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विवेकानंद ग्रंथावली:ज्ञान-योग/२९ सांख्य-दर्शन

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विवेकानंद ग्रंथावली : ज्ञान-योग
स्वामी विवेकानंद, अनुवादक जगन्मोहन वर्मा

वाराणसी: नागरी प्रचारिणी सभा, पृष्ठ २४६ से – २६१ तक

 
(२९) सांख्य-दर्शन।

सांख्यशास्त्र के विद्वान् प्रकृति को जड़ कहते हैं और गुणों की साम्यावस्था को प्रकृति का लक्षण बतलाते हैं। यह स्वभाव- सिद्ध है कि साम्यावस्था गति हो ही नहीं सकती। प्रारंभिक अवस्था में किसी प्रकार की गति नहीं होती, पर नितांत साम्या- वस्था रहती है। प्रकृति तब निर्विकार रहती है; क्योंकि विकार वा नाश तो तब होता है, जब वह चल और परिणाम को प्राप्त होती है। सांख्य के अनुसार अणु आदि में नहीं होते। इस विश्व की सृष्टि अणु से नहीं होती; अणु तो द्वितीय वा तृतीय विकार दशा में उत्पन्न होते हैं। आधुनिक ईथर के सिद्धांत के संबंध में यदि आप ईथर को अणुवाला मानें तो उससे कुछ काम न चलेगा। इसकी व्याख्या अधिक स्पष्ट शब्दों में यह है। मान लीजिए कि वायु में अणु हैं और हम यह भी हम जानते हैं कि ईथर सब जगह व्याप्त और भरपूर है और वायु के अणु उसी ईथर में हैं और उसी पर तैरते हैं। अब यदि ईश्वर भी अणुवाला हो तो ईथर के दो अणुओं के बीच अवकाश रह जायगा। फिर उस अवकाश में क्या रहेगा? यदि आप इसके लिये किसी और सूक्ष्म ईथर को मानें तो उस सूक्ष्म ईथर के अणुओं के मध्य के अवकाश में रहने के लिये किसी और ईथर की आवश्यकता पड़ेगी; और अंत को पारावार न रहेगा और अनवस्था दोष आवेगा। सांख्य में इसे अकारण कहते हैं। अतः अणुवाद सर्वतंत्र सिद्धांत नहीं हो सकता। सांख्य के अनुसार प्रकृति सर्वगत है। उसी प्रकृति में सारे जगत् का कारण है। कारण क्या है? व्यक्तावस्था की सूक्ष्म वा अव्यक्तावस्था वा ईषद् व्यक्तावस्था―वही व्यक्त का सूक्ष्म से सूक्ष्म होना। नाश किसका नाम है? कारण में लय होने का। आपके पास एक ठीकरा है। उसे पटक दीजिए, चूर चूर हो जायगा। उसका नाश हो जायगा। इसका आशय यही है कि कारण अपना रूप धारण कर लेगा। वह पदार्थ जिससे वह वर्तन बना था, अपने वास्तविक रूप को धारण कर लेगा। इस भाव के अतिरिक्त नाश का यह आशय कि शून्य हो जाना, हो ही नहीं सकता। पदार्थों का शून्य हो जाना नितांत असंभव है। आधुनिक भौतिक विज्ञान से यह सिद्ध हो सकता है कि कपिल ने जो नाश का यह अर्थ किया कि ‘नाशः कारणलयः’ ठीक है। नाश का अर्थ है सूक्ष्म होकर कारण में लय हो जाना। आप जानते हैं कि द्रव्य की नित्यता को प्रयोगशाला में किस प्रकार प्रत्यक्ष करके दिखलाते हैं। आजकल ज्ञान के युग में यदि कोई यह कहे कि प्रकृति वा पुरुष वा आत्मा शून्य हो सकती है तो उस पर लोग हँसेंगे। केवल अशिक्षित और मूर्ख लोग ऐसी बातें करते हैं। यह आश्चर्य्य की बात है कि आधु- निक विज्ञान से उन बातों की सिद्धि होती है जिनकी शिक्षा प्राचीनों ने दी थी। वह अवश्य वैसा ही है और यही उसकी सत्यता का प्रमाण है। उन लोगों ने मन को आधार मानकर जिज्ञासा आरंभ की; इस विश्व के मानसिक अंश की छानबीन की और उनको जो निश्चय हुआ, वही हमें बाह्य अंश की छानवीन से हुआ। कारण यह है कि दोनों मार्ग एक ही स्थान पर पहुँचने के हैं।

