विवेकानंद ग्रंथावली:ज्ञान-योग/२८ विश्व-विधान

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विवेकानंद ग्रंथावली : ज्ञान-योग  (1923) 
द्वारा स्वामी विवेकानंद, अनुवादक जगन्मोहन वर्मा
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(२८) विश्व-विधान।

दो लोक हैं―सूक्ष्म और स्थूल, आभ्यंतर और बाह्य। दोनों से अनुभव द्वारा हमें सत्य का ज्ञान होता है। सूक्ष्म वा बाह्य जगत् से अनुभव द्वारा जो ज्ञान मिलता है, वह मनोविज्ञान (योग), अध्यात्म विद्या (वेदांत) और धर्म है; और बाह्य जगत् से जो ज्ञान मिलता है, वह भौतिक विज्ञान (वैशेषिक) है। जो शुद्ध और सत्य ज्ञान है, उसे दोनों जगतों के अनुभव से प्रमा- णित होना चाहिए। सूक्ष्म से स्थूल को और स्थूल से सूक्ष्म को प्रमाणित होना चाहिए। भौतिक विज्ञान को आभ्यंतर जगत् का पूरक वा अंग होना चाहिए और आभ्यंतर जगत् को बाह्य का साधक। पर प्रायः इनमें अनेक बातें एक दूसरी के विरुद्ध प्रतीत होती हैं। इतिहास के एक काल में आभ्यंतर प्रधान हो जाता है और बाह्य के विरुद्ध विवाद आरंभ कर देता है। आधुनिक समय में बाह्य वा भौतिक की प्रधानता है और उससे योग और वेदांत की अनेक बातें दब गई हैं। जहाँ तक मुझे बोध है, योग के मुख्य अंश आधुनिक भौतिक विज्ञान के तत्व के अनुकूल हैं। यह किसी व्यक्ति विशेष के लिये आव- श्यक नहीं है कि वह सब बातों में व्युत्पन्न हो; न यह किसी जाति वा वंश के भाग्य की बात है कि वह ज्ञान के सारे क्षेत्रों में समान रूप से पारगंत हो। आधुनिक युरोप के विद्वान्

बाह्य भौतिक विज्ञान की छानबीन में अवश्य व्युत्पन्न और [ २३३ ]
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कुशल हैं, पर वे आभ्यंतर वा अध्यात्म विषय की छानबीन में व्युत्पन्न नहीं हैं। इसके विरुद्ध पूर्वीय लोग बाह्य भौतिक विज्ञान के विषय में उतने प्रबल पंडित तो नहीं हैं, पर वे आध्यात्मिक विज्ञान में बड़े ही दक्ष हैं। यही कारण है कि पूर्वीय भौतिक विज्ञान वा वैशेषिक पश्चिमीय भौतिक विज्ञान से नहीं मिलता; और पश्चिमवालों के मनोविज्ञान आदि पूर्ववालों के योग और वेदांत के विरुद्ध हैं। पश्चिमी वैज्ञानिकों ने पूर्वी वैशेषिक-शास्त्रज्ञों को परास्त कर दिया है। साथ ही इसके यह सब का कथन है कि हमारा आधार सत्य पर है। और जैसा कि हम पूर्व में कह आए हैं, वास्तविक सत्यता किसी विज्ञान की क्यों न हो, एक दूसरे की विरोधी न होगी। आभ्यंतर सत्य बाह्य सत्य के अनु- कूल ही होता है।

हम यह भली भाँति जानते हैं कि आधुनिक ज्योतिषियों और वैज्ञानिकों के विश्वविधान का विचार किस प्रकार यूरोप के धर्म की जड़ काट रहा है; यह वैज्ञानिक अन्वेषण किस प्रकार के होते हैं और वे धर्म के गढ़ पर कैसे गोले बरसा रहे हैं। हम यह भी जानते हैं कि धर्मवालों ने किस प्रकार इन अन्वेषणों को रोकने का प्रयत्न किया है।

