वेनिस का बाँका/चतुर्दश परिच्छेद

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चतुर्दश परिच्छेद।

उपवन से आकर रोजाविला अपने सुसज्जित आय- तन पर्य्यन्त भी न पहुँची थी, कि मार्ग ही में उसने स्वकृत कर्म पर पश्चाताप करना प्रारम्भ किया। उस समय शतशः विचार उसके अन्तःकरण में उठने लगे। किसी समय वह अपने मन में कहती थी कि मुझको फ्लोडोआर्डो को ऐसा कठोर और सूखा उत्तर देना कथमपि समुचित न था यह मैंने उस पर बड़ा अन्याय किया। कभी उसकी उस काल की दशा को वह स्मरण करती थी जब कि वह उसके निकट से रुष्ट होकर चली आई थी और वह बेचारा एक भित्ति निर्मित चित्र सदृश उसको खड़ा अनिमेष तकता रह गया था। फिर वह सोचती थी कि प्लोडोआर्डो यह संताप न सहन कर सकेगा और निस्सन्देह विलाप करते करते प्राण त्याग देगा। अभी से उसे ऐसा ज्ञात होता था जैसे वह इस लोक को छोड़ परलोकगामी हुआ हो और लोग उसके समाधि के इतस्ततः रुदन कर रहे हों। निदान इन बातों का व्यान करके वह आप ही आप रो रो कर कहने लगी "शोक! [ ९० ]शोक!! इस समय व्यर्य मैंने ऐसी दृढ़ता प्रगट की, अभी से मेरा धैर्य्य और हृदय बल विनष्ट हुआ जाता है। हाय! फ्लोडोआर्डो जो कुछ मैंने इस निश्शीला जिह्वा से कहा वह मेरे हृदय में कदापि न था। अब मैं तुम से स्नेह करती हूँ और सर्वदैव करूँगी चाहे कामिला असंतुष्ट अथवा अप्रसन्न हो और चाहे मेरे पूज्य पितृव्य मुझसे घृणा अथवा द्वेष करें"।

इस घटना के अल्प ही दिवसोपरांत उसको ज्ञात हुआ कि फ्लोडोआर्डो ने निज प्रकृति और प्रणाली बदल दी है और समग्र सहवासों और संगतों से पृथक रहता है। यदि कभी किसी मित्र के अनुरोध उपरोध से किसी उत्सव में संयुक्त भी होता है तो उसका मुख मलीन और चित्त उदासीन रहता है और उसके ढंग से ज्ञात होता है कि वह किसी ऐसे ही सन्ताप से संतप्त हुआ है जिसका प्रभाव उसके हृदय पर अब तक शेष है। यह वृत्तान्त श्रवण कर रोजाबिला के हृदय को अत्यन्त उद्विग्नता हुई और वह निज आयतन में जाकर रुदन करने लगी। उस दिन से सदा उसको इसी बात का संताप रहता था और वह प्रातदिन क्षीण होती जाती थी, यहाँ तक कि कुछ दिनों में उसकी दशा पूर्णतया असन्तोषजनक और हीन हो गई और भूमिनाथ को उसके स्वास्थ्य में अंतर पड़ने को आशङ्का हुई। फ्लोडोआर्डो के उदासीन होने और एकान्त वास खीकार करने का भी यही कारण था कि वह रोजाविला को जिसके कारण से वह समारोहों में संयुक्त हुआ करता था अब कहीं न पाता था।

अब यहाँ इस आख्यान को छोड़कर फिर उन विप्लव कोरियों और विद्रोहियों की चर्चा प्रारंभ होती है जो अहर्निशि अंड्रियास और उसके शाशनाधिकार के नाश करने की चिन्ता में रहते थे और जिनकी संख्या प्रतिदिन बढ़ती जाती थी-यहाँ [ ९१ ]तक कि अब परोजी, मिमो, कांटेराइनों और फलीरी को जो इस भयंकर विलव के अग्रगण्य थे अपने कार्य्य के सिद्ध होने के विषय में कुछ समाधान और विश्वास होता जाता था और वे पादरी गान्जेगा के प्रासाद में प्रायः एक- त्रित होकर वेनिस की क्रान्ति और राज्य परिवर्तन के विषय में बहुत सी युक्तियाँ सोचते और उन पर विवाद और कथनोप- कथन करते थे, परन्तु जितनी युक्तियाँ सामने आती थीं प्रत्येक से यही सिद्ध होता था कि उनका निर्धारण करने वाला केवल अपने ही प्रयोजन का ध्यान रखता है। किसी का यह अभिप्राय होता था कि किसी प्रकार ऋणसे मुक्त हों ता उत्तम है, कोई अपनी कामना के सामने अपर सम्पूर्ण बातों को व्यर्थ समझता था, किसी के हृदय में नराधिप और उनके अन्तरङ्गों के धन का लोभ समाया हुआ था और कोई किसी के कल्पित अपराध पर उसका जीवन समाप्त करने की चिन्ता रखता था। अभिप्राय यह कि इन दुष्टात्माओं को, जो वेनिस का सत्यानाश अथवा और नहीं तो उसके प्रबन्ध की बुराई चाहते थे, अब पूरा भरोसा हो गया कि वह अपनी कामना के सिद्ध होने में सफल मनोरथ होंगे, क्योंकि उन दिनों एक नवीन कर (टैक्स) के प्रचलित होने से वेनिस के लोग वहाँ के शाशकों से कुछ अप्रसन्न हो रहे थे। परन्तु यद्यपि कि इन लोगों के पास सम्पत्ति और सहाय दोनों वस्तुयें इतनी थीं कि वे अपनी कामनाओं को भली भाँति पूर्ण कर सकते थे और इस कारण अंड्रियास को जिसे अद्यपर्यन्त उनके नैश अधिवे- शनों का तनिक भी भेद न ज्ञात हुआ था तुच्छ समझते थे तथापि उनका यह साहस नहीं होता था कि उस कार्य को विना कतिपय लोगों को ठिकाने लगाये हुये कर डालें क्योंकि उन को सदा आशङ्का बनी रहती थी कि ऐसा न हो कहीं ठीक [ ९२ ]समय पर वे लोग कोई ऐसा बल डाल दें जिससे उनकी सारी युक्तियाँ मिट्टी में मिल जाँय। इस कार्य्य के सफल होने का भार वे डाकुओं पर डाले हुये थे और इस कारण से जिस समय उनको चारों डाकुओं के फाँसी पाने की बात ज्ञात हुई, वे अत्यन्त घबराये और उन्होंने यह समझा कि अब उनकी सम्पूर्ण आशायें विनष्ट हो गईं। परन्तु इस बात को सुन कर उनको जितनी ब्यग्रता हुई थी उतनाही हर्ष उनको उस समय प्राप्त हुआ जब कि अविलाइनों ने सम्पूर्ण बेनिस को सावधान कर दिया कि अब तक बेनिस में डाकुओं का चचा विद्यमान है, जो बिद्रोही चाहे उससे सहायता ले। विज्ञापन के देखते ही वेलोग मारे हर्ष के उछल पड़े और एक मुँह से कह उठे कि यही मनुष्य हमारे गँवका है। उस दिनसे उनको यह चिन्ता हुई कि जैसे सम्भव हो अबिलाइनों को अपना सहायक बनाओ। यह अभिप्राय उनका अति शीघ्र सफल होगया क्योंकि एक तो वे उस दुष्ट की खोज में रहते थे और दूसरे वह स्वयं उनसे मिलना चाहता था, अतएव थोड़े ही दिनों में वह उनके समाजों में सम्मिलित होने लगा परन्तु प्रत्येक कार्य के लिये उनके बूते से अधिक पुरस्कार माँगता था।

