कल्पित हैं। शायद ही उनमें कभी दैवयोग से इतिहास की कुछ चाशनी आ गई हो तो आ गई हो।

तदनंतर कर्मकांड पाता है। एक संप्रदाय में एक प्रकार के कर्म होते हैं। वह उन्हें पवित्र समझता है और दूसरों के कर्म को अंध विश्वास बतलाता है। यदि एक संप्रदाय में प्रतीक विशेष की पूजा होती है, तो दूसरे उसे बुरा और जघन्य बत[ १३७ ]लाते हैं। उदाहरण के लिये एक साधारण प्रतीक को ले लीजिए। लिंग का प्रतीक एक स्पष्ट अंग है; पर उसके मुख्य अभिप्राय का बोध अब जाता रहा है और अब वह कर्ता (ईश्वर) का एक प्रतीक मात्र रह गया है। जो लोग इस प्रतीक की उपासना करते हैं, वे उसे लिंग कभी नहीं समझते। उनके लिये वह प्रतीक है और बस इतना ही। पर दूसरी जाति का पुरुष उसे लिंग समझता और उसकी निंदा करता है। पर साथ ही वह स्वयं ऐसा काम करता है जो लिंग-पूजकों को घृणित जान पड़ता है। हम उदाहरण की दो बातें लेते हैं। एक तो लिंग की और दूसरी ईसाइयों के प्रसाद वा सेक्रामेंट (Sacrament) की। ईसाइयों के मत से लिंगपूजा घृणित है और हिंदुओं के विचार से प्रसाद वा सेक्रामेंट घृणित कर्म है। उनका कथन है कि ईसाइयों का प्रसाद-भक्षण पैशाचिक कृत्य है, क्योंकि वे मनुष्य को मारकर उसके सद्गुणों की प्राप्ति के लिये उसका मांस खाते और रक्तपान करते हैं। कोई कोई जंगली जातियाँ अब तक यही करती हैं। यदि कोई वीर पुरुष होता है, तो वे उसे मार डालती हैं और उसका कलेजा खाती हैं। उनकी धारणा है कि इससे उस मनुष्य के साहस और पराक्रम हममें श्रा जायँगे। सर जान लबक सरीखे पक्के ईसाई भी इसे स्वीकार करते हैं और कहते हैं कि ईसाई धर्म के इस विचार का मूल यही जंगलियों का विचार है। इसमें संदेह नहीं कि ईसाई इस विचार को, जो उसके कारण के संबंध में है, नहीं [ १३८ ]मानते। इसका अर्थ ही उनकी समझ में नहीं आता। यह एक पवित्र पदार्थ का प्रतीक है वा उसके लिये आता है, बस इतना मात्र वे जानना चाहते हैं। अतः कर्मकांड में भी कोई विश्वव्यापी प्रतीक नहीं है जिसे सब लोग मानते और स्वीकार करते हों। फिर विश्वव्यापकता कहाँ रही? फिर विश्व मात्र में एक धर्म का होना कैसे संभव है? पर वह है और अब तक है। अब हम देखते हैं कि वह क्या है।

हम सब विश्वव्यापी भ्रातृत्व की बातें सुनते हैं। समाज एक मात्र इसी का उपदेश करने के लिये बनते हैं। मुझे एक पुरानी कहानी याद आती है। भारतवर्ष में मद्य पीना बड़ा पाप समझा जाता है। दो भाई थे। दोनों ने मिलकर एक बार रात को छिपकर मद्य पीना चाहा। उनका चचा जो बड़ा ही कट्टर हिंदू था, पास की कोठरी में सोता था। इसी भय से पीने के पहले उन लोगों ने परस्पर यह कहा कि भाई, हम बोलें नहीं; नहीं तो चचा जाग जायँगे। जब मद्यपान हुआ, तब भी वे दोनों परस्पर यही कहते रहे―चुप रहो, नहीं तो चचा जाग जायँगे। और यही बात वे एक दूसरे को चुप कराने के लिये बार बार कहते रहे। उनका चिल्लाना बढ़ता गया और उनका चचा जाग उठा और जहाँ वे दोनों थे, आया और सारा भाँड़ा फूट गयो। हम लोग मद्यपों की भाँति विश्वव्यापी भ्रातृभाव का नाम लेकर चिल्ला रहे हैं। “हम सब बराबर हैं, आओ हम लोग एक संप्रदाय खड़ा करें।” ज्यों ही आप संप्र[ १३९ ]दाय खड़ा करते हैं, आप साम्यवाद के विरुद्ध हो जाते हैं। फिर तो समता नाम को भी नहीं रह जाती। मुसलमान विश्व- व्यापी भ्रातृभाव का उपदेश करते हैं, पर उसका सचमुच क्या फल हुआ? जो मुसलमान नहीं है, वह भ्रातृभाव में क्यों नहीं लिया जाता? उसका वे लोग गला क्यों काटते हैं? ईसाई विश्वव्यापी भ्रातृभाव की बातें करते हैं; पर जो ईसाई नहीं है, उनके विचार से वह वहाँ जाता है, जहाँ वह सदा आग में जलता रहेगा।

अच्छा चलो, हम लोग संसार में विश्वव्यापी भ्रातृभाव और साम्यवाद को चलकर ढूँढ़ें तो सही। पर मेरी यह बात मानना कि जहाँ कहीं तुमको ऐसी बातें सुनाई दें, चुपचाप दूर खड़े रहना और उनसे बचना; क्योंकि ऐसी बातों की ओट में प्रायः घोर स्वार्थ छिपा रहता है। जाड़े के दिनों में जब बादल होता है, तब गरजता बहुत है पर बरसता कुछ नहीं; पर बरसात के दिनों में बादल गरजता नहीं, वह पानी काट देता है और सारी पृथ्वी पानी से भर जाती है। इसी प्रकार जो सच्चे कर्म करनेवाले हैं, जो सचमुच अपने अंतःकरण से विश्वव्यापी भ्रातृभाव को समझते हैं, वे बहुत बका नहीं करते और न विश्वव्यापक भ्रातृभाव के लिये संप्रदाय ही खड़ा करते हैं। पर उनके आचार, कर्म, व्यवहार और सारा जीवन इस बात को प्रमाणित करता है कि उनमें सचमुच विश्वव्यापी भ्रातृभाव का ज्ञान है, और उनको सबसे प्रेम है और सबके साथ [ १४० ]सहानुभूति है। वे बकते नहीं; वे काम करते हैं, आजन्म काम करते हैं। संसार में व्यर्थ की बकवाद बहुत है। हमें कुछ काम करके दिखलानेवालों की आवश्यकता है जो अधिक बकें नहीं।

