विवेकानंद ग्रंथावली:ज्ञान-योग/३१ धर्म का लक्ष एकता वा अभेद है

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विवेकानंद ग्रंथावली : ज्ञान-योग  (1923) 
द्वारा स्वामी विवेकानंद, अनुवादक जगन्मोहन वर्मा

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(३१) धर्म का लक्ष एकता वा अभेद है।
(न्यूयार्क १८९६)

हमारा विश्व, इंद्रिय, ज्ञान और बुद्धि का विश्व दोनों ओर से अप्रमेय और अज्ञेय से सीमाबद्ध है। इसी के भीतर अन्वेषण है, इसी में जिज्ञासा है, इसी में तत्व है और इसी से वह प्रकाश उत्पन्न होता है जो संसार में धर्म के नाम से प्रख्यात है। तत्वतः धर्म इंद्रियातीत है, इंद्रियों का विषय नहीं है। यह तर्क से भी परे है, बुद्धि का विषय नहीं है। यह आभास, अवभास, अज्ञात और अज्ञेय में निमग्न होकर अज्ञेय को अतिज्ञेय करता है; कारण यह है कि यह 'ज्ञान' में आ नहीं सकता। यह खोज मनुष्य के अंतःकरण में, और मैं जानता हूँ कि मनुष्यों के आदि में, उत्पन्न हुई। संसार के इतिहास के किसी काल में कोई मानव तर्क और बुद्धि ऐसी थी ही नहीं जिसमें यह उलझन और अलौकिक जिज्ञासा न उत्पन्न हुई हो। अपने इस छोटे विश्व में, इस मानव अंतःकरण में हम देखते हैं कि एक विचार उत्पन्न होता है। यह कहाँ से उत्पन्न होता है, हमें पता नहीं; और जब यह लुप्त होता है तब कहाँ जाता है, हमें इसका भी [ २७५ ]ज्ञान नहीं। स्थूल और सूक्ष्म जगत् मानों एक ही आकार के हैं; उनमें एक ही परदा बदलता और एक ही राग बजता है।

मैं आपके सामने हिंदुओं के इस विचार को रखने का प्रयत्न करूँगा कि धर्म बाहर से नहीं उत्पन्न होता, अपितु भीतर से निकलता है। मेरी यह धारणा है कि धर्म मनुष्य की प्रकृति ही है; यहाँ तक कि जब तक वह अपने मन और शरीर को न छोड़े, अपने विचार और जीवन को न त्यागे, धर्म का छोड़ना असंभव है। जब तक मनुष्य में विचारने की शक्ति है, यह झमेला बना है, तब तक मनुष्य को किसी न किसी रूप में धर्म रखना ही पड़ेगा। यह भूलभुलैयाँ सी बात है। पर जैसा कि हम में से बहुतेरे समझते हैं, यह असार विचार नहीं है। इस अव्यवस्था में व्यवस्था है, इस बेताली ध्वनि में ताल स्वर है; और जो इसे सुनना चाहे, स्वर को ग्रहण कर सकता है।

आजकल सारे प्रश्नों से बड़ा प्रश्न यह है कि अच्छा मान लीजिए कि यह ज्ञात और ज्ञेय दोनों ओर से अज्ञेय और अतीव अज्ञात से संपुटित है, तो फिर उस अत्यंत अज्ञात के लिये यह श्रम क्यों है? हम ज्ञेय ही से संतुष्ट क्यों न रहें? हम खाने-पीने और समाज का कुछ थोड़ा सा उपकार करने पर ही संतोष क्यों न धारण करें? इस बात की हवा फैली हुई है। बड़े बड़े विद्वान् अध्यापक से लेकर बकवादी बच्चों तक सब यही कहा करते हैं कि संसार में भलाई करो; यही सबसे बड़ा धर्म है और इससे परे के प्रश्न पर माथा खपाना व्यर्थ [ २७६ ]है। दशा ऐसी हो गई है कि यह सर्वतंत्र सिद्धांत हो रहा है। पर सौभाग्यवश हम इसके परे की जिज्ञासा अवश्य करेंगे। यह उपस्थित, यह व्यक उस अव्यक्त की एक कला मात्र हैं। यह इंद्रियगम्य जगत् उस अनंत आध्यात्मिक विश्व का एक अंश वा अणुमात्र है जो निकलकर बोधावस्था को प्राप्त हो गया है। भला जो यह छोटा अंश निकल पड़ा, वह तब तक समझ में कैसे आ सकता है जब तक उसका बोध न हो जो इससे परे है? कहते हैं कि सुकरात एथेंस में व्याख्यान दे रहा था। उसे एक ब्राह्मण मिला जो यूनान में यात्रा करने गया था। सुकरात ने ब्राह्मण से कहा कि मनुष्य के लिये सबसे अधिक जानने योग्य मनुष्य ही है। ब्राह्मण ने उसी समय खंडन कर दिया और कहा―भला ईश्वर को जाने बिना मनुष्य को आप कैसे जान सकते हैं? वह ईश्वर सदा अज्ञेय, केवल, अनंत वा अनाम है; वही सब ज्ञात और ज्ञेय इस जीवन को एकमात्र व्याख्या है। अपने आगे के किसी पदार्थ को ले लीजिए जो अत्यंत स्थूल वा भौतिक हो। अत्यंत भौतिक विज्ञान को ही लीजिए; जैसे रसायन, भौतिकी, ज्योतिष वा प्राणिशास्त्र। उसका अभ्यास कीजिए। अभ्यास बढ़ाते जाइए, स्थूल रूप गलने लगेगा और द्रवीभूत होगा। फिर सूक्ष्मातिसूक्ष्म होता जायगा और जाते जाते ऐसी पराकाष्ठा को प्राप्त हो जायगा जहाँ से आपको एकबारगी इन प्राकृतिक पदार्थों को छोड़कर अप्राकृतिक का आश्रय लेना पड़ेगा। स्थूल बदलकर सूक्ष्म रूप धारण कर लेता [ २७७ ]है और भौतिक आध्यात्मिक हो जाता है। यह ज्ञान के प्रत्येक विभाग में होता रहता है।

