वेनिस का बाँका/नवम परिच्छेद

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नवम परिच्छेद।

पाठको! अब यहाँ फिर अबिलाइनो और उसके साथियों की चर्चा की जाती है। अबिलाइनों ने ज्योंही माटियो के वध करने से जिसका वर्णन वेनिसके प्रत्येक व्यक्ति की जिह्वा पर था अवकाश पाया, अपना परिच्छद इतना शीघ्र और इस उत्तमता के साथ बदल डाला कि किसी को थोड़ा भी संदेह न होता था कि उसीने माटियो को मारा है, वह उपवन से बेरोक टोक निकल आया और अपने पीछे कोई ऐसा चिन्ह न छोड़ा जिससे उसका पता लग सके। संध्या कालके समीप वह सिन्थिया के घर पर पहुँचा और कुण्डी हिलाई। सिन्थियाने आकर कपाट खोला और अवि- लाइनो गृह में प्रविष्ट हुआ। पहुँचते ही उसने सिन्थिया से एक ऐसी भयानक वाणी से जिसे सुन कर वह कांप उठी पूछा कि और लोग कहाँ हैं। सिन्थिया ने ज्यों त्यों उत्तर दिया "वह लोग दिनही से सो रहे हैं कदाचित् आज किसी विशेष कार्य के लिये जानेवाले हैं।" अविलाइनो एक कुर्सी पर बैठ कर अपने विचारों में ऐसा मग्न हो गया कि उसे किसी बात की सुधि न रही। [ ४६ ]सिन्थिया―"क्यों अबिलाइनो तुम सदा ऐसा रोना स्वरूप क्यों बनाये रहते हो (समीप जाकर) इसी से तो तुम इतने कुरूप ज्ञात होते हो। परमेश्वर के लिये प्रत्येक समय नाक भौ न चढ़ाये रहा करो क्योंकि इससे तुम्हारी आननाकृति जैसी कि परमेश्वर ने बनायी है उसकी अपेक्षा और भी बुरी ज्ञात होती है।"

अबिलाइनो ने कुछ उत्तर न दिया

सिंथिया―सच पूछो तो तुम को अवलोकन कर मनुष्य न भी डरता हो तो डर जाय। अच्छा अबिलाइनो आओ अब हम तुम हिलमिल कर रहें, अब मैं तुम को तुच्छ नहीं समझती हूँ और न तुम्हारे स्वरूप से घृणा करती हूँ, मैं नहीं जानती इस के अतिरिक्त कि॥"

वह आगे कहने नहीं पाई थी कि अकस्मात् अबिलाइनो ऐसा चिल्ला कर बोला जैसे मृगराज गरजता है "जाव उन लोगों को जगा दो!।"

सिन्थिया―"उन लोगों को? दूर करो, उन दुष्टात्माओं को सोने भी दो, क्या तुम मेरे साथ अकेले रहते भय- भीत होते हो? ऐ है कहीं मुझे भी तो तुमने अपने समान कुरूप नहीं समझ लिया है, सच कहो, अविलाइनो तनिक मेरी ओर देखो॥"