आप जानते हैं कि विश्वविधान के संबंध में प्रकृति का आदि विकार महत्तत्व है। यही प्रकृति की पहली विकृति है। इसे स्वयं चेतन मत समझो, यह ठीक नहीं है। चित् महत् का एक अंश मात्र है। महत् व्यापक है। इसमें चित्, अतिचित् और उपचित् सभी आ जाते हैं। चित् की कोई अवस्था विशेष मानना ठीक नहीं है। प्रकृति में आपको अपनी आँखों के सामने कुछ विकार दिखाई पड़ते हैं और आप उन्हें देखकर यह जानते हैं कि यह विकार है। पर अन्य कितने ही ऐसे विकार हैं जिन्हें हम इंद्रियों द्वारा ग्रहण नहीं कर सकते। वे बहुत सूक्ष्म हैं। पर उनका कारण वही है। महत्तत्व ही इन विकारों का कारण है। महत्तत्व से ही अहंकार उत्पन्न होता है। यह सब पदार्थ हैं। द्रव्य और मन में कोई अंतर नहीं है, केवल मात्रा ही का अंतर है। पदार्थ एक ही है, कहीं सूक्ष्म कहीं स्थूल; एक हो बदलकर दूसरा हो जाता है। यह आज- कल के भौतिक विज्ञानवादियों के मत से मिलता भी है। इस सिद्धांत पर विश्वास करके कि मन मस्तिष्क से पृथक् नहीं है, आगे के झगड़ों से छुट्टी मिल जाती है। अहंकार से विकार द्वारा दो भेद होते हैं। एक से इंद्रियाँ उत्पन्न होती हैं। इंद्रियाँ दो प्रकार की है―कमैंद्रिय और ज्ञानेंद्रिय। आँख, कान, नाक आदि इंद्रियाँ नहीं हैं, बल्कि उनके पट हैं जिन्हें आजकल के लोग मस्तिष्क का केंद्र वा नाड़ी केंद्र कहते हैं। इसी अहंकार के विकार से इंद्रियों वा केंद्रों की सृष्टि होती है। उसी अहंकार का दूसरा एक और विकार है जिसे तन्मात्रा कहते हैं। वे भूत के अत्यंत सूक्ष्म अंश हैं। वे इंद्रिय गोलक में स्पर्श करते हैं और तब हमें विषयों का साक्षात् और ज्ञान होता है। आप उन्हें साक्षात् नहीं कर सकते, पर आपको उनके होने का ज्ञान हो सकता है। इन्हीं तन्मात्राओं से स्थूल भूतों की सृष्टि होती है। वे भूत पृथ्वी, जल इत्यादि हैं, जिनको देख-छू सकते हैं। मैं आपको यह बतला देना चाहता हूँ कि उनका ग्रहण करना अति कठिन है। कारण यह है कि पश्चिम के देशों में मन और भूतों के संबंध में विलक्षण विचार है। उन विचारों को मस्तिष्क से निकालना कठिन है। मुझे भी इसके लिये बड़ी कठिनाई उठानी पड़ी है; क्योंकि मुझे भी पहले पाश्चात्य दर्शन की ही शिक्षा मिली थी। यह सब विश्वविधान की चीजें हैं। इस प्रकृति के विश्वव्यापी प्रसार को देखिए जो अविच्छिन्न, अव्यक्त रूप से सर्वतोव्यक्त थी। वह सवकी पूर्वावस्था है जो उसी प्रकार विकार को प्राप्त होती है जैसे दूध जमकर दही हो जाता है। उस प्रकृति का पहला विकार महत् है। वही महत् स्थूल हो जाता है; फिर उसी को अहंकार कहते हैं।