परोजी आर उसके सहकारी सबके प्रथम कुनारी का नाश चाहते थे क्योंकि उसका सम्मान नृपति महाशय के निकट और लोगों से अधिक था और उन्होंने पादरी गान्- जेगाके स्थान पर उसको राज्य के एक बड़े पद पर नियुक्त किया था। इसके अतिरिक्त उस पुरुष के चातुर्य्य से वे प्रत्येक समय कांपते रहते थे। कि ऐसा न हो कि कहीं वह भेद जान ले और हमलोगों की सम्पूर्ण आशाओं को मिट्टी में मिला दे। इन कारणों से उन्होंने अबिलाइनो से कुनारी के मार डालने की कामना प्रगट की, परन्तु वह उसी एक व्यक्ति के लिये बहुत [ ९३ ]मुद्रायें मांगता था। उसका कथन था कि तुम मुझे इतनी मुद्रायें प्रदान करो तो मैं तुमसे पक्का वादा करता हूँ कि आज की रात के बाद फिर कुनारी तुमको कभी दुःख न दे सकेगा। चाहे उसे कोई स्वर्ग में लेजाय अथवा नरक में छिपाये मैं उसे अवश्य मारूँगा। अब वह क्या कर सकते थे अबिलाइनो ऐसा पुरुष न था, जो मुँह माँगे पारितोषिक में न्यूनता करता और पादरी महाशय को यह उद्विग्नता थी कि किसी प्रकार फिर उसी पद पर नियुक्त हूँ-परन्तु यह बात कुनारी के बिनाश पर निर्भर थी इस लिये विवश होकर उनको अविलाइनो को मुँह मागा पुरस्कार देना पड़ा, और दूसरे दिन कुनारी नृपति महाशय का प्राणोपम मित्र और वेनिस का महत्व संसार से उठ गया। जिस समय उन दुष्टों को यह समाचार ज्ञात हुआ उन्होने पादरी महाशय के आवास में परमानन्द से मदपान किया, और परस्पर आनन्द और हर्ष के साथ बधाइयाँ दी गईं परन्तु नृपति महाशय को भय और आश्चर्य से बुरी गति थी। उन्होंने नगर और अपने राज्य भर में ठौर २ यह सूचना दे दी और घोषणा कर दी कि जो व्यक्ति कुनारी के नाशक का पता लगायेगा उसे दश सहस्र स्वर्णमुद्रा पुरस्कार मिलेगा। इस घोषणा के कुछ दिनों बाद ही वेनिस के मुख्य मुख्य स्थानों पर एक पत्र लगा हुआ दृष्टिगोचर हुआ जिसका यह आशय था।

"ऐ वेनिस निवासियो! तुमलोग कुनारी के नाशक का नाम जानना चाहते हो, इसलिये तुमको व्यर्थ के असमञ्जस से बचाने के लिये मैं शपथ करके कहता हूँ कि मैं अविलाइना उसका नाशक हूँ। दो बार मैंने अपना कटार उसके हृदय में भोंक दिया और फिर मत्स्यनिकरों के खादन के लिये उसका शव तरङ्गिणी में फेंक दिया। महाराजने घोषणा की है कि जो व्यक्ति कुनारी के नाशक का अनुसन्धान लगायेगा उसे बीस सहस्र [ ९४ ]स्वर्ण मुद्रायें मिलेंगी और मैं अबिलाइनो सूचित करता हूँ कि जो व्यक्ति उसे पकड़ेगा मैं अपनी ओर से उसे तीस सहस्त्र स्वर्ण मुद्रायें प्रदान करूँगा-प्रणाम-आपलोगों का सेवक अबि- लाइनो बांका"।