यहाँ तक तो हम देख चुके हैं कि धर्म का कोई विश्व- व्यापक रूप दिखाई पड़ना कठिन है। पर फिर भी हम यह जानते हैं कि वह है। हम सब मनुष्य हैं; पर क्या हम सब बराबर हैं? वास्तव में नहीं। कौन कहता है कि हम बराबर हैं? केवल वही जो पागल हैं। क्या हमारी बुद्धि, हमारे बल, हमारे शरीर सब बराबर ही हैं? एक मनुष्य दूसरे से बली है, एक मनुष्य दूसरे से बुद्धिमान् है। यदि हम सब बराबर ही हैं तो यह विषमता क्यों है? इसे किसने उत्पन्न किया है? हम ही ने तो। कारण यही है कि हममें न्यूनाधिक बल है, न्यूनाधिक पराक्रम है; इसी से हममें यह भेद है। फिर भी हम जानते हैं कि साम्यवाद का सिद्धांत हमारे मन को भला लगता है। हम सब मनुष्य हैं; पर कोई पुरुष है, कोई स्त्री है। यह एक काला मनुष्य है, वह एक गोरा है। पर सब मनुष्य मानवजाति के ही हैं। हमारे चेहरे में भेद है। मैं देखता हूँ कि दो के रूप एक से नहीं हैं। पर हैं सब मनुष्य ही। यह मनुष्यता क्या है? मैं देखता हूँ, कोई स्त्री है तो कोई पुरुष; कोई काला है तो कोई गोरा। पर मैं जानता हूँ कि इन सारे रूपों में एक कूटस्थ मनुष्यता है जो सब में व्याप्त है। यदि मैं उसे पकड़ना चाहूँ

वा उसे देखना चाहूँ वा उसे साक्षात्कार करना चाहूँ तो संभव [ १४१ ]
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है कि वह मुझे न मिले; पर मुझे निश्चय है कि वह है। यदि मुझे किसी वस्तु का निश्चय है तो इसी मनुष्यत्व का है जो सब में है। इसी सामान्य सत्ता के सहारे हम आपको स्त्री वा पुरुष के रूप में देखते हैं। यही विश्वव्यापी धर्म है जो सारे धर्मों में ईश्वर के रूप में व्याप्त हो रहा है। यह अब तक हैं और अनंत काल तक बना रहेगा। मैं धागे के समान सारे मनकों में हूँ और मनके यही धर्म वा संप्रदाय हैं। यही सब मनके हैं और भगवान् सूत्ररूप हैं जिनमें वे सब गुथे हुए हैं। भेद केवल इतना ही है कि जनसाधारण को उसका बोध नहीं है।

अनेकता में एकता का होना ही विश्व का धर्म है। हम सब मनुष्य हैं और ऐसा होते हुए भी हम एक दूसरे से पृथक् हैं। मनुष्य होते हुए हम सब एक ही हैं, पर नाम-रूप भेद से मैं और आप सब अलग अलग हैं। पुरुष के रूप में आप स्त्री से पृथक् हैं और मनुष्य के रूप में आप और स्त्री एक ही हैं। मनुष्य के रूप में आप पशु से विलग हैं, पर प्राणी वा जीवधारी के रूप में स्त्री-पुरुष, पशु-पक्षी, कीट-पतंग, वृक्ष- वनस्पति सब एक ही हैं और सत्ता रूप में आप और विश्व एक हैं। वही विश्वव्यापी सत्ता ब्रह्म वा विश्व की एक मात्र सत्ता है। उसी में हम सब एकीभूत हैं। पर इसके साथ ही व्यक्तावस्था में यह भेद सदा रहेगा। हमारे कर्मों में, हमारी शक्तियों में जब वे संसार में व्यक्तावस्था में हैं, वह भेद सदा

रहेगा। अतः यह स्पष्ट है कि यदि विश्वव्यापी धर्म का यह [ १४२ ]
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अर्थ है कि सारे संसार के लोगों का एक ही धार्मिक सिद्धांत हो जाय, तो ऐसा होना नितांत असंभव है। ऐसा कभी हो नहीं सकता। ऐसा समय कभी आवेगा ही नहीं जब सबके रूप एक ही साँचे में ढले से होंगे। यदि हम यह आशा रखें कि कभी संसार में एक विश्वव्यापक पुराण रह जायगा, तो यह भी असंभव है। ऐसा कभी होगा नहीं; न कभी संसार में एक ही कर्मकांड का प्रचार होगा। ऐसी बात कभी होने की नहीं। और यदि यह कभी हो भी जाय तो संसार का नाश हो जायगा, सृष्टि ही न रहेगी। सृष्टि का मुख्य लक्षण भेदों का होना ही है। हम रूपवान् वा विग्रहवान् क्यों हैं? इसी भेद के कारण न। अत्यंत साम्यभाव से तो नाश ही हो जायगा। मान लीजिए कि इस कोठरी में गरमी है और वह गरमी कोठरी भर में समान रूप से है, न कहीं कम न कहीं अधिक व्याप्त है। ऐसी गरमी तो किसी काम की न ठहरी। संसार में गति का कारण क्या है? केवल वैषम्यहीन समानता का न होना ही तो? एकाकारता, एकता वा अत्यंत साम्यावस्था तो तभी हो सकती है जब विश्व का संहार हो जाय। अन्यथा ऐसा होना सर्वथा असंभव है। इतना ही नहीं, ऐसा होने में भय भी है। हमें इसकी कभी इच्छा तक न करनी चाहिए कि सब एक से हो जायँ। फिर तो कुछ सोचने की बात ही न रह जायगी। हम सब अजायबघर की

मोमियाई बन जायँगे और खड़े खड़े एक दूसरे को टकटकी
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बाँधे देखा करेंगे। विचार करने के लिये कुछ बात रह ही न जायगी। यही भेद, यही वैषम्य, हम लोगों के बीच में ऐक्य का यही प्रभाव है जो हमारी उन्नति का कारण हुआ है, हम सबके सारे विचारों का मूल है। यह सदा रहेगा।

फिर विश्वव्यापी धर्म के आदर्श से हमारा अभिप्राय क्या है? हमारा अभिप्राय इससे कदापि यह नहीं है कि सारे संसार के लोग एक दर्शन के अनुयायी बनें, एक ही पुराण को मानें, एक ही कर्मकांड का अनुष्ठान करें। मैं जानता हूँ कि संसार का यह चक्र, जिसमें चक्कर के भीतर चक्कर और पेंच के भीतर पेंच हैं, जो अत्यंत घुमाववाला और अद्भुत है, सदा चलता रहेगा। तो हम करें क्या? हमारा काम यही है कि हम ऐसा करें कि जिससे यह ठीक रूप से चलता जाय, घिसे नहीं, इसमें तेल पड़ता जाय। पर यह करें तो कैसे करें? यह केवल भेद की आवश्यकता के बनाए रहने से ही हो सकता है। जैसे हम अपने स्वभाव से एकता को बनाते हैं, ठीक वैसे ही भेद को भी बनाए रहना चाहिए। हमें यह सीखना चाहिए कि सत्य लाखों प्रकार से प्रकाशित किया जा सकता है और सबके सब जहाँ तक उनका संबंध है, ठीक हैं। हमें यह जानना चाहिए कि एक पदार्थ सैंकड़ों दृष्टियों से देखा जा सकता है, पर वह सब दृष्टियों से ठीक हो सकता है। उदाहरण के लिये सूर्य्य को ही ले लीजिए। मान लीजिए कि एक मनुष्य