इस प्रकार मनुष्य को बाह्य के अध्ययन के लिये विवश होना पड़ा है। जीवन मरुभूमि हो जायगा और मनुष्य का जीवन निःसार हो जायगा, यदि हम बाह्य को न जान सकें। यह कहना अच्छा है कि वर्तमान दशा पर हमें संतुष्ट रहना चाहिए; बैल और कुत्ते जंतु वा प्राणी हैं; वैसे ही और सब जंतु भी हैं; बस इतने ही से वे जंतु हैं। इसी प्रकार यदि मनुष्य वर्तमान दशा से संतुष्ट रहें और इसके बाहर की सब जिज्ञासा त्याग दें तो फिर मनुष्य पशु हो जायँ। यह धर्म ही है अर्थात् परोक्ष की जिज्ञासा, जिससे मनुष्य और हैं और पशु और हैं। यह ठीक कहा गया है कि केवल मनुष्य एक ऐसा जंतु है जो ऊपर देखता है, अन्य जंतु सामने देखनेवाले हैं। ऊपर देखना, ऊपर की जिज्ञासा करना और आप्तता ढूँढ़ना ही मोक्ष वा निर्वाण कहलाता है; और ज्यों ही मनुष्य ऊर्ध्वगामी होने लगता है, त्यों ही वह उस सत्य के आदर्श की ओर उठने लगता है जिसे निर्वाण कहते हैं। इसमें इसकी आवश्यकता नहीं कि आपके पास पुष्कल धन हो वा आपके पास उत्तम परिच्छद हों वा रहने के घर अच्छे हों, पर आवश्यकता है मस्तिष्क में आध्यात्मिक विचारों के होने की। इसी से मनुष्य उन्नति कर सकता है; यही सारी भौतिक और आध्यात्मिक उन्नतियों की जड़ है जिसमें छिपी हुई वह संचा- लक शक्ति है, वह उत्साह है, जो मनुष्य को आगे ढकेलता है। [ २७८ ]धर्म न तो रोटी में रहता है न घर में रहता है। बार बार यह आपत्ति आपके सुनने में आई होगी कि धर्म से लाभ क्या है? क्या इससे दरिदों की दरिद्रता जाली रहेगी? मान लीजिए कि वह न हुआ, तो क्या इतने से धर्म की असत्यता सिद्ध हो जायगी? मान लीजिए कि आप ज्योतिष के एक प्रश्न का स्पष्टीकरण कर रहे हैं और एक बच्चा आकर पूछे कि क्या इससे जलेबी मिलेगी? आप उत्तर देंगे कि नहीं, जलेबी न मिलेगी। बच्चा कहेगा कि तो फिर यह व्यर्थ ही है। बच्चे सब बातों को अपनी ही परिस्थिति से देखते हैं। उनके लिये तो वही अच्छा है जिससे जलेबी मिले। ऐसे ही संसार के बाल-धी भी हैं। हमें उच्च पदार्थों का निर्णय नीच परिस्थिति से नहीं करना चाहिए। प्रत्येक पदार्थ का निराकरण उसी की परिस्थिति से करना ठीक होता है। अनंत का निर्णय अनंतता की परिस्थिति से होना चाहिए। धर्म मनुष्य के जीवन के अंग अंग में व्याप्त है, न केवल वर्तमान में अपितु भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों काल में। अतः यह नित्य जीवात्मा का नित्य ईश्वर के साथ शाश्वत संबंध है। क्या यह न्यायसंगत है कि हम क्षणभंगुर मानव- जीवन से धर्म के मूल्य का अनुमान करें? कभी नहीं। यह सब निषेधार्थक उपपत्तियाँ हैं।

अब इस बात पर ध्यान दीजिए कि धर्म से कुछ लाभ है। हाँ है तो। इससे मनुष्य को अनंत जीवन का लाभ होता है।