मैं यहाँ पूर्वीय सांख्ययोग की कुछ बातों का जो विश्व विधान के संबंध में हैं, तो वर्णन करना चाहता हूँ। आपको यह आश्चर्य्य जान पड़ेगा कि वे आधुनिक विज्ञान की बातों से किस प्रकार मिलती जुलती हैं और जहाँ कहीं उनमें कुछ विरोध [ २३४ ]दिखाई पड़ता है, वहाँ आपको आधुनिक विज्ञान की न्यूनता जान पड़ेगी, उनकी नहीं। हम सब प्रकृति के शब्द का प्रयोग करते हैं। प्राचीन सांख्यदर्शन में दो नाम आए हैं, एक प्रकृति, दूसरा अव्यक्त। इसी से परमाणु, अणु, गुण, मन, बुद्धि, चित्त आदि का प्रादुर्भाव होता है। यह आश्चर्य जान पड़ता है कि भारतवर्ष के दार्शनिकों और अध्यात्म विद्या के पंडितों ने कई युग पहले इस बात को कहा है कि मन प्राकृतिक वा भौतिक पदार्थ है। आजकल के अनात्मवादी लोग जो सिद्ध करने की चेष्टा कर रहे हैं, वह क्या है? यही न कि मन भौतिक है। और ऐसे ही बुद्धि और चित्त भी भौतिक हैं; सब अव्यक्त से प्रादु- भूत होते हैं। सांख्य अव्यक्त को प्रकृति की सत्, रज और तम की साम्यावस्था कहता है। निकृष्ट गुण का नाम तम है जिससे संकोच वा आकर्षण होता है। तम से रज कुछ ऊँचा है। इससे विकास वा प्रसारण होता है; और सर्वोत्कृष्ट गुण सत् है जो इन दोनों को साम्य भाव में रखता है। जब तक आकुंचन प्रसारण की यह दोनों शक्तियाँ अर्थात् तम और रज सत्व गुण के वश में रहती हैं, संसार में न तो सृष्टि ही होती है और न किसी प्रकार की गति होती है। ज्यों ही साम्य भाव जाता रहता है और वैषम्य आता है, इन दोनों गुणों में एक प्रधानता हो जाती है; गति का आरंभ होता है और सृष्टि आरंभ हो जाती है। यह क्रिया यथा कल्प बारी बारी होती रहती है। अर्थात् वैषम्य दशा में गुणों का मिश्रण होता है और विकाश [ २३५ ]आरंभ होता है। साथ ही साथ सब साम्य दशा की ओर प्रवृत्त होते जाते हैं और अंत को सबका लय हो जाता है। फिर वैषम्य दशा आती है और सृष्टि प्रारंभ होती है; और इस प्रकार सृष्टि समुद्र की लहर के समान आविर्भूत और तिरोभूत होती रहती है। सृष्टि को समुद्र की लहर समझ लीजिए जो बारी बारी उठती और बैठती रहती है। कितने ही दार्शनिकों का मत है कि यह दशा समस्त विश्व के लिये एक साथ होती है, अर्थात् एक ही समय सबका लय हो जाता है। दूसरे कहते हैं कि एक समय केवल एक ही जगत का लय होता है, अन्य का लय और समय में होता रहता है। ऐसे करोड़ों जगत हैं जिनका नित्य लय और सृष्टि होती रहती है। मैं तो दूसरे मत का माननेवाला हूँ कि समस्त विश्व का एक साथ लय नहीं होता, भिन्न भिन्न जगतों का लय भिन्न भिन्न समय में होता रहता है। पर सिद्धांत यही है कि सब दृश्य-जगत् में क्रमशः उत्पत्ति और लय की क्रिया होती रहती है। इस प्रकार साम्या- वस्था को प्राप्त होने को प्रलय कहते हैं। विश्व की उत्पत्ति और प्रलय की उपमा हिंदू धर्म-शास्त्रकारों ने ईश्वर के श्वास-प्रश्वास से दी है, मानों विश्व ईश्वर की साँस की भाँति निकलता पैठता रहता है। जब प्रलय हो जाता है तो विश्व क्या होता है? वह सूक्ष्म दशा में, जिसे सांख्य दर्शन में कारण वा प्रकृति कहते हैं, रहता है। यह देशकाल और परिणाम से मुक्त नहीं होता। सब बने रहते हैं, केवल सूक्ष्माति सूक्ष्म रूप को प्राप्त हो जाते [ २३६ ]हैं। मान लीजिए कि सारा विश्व सूक्ष्म दशा को वा संकोच दशा को प्राप्त हो रहा है। हम सब अणु रूप में हो जाते हैं; पर इस विकार का हमें अनुभव नहीं होगा। कारण यह है कि हमारे सब अंश साथ ही साथ संकोच वा लय को प्राप्त होते रहेंगे। सबका इसी प्रकार लय हो जाता है; फिर पुनः सृष्टि होती है। कारण से कार्य्य की उत्पत्ति होती है और फिर सब कारण में लय हो जाते हैं।