सिन्थिया ने यह बात अपने विषय में कुछ अनुचित नहीं कही क्योंकि उसका स्वरूप किसी प्रकार हीन न था। उसकी आँखें रसीली और चंचल थीं, उसके अहि तुल्य केशजाल हृदय पर लहरो रहे थे और अरुणाधरों की लालिमा और नवीनताने पाटलकुसुम को भी पराजित कर रक्खा था। उसने अपने ओष्ट चुम्बन कराने के अभिप्राय से अविलाइनो की ओर झुकाये परन्तु इसको अबतक रोजाबिला के पुनीत चुम्बन का स्वाद [ ४७ ]स्मरण था इस लिये वह नहीं चाहता था कि अपने ओष्ठों में दूसरे के चुम्बन की छूत लगाये। अतएव वह तत्काल अपने स्थान से उठ खड़ा हुआ, और सिन्थिया का हाथ निज स्कन्धा से धीरता के साथ हटा कर कहने लगा "मेरी अच्छी सिन्थिया उन लोगों को जाकर जगा दो, मुझे इसी समय उनसे कुछ आवश्यक बातेँ करनी हैं।" सिन्थिया जाने में रुकी तब उसने डाँट कर कहा 'बस जाव।' सिन्थिया चुपचाप चली गई परन्तु द्वार पर पहुँच कर एक क्षण ठहरी और उँगली से अविलाइनो को धमकाया। अविलाइनों ने कुछ ध्यान न दिया और आयतन में धीरे धीरे टहलने लगा। उसको शिर स्कन्धों पर ढलका हुआ था और दोनों हाथ वक्ष-स्थल पर थे। सिन्थिया के जाने पर वह अपने मन में यों कहने लगा "धन्यवाद है कि पहली युक्ति ठीक उतरी और एक दुष्ट संसार में न्यून हुआ। मैंने उसका वधकर कोई पाप नहीं किया बरन एक बड़ा कर्त्तव्य पालन किया। ऐ! उत्कृष्ट और न्याय प्रिय जगदीश तू मेरी सहायता कर क्योंकि मेरे सामने एक अति दृढ़ और कठिन कार्य्य है (दुःख पूर्ण निश्वास भर कर) यदि मेरा यह कार्य्य सिद्ध हुआ और इसके पुरस्कार में रोजाबिला मुझको मिली! ऐ रोजाबिला? भला महाराज की भ्रातृजा अकिञ्चन अबिलाइनो को स्वीकार करेगी? हा हन्त! यह क्या दुर्विचार मेरे जी में समाया है, मेरी यह अभिलाषा कभी पूरी नहीं हो सकती। इसमें संदेह नहीं कि मुझसा सिड़ी दूसरा न होगा जो एक ही बार अव- लोकनसे मोहित हो गया। पर रोजाबिला ऐसी ही स्वरूपवती है जिसे देखने के साथ ही मनुष्य आसक्त हो जाय। रोजाबिला और वलीरिया ऐसी दो स्त्रियां जिसे प्यार करें उसके भाग्य का क्या पूछना। अच्छा, यद्यपि कि इस अर्थ का लाभ करना [ ४८ ]असम्भव है पर इसके लिये प्रयत्न करना कितनी बड़ी बात है। इसके अतिरिक्त और नहीं तो ऐसे विचारों से कुछ देर तक मेरा हृदय आनन्दित हो जाया करेगा, और (ऊँची साँसे भरकर) प्रकट है कि यदि मुझ मन्दभाग्य का जी थोड़ी देर के लिये भी बहल जाय तो बहुत उत्तम है। हाय! यदि संसार जानता होता कि मैं किन कार्य्यो को प्रसन्नता से करना चाहता हूँ तो वह निस्सन्देह मुझ पर दयालु होता और मेरा सत्कार करता।" इस बीच सिन्थिया पलट आयी और उसके पीछे चारों डाकू जमुहाइयाँ लेते बड़बड़ाते और नींद में उन्मत्त से झूमते आये।

अविलाइनो―"आवो आवो मित्रो! शीघ्र अपने अपने चित्त को ठिकाने करो।" इसके पहले कि मैं तुमसे कुछ कहूँ यह ठीक करलो कि तुम जाग्रत् अवस्था में हो क्योंकि जो कुछ मैं कहनेवाला हूँ वह एक ऐसी अद्भुत वार्त्ता है कि तुम्हें स्वप्न में भी उसका शीघ्र विश्वास न होगा।

यह सुनकर उन लोगों ने असन्तोष और लापरवाही के साथ उसकी बात सुनने के लिये ध्यान दिया और कहा "क्यों मित्र क्या बात है" टामिसोने लेटकर कहा।

अबिलाइनो―केवल इतना ही कि हमारे धर्मात्मा, सच्चे, और वीर माटियो को किसी ने मारडाला।

"ऐं! मार डाला? प्रत्येक पुरुष कह उठा और इस श्रुति कटु समाचार लाने वाले को डरकर देखने लगा। सिन्थिया चिल्ला उठी और छाती पीट कर निस्तब्ध और मूर्छित हो चौकी पर बैठ गयी। कुछ काल पर्य्यत सब लोग चुप रहे अन्त को टामिसो ने फिर पूछा 'मार डाला? किसने?"

बालजर―"कहाँ?"

पेट्राइनो―"क्या आज मध्यान्ह समय?" [ ४९ ]अबिलाइनो―"डोलाबेला के उपवन में, जहाँ लोगोंने उसे महाराज की भ्रातृजा के चरणों के सन्निकट मृतक और रुधिर से आर्द्रं पाया। मैं नहीं कह सकता कि उसे किसने स्वयं रोजा बिलाने अथवा उसके अनुरक्तों में से किसीने मारा।"

सिन्थिया―(रोरो कर) "हाय! हाय!! बेचारा माटियो।"

अविलाइनो―"कल्ह इसी समय तुमलोग उसका मृत शरीर शूली पर लटकता देखोगे।"

पेट्राइनो―"ऐं? क्या किसीने उसको पहचान लिया?"