तीसरा विकार इंद्रिय और वे सूक्ष्म तन्मात्राएँ हैं, जिनसे हम
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आँख से देखते, कान से सुनते, नाक से सूँँघते, जीभ से चखते और हाथों से छूते हैं। यही मिलकर स्थूल होकर अंत को विश्व का रूप धारण कर लेते हैं। सांख्यदर्शन के अनुसार यही विश्व-विधान की परिक्रिया है। जो प्रकृति में है, वही सूक्ष्म विश्व में है। एक मनुष्य को ले लीजिए। उसमें पहले अव्यक्त है; वही प्राकृतिक पदार्थ उसमें महत् का रूप धारण कर लेता है। फिर महत् अहंकार हो जाता है; फिर इंद्रियाँ; यही सूक्ष्म अणु मिलकर शरीर के कारण होते हैं। मैं इसे और स्पष्ट कर देना चाहता हूँ। यही सांख्य का मूल सिद्धांत है। मैं इसे अच्छी तरह समझा देना चाहता हूँ, कारण यह है कि यही संसार भर के दर्शनों का आधार है। संसार में कोई दर्शन ऐसा नहीं है जिसने कुछ न कुछ कपिल से न लिया हो। पैथा- गोरस भारतवर्ष में आया था और उसने इस दर्शन का अध्य- यन किया था। वही यूनान के दर्शन का आरंभ वा मूल था। इसके पीछे सिकंदरिया के दर्शन का आरंभ हुआ। उसके पीछे विज्ञानवाद की उत्पत्ति हुई। दर्शन के दो भाग हो गए। एक युरोप और सिकंदरिया को गया; दूसरा भारत में रह गया जिस से व्यास के दर्शन का विकास हुआ। संसार में कपिल का सांख्यदर्शन सबसे आदिम और युक्तियुक्त शास्त्र है। सारे अध्यात्मवादियों को भगवान् कपिल को नमस्कार करना चाहिए। मैं आपसे यही कहता हूँ कि हमें उस दर्शन

शास्त्र के आदि आचार्य्य की बातें सुननी चाहिएँ। श्रुति में उस
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अद्भुत और आदि दार्शनिक का नाम आया है। ‘ऋषिप्रसूर कपिलं यस्तमग्रे’ उसके ज्ञान कैसे आश्चर्य्यजनक थे। यदि योगियों के अलौकिक बल के प्रमाण की आवश्यकता है, तो ऐसे ही लोग प्रमाण हैं। उनके पास कोई दूरदर्शक या सूक्ष्म- दर्शक यंत्र नहीं थे। पर उनकी दृष्टि कितनी सूक्ष्म थी और उनकी छानबीन कितनी ठीक और आश्चर्यजनक थी!

मैं अब यह दिखलाऊँगा कि शोपनहार और भारतवर्ष के दार्शनिकों के क्या अंतर है। शोपनहार कहता है कि इच्छा ही सबका कारण है। हम इच्छा ही के कारण व्यक्त होते हैं; पर हम इसे नहीं स्वीकार करते। हम इच्छा तो कर्मतंतु का समानार्थक है। जब हम किसी पदार्थ को देखते हैं, तब इच्छा नहीं होती। जब हमारे मस्तिष्क में संस्कार पहुँचता है, तब वेदना होती है और यह निश्चय होता है कि यह करो, यह न करो। अहंकार को इसी दशा का नाम इच्छा है। कोई इच्छा बिना वेदना के नहीं होती। इच्छा के पूर्व कितनी बातें हो चुकती हैं। यह अहंकार से उत्पन्न होती है और अहंकार महत्तत्व का विकार है; और महत्तत्व प्रकृति का विकार है। यह बौद्धों का विचार है कि जो कुछ हम देखते हैं, इच्छा वा चैतसिक है। यह मनोविज्ञान की दृष्टि से असंगत है, क्योंकि इच्छा कर्मतंतु मात्र है। यदि आप कर्मतंतु को निकाल डालें तो मनुष्य में इच्छा होगी ही नहीं। इस बात का निश्चय क्षुद्र जंतुओं के ऊपर

