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विवेकानंद ग्रंथावली:ज्ञान-योग/३० सांख्य और वेदांत

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विवेकानंद ग्रंथावली : ज्ञान-योग
स्वामी विवेकानंद, अनुवादक जगन्मोहन वर्मा

वाराणसी: नागरी प्रचारिणी सभा, पृष्ठ २६१ से – २७४ तक

 

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(३०) सांख्य और वेदांत।

हम आपको सांख्य शास्त्र का सिद्धांत संक्षेप रूप में बतला चुके हैं। अब आज के व्याख्यान में हम यह दिखलावेंगे कि उसकी न्यूनता कहाँ कहाँ है और वेदांत दर्शन से उसकी पूर्ति किस प्रकार होती है। आपको स्मरण होगा कि सांख्य दर्शन के अनुसार प्रकृति ही इन सारी अभिव्यक्तियों का कारण है जिन्हें हम ज्ञान, बुद्धि, चित्त, राग-द्वेष, वेदना, रूप, रस, गंध,

स्पर्श तथा द्रव्यादि कहते हैं। सब की उत्पत्ति प्रकृति से है।
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यह प्रकृति सत्, रज और तम से बनी है। गुण नहीं हैं अपितु द्रव्य हैं; भूत हैं जिनसे सारे विश्व की सृष्टि हुई है। कल्प के आदि में उनकी साम्यावस्था रहती है। जब सृष्टि आरंभ होती है, तब उनमें संयोग पर संयोग होने लगता है और वही विश्व के रूप में व्यक्त हो जाते हैं। उसका पहला विकार महत् है। उससे अहंकार उत्पन्न होता है। सांख्य के अनुसार अहंकार एक तत्व है। अहंकार से मन उत्पन्न होता है; फिर उससे इंद्रियों और तन्मात्राओं की उत्पत्ति होती है। तन्मात्राओं का विकास चित्त से होता है। इन्हीं तन्मात्राओं से भूतों की उत्पत्ति होती है। तन्मात्राएँ देख नहीं पड़तीं; पर जब वे स्थूल हो जाती हैं, तब हम उन्हें इंद्रियों द्वारा प्रत्यक्ष कर सकते हैं।