इस पृथ्वी पर से सूर्य्य को निकलते हुए देखता है। उसे वह [ १४४ ]
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एक बड़ा गोला दिखाई पड़ता है। मान लीजिए कि वह सूर्य्य की ओर एक फोटो का केमरा लेकर जाता है और अपनी यात्रा में स्थान स्थान से उसकी प्रतिकृति लेता जाता है और सूर्य्य के पास पहुँच जाता है। एक स्थान की प्रतिकृति दूसरे स्थान की प्रतिकृति से भिन्न जान पड़ सकती है; और जब वह लौटकर आता है, तब वह स्थान स्थान की ली हुई प्रतिकृतियों को लाकर आपके सामने रख देता है। वे भिन्न भले ही हों, पर वे सब एक ही सूर्य्य की प्रतिकृतियाँ हैं हम लोग जानते हैं कि वे सब एक ही सूर्य की प्रतिकृतियाँ हैं जो उसने भिन्न भिन्न स्थितियों से ली हैं। यही दशा ईश्वर की भी है। ऊँचे और नीचे दर्शनों में, अति परिष्कृित और भोंड़े पुराणों में, अति श्रेष्ठ और भावपूर्ण कर्मकांड से लेकर भूत-प्रेत की पूजा तक में, सब मनुष्य, सब जातियाँ, जानकर हो वा अनजान में, उसी ईश्वर की भावना कर रही हैं, उसी की ओर जा रही हैं। मनुष्य सत्य का जा कुछ आभास देख रहा है, उसी का आभास है, दूसरे का कहीं है। मान लीजिए कि हम सब अपने हाथों में पात्र ले लेकर तालाब में पानी भरने जाते हैं। जिसके पास कटोरा है, वह कटोरे में भरता है; जिसके पास घड़ा है, वह घड़े में भरता है। इसी प्रकार सब जल लाते हैं और पानी पात्र के आकार का हो जाता है। पर है सब पानी ही। वही भिन्न भिन्न पात्रों में तदाकार भासमान हो रहा है।

यही दशा धर्म की भी है। हमारे चित्त पात्रवत् हैं; और सब [ १४५ ]
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ईश्वर का साक्षात्कार करना चाहते हैं। ईश्वर पानी के समान है जो मन-रूपी पात्रों में भर रहा है और पात्र पात्र में उसके अलग अलग तदाकार रूप भासमान हो रहे हैं। पर है वह एक ही। वह सब रूप में ईश्वर ही है। यही विश्वव्यापकता का भाव है जो हमारी समझ में आ सकता है।

यहाँ तक तो सिद्धांत रूप में यह ठीक है। पर क्या कोई ऐसी भी रीति है कि धर्मों की यह एकता कर्म-रूप में परिणत की जा सके? हमें जान पड़ता है कि यह ज्ञान कि धर्म की सारी भिन्न भिन्न बातें सत्य हैं, बड़ा पुराना है। भारतवर्ष, सिकं- दरिया, युरोप, चीन, जापान, तिब्बत और अंत को अमेरिका में भी इसके लिये सैंकड़ों बार प्रयत्न किया गया है कि सारे धर्मों और संप्रदायों में प्रेम उत्पन्न हो, सब में एकता का संचार हो जाय। पर सब में विफलता हुई। कारण यही था कि उचित प्रणाली का अवलंबन नहीं किया गया। बहुतों ने इस बात को स्वीकार किया कि संसार के सारे धर्म ठीक हैं; पर उन सब धर्मों को एक सूत्र में बाँधने की कोई ऐसी व्यावहारिक रीति नहीं बतलाई गई जिससे उस ऐक्य में वे अपनी विभिन्नता को स्थापित रखते हुए साथ साथ चलें। वही रीति उपयोगी हो सकती है जिससे धर्म में किसी मनुष्य के व्यक्तित्व को धक्का न पहुँचे, उसका नाश न हो और सबको पारस्परिक एकता का ज्ञान हो जाय। पर इस बात को कहते हुए भी कि हम सब धमों के सारे विचारों को जिनका प्रचार है, लेंगे, जो जो उपाय

१० [ १४६ ]उनकी एकता के लिये किए गए, वे यह हुए कि सबको कुछ इने गिने सिद्धांतों पर लाया जाय; और इसका प्रतिफल यह हुआ कि सबको एक करने की जगह नए नए संप्रदाय उठ खड़े हुए और परस्पर वादविवाद और ठेलमठेला बढ़ता गया।

मेरी भी कुछ निज की प्रणाली है। मैं नहीं समझता कि वह काम में आ सकेगी वा नहीं, पर आपके सामने उसे विचार के लिये उपस्थित करता हूँ। मेरी प्रणाली यह है कि सबसे पहले मैं लोगों से यह कहूँगा कि इस वाक्य को स्मरण रखिए कि ‘बिगाड़ो मत’। जो संशोधक दूसरों को मिटाना चाहते हैं, वे संसार की कुछ भलाई नहीं कर सकते। न तो किसी का ध्वंस करो न किसी को गिराओ-पड़ाओ। हाँ; यदि हो सके तो उसे बनाओ, सहायता दो। यदि न हो सके तो खड़े रहो और देखा करो कि क्या होता है। यदि तुम सहायता नहीं दे सकते तो हानि मत पहुँचाआ। किसी मनुष्य के विश्वास के विरुद्ध जब तक उसे वह विश्वास बना रहे, एक शब्द भी मुँह से मत निकालो। दूसरी बात यह है कि जो मनुष्य जिस दशा में है, उसे वहीं से सहायता देकर ऊपर उठाओ। यदि यह सत्य है कि ईश्वर सब धर्मों का केंद्र है और हम लोग सब उसी केंद्र की ओर भिन्न मार्गों से जा रहे हैं, तब तो यह निश्चय है कि हम सब कभी न कभी उस तक अवश्य पहुँचेंगे; और केंद्र पर पहुँचकर जहाँ सब मार्ग मिलते हैं, सब भेद-भाव आपसे

आप जाते रहेंगे। पर जब तक हम वहाँ नहीं पहुँचते, भेद-भाव [ १४७ ]
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मिटने के नहीं हैं। अपनी प्रकृति के अनुसार कोई एक मार्ग से जा रहा है, कोई दूसरे मार्ग से। पर यदि हम सब अपनी अपनी राह पर बड़ते चले जायँ, तो अंत को सब वहीं पहुँच जायँगे। कारण यह है कि सब वहीं जाने के मार्ग हैं। सब लोग अपनी प्रकृति के अनुसार हृष्ट पुष्ट हो रहे हैं; यथा काल सब उस सर्वोत्कृष्ट सत्य को जानेंगे; क्योंकि अंततोगत्वा मनुष्य एक दूसरे को शिक्षा देंगे ही। इसमें आपका और मेरा काम क्या है? क्या आप समझते हैं कि आप किसी बच्चे को शिक्षा दे सकते हैं? आप नहीं दे सकते। बच्चा अपने आपको शिक्षा देता है। आपका काम यही है कि आप उसे अवसर प्रदान करें और अवरोध को हटा दें। पौधा बढ़ता है। क्या उसे आप बढ़ाते हैं? आपका काम यही है कि आप उसकी रुँँधाई कर दें; कोई उसे खा न ले, यह देखते रहिए और आपके कर्तव्य की समाप्ति यहीं पर है। फिर तो पौधा आपसे आप बढ़ेगा। यही दशा मनुष्यों की आध्यात्मिक बाढ़ की भी है। आपको कोई सिखा नहीं सकता; कोई आपको आध्यात्मिक नहीं बना सकता। आपको स्वयं सीखना पड़ेगा; आपकी बाढ़ आपके भीतर से होगी।