परीक्षा द्वारा हो चुका है।
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अब हम यह प्रश्न लेते हैं कि मनुष्य महत् कैसे है। इसका समझना अत्यंत आवश्यक है। यह महत् ही अहंकार हो जाता है; यही शरीर में बल का कारण है। यह चित्, अतिचित् और उपचित् में व्याप्त है। यह तीनों अवस्थाएँ हैं क्या? उप- चित् पशुओं में पाया जाता है जिसे सहज ज्ञान कहते हैं। यह अचूक होता है, पर अत्यंत परिमित होता है। सहज ज्ञान बहुत कम चूक करता है। पशु अपने सहज ज्ञान से विषैले पौधों को पहचानते हैं वा जान जाते हैं। पर उनका सहज ज्ञान बहुत स्वल्प होता है। ज्यों ही कोई नया पदार्थ सामने आ जाता है, पशु चकरा जाता है। वह कल के समान काम करता रहता है। इसके परे ऊँचे प्रकार का ज्ञान आता है। इसमें चूक होती है और वह प्रायः भूल किया करता है। इसका क्षेत्र विस्तृत और गति धीमी होती है। इसे बुद्धि वा तर्क कहते हैं। यह सहज ज्ञान से कहीं बड़ी होती है; पर सहज ज्ञान बुद्धि की अपेक्षा अधिक निश्चायक होता है। बुद्धि से सहज ज्ञान की अपेक्षा अधिक भूल होने की संभावना है। मन की एक और ऊँची अवस्था है जिसे अतिचित् कहते हैं। यह योगियों में और उनमें होती है जो लोग इसे प्राप्त करते हैं। यह अचूक होती है और इसका क्षेत्र बुद्धि से कहीं अधिक विस्तृत होता है। यही उसकी सर्वोच्च दशा है। अतः हमें स्मरण रखना चाहिए कि महत्तत्व ही सबका कारण है। वही

भिन्न भिन्न रूपों में अभिव्यक्त होता है और ज्ञान के तीनों
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प्रकार के भेदों में अर्थात् चित्, अतिचित् और उपचित् में व्याप्त है।

अब एक और सूक्ष्म प्रश्न आता है जो प्रायः पूछा जाता है। वह यह है कि यदि किसी पूर्ण ईश्वर ने इस विश्व को रचा है तो फिर इसमें अपूर्णता क्यों है? जिसे हम विश्व कहते हैं, वह उतना ही मात्र है जो हमें दिखाई पड़ता है। इसके आगे क्या है, हम देख नहीं सकते। अब वही प्रश्न असंभव हो जाता है। यदि हम किसी वस्तु के एक अंश को लेकर देखें तो वह हमें विषम जान पड़ेगा। बहुत ठीक। विश्व हमें विषम जान पड़ता है, क्योंकि हम उसे विषम बना देते हैं। कैसे? प्रमाण क्या है? पहले यह तो विचारिए कि ज्ञान कहते किसे हैं? किसी वस्तु को उसी प्रकार की वस्तु से मिलाने का नाम ज्ञान है। आप सड़क पर जाते हैं और एक मनुष्य को देखकर कहते हैं कि हाँ यह मनुष्य ही है; कारण यही है कि आप अपने उस संस्कार को जो आपके चित्त पर है, स्मरण करते हैं। आपने अनेक मनुष्यों को देखा है और प्रत्येक मनुष्य का संस्कार आपके चित्त पर बना है। ज्यों ही आप उसे देखते हैं, आप उसे अपने भांडार के संस्कारों से मिलाते हैं; और यदि वैसा ही चित्र वा संस्कार मिल जाता है तो आपका संतोष हो जाता है। आप उसे उसी के साथ लगाकर रख देते हैं। जब नया संस्कार आता है और उसी का तद्रूप संस्कार मिल जाता है, तब आपको

