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वैदेही वनवास/९ अवध धाम

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वैदेही-वनवास
अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

बनारस: हिंदी साहित्य कुटीर, पृष्ठ १२७ से – १४३ तक

 
नवम सर्ग
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अवध धृतम
तिलोकी

था संध्या का समय भवन मणिगण दमक ।
दीपक - पुंज समान जगमगा रहे थे।
तोरण पर अति-मधुर-वाद्य था बज रहा ।
सौधो मे स्वर सरस - स्रोत से बहे थे ॥१॥

काली चादर ओढ़ रही थी यामिनी ।
जिसमे विपुल सुनहले बूटे थे वने ॥
तिमिर - पुंज के अग्रदूत थे घूमते ।
दिशा - वधूटी के व्याकुल - हग सामने ।।२।।

१२८
वैदेही-वनवास

सुधा धवलिसा देख कालिमा की क्रिया।
रूप बदल कर रही मलिन - बदना वनी॥
उतर रही थी धीरे कर से समय के।
सब सौधों में तनी दिवासित चाँदनी ॥३॥

तिमिर फैलता महि - मण्डल में देखकर ।
मंजु - मशाले लगा व्योमतल बालने ।
ग्रीवा में श्रीमती प्रकृति - सुन्दरी के।
मणि - मालाये लगा ललक कर डालने ॥४॥

हो कलरविता लसिता दीपक - अवलि से ।
निज विकास से बहुतों को विकसित वना ॥
विपुल - कुसुम - कुल की कलिकाओं को खिला।
हुई निशा मुख द्वारा रजनी - व्यंजना ॥५॥

इसी समय अपने प्रिय शयनागार में।
सकल भुवन अभिराम राम आसीन थे।
देख रहे थे अनुज - पंथ उत्कंठ हो।
जनक - लली लोकोत्तरता में लीन थे॥६॥

तोरण पर का वाद्य बन्द हो चुका था।
किन्तु एक वीणा थी अब भी झंकृता ।
पिला पिला कर सुधा पिपासित - कान को।
मधुर - कंठ - स्वर से मिल वह थी गुंजिता ॥७॥

१२९
नवम सर्ग

उसकी स्वर लहरी थी उर को बेधती।
नयन से गिराती जल उसकी तान थी।
एक गायिका करुण - भाव की मूर्ति बन ।
आहे भर भर कर गाती यह गान थी ।।८।

गान


आकुल ऑखे तरस रही हैं।


बिना विलोके मुख-मयंक छबि पल पल ऑसू बरस रही हैं।
दुख दूना होता जाता है सूना घर धर धर खाता है।
ऊब ऊब उठती हूँ मेरा जी रह रह कर घबराता है।
दिन भर आहे भरती हूँ मैं तारे गिन गिन रात बिताती।
आ अन्तस्तल मध्य न जाने कहाँ की उदासी है छाती ।
शुक ने आज नही मुँह खोला नही नाचता दिखलाता है।
मैना भी है पड़ी मोह में उसके हग से जल जाता है ।।
देवि | आप कब तक आयेगी ऑखे हैं दर्शन की प्यासी।
थाम कलेजा कलप रही है पड़ी व्यथा - वारिधि में दासी ॥९॥

तिलोकी


रघुकुल पुंगव ने पूरा गाना सुना।
धीर धुरंधर करुणा - वरुणालय बने ।
इसी समय कर पूजित - पग की वन्दना ।
खड़े दिखाई दिये प्रिय - अनुज सामने ॥१०॥

१३०
वैदेही-वनवास

कुछ आकुल कुछ तुष्ट कुछ अचिन्तित दशा।
देख सुमित्रा - सुत की प्रभुवर ने कहा ॥
तात ! तुम्हें उत्फुल्ल नहीं हूँ देखता ।
क्यों मुझको अवलोक हगों से जल बहा । ।।११॥

आश्रम में तो सकुशल पहुँचगई प्रिया ?
वहाँ समादर स्वागत तो समुचित हुआ।
हैं मुनिराज प्रसन्न ? शान्त है तपोवन ।
नही कही पर तो है कुछ अनुचित हुआ ? ॥१२॥