एक बाहरी शिक्षक कर ही क्या सकता है? वह कुछ थोड़ा बहुत अवरोध को हटा सकता है। बस यही उसका काम है। अतः यदि आपसे हो सके तो सहायता दीजिए, पर बिगाड़िए

मत। मनुष्यों को आध्यात्मिक बनाने के सारे विचार त्याग [ १४८ ]
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दीजिए। यह असंभव है। आपका आपकी आत्मा के सिवा और कोई शिक्षक नहीं है। उसे पहचानिए। देखिए तो इसका क्या फल होता है। समाज में हम देखते हैं कि लोगों की प्रकृति कितनी भिन्न है। लोगों के विचार और रुचि सहस्रों प्रकार की हैं। उन सब का पूरा पूरा वर्गीकरण करना असंभव है। पर काम चलाने के लिये हम उनको चार विभागों में विभक्त किए लेते हैं। पहले तो काम करनेवाले हैं। वे काम करना चाहते हैं और उनके हाथ-पैर में अमोघ शक्ति भरी है। उनका उद्देश है काम करना, धर्मशाला आदि बनाना, दान आदि शुभ कर्म करना, ढंग सोचना और उसका प्रबंध करके दिखलाना। फिर उनके अतिरिक्त वैकारिक लोग हैं जो सुंदर और मनोहर पदार्थों पर लट्टू रहते हैं, जो सुंदरता के ध्यान में मग्न हो जाते हैं, जिन्हें प्रकृति का सौंदर्य देखकर आनंद आता है और जो प्रेम और प्रेम के ईश्वर की उपासना करते हैं; जो सब काल के महात्माओं, धर्माचार्य्यौं और ईश्वरांशावतारों पर श्रद्धा रखते हैं; जो इस बात की चिंता नहीं करते कि तर्क से वा युक्ति प्रमाण से यह सिद्ध होता है कि नहीं कि ईसा और बुद्धदेव कभी थे। वे इस बात की चिंता नहीं करते कि किस दिन पर्वत के ऊपर ईसा ने उपदेश किया था वा भगवान् कृष्णचंद्र किस तिथि को उत्पन्न हुए थे। वे केवल इतना ही जानते हैं कि वे ईश्वरांश महात्मा थे और उन पर प्रेम रखते

हैं। उनका आदर्श ऐसा ही है। भक्त का यही स्वरूप है, वैका[ १४९ ]
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रिक पुरुष के यही लक्षण हैं। इनके अतिरिक्त गूढ़ तत्वान्वेषी लोग हैं जिनका काम सदा अपनी आत्मा के अन्वेषण में, चित्त की वृत्तियों के जानने में, आभ्यंतर कर्म कैसे होते हैं, आंतरिक शक्ति कैसे बढ़ाई जाय, उन पर अधिकार कैसे प्राप्त हो इत्यादि बातों की छानबीन में लगा रहना है। यहीं गूढ़ तत्वान्वेषियों के लक्षण हैं। इनके अतिरिक्त दार्शनिक लोग हैं जो प्रत्येक पदार्थ की जाँच किया करते हैं और सारे मानव विज्ञान के परे अपनी बुद्धि से पहुँचने के प्रयत्न में लगे रहते हैं।

अब यदि कोई ऐसा धर्म हो जिसमें अधिकतर लोग आ सकें, तो उसमें सबके लिये यथोचित सामग्री होनी चाहिए। जिसमें यह बात नहीं होती, उसी से सब संप्रदाय के लोग किनारा करके अलग हो जाते हैं। मान लीजिए कि आप ऐसे संप्रादयवालों के पास जाते हैं। जिसका उपदेश प्रेम आर भक्ति का है, वे नाचते हैं, गाते हैं, रोते हैं और भक्ति का उप- देश करते हैं। पर ज्यों ही आप उनसे यह कहिए कि भाई आप जो कुछ करते हैं, सब ठीक है; पर मुझे इससे कुछ दृढ़ और ठोस पदार्थ चाहिए, कुछ युक्ति, प्रमाण और दार्शनिक बातें हों। मैं तो सब बातों को क्रमशः और युक्तियुक्त रूप से जानना चाहता हूँ। पर वे आपकी बात सुनते ही कह देंगे कि निकल जाइए; और यदि उनका बस चले तो आपको दूसरें लोक में भी पहुँचाने में कसर न रखेंगे। परिणाम यह होता है

कि उस संप्रदाय में केवल वैकारिक प्रकृतिवालों को ही ठिकाना [ १५० ]
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मिल सकता है। दूसरों को सहायता देने की बात दूर रही, यदि उनसे बन पड़े तो दूसरों का नाश करने का वे भले ही उद्योग करेंगे। और सबसे निकृष्ट बात तो यह है कि वे दूसरों की सहायता भले ही न करें, पर अपने सच्चे प्रतीक को भी तो वे नहीं मानते। फिर ऐसे दार्शनिक लोग भी मिलते हैं जो भारत- वर्ष और पूर्व के महत्व का राग अलापते रहते हैं और पचास पचास मात्राओं के बड़े बड़े आध्यात्मिक शब्द झाड़ा करते हैं। पर यदि मुझ सा कोई सामान्य पुरुष उनके पास पहुँच जाता है और उनसे यह कह बैठता है कि क्या आप मुझे अध्यात्म विद्या सिखा सकते हैं, तो वे हँस देते हैं और कहने लगते हैं कि ‘आप मुझसे ज्ञान में बहुत नीची कोटि में हैं; अध्यात्म विद्या आपकी समझ में भला कैसे कावेगी?’ यही ऊँचे ऊँचे दार्श- निक हैं। वे आपको केवल रास्ता दिखला देते हैं। इनके अति- रिक्त गूढ़ तत्वान्वेषी लोग हैं जो भिन्न भिन्न लोकों के पदार्थौं की बातें करते फिरते हैं; चित्त को कितनी वृत्तियाँ हैं, मानसिक शक्ति के बल से क्या क्या सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं, इत्यादि इत्यादि कहा करते हैं। पर यदि कोई सामान्य मनुष्य उनके पास पहुँच जाता है और उनसे कहता है कि आप मुझे कुछ सिद्धियाँ दिखलाइए, जिन्हें मैं भी करूँ, मैं तो उतनी ध्यान की बीतें जानता नहीं; क्या आप मुझे मेरे योग्य कुछ बतला सकते हैं? तो वे हँसेंगे और कहेंगे कि ‘इस मूर्ख को देखो। इतना

बड़ा हुआ पर कुछ जानता सुनता नहीं। इसका तो जन्म ही [ १५१ ]
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अकारथ गया।’ यही बातें सारे संसार में हो रही हैं। मुझसे हो सके तो ऐसे संप्रदायों के अधिकारियों को पकड़कर एक कोठरी में बंद कर दूँँ और उनके हँसते हुए रूप का चित्र खींचूँ।