इसने मनुष्य को इस दशा पर पहुँचाया है और यही उसे मनुष्य [ २७९ ]
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से देवता बना देगा। यही धर्म कर सकता है। धर्म को मनुष्य- समाज से अलग कर दीजिए, फिर वह रह क्या जायगा? केवल पशुओं का झुंड। इंद्रियों का सुख मनुष्यता का लक्ष नहीं है, ज्ञान ही सारे जीवन का लक्ष है। हम देखते हैं कि मनुष्य को बुद्धि से उतना अधिक सुख मिलता है जितना पशुओं को इंद्रियों से नहीं मिलता। हम देखते हैं कि उसे अध्यात्म से जो आनंद मिलता है, वह बुद्धि से भी नहीं मिलता। अतः अध्यात्मज्ञान सर्वोत्कृष्ट ज्ञान है। इसी ज्ञान से आनंद उत्पन्न होता है। संसार के सारे पदार्थ उसी की छाया हैं। सच्चा ज्ञान और आनंद तीसरे चौथे विकार की अभिव्यक्तियाँ हैं।

एक प्रश्न और शेष रह गया। लक्ष वा अवधि क्या है? इस समय कुछ लोग कहते हैं कि मनुष्य निरंतर आगे को उन्नति करता जा रहा है और कोई आप्तता की अवधि प्राप्त करने को नहीं है। “नित्य आगे बढ़ता जा रहा है, पर कहीं पहुँच नहीं रहा है” यह स्पष्ट अनर्गल बात है। क्या सरल रेखा में कुछ गति है? सरल रेखा निरंतर बढ़ाई जाने पर वृत्त बन जाती है। वह जहाँ से प्रारंभ हुई, वहीं आ जाती है। आप जहाँ से चले, वहीं पहुँचेंगे; और जब आपका प्रारंभ ईश्वर से हुआ है, सब उसी में अंत भी होगा। फिर बचा क्या? आडंबर मात्र। अनंत काल तक आपको कर्माडंबर करना ही पड़ेगा।

फिर भी एक और प्रश्न खड़ा होता है। क्या हमें आगे

बढ़ते हुए धर्म की नई नई सत्यता की खोज करना है? उत्तर है― [ २८० ]
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हाँ और नहीं दोनों। पहले तो यह है कि धर्म का इससे अधिक ज्ञान हम प्राप्त नहीं कर सकते; सब प्राप्त हो चुका है। संसार के सब धर्मों में आपको यह प्रतिज्ञा मिलेगी कि हममें एकता है। ज्ञान कहते हैं एकता प्राप्त करने को। हर आपको स्त्री और पुरुष के रूप में देखते हैं, यह भेद ज्ञान है। यह विज्ञान की बात है कि हम आप सबको एक वर्ग में रखकर मनुष्य कहते हैं। उदा- हरण के लिये रसायनशास्त्र को ले लीजिए। रासायनिक लोग सब ज्ञात पदार्थों के मौलिक भूतों को जानना चाहते हैं और उनका अर्थ होता है उस एक मूल तत्व के जानने का जिससे वे सब निकले हैं। वह समय आ सकता है जब कि उन्हें उस मूल तत्व का ज्ञान हो जाय जो सारे भूतों का मूल है। वहाँ पहुँच- कर वे आगे नहीं जा सकते। तब रसायन शास्त्र पूर्ण हो जायगा। यही दशा धर्म के विज्ञान की भी है। यदि हमें पूर्ण अभेद वा एकता का बोध हो जायगा, तो हमें आगे जाना रह ही न जायगा।

दूसरा प्रश्न यह है कि क्या ऐसी एकता मिल सकेगी? भारतवर्ष में धर्म और दर्शन के विज्ञान को प्राप्त करने की चेष्टा की जा चुकी है। कारण यह है कि जैसे पश्चिम के देशों की चाल है, हिंदू इन दोनों को अलग अलग नहीं समझते। हम समझते हैं कि धर्म और दर्शन एक ही वस्तु के दो भिन्न भिन्न रूप हैं और दोनों तर्क और वैज्ञानिक सत्य की कसौटी पर कसे जा

सकते हैं। [ २८१ ]
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सांख्यदर्शन भारतवर्ष में, और सच कहिए तो संसार भर में, सबसे पुराना दर्शन है। इसके आदि आचार्य्य महर्षि कपिल भारतीय योगशास्त्र के श्रादि प्रवर्तक माने जाते हैं; और जिस सिद्धांत की उन्होंने शिक्षा दी है, वह आज तक भारतवर्ष के सारे प्रमाणिक दर्शनों का मूल है। सब उसके मनोविज्ञान को लेकर चले हैं, अन्य बातों में वे उससे भले ही विरुद्ध क्यों न हो।

वेदांत जो सांख्य का न्यायानुकूल निचोड़ है; अपने निगमन को उससे भी आगे ले जाता है। उसका उत्पत्ति-क्रम कपिल की शिक्षा के अनुकूल होने पर भी द्वैतवाद से संतोष नहीं करता अपितु अपनी जिज्ञासा अंतिम एकता वा अभेदवाद तक करता जाता है जो धर्म और विज्ञान का समान लक्ष है।