जिसे हम आजकल मैटर वा द्रव्य कहते हैं, प्राचीन सांख्य वा योगवाले उसे भूत कहते थे। उनके मतानुसार एक ही भूत है जो नित्य है; अन्य भूत उसी से उत्पन्न होते हैं। उस भूत का नाम आकाश है। वह बहुत कुछ आजकलवालों के ईथम से ही मिलता जुलता है, पर वह ठीक वैसा नहीं है। इस भूत के साथ आदि शक्ति रहती है जिसे प्राण करते हैं। प्राण और आकाश के मेल से सारे भूतों की सृष्टि होती है। प्रलय आने पर कल्पांत में सबका लय हो जाता है और आकाश और प्राण रह जाते हैं। ऋग्वेद में एक मंत्र है जिसमें उत्तम कविता में सृष्टि की उत्पत्ति का वर्णन है। प्राण था, पर गति न थी; ‘आनिद्वातं’ अर्थात् गति रहित, निष्कंप। जब कल्प का आरंभ होता है तब ‘आनिद्वातं’ में कंप उत्पन्न होता है। प्राण आकाश में आघात पर आघात करता है। अणुओं का संघात होने लगता है और अणु के योग से अन्य भूतों की सृष्टि होती है। हम देखते हैं कि लोगों ने उसका कैसा अद्भुत अनुवाद प्रलय [ २३७ ]किया है। लोग दार्शनिकों और भाष्यकारों को अनुवाद करते समय पूछते ही नहीं और न उन्हें स्वयं मस्तिष्क है। नासमझ लोग तीन अक्षर संस्कृत के पढ़ लेते हैं और लगते हैं अनु- वाद करने। वे अनुवाद में भूतो को वायु, अग्नि आदि लिख मारते हैं। यदि वे भाष्यों को देखें तो जान पड़ेगा कि उनका अभिप्राय कभी वायु आदि से नहीं है।

आकाश प्राण के निरंतर आघात से वायु वा कंप को उत्पन्न करता है। वायु कंप करता है। कंप बढ़ता जाता है और संघर्ष उत्पन्न होता है जिससे ताप वा तेज की उत्पत्ति होती है। फिर इस ताप से अप वा द्रव्य की उत्पत्ति होती है। फिर वह द्रव घनत्व को प्राप्त होता है। हम ऊपर देख चुके हैं कि पहले आकाश वा ईथर था; फिर कंप हुआ, फिर ताप, फिर वह द्रव हुआ और वही घनत्व को प्राप्त हो गया। यह फिर पूर्व पूर्व दशा को प्राप्त होता हुआ लय को प्राप्त होता है। घन द्रव होता है, द्रव ताप, फिर ताप कंप हो जाता है और कंप के शांत होने पर कल्पांत आ जाता है। उस समय सब लय हो जाते हैं। फिर पुनः उत्पत्ति होती और पुनः लय होता है। आकाश के बिना प्राण कुछ कर नहीं सकता। जो हमें गति, कंप वा विचार के रूप में दिखाई पड़ता है, वह सब प्राण ही का विकार है। जो हमें भूत, द्रव्य, रूप वा अवरोध के रूप में दिखाई पड़ता है, वह आकाश का ही विकार है। प्राण अकेला रह नहीं सकता और न बिना दूसरे मध्यस्थ के काम कर सकता है। जब [ २३८ ]वह शुद्ध प्राण रहता है, तब वह आकाश में रहता है; जब वह विकार प्राप्त होकर शक्तियों का रूप धारण करता है जैसे गुरुत्व, आकर्षण आदि, तब वह द्रव्य में रहता है। द्रव्य से पृथक् शक्ति वा शक्ति-रहित द्रव्य कभी आपके देखने में न आया होगा। जिसे हम शक्ति और द्रव्य कहते हैं, वे हैं क्या? इसी आकाश और प्राण की अभिव्यक्ति मात्र ही तो हैं। प्राण को जीवन वा जीवन-शक्ति कहते हैं। पर प्राण शब्द को केवल प्राणी वा मनुष्य के जीवन ही तक के अर्थों में परिमितन न करना चाहिए और न उसे भ्रमवश आत्मा वा जीवात्मा ही समझ लेना चाहिए। इस प्रकार यह काम होता रहता है। सृष्टि का न आदि है और न अंत; यह निरंतर होती ही रहती है।