महत्तत्व, अहंकार और मन की शक्तियों से जब चित्त काम करता है, तब उससे एक शक्ति उत्पन्न होती है जिसे प्राण कहते हैं। आप इस भाव को नितांत त्याग दीजिए कि प्राण श्वास को कहते हैं। श्वास प्राण का एक कार्य्य है। प्राण उस क्षिप्र क्षोभ शक्ति को कहते हैं जो शरीर को चलाती है और विकार रूप से प्रकट होती है। सबसे पहला और स्पष्ट कर्म जो प्राण का है, वह श्वास की गति है। प्राण का प्रभाव वायु पर है, न कि वायु का प्राण पर है। श्वास की गति के रोकने को प्राणायाम कहते हैं। प्राणायाम इसलिये किया जाता है कि हमें गति पर अधिकार प्राप्त हो। इसका फल यही है कि हमें श्वास के ऊपर अधिकार मिले और हमारे फेफड़े दृढ़ हों। यह व्यायाम है, प्राणायाम नहीं है। प्राण जीवन की शक्ति है जो सारे शरीर में काम करता है और उसके अंग प्रत्यंग में, जिसे मन वा आभ्यंतर अंग कहते हैं, काम करता है। यहाँ तक अंच्छा ही है। सांख्य के विचार बहुत ठीक और यथार्थ हैं। पर फिर भी यह संसार में सबसे प्राचीन युक्तियुक्त विचार हैं। जहाँ कहीं कोई दर्शन वा युक्तियुक्त विचार है, उसमें कुछ न कुछ सांख्य की सहायता अवश्य ली गई है। कपिल का उपकार उन पर अवश्य है। फीसागोरस ने भारत में इस दर्शन का अध्ययन किया और यूनान में जाकर उसकी शिक्षा दी। इसके बाद प्लेटो ने इसकी एक झलक पाई और विज्ञान- वादी इसे सिकंदरिया ले गए और वहाँ इसकी शिक्षा दी। वहीं से वह युरोप में आया। अतः जहाँ जहाँ मनोविज्ञान वा दर्शन हैं, उन सबके प्रधान उत्पादक यही महात्मा कपिल हैं। यहाँ तक तो उनका दर्शन विलक्षण ही है; पर हमें अनेक बातों में उससे विरोध है जो हम आगे चलकर बतलावेंगे। हम देखते हैं कि कपिल के विचारों का आधार विकाश है। कपिल एक से दूसरे की उत्पत्ति या विकाश बतलाते हैं। उनके ‘कारण गुण- पूर्वक कार्य्य गुणोद्देशः’ सूत्र की इस बात से कि कारण ही दूसरा रूप धारण करके कार्य्य होता है और इससे कि सारे विश्व का विकाश होता जाता है, यह स्पष्ट प्रकट है। हम मिट्टी देखते हैं। उसी के विकार का नाम घट है। इसके अतिरिक्त कार्य्य हमें कोई भाव ही नहीं समझ में आता। अतः यह सारा विश्व प्रकृति से व्युक्त हुआ है वा विकास को प्राप्त हुआ है। अतः सारा विश्व अपने कारण से भिन्न नहीं हो सकता। कपिल के मतानुसार अव्यक्त से लेकर बुद्धि या अहंकार तक एक भी भोक्ता नहीं है। जैसे मिट्टी का डला वैसे मन का डला। मन में स्वतः कोई प्रकाश नहीं है; पर हम देखते हैं कि उसमें बुद्धि है वा बोध होता है। अतः हम देखते हैं कि इनके परे कोई और है जिसका प्रकाश महत् वा अहंकार और अन्य विकारों पर पड़ता है; और कपिल इसी को पुरुष और वेदांत आत्मा कहता है। कपिल के अनुसार पुरुष असंग है। उसमें संयोग नहीं है; वह अप्राकृतिक है और वही अकेला ऐसा है जो भौतिक नहीं है। उसको छोड़कर शेष सब भौतिक हैं। मुझे एक काला तख्ता दिखाई पड़ता है। बाह्य गोलक उसके संस्कारों को इंद्रियों तक पहुँचाता है। इंद्रियाँ उसे मन को पहुँचाती हैं, मन उसे बुद्धि को देता है और बुद्धि उसे जान नहीं सकती। उसका ज्ञान पुरुष को होता है जो उससे परे है। यही कपिल का मत है। यह सब मानो उसके दास हैं और संस्कार को उसके पास लाते हैं; और वह उनको आज्ञा देता है। वह उनका भोक्ता है, द्रष्टा है, सत् है, राजा है, मनुष्य की आत्मा है; वह अप्राकृतिक है। वह भौतिक वा प्राकृतिक नहीं है। इससे यह तात्पर्य्य है कि वह अनंत है, उसकी कोई अवधि नहीं है। सब पुरुष सर्व- व्यापी हैं; पर वे लिंग शरीर के द्वारा ही कर्म करते हैं। मन, अहंकार, इन्द्रियों और प्राण से लिंग शरीर बनता है। इसी को ईसाई आध्यात्मिक शरीर कहते हैं। इसी शरीर को मुक्ति वा दंड वा स्वर्गादि मिलते हैं। इसी का जन्मादि होता है; क्योंकि हम देखते हैं कि आदि ही से पुरुष का गमनागमन होना असंभव है। गति गमनागमन को कहते हैं; और जो आता जाता है, वह सर्वगत नहीं होता। कपिल के दर्शन से यह जाना जाता है कि आत्मा अनंत है और वह प्रकृति का विकार नहीं है। वह प्रकृति से परे है, पर वह देखने में प्रकृति-बद्ध जान पड़ता है। उसके चारों ओर प्रकृति है और वह उसे अपने आपको समझता है। वह समझता है कि मैं लिंग शरीर हूँ। मैं स्थूल द्रव्य, स्थूल शरीर हूँ। यही कारण है कि उसे सुख दुःख होते हैं; पर वे वास्तव में उसे नहीं होते वे लिंग शरीर को होते हैं जिसे सूक्ष्म शरीर कहते हैं।