अबिलाइनो―"हाँ, और क्या, विश्वास मानो सबलोग अमिज्ञ हो गये कि उसकी जीवन वृत्ति क्या थी।"

सिन्थिया-"हाय! शूलीपर, बेवारा माटियो।"

टामिसो―"भाई यह विचित्र वार्त्ता है।"

बालजर―"परमेश्वर का उस मंदभाग्य पर कोप था नहीं तो भला किसे ध्यान था वा हुआ होगा कि आज ऐसी आपदा का मुख अवलोकन करना होगा।"

अबिलाइनो―"लो तुमनो सर्वथा अचेत से हो गये।"

ष्ट्र्जा―"भय और आश्चर्य्य ने मेरा कण्ठदेश ऐसा दबाया है कि मेरी सम्पूर्ण इन्द्रियां चेतनाहीन हो रही हैं।"

अबिलाइनो―"सच कहो! भाई! जीवन की शपथ है, मैं तो इस समाचार को श्रवण कर बहुत हँसा और कहने लगा प्रिय मित्र काटियो मेरे जोन तो आपको आनन्दित होना चाहिये क्योंकि आप ठंढे ठंढे विश्राम स्थान को पहुँच गये।"

टामिसो―"क्या?"

ष्ट्रजा―"क्या तुम बहुन हँसे, भला बताओ तो यहाँ हँसने का कौन अवसर है।"

अबिलाइनो―"क्यों नहीं, मैं समझता हूँ कि जिसे तुम [ ५० ]दूसरों को देने के लिये तत्पर रहते हो यदि वह तुमको प्राप्त हो तो कदापि अप्रसन्न न होगे? मैं नहीं समझता कि तुम्हारा क्या अभिप्राय है? बतलाओ कि हमलोग अपना कार्य समाप्त करने पर करवाल प्रहार वा शूली के अतिरिक्त और किस पारितोषिक पाने की आशा कर सकते हैं, और हम स्वकार्यों का कौनसा स्मरण-चिन्ह इस लोक में छोड़ जा सकते हैं, इसके अतिरिक्त कि हमारा शव शुली पर लटकता हो और कर पग श्रृँखलबद्ध हों? मेरे निकट वसुन्धरा पृष्ट पर जिस व्यक्ति ने प्रतारकता की जीविका स्वीकार कर ली हो उसे मृत्यु से कभी न भीत होना चाहिये चाहे वह किसी मान्यभिषक के कर द्वारा हो अथवा पामर बधिक के। अतएव अब इन बुरे बिचारों को दूर कर के चित्तको स्वस्थ और व्यवस्थित करो।"

टामिसो―"यह कह देना तो सुगम है, परन्तु मेरे सामर्थ्य से इस समय सर्वथा बाहर है।"

पेट्राइनो―"मेरे तो दांत बज रहे हैं।"

बालजर―"परमेश्वर के लिये अबिलाइनो कुछ काल पर्य्यन्त मनुष्य गुण धारण करो, ऐसे समय में तुम्हारा परिहास असोमयिक और अनुचित ज्ञात होता है।"

सिन्थिया―"हाहन्त! बेचारा माटियो मारा गया।"

अबिलाइनो―वाह! वाह!! ए यह क्या? क्यों प्राणाधि- के सिन्थिया तुमको दूधमुख बालक बनते लज्जा नहीं लगती? आओ हम तुम फिर वही बार्त्तालाप प्रारंभ करें जो अभी तू इन लोगों के आगमन के प्रथम कर रही थी। आओ प्रियतमे! मेरे समीप बैठ जाओ और मुझे स्वकलित कपोलों का चुम्बन करने दो।"

सिन्थियो―"दूर हो मूंडीकाटे।"

अबिलाइनो―"प्रिये! क्या तुमने अपनी इच्छा को पलट [ ५१ ]दिया, अच्छा, बहुत उत्तम, जब तुम्हारा जी चाहेगा तो कदा चित मेरा जी न चाहे।

बालजर―राम! राम!! क्या यही समय व्यर्थ प्रलाप करने का है। परमेश्वर के लिये इन बातों को दूसरे समय के लिये रखो और इस समय सोचने दो कि अब हम लोगों को क्या आचरणीय और करणीय है।

पेट्राइनो―"निस्संदेह यह अवसर परिहास करने और हँसी की बातों के कहने को नहीं है।"

ष्ट्र्जा―"अबिलाइनो! तुम तो बड़े सुज्ञ और सुचतुर हो बतानो तो अब हम लोगों को क्या करना उचित है!"

अबिलाइनो―(कुछ कालोपरान्त) कुछ न करना चाहिये अथवा बहुत कुछ! हम लोगों को दो विषयों में से एक को अङ्गीकार करना चाहिये! अर्थात् यातो हम जहाँ हैं और जैसे हैं वैसे ही बने रहें अर्थात् किसी दुष्टात्मा को प्रसन्न करने के लिये,-जो हमको धन प्रदान करे और हमारी प्रशंसा करे,-हम सद्व्यक्तियों का शिरच्छेदन करें और एक न एक दिन शुली पर लट काये जाना, कोल्हू में पीड़ित किये जाना, पोतों पर श्रृङ्खलबद्ध होकर आजन्म कार्य्य करना, जीते जी अग्नि में दग्ध होना, फाँसी पाना अथवा करवाल द्वारा कालकवलित बनना, अभिप्राय यह कि जैसा कुछ शासकों के बिचार में आये हृदय में स्वीकार कर लें, और जी में ठान लें, अथवा-।"

टामिसो―हाँ अथवा?" कहो कहो?