सांख्ययोग के विद्वानों को एक और बात है अर्थात् स्थूल पदार्थ सूक्ष्म के परिणाम हैं। जो स्थूल है, वह सूक्ष्म अंशों से बना है। इन सूक्ष्म अंशों को तन्मात्रा कहते हैं। मैं एक फल सूँँघता हूँ। सूँँघते समय किसी वस्तु का नाक से छू जाना आवश्यक है। फल सामने है। मैं देखता हूँ, वह मेरी नाक में नहीं घुसता। जो कुछ फल से मेरी नाक तक पहुँचता है, उसे तन्मात्रा कहते हैं। वह फूल के अत्यंत सूक्ष्म अणु हैं। इसी प्रकार ताप, तेज आदि की भी तन्मात्राएँ हैं। ये तन्मात्राएँ परमाणु में विभक्त हो सकती हैं। भिन्न भिन्न दार्शनिकों के भिन्न भिन्न मत हैं और वे निरे मत ही हैं। हमें इसी से काम है कि स्थूल पदार्थ सूक्ष्माति सूक्ष्म पदार्थों से बने हैं। पहले हमें [ २३९ ]स्थूल भूत देख पड़ते हैं जिनका हम अंपनी इंद्रियों से साक्षात् करते हैं। फिर सूक्ष्म भूत हैं जिनका संयोग आँख, कान, नाक आदि से होता है। आकाश के कंप आँखों को स्पर्श करते हैं। हम उन्हें देख नहीं सकते; पर यह हम जानते हैं कि प्रकाश दिखाई पड़ने के पहले ही हमारी आँख में कंप का स्पर्श होता है।

यह आँख है, पर आँख नहीं देखती। मस्तिष्कगत चक्षु इंद्रिय के तंतु को काट दीजिए, सामने के पदार्थों का प्रतिबिंब आँख की पुतली पर पड़ेगा, पर वे सुझाई न पड़ेंगे। आँख गोलक मात्र है। चक्षु इंद्रिय मस्तिष्क में है, जहाँ चक्षु तंतु लगा है। इसी प्रकार नाक है; उसके भीतर या परे घ्राणेंद्रिय है। ऊपर इंद्रियों के बाहरी गोलक मात्र हैं। यही इंद्रियाँ प्रत्यक्ष ज्ञान के मुख्य साधन और आधार हैं।

यह आवश्यक है कि मन इंद्रियों से संयुक्त रहे। यह नित्य के अनुभव को बात है कि जब हम पढ़ने में लगे रहते हैं, तब हमें घड़ी का बजना नहीं सुनाई पड़ता। कान तो था और शब्द मस्तिष्क में पहुँचा भी, पर फिर भी हमने सुना क्यों नहीं? कारण यह था कि मन श्रोरेंद्रिय से संयुक्त न था।