यही आजकल के धर्म की अवस्था है। यही संसार की चाल है। मैं जिस धर्म का प्रचार करना चाहता हूँ, वह ऐसा धर्म है जिसे सब मान सकते हैं। वह ऐसा होगा जिसमें दर्शन के भाव, वैकारिक भाव, गूढ तत्व और कर्म की सब बातें समान रूप से रहेंगी। यदि कालेजों के अध्यापक, वैज्ञानिक और भौतिक विद्याविशारद आवें तो उन्हें तर्क और युक्ति की बातें उसमें मिलें। उनको जो आवश्यकता हो, उसमें से ले लें। उसमें उससे भी अधिक बातें रहें जिसके आगे उनकी पहुँच बिना युक्ति त्यागे न हो। वे कहेंगे कि ईश्वर और मोक्ष की बातें युक्तिविरुद्ध हैं, उन्हें छोड़ दो। मैं कहूँगा कि “भाई वैज्ञानिक, आपका यह शरीर तो बहुत बड़ी पक्षपात की वस्तु है; इसे छोड़ दीजिए। न खाना खाइए, न पठन पाठन का काम कीजिए। अपने शरीर को त्यागिए। यदि त्याग नहीं सकते तो आधी घड़ी बकवास कीजिए, बैठ जाइए।’ क्योंकि धर्म ऐसा होना चाहिए जो यह बतला सके कि उस दर्शन की बातों को जो विश्व की एकता की शिक्षा देता है, कैसे साक्षात् किया जाय और कैसे जाना जाय कि इस विश्व में एक ही सत्ता है। यदि गूढ़ तत्वान्वेषी आ जायँ तों हमें उनका खागत करके [ १५२ ]अभ्यास के लिये मानसिक विज्ञान देना चाहिए और उसका उनके सामने प्रतिपादन करना चाहिए; और फिर यदि वैका- रिक लोग आ जायँ तो हमें उनके साथ ईश्वर-प्रेम का प्याला पीकर उन्मत्त हो जाना चाहिए। यदि उत्साही काम करनेवाले आ जायँ तो हमें उनके साथ मिलकर जहाँ तक हममें शक्ति है, काम करना चाहिए। इन सब बातों का जब मेल होगा, तब वह विश्वव्यापी धर्म होगा वा उसकी कुछ बरावरी का होगा। ईश्वर करे कि सब लोग ऐसे हो जायँ कि उनके अंतःकरण में दर्शन, तंत्र, विकार और कर्म के सारे भाव समरूप से भर जायँ। यही आदर्श है, यही मेरी समझ में आप्त- पुरुष का आदर्श है। जिसमें इनमें से एक वा दो ही बातें हों, मैं उसे अधूरा समझता हूँ। संसार में ऐसे ही अधूरे लोग भरे पड़े हैं जिन्हें केवल उसी मार्ग का ज्ञान है, जिससे वे जा रहे हैं। उसको छोड़कर उन्हें दूसरे सब मार्ग भयानक जान पड़ते हैं। इन चारों बातों पर सम भाव से ध्यान रखना ही मेरे धर्म का आदर्श है। इस धर्म की प्राप्ति उसीसे हो सकती है जिसे भारतवर्ष में योग कहते हैं, जिसका अर्थ है मिलाना। काम करनेवाले के लिये मनुष्यों का मनुष्य जाति मात्र में योग है। तांत्रिकों और गूढ़ तत्वान्वेषियों के लिये आत्मा और परमात्मा का योग है। प्रेमी जन के लिये प्रेमी और प्रेमपात्र का योग है; दार्शनिकों के लिये सत्ता मात्र का योग है। यही

योग का अर्थ है। यह संस्कृत का शब्द है और इन चार [ १५३ ]
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प्रकार के योगों का संस्कृत में अलग अलग नाम है। जो इस प्रकार के योग का अभ्यास करता है, उसे योगी कहते हैं। काम करनेवाले को कर्म-योगी कहते हैं। जो भति वा प्रेम द्वारा योग करता है, भक्तियोगी कहलाता है। जो गूढ़ तत्व द्वारा योग को जिज्ञासा करता है, वह राजयोगी कहलाता है। जो दर्शन के द्वारा योग चाहता है, उसे ज्ञानयोगी कहते हैं। अतः योगी शब्द में सबका समावेश है।

पहले हम राजयोग को लेते हैं। राजयोग क्या है? मन का वशीभूत करना किसे कहते हैं? इस देश में योगी शब्द से संसार भर के ऐरे गैरे लिए जाते हैं; इसलिये मुझे भय है कि आप कहीं कुछ और न समझ लें। यही कह देना पर्याप्त है कि इन बातों का योगी से कोई संबंध नहीं है। इन योगों में कोई युक्ति को नहीं त्यागता और न आपसे यह कहता है कि आप युक्ति-प्रमाण को तिलांजलि देकर, आँखें मूँँदकर किसी प्रकार के पंडे-पुजारी के हाथों में पड़ें। प्रत्येक का यही कथन है कि आप अपने युक्ति प्रमाणों को लिए रहिए, उन पर डटे रहिए। हमें सब प्राणियों में तीन प्रकार के ज्ञान के साधन मिलते हैं। उनमें पहला सहज ज्ञान है। यह कम विकास-प्राप्त प्राणियों में पाया जाता है। ज्ञान का दूसरा साधन बुद्धि है। यह अत्यंत उन्नति-प्राप्त है और मनुष्यों ही में मिलती है। पहले तो सहज ज्ञान एक भोंडा साधन है; पशुओं में उसका कार्य्यक्षेत्र बहुत

ही संकुचित रहता है और उसीके भीतर वह अपना काम [ १५४ ]
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करता है। मनुष्यों में देखिए तो वही बहुत उन्नत हो जाता है और तर्क का रूप धारण कर लेता है। यहाँ उसका कार्य्यक्षेत्र भी बढ़ जाता है। पर बुद्धि भी पर्याप्त नहीं है। तर्क थोढ़ी दूर चलता है, पर फिर रह जाता है, आगे नहीं बढ़ सकता। यदि आप उसे ठेलकर आगे बढ़ावें, तो इसका परिणाम यह होता है कि आप घबरा जाते हैं और फिर तर्क-बुद्धि आप उलटी बन जाती है। तर्क एक वृत्त में काम करता है। उदाहरण के लिये द्रव्य और शक्ति को ले लीजिए। हमारे प्रत्यक्ष के आधार ही यही दोनों हैं। द्रव्य है क्या? जिस पर शक्ति अपना काम करती है। और शक्ति क्या है? जो द्रव्य पर काम करती है।