संतोष हो जाता है और इसी मिलान को ज्ञान कहते हैं। एक
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अनुभव का पूर्व के अनुभवों से मिलान करने को ज्ञान कहते हैं और यह इसके लिये एक बड़ा प्रमाण है कि बिना पूर्व अनु- भव के ज्ञान नहीं। यदि आपमें अनुभव नहीं है और आपका चित्त संस्कार-रहित है तो आपको कोई ज्ञान हो ही नहीं सकता; क्योंकि ज्ञान तभी होता है जब भीतर मिलाने के लिये कुछ संस्कार होता है। नए संस्कार को मिलाने के लिये भीतर संस्कारों का संग्रह होना चाहिए। मान लीजिए, कोई लड़का ऐसा उत्पन्न हो जिसके पास संचित संस्कार नहीं; तो उसको ज्ञान होना असंभव है। अतः बच्चे के पास पहले से संचित ज्ञान था जो बढ़ता जा रहा है। इस तक का निरसन करने के लिये आप कोई मार्ग बतलाइए। यह गणित की बात है। कितने यूरोपीय दर्शनों में भी यह बात मानी गई है कि बिना पूर्व के ज्ञान भांडार के ज्ञान हो ही नहीं सकता। उन लोगों ने यह विचार निर्धारित किया है कि बालक ज्ञान लेकर उत्पन्न होता है। युरोप के विद्वानों का कथन है कि बच्चे का पूर्व ज्ञान उसके पूर्व जन्मों के कारण नहीं है, अपितु उसके माता पिता के अनु- भव का ही फल है; यह दाय स्वरूप है जो पिता पितामह आदि से आता है। उन्हें बहुत ही शीघ्र यह जान पड़ेगा कि यह विचार नितांत मिथ्या है। जर्मन के कई दार्शनिक इस दाय के सिद्धांत का घोर खंडन कर रहे हैं। दाय की बात है तो अच्छी, पर अपर्य्याप्त वा अधूरी है। इससे केवल भौतिक अंश का काम

चलता है। आप इससे उस संसर्ग का जिसमें हम हैं, क्या
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समाधान कर सकते हैं? अनेक कारणों से कार्य्य की उत्पत्ति होती है। संसर्ग को तो एक प्रकार का कार्य्यौं का संपादक ही कहना पड़ेगा। हम अपने संसर्ग के आप ही कारण होते हैं। जैसा हमारे पूर्व का संसर्ग होता है, वैसा ही हमारा वर्त- मान संसर्ग भी होता है। मद्यप स्वभावतः नगर की निकृष्ट गलियों में गिरते हैं।