समाधि की दशा को योगी लोग सबसे उच्च दशा कहते हैं। उस दशा में न तो द्रष्टा का भाव है न दृक् का; अतः उस अवस्था में आप पुरुष के पास पहुँच जाते हैं। आत्मा को न तो सुख है न दुःख। वह सब का द्रष्टा, सब कर्मों का नित्य साक्षी है, पर किसी कर्म के फल का भोक्ता नहीं है। जैसे सूर्य्य सब चक्षुओं की दृष्टि का कारण है, पर आँखों के दोष से उसे कोई संपर्क नहीं है; जैसे स्फटिक मणि में नीले पीले फूलों की आभा पड़ती है, पर वह न तो नीला होता है न पीला; वैसे आत्मा न द्रष्टा है न दृग्, न भोक्ता है न भोग्य; दोनों से परे है। इस आत्मा की अवस्था को प्रकट करने का सुगम मार्ग यह है कि वह समाधि के सदृश है। यही सांख्य दर्शन का मत है।

दूसरी बात जो सांख्य कहता है, वह यह है कि प्रकृति की सारी अभिव्यक्ति आत्मा के लिये है, सारी सृष्टि किसी तीसरे के लिये है। यह सृष्टि जिसे आप प्रकृति कहते हैं, यह सारा परिवर्तन नित्य आत्मा के लिये हो रहा है―उसके भोग के लिये और उसी के मोक्ष के लिये कि वह छोटे से लेकर बड़े तक का अनुभव प्राप्त कर सके। जब उसे अनुभव हो जाता है, तब उसे जान पड़ता है कि वह प्रकृति में नहीं था; वह उससे नितांत पृथक् है, वह अविनाशी है, उसका आवागमन नहीं है। स्वर्ग में जाना और वहाँ से आकर जन्म लेना प्रकृति का धर्म है, न कि आत्मा का। इस प्रकार आत्मा मुक्त हो जाता है। सारी प्रकृति आत्मा के भोग और अनुभव प्राप्त करने के लिये काम कर रही है। आत्मा अवधि प्राप्त करने के लिये यह अनुभव कर रहा है, और वह अवधि मोक्ष है। पर सांख्य दर्शन के मत से अनेक आत्माएँ हैं। आत्मा की संख्या अनंत है। दूसरा सिद्धांत जो कपिल का है, वह यह है कि ईश्वर जगत् का कर्ता नहीं है। प्रकृति अकेली सारा काम कर सकती है। सांख्य कहता है कि ईश्वर की आवश्यकता नहीं है।

वेदांत कहता है कि आत्मा सत्, चित् और आनंद है। पर यह आत्मा के गुण नहीं हैं; वे एक हैं तीन नहीं, आत्मा का स्वरूप हैं। सांख्य की इस बात को वेदांत स्वीकार करता है कि चेतनता प्रकृति का गुण है, वह प्रकृति से आती है। वेदांत यह भी प्रकट करता है कि जिसे चेतनता कहते हैं, वह संयोगज है। हमें अपने प्रत्यक्ष की परीक्षा करनी चाहिए। मैं काले तख्ते को देखता हूँ। ज्ञान कैसे होता है? जिसे जर्मन दार्शनिक काले तख्ते का “मुख्य पदार्थ” कहते हैं, वह अज्ञात है; हम उसे जान नहीं सकते। मान लीजिए कि स्याह तखा 'क' है। यही 'क' हमारे मन पर टकराता है और मन उससे टकराता है। मन एक सरोवर के समान है। उस सरोवर में एक कंकड़ी फेंको और लहर उलटकर कंकड़ी से टक्कर खायगी। यह लहर जो टक्कर खाती है, कंकड़ी नहीं है; वह है लहर ही। स्याह तखा 'क' कंकड़ी के समान है जो हमारे मन में टकराता है। मन उसी पर टकराता है, अपनी लहर डालता है। इसी को हम स्याह तखा कहते हैं। मैं आपको देखता हूँ। आप सचमुच अज्ञात और अज्ञेय हैं। आप 'क' हैं और आप मेरे मन पर टकराते हैं और मेरा मन आपके ऊपर लहर फेंकता है। वह आपसे टक्कर खाता है और वही लहर है जिससे मैं अमुक को जानता हूँ। प्रत्यक्ष में दो पदार्थ हैं। एक बाहर से आता है, एक भीतर से। इन्हीं दोनों के संयोग को अर्थात् क+मन को हम विश्व समझते हैं। सारा ज्ञान इसी प्रतिक्रिया का फल है। व्हेल वा तिमि के संबंध में यह निश्चय किया जा चुका है कि वह कितनी बार पूँछ पटकता है, उसके मन में प्रतिक्रिया उत्पन्न होती है और उसे दुःख होता है। ऐसी ही दशा भीतरी प्रयक्ष की है। जो सच्ची आत्मा हमारे भीतर है, वह भी अज्ञात और अज्ञेय है। उसे 'ख' समझ लीजिए। जब हम उसे जानते हैं, तब हमारा ज्ञान ख+मन है। ख का आधात मन पर पड़ता है। अतः सारा विश्व हमारे लिये क+ मन (बाह्य) और ख+मन (आभ्यंतर) है जिसमें क और ख विश्व के बाह्य और आभ्यंतर जगत् के मूल पदार्थ के लिये हैं।