आपने इस उलझन को देखा। इसी को नैयायिक अन्योन्या- श्रय दोष कहते हैं। यदि एक ठीक है तो दूसरा भी ठीक है; और यदि दूसरा ठीक है तो पहला भी ठीक है। एक की सिद्धि दूसरे की सिद्धि पर और दूसरे की सिद्धि पहले की सिद्धि पर अव- लंबित है। आप देखिए,अब तर्क के आगे काठ पड़ गया। इसके आगे तर्क की गति ही नहीं है। फिर भी वह सदा अनंत के लोक में जो इससे कहीं परे है, घुसने के लिये आतुर है। यह संसार, यह विश्व जिसे हम अपनी इंद्रियों द्वारा देखते-सुनते और अपने मन द्वारा समझते हैं, उस अनंत का एक अणुमात्र है, यदि वह बोध का विषय हो; और इसी संकुचित क्षेत्र के भीतर चेतनता के जाल में वेष्ठित हमारे तर्क विचार को काम करना पड़ता है। वह इसके आगे जा कैसे सकता है। अतः हमें [ १५५ ]किसी और साधन की अपेक्षा है जो हमें इसके बाहर ले जाय; और इस साधन का नाम अवभास है। अतः सहज ज्ञान, तर्क और अवभास ज्ञान के ये तीन साधन ठहरे। सहज ज्ञान पशुओं का साधन है, तर्क मनुष्यों का और अवभास देवताओं का। पर सारे मनुष्यों में कम वा अधिक उन्नत रूप में इन तीनों ज्ञान के साधनों के बीज मिलते हैं। इन मानसिक साधनों को बढ़ाने के लिये बीज का वहाँ होना नितांत आवश्यक है। और यह भी स्मरण रखना चाहिए कि एक साधन दूसरे से प्रोन्नत होकर निकलते हैं, अतः वे विरोधी नहीं हैं। यह तर्क ही है जो प्रोन्नत होकर अवभास बन जाता है। अतः अवभास तर्क का विरोधी नहीं है, अपितु पूरक है। जिन बातों का ज्ञान तर्क द्वारा नहीं हो सकता, उनका ज्ञान अवभास से होता है। अव- भास से तर्क का घात नहीं होता। वृद्ध पुरुष बच्चे का विरोधी नहीं है, अपितु पूरक है। अतः यह बात स्मरण रखिए कि सबसे बड़ी भूल लोग यह करते हैं कि छोटे साधन को बड़ा साधन मान बैठते हैं। कितनी बार बहुधा सहज ज्ञान को लोग अवभास समझ लेते हैं और इसका परिणाम यह होता है कि लोग भविष्यद्वक्ता होने की व्यर्थ की डींग मारने लगते हैं। एक मूर्ख वा आधा पागल यह सोच सकता है कि मुझे मस्तिष्क का विकार क्या हुआ, अवभास मिलने लगा; और वह चाहता है कि लोग मेरे अनुयायी हो जायँ। सबसे विरुद्ध और अयुक्त बातें जिनका संसार में उपदेश हुआ है, वह केवल [ १५६ ]ऐसे ही विकृत मस्तिष्कों की सामान्य ज्ञान-जनित ध्वनि मात्र है जिसे वे अवभास के नाम से प्रख्यात करने का उद्योग करते रहे हैं।

आप्तोपदेश की पहली पहचान यह है कि वह तर्क के विरुद्ध न हो और आप देखते हैं कि इन योगों का आधार ऐसा ही है। हम राजयोग ही को लेते हैं जो आध्यात्मिक वा मानसिक योग अर्थात् मिलने की मानसिक रीति है। यह बड़ा गहन विषय है और मैं आपके सामने योग के इस मुख्य विचार को रखे देता हूँ। हमारे पास ज्ञान की प्राप्ति का एक ही मार्ग है। साधारण मनुष्य से लेकर बड़े से बड़े योगी तक को इसी मार्ग का अवलं बन करना पड़ता है और यह मार्ग चित्त की वृत्ति की एकाग्रता है। रासायनिक जो प्रयोगशाला में काम करते हैं, अपनी सारी शक्तियों को अपने चित्त में एकाग्र करते हैं, सबको एक केंद्र पर लाते और उनको द्रव्यों पर लगाते हैं; और द्रव्यों का विश्लेषण हो जाता है और उनको उसका बोध हो जाता है। इसी प्रकार ज्योतिषी भी चित्त को एकाग्र करके एक केंद्र पर लाता है; और उसे अपने दूरवीक्षण यंत्र द्वारा पदार्थों पर डालता है; ग्रह नक्षत्र अपनी कक्षा में फिरते हुए अपना रहस्य उस पर प्रकट कर देते हैं। यही अवस्था सबकी है। अध्यापक चित्त की एकाग्रता से ही अध्ययन कराता है, विद्यार्थी चित्त की एकाग्रता से ही पढ़ता है और दूसरे जो ज्ञान प्राप्त करने के लिये काम करते हैं, सब चित्त की वृत्ति को एकाग्र करके [ १५७ ]ही प्राप्त करते हैं। आप मेरी बातें सुन रहे हैं। यदि आपको मेरी बातें रुचती हैं तो आपके चित्त की वृत्ति उन पर एकाग्र हो जाती है; और आप जितना ही अपने चित्त को एकाग्र करेंगे, उतना ही आपको मेरा अभिप्राय समझ में आवेगा जिसे मैं आप पर व्यक्त करना चाहता हूँ। जितनी ही अधिक आप में अपने चित्त की वृत्तियों को एकाग्र करने की शक्ति होगी, उतना ही आपको अधिक ज्ञान प्राप्त होगा। कारण यह है कि ज्ञान के प्राप्त करने का यही एक मात्र साधन है। यहाँ तक कि जूते पर स्याही करनेवाला यदि अपने चिन्त को एकाग्र कर ले, तो वह अच्छी स्याही करेगा; यदि रसोइए के चित्त की वृत्ति एकाग्र हो जाय तो वह पाक अच्छा करेगा। धनोपार्जन में, ईश्वरोपासना में, जितना ही अधिक चित्त एकाग्र होता है, उतना ही अच्छा फल मिलता है। यही एक मात्र मूल मंत्र है जिससे प्रकृति का कपाट खुल जाता है और प्रकाश की लहर भर जाती है। यही चित्त की एकाग्रता ज्ञान की निधि की एक मात्र कुंजी है। राजयोग के शास्त्रों में केवल इसी का वर्णन है वर्तमान दशा में हमारे शरीर (इंद्रियाँ) अति चंचल हैं और हमारे मन की शक्तियाँ सैंकड़ों बातों पर बँटी हुई रहती हैं। ज्यों ही हम अपने चित्त को एकाग्र करने लगते हैं और उसकी वृत्तियों को ज्ञान के पदार्थ पर लगाते हैं, त्यों ही हमारे मस्तिष्क में सहस्रों प्रकार की प्रवृत्तियाँ अचानक घुस आती हैं और मन में सहस्रों विचार उठने लगते हैं और विघ्न पड़ जाता है। [ १५८ ]राजयोग में इन्हीं बातों का वर्णन है कि इन अंतरायों को कैसे निवृत्त किया जाय और चित्त की एकाग्रता का संपादन कैसे हो, वह वश में कैसे आवे।