आप समझते हैं कि ज्ञान क्या पदार्थ है। ज्ञान कहते हैं नए संस्कारों को पुराने संस्कारों के साथ मिलाकर रखने को, उन्हींसे मिलाकर उसे पहचानने को। पहचान किसका नाम है? पूर्व के संचित संस्कारों से नए को मिलाकर देखने को कि वह तद्रूप है वा नहीं। अब यदि ज्ञान पूर्व संचित संस्कारों से नए संस्कार को मिलाने ही का नाम है तो इसका यही अर्थ है कि उस प्रकार के एक एक संस्कार को उलट उलटकर देखना। क्या यह ठीक नहीं है? मान लीजिए कि आप एक कंकड़ी उठाते हैं। उसे मिलाने के लिये आपको वैसी ही सब कंकड़ियों को उठाकर देखना पड़ेगा। विश्व के प्रत्यक्ष के संबंध में हम ऐसा कर ही नहीं सकते; क्योंकि हमारे मन के भांडार में इस प्रकार का केवल एक ही चित्र है; दूसरा कोई वैसा प्रत्यक्ष ज्ञान है ही नहीं जिससे हम उसे मिला सकें। हम उसे और तद्रूप संस्कार के साथ मिला नहीं सकते। यह विश्व हमारे चित्त से बाहर है, अत्यंत अद्भुत और अनोखा

है। इसके जोड़ का भीतर कोई है ही नहीं। मिलावें तो
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किससे मिलावें? यही कारण है कि हम इसके पीछे सिर खपा रहे हैं, इसे भयानक समझ रहे हैं, भला-बुरा कह रहे हैं। कभी कभी हम इसे अच्छा समझते हैं, पर हम इसे सदा अधूरा समझते हैं। इसका ज्ञान तभी हो सकता है जब इसके जोड़ का कोई दूसरा मिले। हम इसे तभी जानेंगे जब हम विश्व और चित्त दोनों से परे निकल जायँ; तभी विश्व के रहस्य का पता चलेगा। जब तक हम ऐसा न करें, हमारा दीवार पर सारा सिर पटकना निरर्थक है; क्योंकि बिना तद्रूप संस्कार के ज्ञान हो नहीं सकता और इस लोक में केवल ऐसा एक ही प्रत्यक्ष ज्ञान है। ऐसा ही ईश्वर के संबंध का भी विचार है। जो कुछ हम ईश्वर के संबंध में देखते हैं, वह एक अंश मात्र है। हमें विश्व के एक अंश मात्र का ही बोध होता है; शेष मनुष्य की पहुँच के बाहर है। ‘मैं विश्वात्मा इतना बड़ा हूँ कि यह विश्व मेरा एक अंश मात्र है। यही कारण है कि हमें ईश्वर पूर्ण रूप से दिखाई नहीं पड़ता और हम उसे जान नहीं सकते। ईश्वर या विश्व के जानने का यही एक उपाय है कि हम बुद्धि और चित्त से परे हो जायँ। जब आप श्रोत्र और श्रोतव्य, ज्ञान और ज्ञातव्य से परे हो जायँगे, तभी आप सत्य को जान सकेंगे। ‘त्रैगुण्य विषया वेदाः निस्त्रै गुण्यो- भवार्जुन।’ जब हम उनसे मुक्त हो जायँगे, तभी हममें सम- दर्शिता आवेगी, अन्यथा नहीं।

सूक्ष्म और स्थूल जगत् का संघटन एक ही प्रकार का है।
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सूक्ष्म जगत् में हमें एक अंश का ज्ञान होता है, केवल उसके मध्य का। हमें न तो उपचित् का न अतिचित् का ज्ञान होता है; अर्थात् न हममें सहज बुद्धि रहती है न अवभास रहता है। हममें चित् मात्र रहता है। यदि कोई यह कहता है कि मैं पापी हूँ तो वह झूठ कहता है, क्योंकि उसे अपना ज्ञान नहीं है। वह महा अज्ञानी है; उसे अपने एक अंश का ज्ञान है, क्योंकि वह उतना ही जानता है जितने में वह है। यही दशा विश्व के ज्ञान की भी है। यह संभव है कि बुद्धि से केवल उसके एक अंश को हम जान सकें, पर समस्त को नहीं जान सकते। कारण यह है कि विश्व सहजबोध, चित् वा विवेक, अवभास तथा व्यक्तिगत और विश्वगत महत् से बना है।