वेदांत के अनुसार चेतनता वा अहंकार के तीन प्रधान लक्षण हैं अर्थात् मैं हूँ, मैं जानता हूँ, मैं सुखी हूँ। यह भाव कि "मुझे कुछ इच्छा नहीं है, मैं शांत और आनंदमय हूँ, कोई मेरी शांति में विघ्न नहीं डाल सकता" जो कभी कभी हममें उत्पन्न हुआ करता है, इसका मुख्य हेतु यह है कि अपने जीवन के आधार-भूत हम ही हैं। जब वही परिमित हो जाता है और मिल जाता है, तब वही सत् विकार, चित् विकार और आनंद विकार के रूप में प्रकट होता है। सब मनुष्य हैं, सब मनुष्य अवश्य जानते हैं और सब प्रेम में उन्मत्त होते हैं। वह प्रेम करना त्याग नहीं सकते। छोटे से बड़े तक सब अवश्य प्रेम करते हैं। 'ख' जो आभ्यंतर मूल पदार्थ है, जब मन से मिलता है, तब सत् ,चित् और आनंद को उत्पन्न करता है जिसे वेदांत में सच्चिदानंद कहते हैं। शुद्ध सत्, अनंत, असंग, केवल और निर्विकार है। वही मुक्त आत्मा है। जब वही मन से मिल जाता है, मैला हो जाता है, तब उसी को प्रत्यक्ष सत् कहते हैं। तब वही मनुष्य, पशु, पक्षी, वृक्ष, वनस्पति आदि रूप धारण करता है और घटाकाश, पटाकाश रूप से लक्षित होता है। वह सत्य ज्ञान वह नहीं है जिसे हम जानते हैं; न वह ज्ञान है, न बुद्धि, न सहज बुद्धि है। जब वही भ्रमग्रस्त वा क्षुब्ध हो जाता है, तब उसी को हम ज्ञान कहते हैं। और नीचे आने पर वही बुद्धि हो जाता है; और अधिक विकार प्राप्त होने पर उसी को सहज बुद्धि कहते हैं। वह ज्ञान विज्ञान कहलाता है। वह न मन है, न बुद्धि, न सहज बुद्धि। उसका द्योतक शब्द केवल विज्ञान है। वह अनंत और असंग है। वही आनंद जब आच्छन्न होता है तब प्रेम कहलाता है। वही सूक्ष्म शरीर के लिये और विचार के लिये आकर्षण हो जाता है। यह केवल उसी आनंद का विकृत रूप है। सत्, चित् और आनंद आत्मा के गुण नहीं हैं, उसके स्वरूप हैं। उनमें और आत्मा में कोई अंतर नहीं है। तीनों एक हैं। हमें एक ही तीन रूपों में भासमान हो रहा है। वे सारे सापेक्ष ज्ञान से बहुत परे हैं। वही सत्य ज्ञान जब मस्तिष्क से छनकर बाहर निकलता है, तब उसे मन, बुद्धि आदि कहते हैं। व्यक्तिता में भेद उस आवरण के कारण पड़ता है जिससे होकर वह बाहर निकलता है। आत्मा की दृष्टि से मनुष्य में और कीट पतं आदि में कोई अंतर नहीं है। अंतर केवल यही है कि कीट पतंगादि के मस्तिष्क उतने प्रोन्नत नहीं होते और उनके द्वारा व्यक्तिता को हम सहज ज्ञान कहते हैं जो बहुत धुंधुला होता है। मनुष्य के मस्तिष्क बहुत प्रोन्नत वा सूक्ष्म होते हैं। इसी कारण अभि- व्यक्ति भी बहुत स्पष्ट होती है। अधिक उच्च मनुष्यों में वह और अधिक स्पष्ट होती है। यही अवस्था सत् की भी समझ लीजिए। वह सत् जो हमें संकुचित दिखाई पड़ता है, उसी वास्तविक सत् की झलक मात्र है, वही आत्मा का स्वरूप है। यही आनंद की दशा है जिसे हम प्रेम वा आकर्षण कहते हैं। यह उसी आत्मा के आनंद की झलक मात्र है। अभिव्यक्ति में संकोच होता है, पर आत्मा का अव्यक्त रूप अनंत है; उस आनंद की सीमा नहीं है। पर प्रेम ससीम है। मैं आपसे आज प्रेम करता हूँ, कल आप से बैर करूँगा। आज मेरा प्रेम अधिक है तो कल कम होगा; क्योंकि वह एक कला मात्र की अभिव्यक्ति है।