प्रत्येक इंद्रिय-गोलक की इंद्रियाँ अलग अलग हैं। क्योंकि यदि एक ही इंद्रिय से सबका काम चलता तो जब मन का उससे संयोग होता, तब सब इंद्रियाँ अपना अपना काम देतीं। पर ऐसा नहीं है। हम देखते हैं कि घड़ी बजी और हमने सुना [ २४० ]नहीं। यदि सब गोलकों के लिये एक ही इंद्रिय होती तो मन एक समय में देख भी सकता और सुन भी सकता। एक समय में वह साथ ही देख, सुन और सूँँघ सकता और उसको सब कुछ एक साथ करना असंभव न होता। अतः यह आव- श्यक है कि प्रत्येक गोलक की इंद्रिय अलग अलग हो। आधु- निक मनोविज्ञान ने भी इसे स्वीकार किया है। यह संभव है कि कोई साथ ही देख और सुन दोनों सके, पर ऐसी दशा में मन दोनों इंद्रियों से कुछ कुछ युक्त रहता है।

यह इंद्रियाँ बनी किससे हैं? हम देखते हैं कि आँख, नाक, कान स्थूल द्रव्यों से बने हैं। इंद्रियाँ भी भौतिक ही हैं। जैसे शरीर स्थूल द्रव्य का है और प्राण को भिन्न भिन्न स्थूल शक्तियों में परिणत करता है, वैसे ही इंद्रियाँ भी सूक्ष्म भूतों, आकाश, वायु, तेज आदि से बनी हैं और प्राण को प्रत्यक्ष की सूक्ष्म शक्तियों के रूप में परिणत करती हैं। इंद्रियाँ, प्राण और मन-बुद्धि मिलकर सूक्ष्म शरीर कहलाते हैं, जिसे लिंग शरीर भी कहते हैं। लिंग शरीर के भी रूप होते हैं, क्योंकि सभी भौतिक पदार्थ रूपवाले हैं।

मन को ही जब वह वृत्ति-युक्त होता है, चित्त कहते हैं। यदि आप एक तालाब में कंकड़ी फेंकें तो पहले कंप उठेगा, फिर अवरोध होगा। पहले पानी में कंप उठेगा, फिर वह कंकड़ी में ठोकर खायगा। इसी प्रकार जब कोई संस्कार चित्त पर आता है, तब उसमें कुछ कंप होता है। इसीका नाम मन है। [ २४१ ]मन संस्कार को आगे ले जाता है और उसे व्यवसायात्मिका शक्ति बुद्धि को दे देता है। वहाँ वेदना उत्पन्न होती है। बुद्धि के परे अहंकार है जिसमें “मैं हूँ” को बोध उत्पन्न होता है। अहंकार से परे महत् है जो प्रकृति का अति सूक्ष्म रूप है। पूर्व पूर्व उत्तरोत्तर के कार्य्य हैं। तालाब में तो बाहर से ही आघात पहुँचते हैं, पर मन में बाह्य और आभ्यंतर दोनों ओर से आघात पहुँचते हैं। महत् के परे मनुष्य की आत्मा है जिसे पुरुष कहते हैं। यह शुद्ध, पूर्ण, निःशंक और द्रष्टा है और ये सब परिवर्तन उसी के लिये हैं।