सविनय कहा सुमित्रा के प्रिय - सुअन ने।
मुनि हैं मंगल - मूर्ति, तपोवन पूततम ॥
आर्या हैं स्वयमेव दिव्य देवियों सी।
आश्रम है सात्विक - निवास सुरलोक सम ॥१३॥

वह है सद्व्यवहार - धाम सत्कृति - सदन !
वहाँ कुशल है 'कार्य - कुशलता' सीखती ॥
भले - भाव सब फूले फले मिले वहाँ।
भली - भावना - भूति भरी है दीखती ॥१४॥

किन्तु एक अति - पति - परायणा की दशा।
उनकी मुख - मुद्रा उनकी मार्मिक - व्यथा ।।
उनकी गोपन - भाव - भरित दुख - व्यंजना।
उनकी बहु - संयमन प्रयत्नों की , कथा ॥१५॥

१३१
नवम सर्ग

मुझे बनाती रहती है अब भी व्यथित ।
उसकी याद सताती है अव भी मुझे ॥
उन बातों को सोच न कब छलके नयन ।
आश्वासन देती कह जिन्हें कभी मुझे ॥१६॥

तपोभूमि का पूत - वायुमण्डल मिले।
मुनि - पुंगव के सात्विक - पुण्य - प्रभाव से ।।
शान्ति वहुत कुछ आर्या को है मिल रही।
तपस्विनी - गण सहृदयता सद्भाव से ॥१७।।

किन्तु पति - परायणता की जो मूर्ति है।
पति ही जिसके जीवन का सर्वस्व है।
विना सलिल की सफरी वह होगी न क्यों।
पति - वियोग मे जिसका विफल निजस्व है ॥१८॥

सिय - प्रदत्त - सन्देश सुना सौमित्र ने।
कहा, भरी है इसमें कितनी वेदना ॥
वात आपकी चले न कब दिल हिल गया।
कब न पति - रता आँखों से आंसू छना ॥१९॥

उनको है कर्तव्य ज्ञान वे आपकी-
कर्म - परायण हैं सच्ची सहधर्मिणी ॥
लोक - लाभ - मूलक प्रभु के संकल्प पर।
उत्सर्गी कृत होकर हैं कृति - ऋण - ऋणी ॥२०॥

१३२
वैठेही-वनवास

फिर भी प्रभु की स्मृति, दर्शन की लालसा।
उन्हें बनाती रहती है व्यथिता अधिक ।।
यह स्वाभाविकता है उस सद्भाव की।
जो आजन्म रहा सतीत्व - पथ का पथिक ।।२१।

जिसने अपनी वर - विभूति - विभुता दिखा।
रज समान लंका के विभवों को गिना ।।
जिसके उस कर से जो दिव - वल - दीप्त था।
लंकाधिप का विश्व - विदित - गौरव छिना ॥२२॥

कर प्रसून सा जिसने पावक - पुंज को।
दिखलाई अपनी अपूर्व तेजस्विता ॥
दानवता आतपता जिसकी शान्ति से।
बहुत दिनों तक वनती रही शरद सिता ।।२३।।

वड़े अपावन - भाव परम - पावन बने ।
जिसकी पावनता का करके सामना ॥
चौदह वत्सर तक जिसकी धृति - शक्ति से।
वहु दुर्गम वन अति सुन्दर उपवन बना ॥२४॥

इष्ट - सिद्धि होगी उसका ही बल मिले।
सफल बनेगी कठिन से कठिन साधना ॥
भव - हित होगा भय - विहीन होगी धरा ।
होवेगी लोकोत्तर लोकाराधना ॥२५॥

१३३
नवम सर्ग

यह निश्चित है पर आर्या की वेदना ।
जितनी है दुस्सह उसको कैसे कहूँ।
वे हैं महिमामयी सहन कर ले व्यथा।
उन्हें व्यथा है, इसको मैं कैसे सहूँ ॥२६॥