प्रकृति में विकार कौन उत्पन्न करता है? हम जहाँ तक देखते हैं, प्रकृति जड़ है। यह सब संयोगज तथा जड़ है। जहाँ तक नियम है, वहाँ तक अचेतन है। मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, इच्छा इत्यादि सब कुछ जड़ ही हैं। पर सब में किसी और का प्रतिबिंब चित् रूप में पड़ता है जिसे सांख्य में पुरुष कहते हैं। पुरुष ही इन सारे विकारों का इच्छारहित कारण है। अर्थात् वही पुरुष, जब उसे विश्व की दृष्टि से देखें तो, ईश्वर कहा जाता है। इसी लिये कहा जाता है कि भगवदिच्छा से ही सृष्टि होती है। यह कहने के लिये तो ठीक है, पर हम देखते हैं कि यह यथार्थ में ठीक नहीं है। यह हो कैसे सकता है। इच्छा तो प्रकृति का तीसरा वा चौथा विकार है। इसके पहले

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बहुत कुछ था; उसे किसने उत्पन्न किया? इच्छा इत्यादि सब संयोगज और प्रकृति के विकार मात्र हैं। इच्छा से प्रकृति की उत्पत्ति नहीं हो सकती। केवल इच्छा निरर्थक है। अतः यह कहना कि भगवदिच्छा से सृष्टि हुई, निरर्थक है। यह चेतनता के एक अंश मात्र को घेरती है और हमारे मस्तिष्क में गति करती है। यह इच्छा नहीं है जो हमारे शरीर में काम कर रही है, विश्व में काम कर रही है। विश्व इच्छा से नहीं चलता। यही कारण है कि इच्छा से सृष्टि का समाधान नहीं होता। थोड़ी देर के लिये मान लीजिए कि इच्छा ही शरीर को चलाती है। हम देखते हैं कि हम अपनी इच्छा से काम नहीं कर सकते। फिर हमारा क्षय क्यों होता है? यह हमारा दोष है। हमें इच्छा को मानने का कोई अधिकार नहीं है। वैसे ही यह भी हमारा ही दोष है कि हम इच्छा को विश्व का संचालक मानते हैं; और आगे चलकर देखते हैं कि उससे काम नहीं चलता। अतः पुरुष इच्छा नहीं है, न वह महत् है; क्योंकि महत् स्वयं विकार है। बिना मस्तिष्क में कुछ द्रव्य हुए महत् होता ही नहीं। जहाँ महत् है, वहाँ कुछ उसी प्रकार का द्रव्य रहता है, जिसके पिंड को मस्तिष्क कहते हैं। जहाँ महत् है, वहाँ वह किसी न किसी रूप में अवश्य रहता है। पर महत् संयोगज विकार है। अब यह पुरुष क्या हैं? ने यह महत् है, न इच्छा है, पर उन दोनों को कारण है।

उसके रहने के कारण उनमें गति और विकार होता है। वह
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प्रकृति से मिलता नहीं। वह महत् नहीं है, अपितु असंग है। मैं साक्षी हूँ और मेरे साक्षी होने से प्रकृति जड़ और चेतन सबको उत्पन्न करती है।

पर प्रकृति में यह चेतनता क्या है? हम देखते हैं कि महत् ही चेतनता है, जिसे चित् कहते हैं। इस चेतनता का कारण पुरुष ही है, पुरुष का यह धर्म है। यह वह है जो अनिर्वचनीय है, पर सारे ज्ञान का कारण वही है। पुरुष चेतनता नहीं है, चेतनता संयोगज है। पर चेतनता में जो प्रकाश और अच्छापन है, वह पुरुष ही का है। चेतनता पुरुष में है, पर पुरुष चेतन नहीं है, ज्ञाता नहीं है; पुरुष में चित्त प्रकृति के कारण है जो चारों ओर दिखाई देती है। विश्व में जो आनंद और प्रकाश है, वह पुरुष के कारण है। पर वह है संयोगज। पुरुष के साथ प्रकृति भी मिली रहती है। जहाँ जहाँ कुछ आनंद है, वहाँ वहाँ वह उसी अमृतत्व की चिनगारी वा अंश है जिसे ईश्वर कहते हैं। पुरुष विश्व का प्रधान आकर्षण करनेवाला है। वह विश्व से अलग भले ही हो, पर समस्त विश्व को आकर्षण करनेवाला है। आप देखते हैं कि लोग स्वर्ण की चिंता में भटकते हैं। कारण यही है कि उसमें पुरुष का एक अंश है, उसमें बहुत सी मैले भले ही क्यों न मिली हो। जब कोई अपने बाल-बच्चों से प्रेम करता है, तब उसे कौन आकर्षित करता है? उनकी आड़ मैं पुरुष ही आकर्षित करता है। वहाँ वह मैल से श्रावृत्त