अब कर्मयोग को लीजिए जिसमें कर्मों के द्वारा ईश्वर की प्राप्ति होती है। यह स्पष्ट है कि समाज में बहुत से लोग हैं जो किसी न किसी प्रकार की प्रवृत्ति लेकर उत्पन्न हुए हैं, जिनके चित्त की वृत्ति विचार पर नहीं जमती और जिन्हें केवल कर्मों के करने की ही धुन रहती है। इस प्रकार के जीवन के लिये भी कोई शास्त्र अवश्य होगा। हममें से सब लोग किसी न किसी काम में लगे रहते हैं; पर हममें अधिकांश की शक्तियों का अधिक अंश इस कारण नष्ट हो जाता है कि हमें कर्म के रहस्य का ज्ञान नहीं होता। कर्मयोग से हमें इस रहस्य का ज्ञान होता है। हमें इसका बोध हो जाता है कि किस स्थान पर और किस ढंग से काम करना चाहिए। उन कामों में जो हमें करने हैं, हम अपनी शक्तियों के अधिक अंश को किस प्रकार काम में लावें कि हमें अधिक लाभ हो। पर इस रहस्य के साथ ही साथ हमें इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए जिससे कर्म करने में हमें दुःख होता है। सब दुःखों का कारण राग है। मैं काम करना चाहता हूँ। मेरी इच्छा है कि मैं मनुष्यों की भलाई करूँ। पर सौ में निन्नानबे यह देखा जाता है कि जिन लोगों की मैं भलाई करता हूँ, जिनको मैं सहायता देता हूँ, वे कृतघ्न निकल जाते हैं और मेरी बुराई [ १५९ ]करते हैं; और फल यह होता है कि मुझे दुःख होता है। ऐसी बातों से मनुष्य का मन काम करने से हट जाता है। इससे बहुत सा काम बिगड़ जाता है और मनुष्य की शक्ति नष्ट हो जाती है। यह क्या है? यही दुःख का भय है। कर्मयोग हमें यह बतलाता है कि कर्म का विचार कैसे उदासीन रहकर किया जाय, बिना इस विचार के कि किसकी सहायता की जाती है और क्यों की जाती है। कर्मयोगी इसलिये काम करता है कि कर्म करना उसका धर्म है, इसलिये कि वह समझता है कि कर्म करना अच्छी बात है। उसे इससे अधिक कुछ भी प्रयोजन नहीं है। उसका पक्ष है कि संसार में देना ही धर्म है। वह पाने की आशा नहीं करता। वह जानता है कि मैं त्याग रहा हूँ; दे रहा हूँ। वह उस कर्म का बदला नहीं चाहता। इसी कारण वह दुःख के पंजे से बचा रहता है। दुःख जब कभी होता है, तब राग से ही उप्पन्न होता है।

अब भक्ति योग की ओर देखिए। यह वैकारिक लोगों के लिये है जिन्हें भक्त कहते हैं। वे ईश्वर की भक्ति करना चाहते हैं और उसपर उनको भरोसा रहता है और विविध भाँति के उपचार पुष्प, धूप, दीप, आसन, मूर्ति आदि का व्यवहार करते हैं। क्या आप यह कह सकते हैं कि वे भूले हैं। एक बात मैं आपसे कहता हूँ। यह आपके लिये विशेषतः इस देश में स्मरण रखने की बात है कि संसार में बड़े बड़े महात्मा लोग उन्हीं

धर्मों में उत्पन्न हुए हैं, जिनमें सर्वोत्कृष्ट पुराण और कर्मकांड का [ १६० ]
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प्रवार रहा है। जिन संप्रंदायों में ईश्वर को बिना किसी क्रिया- कलाप और प्रतीक के उपासना करने का प्रयत्न हुआ है, उनमें लोगों ने उन सारी बातों को जो धर्म में भावोत्पादक और मनो- हर हैं, नष्ट कर डाला है। उनका धर्म धर्मोन्माद मात्र है, सूखा है। संसार का इतिहास इसकी स्पष्ट साक्षी दे रहा है। इस लिये क्रिया-कलापों और पुराणों की निंदा मत कीजिए। लोगों को उन्हें काम में लाने दीजिए। जिनकी इच्छा हो, उन्हें रोकिए मत। घृणा से मुँह न बनाइए और यह कभी मत कहिए कि वे मूर्ख हैं, उन्हें मानने दो। बड़े लोग, जिन्हें मैंने अपने जीवन में देखा है और जो बड़े प्रबल आध्यात्मिक शक्ति- संपन्न थे, सब इसी कर्मकांड के अनुष्ठान से इस योग्य हुए थे। मैं तो उनके चरणरज के बराबर भी नहीं हूँ। फिर उनकी निंदा करने की तो बात ही और है। भला मैं यह कैसे जान सकता हूँ कि इन भावों का प्रभाव मनुष्य के अंतःकरण पर कैसे पड़ता है। मैं तो यह नहीं समझ सकता कि मैं किसको मानूँ और किसको छोडूँँ। हमारा स्वभाव पड़ गया है कि संसार में सब बातों का बिना भली भाँति समझे बूझे खंडन किया करते हैं। लोगों को सारे पुराणों को, उनमें जो सुंदर अवभास हैं, उन सब को मानने दीजिए। आप अपने मन में यह बात समझ रखिए कि वैकारिक प्रकृति सत्य के सूक्ष्म लक्षणों पर अधिक ध्यान नहीं दे सकती। सच्ची बात तो यह है कि ईश्वर उनके विचार में कोई स्थूल और व्यक्त पदार्थ है। वे उसे देखते, सुनते, स्पर्श [ १६१ ]करते और उसके साथ प्रेम करते हैं। उनके लिये उनका ईश्वर रहने दीजिए। आपके युक्ति-प्रमाणवादी, उन्हें मूर्ख के समान जँचते हैं जो उनकी सुंदर मूर्तियों को पाकर उसे तोड़ फोड़कर यह देखने की चेष्टा करते रहते हैं कि वे किस पदार्थ से बनी हैं। भक्ति योग यह शिक्षा देता है कि बिना किसी फलोद्देश के ईश्वर की कैसे भक्ति की जाय। ईश्वर के साथ प्रेम करना सौंदर्य्य के साथ प्रेम करना है, इसलिये कि प्रेम करना अच्छी बात है, इसलिये नहीं कि हम स्वर्ग जायँ, इसलिये नहीं कि पुत्र धनादि मिले। इससे उनको यह शिक्षा मिलती है कि प्रेम का उत्तम फल प्रेम ही है―ईश्वर उनके लिये प्रेम स्वरूप है। यह उन्हें इस बात की शिक्षा देता है कि ईश्वर में सब गुणों का आरोप करो; वही स्रष्टा है, वही सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, सर्वशक्तिमान्, शासक, माता, पिता सब कुछ है। सबसे श्रेष्ठ वाक्य जिसे उसका बोध हो सकता है, सबसे उत्तम भाव जो उसमें उसके संबंध में उत्पन्न हो सकता है, यह है कि ईश्वर प्रेम का ईश्वर है। जहाँ प्रेम है, वहाँ वह है। जहाँ प्रेम है, वहाँ वही है, वही भगवान् है। जहाँ पति पत्नी का चुंबन करता है, वहाँ वही चुंबन रूप में है; जहाँ माता अपने बालक का चुंबन करती है, वहाँ भी चुंबन के रूप में वही है। जहाँ मित्र अपने मित्र को आलिमन करता है, वहाँ भगवान् उपस्थित हैं-वहीं प्रेम- मय ईश्वर हैं। जहाँ कोई महापुरुष मनुष्य जाति से प्रेम करता है और उसे सहायता देता है, वहाँ भगवान ही उपस्थित हैं [ १६२ ]और अपने प्रेम के भांडार से मनुष्य को दान बाँटते हैं। जहाँ तक मन जाता है, भगवान् साक्षात् प्रकट हैं। यही भक्ति योग की शिक्षा है।