पहली बात जिसके विषय में मैं कपिल से विरोध करता हूँ, उसका ईश्वर-संबंधी विचार है। जैसे प्रकृति के विकार महत् से लेकर शरीर तक के लिये एक पुरुष की आवश्यकता है जो उसका शासन करता है, उसी प्रकार विश्वनिदान वा प्रकृति और विश्वगत महत् अहंकार, मन, तन्मात्रा भूतों के लिये भी एक शालक की आवश्यकता है। भला विश्वनिदान की बातें विना एक विश्वव्यापी पुरुष के कैसे ठीक हो सकती हैं। उसके लिये भी तो वैसे ही शासक की आवश्यकता है। यदि आप कहें कि विश्व के लिये पुरुष की आवश्यकता नहीं है, तो मैं कहूँगा कि इस शरीर के लिये भी पुरुष की आवश्यकता नहीं। आप नहीं मानते तो मैं भी नहीं मानता। यदि यह ठीक है कि इस शरीर के काम चलाने के लिये पुरुष की आवश्यकता है जो असंग है, तब तो उसी युक्ति से विश्व का काम चलाने के लिये एक पुरुष की भी आवश्यकता है। उसी विश्वगत पुरुष को जो इस प्रकृति और उसकी अभिव्यक्ति के परे है, हम ईश्वर परमेश्वर आदि कहते हैं।

अब अत्यंत आवश्यक विचार है जिसमें हमारा मतभेद है। क्या एक से अधिक पुरुष हो सकते हैं? हम देख चुके हैं कि पुरुष सर्वगत और अनंत माना गया है। सर्वगत और अनंत दो नहीं हो सकते। मान लीजिए कि दो अनंत हैं―‘अ’ और ‘व’। तो ‘अ’ और ‘ब’ में सीमा-भेद होगा; क्योंकि ‘अ’ ‘ब’ नहीं है, ‘ब’ ‘अ’ नहीं है। भिन्नता पार्थक्य का नाम है और पार्थक्य ससीमता को कहते हैं। अतः ‘अ’ और ‘ब’ जो एक दूसरे की सीमा के कारण हैं, निःसीम वा अनंत नहीं रहते। अतः एक ही अनंत हो सकता है और वही एक पुरुष है।