अबिलाइनों-"अथवा जो कुछ धन हमारे पास विद्यमान है उसे परस्पर बिभाजित कर लें, इस नगर को परित्याग कर दूसरीं ठौर इससे उत्तम रीति से कालयापन करें और परमे- श्वर से अपराध क्षमापन के लिये प्रयत्न करें। हम लोगों के पास इस समय इतना धन है कि हमको इस बातकी चिन्ता न होगी [ ५२ ]कि हम क्योंकर धन अर्जन करके कालक्षेप करेंगे अतएव सम्भव है कि किसी परदेश में तुम कोई ग्राम क्रय कर लो, अथवा विविधाहार बिक्रयी बनो, अथवा कश्चित् व्यवसाय करो, अथवा संक्षेप यह कि कोई दूसरी आजीविका जिसे तुम उत्तम समझो करो, परन्तु इस अधम कर्म्म प्रतारकता से बिरक्ति ग्रहण करो। उस समय तुमको अधिकार होगा कि तुम्हारे पद के जो लोग हों उनकी दुहिताओं में से किसी एक को स्वरूपवती देख कर उसके साथ परिणय कर लो, बेटा बेटी वाले कहलाओ, सुख से खान पान करो और प्रसन्न रहो, और इन कार्य्यों द्वारा अपने पूर्वकृत कर्मों का प्रायश्चित्त करो।

टामिसो―"अहा! हा!! हा!!!"

अबिलाइनो―"जो कुछ तुम करोगे वही मैं भी करूँगा, यदि तुम फाँसी पावोगे अथवा कोल्हू में पीड़ित किये जावोगे, तो तुमारे साथ मेरी भी वही गति होगी अथवा यदि तुम सुजन वा सज्जन बन जानोगे तो मैं भी वहीं हो जाऊँगा। अब कहो तुम्हारी क्या सम्मति है।"

टामिसो―"तुमसा अल्पज्ञ सम्मतिदाता संसार में न होगा।"

पेट्राइनो―"हमारी अनुमति तो यह है कि कौन ऐसा अ- साध्य विषय अथवा कठिन बात है जिस पर विशेष त्रिवार करने की आवश्यकता होगी।

अबिलाइनो―"मेरे निकट तो निस्संदेह बड़ी बात है।"

टामिसो―"बस अधिक बात चीत से क्या लाभ मेरी अनु- मति यह है कि जैसे हमलोग हैं वैसे बने रहे और जो वृत्ति आज तक करते आये हैं वही करें, इससे हम सहस्रों मुद्रो कमायेंगे और हमारा जीवनभी परमानन्दपूर्वक व्यतीतहोगा।"

पेट्राइनो―अच्छा कहा, यही मेरी भी सम्मति है। [ ५३ ]टामिसो―हमलोग डाकू हैं इसमें सन्देह नहीं, परन्तु इससे क्या? हम लोग सत्पुरुष हैं,-जो मनुष्य इसके बिरुद्ध कथन करे उसे मैं शैतान के हवाले करता हूँ। हाँ! इस समय हम लोगों को इतनी सावधानता अवश्य करनी चाहिये, कि अभी कतिपय दिवस पर्य्यन्त घर से हर पाँव न रक्खें, इसलिये कि हम पर कोई आक्रमण न करे अथवा हमसे अभिज्ञ न हो जावे क्योंकि मैं तुमसे सत्य कहता हूँ कि इस घटना के सं- घटित होने के कारण महाराज के गुप्तचर हम लोगों के अनु- सन्धान के लिये अवश्य छूटे होंगे। परन्तु ज्योंही यह हलचल दूर हो जाय हमको चाहिये कि पहले माटियो के नाशक को यम लोक गामा बनावै जिसमें कि दूसरे लोगों को डर हो जावे। इस पर सबाने स्वीकृति दिखलाई और मुक्त कंठ से कहा "धन्य बीरपुङ्गव धन्य! जीते रहो।"

पेट्राइनो―और मेरी अनुमति है कि आजसे टामिसो हम लोगों को स्वामित्व पद ग्रहण करे।

ष्ट्रजा "हां! माटियो के स्थान पर।"

फिर सबोंने उच्चस्वर से मिलकर कहा धन्य! धन्य!!

अविलाइनो―मैं भी इसका अनुमोदन करता हूँ, अतएव अब सम्पूर्ण बातों की मीमांसा हो गई।