अब हम अंत को ज्ञानयोगी की बात कहती हैं; अर्थात् उस दार्शनिक, उस चिंतक की जो प्रत्यक्ष के आगे जाना चाहता है। वह ऐसा पुरुष है जिसे इस संसार के तुच्छ पदार्थों से संतोष नहीं है। वह नित्यकर्म, खाने-पीने आदि से भी परे जाना चाहता है; यहाँ तक कि सहस्रो पुस्तकों की बातों से भी उसका तोष नहीं होता। यहाँ तक कि सारे विज्ञान से भी उसकी तृप्ति नहीं होती; उनसे उसे केवल इस छोटे लोक का कुछ ज्ञान मात्र हो जाता है। फिर और दूसरी बातों से उसकी क्या शांति हो सकती है? करोड़ों लोक लोकांतर उसे शांति नहीं दे सकते। वे सव उसके सामने सत्ता के समुद्र की एक बूंद के बराबर हैं। इन सबसे परे सत्य को देखकर कि वह है क्या, उसका साक्षा- त्कार करके, वही होकर और विश्वात्मा में एकीभूत होकर उसका मन सत्ता के भीतर घुसना चाहता है। वही दार्शनिक है; उसके लिये ईश्वर के माता, पिता, विश्वनाष्टा, पालनकर्ता, उपदेष्टा, आदि भाव सब अपूर्ण जान पड़ते हैं और उसका यथार्थ बोध नहीं करा सकते। उसके लिये ईश्वर उसके प्राण का भी प्राण, उसकी आत्मा की भी आत्मा है। ईश्वर उसकी आत्मा ही है। उसके लिये ईश्वर के अतिरिक्त कुछ रह ही नहीं जाता। उसकी मनुष्यता दर्शन के भारी आघात से घिस जाती [ १६३ ]है और झाड़ पोंछकर साफ कर दी जाती है। और जो अंत में उसमें बच रहता है, वह वही ईश्वर है।

एक ही वृक्ष पर दो पक्षी बैठे हैं, एक ऊपर और दूसरा नीचे। जो ऊपर बैठा है, वह प्रशांत और अपने महत्व में मग्न है; और जो नीचे की डाली पर है, वह मीठा कड़ुआ फल खाता, एक डाली से दूसरी डाली पर उचकता फिरता है। वह कभी सुखी और कभी दुःखी होता है। थोड़ी देर में नीचे के पक्षी के मुँह में एक कडुआ फल पड़ता है और वह काँप उठता है, ऊपर ताकने लगता है और दूसरे पक्षी को देखता है कि उसका वर्ण कैसा सौम्य और तप्तकांचनाभ है। वह न तो मीठा फल खाता है न कड़ुआ, न सुखी होता है न दुःखी, अपितु वह प्रशांत और आत्मरम है। उसे अपने सिवा कोई दिखाई ही नहीं पड़ता। नीचे का पक्षी चाहता है कि मैं भी वैसा ही हो जाऊँ, पर वह चट भूल जाता है और फिर फल खाने लगता है। थोड़े काल के अनंतर उसके मुँह में फिर कोई कड़ुआ फल पड़ता है। वह बड़ा ही खिन्न-चित्त हो जाता है और ऊपर ताकने लगता है और ऊपर के पक्षी के पास पहुँचने का प्रयत्न करता है। वह फिर भूल जाता है और फिर ऊपर ताकता है और कुछ ऊपर उचककर जाता है। यहाँ तक कि उचकते उचकते वह उस पती के पास पहुँचता है और देखता है कि उसके वर्ण का प्रतिबिंब मेरे पंख पर पड़ता है। उसमें परिवर्तन होने लगता है और वह सूक्ष्म होता जाता है। यहाँ [ १६४ ]तक कि जब बहुत पास पहुँच जाता है, तब वह बिलकुल रह ही नहीं जाता और अब उसे जान पड़ता है कि वास्तव में मैं क्या था और क्या हो गया। बात यह थी कि नीचे का पक्षी वास्तव में ऊपर के पक्षी की छाया मात्र था, जो एक पक्षी के आकार का हो गया था। वह सचमुच वही था, दूसरा नहीं था। नीचे के पक्षी का मीठा कड़ुआ फल खाना, उसका सुखी दुःखी होना इत्यादि सष स्वप्न ही था। सदा वह पक्षी ऊपर ही था और प्रशांत, आनंदमय, सुख दुःख से परे था। ऊपर का पक्षी ईश्वर विश्व का अधीश्वर था और नीचे का मनुष्य की आत्मा थी जो संसार के सुख दुःख रूपी मीठे और कड़ुए फलों की भोक्ता थी। कभी कभी आत्मा पर भारी आघात पहुँचता है। थोड़ी देर के लिये उसका भोगना बंद हो जाता है और वह ईश्वर की ओर जाता है और उसमें प्रकाश आ जाता है। वह समझता है कि यह संसार मिथ्या और निःसार है। पर इन्द्रियाँ उसे खींच ले जाती हैं और वह फिर संसार के मीठे और कड़ुए फलों को खाने लगता है। उस पर फिर धौल पड़ती है। उसके हृदय के कपाट फिर खुल जाते हैं और वह ईश्वरी प्रकाश से परिपूर्ण हो जाता है। इस प्रकार धीरे धीरे करके वह ईश्वर के पास पहुँँच जाता है। फिर उसे जान पड़ता है कि मेरे पुराने रूप का क्षय होता जा रहा है। जब वह अत्यंत समीप पहुँच जाता है, तब उसे जान पड़ता है कि मैं दूसरा नहीं था, स्वयं ईश्वर ही था। तब वह कहता है कि वह जिसे [ १६५ ]मैं तुम्हें विश्व की आत्मा बतलाता था, जो अणु में, सूर्य्य में और चंद्र में है, वही हमारी आत्मा का आधार है, हमारी आत्मा की भी आत्मा है; नहीं, वह तू ही है। यही ज्ञानयोग का उपदेश है। यह मनुष्यों को बतलाता है कि वे ईश्वर ही हैं। इससे मनुष्यों को सत्ता की एकता का बोध होता है और इसका ज्ञान हो जाता है कि सब ईश्वर ही हैं जो इस पृथ्वी पर विग्रह- वान हैं। छोटे कीड़े से लेकर जो हमारे पैरों के नीचे पड़ता है, उच्च से उच्च सत्ता तक जिसे हम आदर और महत्व की दृष्टि से देखते हैं, सब ईश्वर ही के विग्रह मात्र हैं।

अंत को यह आवश्यक है कि ये योग व्यवहार में लाए जायँ; केवल सिद्धांत ही सिद्धांत से काम न चलेगा। पहले हमें उनका श्रवण करना चाहिए, फिर मनन। हमें फिर उन विचारों पर तर्क करके अपने मन में उनको अंकित करना चाहिए। फिर उनका निदध्यासन वा ध्यान द्वारा साक्षात् करना चाहिए। तब वे हमारे जीवन बन जायँगे। फिर धर्म विचार वा सिद्धांत की गठरी न रह जायगा, न वह युक्ति और तर्क का विषय रहेगा; वह हमारी आत्मा में प्रवेश कर जायगा। बुद्धि के आधार पर तो आज हम बहुत सी व्यर्थ बातों को स्वीकार कर लेंगे, पर कल ही हमारी बुद्धि बदल जायगी। पर सत्यधर्म कभी बद- लता ही नहीं। धर्म साक्षात्कार का नाम है; वह वकवास, वा विचार का विषय नहीं है, चाहे कितना ही सुंदर क्यों न हो। यह करने कराने की बात है, सुनने और मानने की बात नहीं [ १६६ ]है। पर यह वह है जिसमें सारी आत्मा बदलकर वही हो जाती है जो उसका विश्वास है। यही धर्म है।