अब हम उन्हीं ‘क’ और ‘ख’ को लेते हैं और यह सिद्ध किए देते हैं कि दोनों एक हैं। हम यह सिद्ध कर चुके हैं कि जिसे हम बाह्य जगत् कहते हैं, वह क+मन है और जिसे आभ्यंतर जगत् कहते हैं, वह ख+मन है। ‘क’ और ‘ख’ अज्ञात और अज्ञेय पद हैं। अंतर देश, काल और परिमाण के कारण है। मन इन्हीं से बना है। बिना उनके मन की कोई क्रिया ही नहीं हो सकती। आप बिना काल के सोच नहीं सकते,न देश के बिना आप किसी को समझ सकते हैं; और परिणाम बिना आपको कुछ उपलब्ध नहीं हो सकता। यह मन के रूप हैं। इन्हें अलग कर दीजिए, फिर मन ही न रह जायगा। अतः भेद का कारण मन हैं। वेदांत के अनुसार मन ही के कारण, उसके रूपों ही के कारण ‘क’ और ‘ख’ परिमित जान पड़ते हैं और बाह्य तथा आभ्यंतर जगत् दिखाई देते हैं। पर ‘क’ और ‘ख’ दोनों मन से परे हैं। उनमें अंतर है ही नहीं, वे एक ही हैं। हम उनमें किसी गुण का आरोप नहीं कर सकते। कारण यह है कि गुण मन से उत्पन्न होते हैं। जो निर्गुण है वह अनेक नहीं हो सकता; एक हो सकता है। ‘क’ निर्गुण है। उसमें मन के गुण आ जाते हैं। इसी प्रकार ‘ख’ भी निर्गुण है और उसमें भी मन ही के कारण, गुण है; अतः ‘क’ और ‘ख’ एक ही हैं। सारा विश्व एक ही है। विश्व में केवल एक ही आत्मा है, एक ही सत्ता है। वही एक सत्ता जब देश, काल और परिणाम से होकर निकलती है तब उसी को बुद्धि, तन्मात्रा, स्थूल और सूक्ष्म भूत, सूक्ष्म और स्थूल शरीरादि कहते हैं। इस विश्व में जो है वह वही एक है और वही अनेक भासमान हो रहा है। जब उसकी एक झलक देश-काल और परिणाम के जाल से बाहर देख पड़ती है, तब वह रूप ग्रहण कर लेती है। जाल को हटा दो, सब एक ही हैं। इसी लिये अद्वैत दर्शन में सारा विश्व आत्मा में एकीभूत है, जिसे ब्रह्म कहते हैं। वही आत्मा जब विश्व की ओट में दिखाई पड़ता है, तब ईश्वर कहलाता है। वही आत्मा जब इस सूक्ष्म विश्व शरीर की ओट में रहता है, तब जीवात्मा कहलाता है। वही आत्मा मनुष्य में जीवात्मा के रूप में है। एक ही पुरुष है जिसे वेदांत ब्रह्म कहता है। ईश्वर और मनुष्य सब ज्ञानदृष्ट्या उसी में एकीभूत हैं। आप ही विश्व हैं, आप ही विश्व में भर रहे हैं। आप सब हाथों से कर्म करते हैं, सब मुँँह से खाते हैं, सब नाकों से साँस लेते हैं, सब मन से विचार करते हैं। सारा विश्व आप ही हैं; विश्व आपका शरीर है। आप ही रूप और अरूप विश्व हैं। आप ही विश्व की आत्मा और विश्व के शरीर हैं। आप ही ईश्वर हैं; देवता, मनुष्य, पशु, पक्षी, कीट, पतंग, जंगम, स्थावर, जड़, चेतन सब आप ही हैं; सबकी अभिव्यक्तियाँ आप ही हैं। जो कुछ हैं, आप ही हैं। आप अनंत हैं। अनंत का खंड नहीं। मेरे तो अंश ही नहीं है; यदि अंश भी होंगे तो अनंत होंगे। यदि अंश होंगे भी तो वे पूर्ण के समान ही होंगे; पर यह असंभव है। अतः यह विचार कि आप अंश हैं, आप अमुक अमुकी हैं, ठीक नहीं है; स्वप्नवत् है। इसे जानो और मुक्त हो जाओ। यही अद्वैत का तत्व है। ‘न मैं शरीर हूँ, न इंद्रिय हूँ, न मन हूँ। मैं सच्चिदानंद हूँ, वही हूँ’। यही सच्चा ज्ञान है। इसके अतिरिक्त सारा ज्ञान, सारी बुद्धि और जो कुछ है, सब अज्ञान है। मुझे ज्ञान कहाँ से होगा? मैं तो स्वयं ज्ञान हूँ। मेरे लिये जीवन कहाँ से आवेगा? मैं तो स्वयं जीवन हूँ। मुझे निश्चय है कि मैं हूँ, क्योंकि मैं ही जीवन हूँ। संसार में कोई ऐसी सत्ता नहीं जो मुझ में, मेरे द्वारा वा मेरे रूप में न हो। मैं ही भूतों के द्वारा व्यक्त होता हूँ, पर मैं मुक्त हूँ। मुक्ति कौन ढूँढ़ता है? कोई नहीं। यदि आप अपने को बद्ध मानते हैं, तो बद्ध हैं, आप ही अपने को बाँधते हैं। यदि आप अपने को मुक्त जानें तो आप उसी क्षण मुक्त हैं। यही ज्ञान है, यही मोक्ष है। सारी प्रकृति का लक्ष मोक्ष ही है।