है। दूसरा कौन आकर्षण कर सकता है? इस जड़ जगत् में
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एक पुरुष ही चेतन है। यही सांख्य का पुरुष है। इससे निश्चय रूप से सिद्ध होता है कि पुरुष सर्वगत है। जो सर्वगत नहीं, वह बद्ध होता है। सब बंधन कारण से होते हैं। जो किसी कारण से होता है, उसका आदि और अंत भी होता है। यदि पुरुष बद्ध है तो उसका नाश है, वह मुक्त नहीं, वह निर्विकार नहीं; पर कुछ उसका हेतु है, अतः वह सर्वगत है। कपिल अनेक पुरुष को मानते हैं―एक नहीं अनंत संख्यक। आप एक हैं, मैं एक हूँ, इसी प्रकार सब एक एक हैं। अनंत संख्यक वृत्त, सब अनंत और विश्व भर में व्याप्त हैं। पुरुष न तो मन है न प्रकृति, पर उसी का प्रतिबिंब है; उसी से हमें बोध होता है। हम जानते हैं कि वह सर्वगत है और आदि- अंत रहित। न उसका जन्म है न मरण। प्रकृति उस पर अपना आवरण डालती रहती है; वही जन्म और मरण है। पर वह स्वभाव से शुद्ध है। यहाँ तक हमें सांख्य दर्शन के विचार अपूर्व जान पड़ते हैं।

अब हम इसके विरुद्ध प्रमाण को लेते हैं। यहाँ तक तो ठीक छान बीन है, सांख्य अखंडनीय है। हम देखते हैं कि इंद्रियों के गोलक और इंद्रिय के विभाग से जान पड़ता है कि वे असंग नहीं हैं,अपितु संयोगज हैं; और इंद्रिय और तन्मात्रा के विभाग से अहंकार भी प्रकृति का ही विकार जान पड़ता है; महत् भी प्रकृति का विकार मात्र है और अंत को हमें पुरुष मिलता है। यहाँ तक तो कोई आपत्ति नहीं है। पर हम सांख्य से यह प्रश्न करते हैं कि प्रकृति को उत्पन्न किसने किया? सांख्य कहता है कि पुरुष और प्रकृति नित्य और सर्वगत या व्यापक हैं और असंख्य पुरुष,हैं। हमें इस सिद्धांत का खंडन करना चाहिए और इससे अच्छा समाधान करना चाहिए। इस प्रकार हम अद्वैतवाद पर पहुँच जायँगे। हमारी पहली आपत्ति यह है कि दो अनंत हो कैसे सकते हैं। फिर हमारा यह कथन है कि सांख्य का ज्ञान ठीक नहीं है। हमें उससे ठीक समाधान पाने की आशा न करनी चाहिए। हमें तो यह देखना चाहिए कि वेदांती लोग किस प्रकार इस कठिनता को दूर करके पक्का समाधान करते हैं। पर फिर भी यश सांख्य ही के भाग्य में है। जब मकान बन जाय, तब उस पर चूना कर देना बहुत ही सुगम है।