मनुष्य इन सब परिणामों वा विकारों को देखता है; पर वह अशुद्ध नहीं है और उसमें दोष अध्यास के कारण है। वेदांत में प्रतिबिंब को अध्यास कहते हैं। यह अध्यास वैसे ही है जैसे शुद्ध स्फटिक के सामने रक्त वा नील रंग का फल दिखाया जाय तो उसका प्रतिबिंब स्फटिक में भासमान होगा। हम इसे मान लेते हैं कि कनेक आत्माएँ हैं और सब पूर्ण और शुद्ध हैं। उनके ऊपर वर्ण वर्ण के सूक्ष्म द्रव्यों का आवरण वा आभा पड़ती है और वे नाना वर्ण के जान पड़ने लगते हैं। प्रकृित ऐसा क्यों करती है? प्रकृति इतने रूप केवल आत्मा की उन्नति के लिये धारण कर रही है; सारी सृष्टि श्रात्मा की भलाई के लिये है कि वह मुक्त हो जाय। यह वृहत् पुस्तक जो विश्व कहलाती है, मनुष्य के सामने खुली पड़ी है कि वह उसे पढ़े; और अंत को उसे इसका ज्ञान हो जाता है [ २४२ ]कि वह सर्वव्यापी और सर्वांतरयामी है। मैं यहाँ आपको यह बतला देना उचित समझता हूँ कि हमारे कितने ही दार्शनिक ईश्वर को वैसा नहीं मानते हैं जैसा आप लोग मानते हैं। सांख्यदर्शन के प्रवर्तक कपिलाचार्य्य ईश्वर की सत्ता ही को नहीं मानते। उनका मत है कि पुरुष विशेष वा व्यक्तिगत ईश्वर का भाव नितांत निष्प्रयोजन है। प्रकृति स्वयं सारी सृष्टि रच सकती है। जिसे कर्तृत्वधर्म कहते हैं, उसकी उन्होंने जड़ उखाड़ दी और कह दिया कि बच्चों की सी इन बातों से कोई लाभ नहीं है। पर वह एक अद्भुत प्रकार के ईश्वर को मानते हैं। उनका कथन है कि हम सब मोक्ष के लिये प्रयास कर रहे हैं और जब हम मुक्त हो जाते हैं, तब हम प्रकृति में मानो मिल जाते हैं और कल्पादि में प्रकट होते और शासन करते हैं। हम सर्वव्यापी और सर्वांतरयामी के रूप में प्रकट होते हैं। उस अर्थ में हम देवता कहलाते हैं। आप और मैं और साधारण प्राणी देवता हो सकते हैं। उनका कथन है कि ऐसे देवता क्षणिक हुआ करते हैं; पर ऐसा शाश्वत ईश्वर कोई हो ही नहीं सकता जो इस विश्व का नित्य और सर्वशक्तिमान् शासक हो। यदि कोई ऐसा ईश्वर हो भी तो यह कठिनाई आ पड़ेगी कि वह या तो बद्ध होगा या मुक्त। जो मुक्त है, वह सृष्टि ही न करेगा, उसको कोई आवश्यकता ही नहीं है। जो बद्ध है वह भी सृष्टि नहीं कर सकता; उसमें शक्ति ही नहीं है। दोनों दशाओं में कोई सर्वांतरयामी और सर्वशक्तिमान् शासक नहीं हो सकता। [ २४३ ]हमारे ग्रंथों में जहाँ जहाँ ईश्वर शब्द वा देवता शब्द आता है, वहाँ कपिल कहते हैं कि ऐसे ही मुक्त प्राणियों के अर्थ में आता है।

कपिल का विश्वास कभी आत्मा की एकता पर नहीं था। उनका अन्वेषण सचमुच लोकोत्तर ही था। वे भारतीय दार्श- निकों में आदि दार्शनिक ऋषि कहलाते हैं। बौद्ध धर्म आदि उन्हीं के विचार के फल हैं।

सांख्यशास्त्रानुसार आत्मा अपने मुक्त स्वभाव और अपने अन्य सर्वशक्तिमत्व, सर्वज्ञत्वादि गुणों को प्राप्त कर सकती है। पर प्रश्न यह उठता है कि बंधन कहाँ से आता है। कपिल कहता है कि इसका आदि नहीं है। पर यदि यह अनादि है, तो अनंत भी होगी और हमें मुक्ति का लाभ न होगा। वह कहता है कि यद्यपि बंधन अनादि है, पर यह आत्मा का नित्य धर्म नहीं है। दूसरे शब्दों में प्रकृति (बंधन का कारण) अनादि और अनंत है, पर उस अर्थ में नहीं जिसमें आत्मा है; क्योंकि प्रकृति का कोई व्यक्तित्व वा रूप नहीं है। वह नदी के समान है जिसमें पानी का प्रवाह नित्य चला करता है। उसी प्रवाह को नदी कहते हैं; पर नदी कोई नित्य या स्थायी वस्तु नहीं है। प्रकृति में सब विकारवान् हैं। पर आत्मा निर्विकार है। प्रकृति में सदा विकार होता रहता है। संभव है कि आत्मा उसके बंधन से मुक्त हो जाय।

समस्त विश्व का रचना-क्रम वही है जो इसके अंश का [ २४४ ]है। जैसे हमारे मन है, वैसे विश्व को भी मन है; जैसे व्यक्ति में है वैसे ही समष्टि में। विश्व का भी एक पिंड है। उस पिंड के परे मन है, उसके परे अहंकार, उसके परे महत्तत्व। और यह सब प्रकृति में है। प्रकृति में अभिव्यक्तियाँ हैं, बाहर नहीं।

हमारा जो स्थूल शरीर है, वह हमारे पिता से है। वैसे ही मन भी है। हमारा नितांत पैतृक शरीर पिता से है और हमारे मन और अहंकार भी पिता के ही अंश हैं। हम अपने पिता से पाए हुए अंश में विश्व के मन से कुछ अंश लेकर बढ़ा देते हैं। महत्तत्व का अघट भांडार है; उसी से हम जितना हो सकता है, अपने काम भर के लिये ले लेते हैं। विश्व में आध्या- त्मिक शक्ति का अघट भांडार है। उसी से हम नित्य लिया करते हैं; पर बीज हमारे पिता के शरीर से हममें आया है।

हमारा सिद्धांत यह है कि पैतृकदाय के साथ पुनर्जन्म भी मिला है। पुनर्जन्म के नियमानुसार जन्म लेनेवाले जीवात्मा को अपने पिता माता से अपने शरीर की सामग्री मिलती है।

युरोप के कुछ दार्शनिकों का विचार है कि यह विश्व इस कारण है कि “मैं हूँ”। यदि मैं न होता तो विश्व कहाँ था? इसी बात को कभी कभी इस प्रकार भी कहते हैं कि यदि संसार के सब मनुष्य मर जायँ तो मनुष्य फिर न रहेंगे। कोई ऐसा प्राणी न रह जायगा जो उनको समझ-बूझ सके। फिर सब सृष्टि का लोप हो जायगा। पर युरोप के इन दार्शनिकों को इसके रहस्य का ज्ञान नहीं है, वे सिद्धांत को भले ही जाना [ २४५ ]करें। आधुनिक विज्ञान को इसकी झलक भर मिली है। इसका समझना उस समय सहज हो जाता है जब इसे सांख्य की दृष्टि से देखा जाय। सांख्यदर्शन के अनुसार कोई वस्तु तब तक हो नहीं सकती जब तक उसमें हमारे मन का कुछ अंश सम्मिलित न हो। मैं इस मेज को कि यह कैसी है, नहीं जान सकता। इसका संस्कार मेरी आँखों पर पड़ता है; फिर इंद्रिय से होकर मन पर; फिर मन में वेदना होती है। इसी वेदना को हम मेज बतलाते हैं। यह वैसे ही है जैसे तालाब में कंकड़ी का फेंकना। तालाब लहर को कंकड़ी पर फेंकता है और इसी से लहर का हमको ज्ञान होता है। बाहर क्या है, कोई नहीं जानता। जब हम उसे जानना चाहते हैं तब वही हो जाता है जो हम काम में लाते हैं। मैंने अपने मन से आँखों में वह सामग्री दी है। बाहर कुछ पड़ा है। उसी पर मैं अपने मन को डालता हूँ और उसी का वह रूप हो जाता है जो मुझे दिखाई पड़ता है। तो फिर सबको एक ही प्रकार से क्यों दिखाई पड़ता है? कारण यह है हम सबमें एक ही प्रकार से विश्व के मन का अंश है। जिनके मन एक प्रकार के होते हैं, उन्हें सब एक ही प्रकार के दिखाई पड़ते हैं। जिनके मन एक प्रकार के नहीं हैं, उनको वैसे न देख पड़ेंगे।


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