कुलपति आश्रम - गमन किसे प्रिय है नही ।
इस मांगलिक - विधान से मुदित हैं सभी ॥
पर न आज है राज - भवन ही श्री - रहित ।
सूना है हो गया अवध सा नगर भी ॥२७॥

मुनि - आश्रम के वास का अनिश्चित समय ।
किसे बनाता है नितान्त - चिन्तित नही ।
माताये यदि व्यथिता हैं वधुओ - सहित ।
पौर - जनो का भी तो स्थिर है चित नही ॥२८॥

मुझे देख सबके मुख पर यह प्रश्न था।
कब आयेगी पुण्यमयी - महि - नन्दिनी ।
अवध पुरी फिर कब होगी आलोकिता ।
फिर कब दर्शन देगी कलुप - निकन्दिनी ॥२९॥

प्रायः आर्या जाती थी प्रात समय ।
पावन - सलिला - सरयू सरिता तीर पर ।
और वहाँ थी दान - पुण्य करती वहुत ।
वारिद - सम वर-वारि-विभव की वृष्टि कर ॥३०॥

१३४
वैदेही-वनवास

समय समय पर देव - मंदिरों में पहुँच ।
होती थीं देवी समान वे पूजिता ॥
सकल - न्यूनताओं की करके पूर्तियाँ।
सत्प्रवृत्ति को रही बनाती ऊर्जिता ॥३१॥

वे निज प्रिय - रथ पर चढ़ कर संध्या - समय ।
अटन के लिये जब थी बाहर निकलती ॥
तब खुलते कितने लोगों के भाग्य थे।
उन्नति में थी बहु - जन अवनति बदलती ॥३२॥

राज-भवन से जब चलती थीं उस समय ।
रहते उनके साथ विपुल - सामान थे।
जिनसे मिलता आत - जनों को त्राण था ।
बहुत अकिञ्चन बनते कञ्चनवान थे ॥३३॥

दक्ष दासियाँ जितनी रहती साथ थीं।
वे जनता - हित - साधन की आधार थीं॥
मिले पंथ में किसी रुन विकलांग के।
करती उनके लिये उचित - उपचार थीं ॥३४॥

इसी लिये उनके अभाव में आज दिन ।
नहीं नगर में ही दुख की धारा बही ।।
उदासीनता है कह रही उदास हो।
राज-भवन भी रहा न राज - भवन वहीं ॥३५॥

१३५
नवम सर्ग

आर्या की प्रिय - सेविका सुकृतिवती ने।
अभी गान जो गाया है उद्विग्न बन ॥
अहह भरा है उसमें कितना करुण - रस ।
वह है राज - भवन दुख का अविकल- कथन ॥३६॥

गृहजन परिजन पुरजन की तो बात क्या।
रथ के घोड़े व्याकुल हैं अब तक बड़े ।।
पहले तो आश्रम को रहे न छोड़ते।
चले चलाये तो पथ में प्राय: अड़े ॥३७॥

घुमा घुमा शिर रहे रिक्त - रथ देखते ।
थे निराश नयनों से ऑसू ढालते ॥
वार बार हिनहिना प्रकट करते व्यथा ।
चौंक चौक कर पॉव कभी थे डालते ॥३८॥

आर्या कोमलता ममता की मूर्ति हैं।
हैं सद्भाव - रता उदारता पूरिता ॥
है लोकाराधन - निधि - शुचिता - सुरसरी ।
मानवता - राका - रजनी की सिता ॥३९॥

फिर कैसे होती न लोक में पूजिता ।
क्यों न अदर्शन उनका जनता को खले ।।
किन्तु हुई निर्विन मांगलिक - क्रिया है।
हित होता है पहुँचे सुर पादप तले ॥४०॥

१३६
वैदेही-वनवास

कहा राम ने आज राज्य जो सुखित है।
जो वह मिलता है इतना फूला फला ॥
जो कमला की उस पर है इतनी कृपा।
जो होता रहता है जन जन का भला ।।४१।।

अवध पुरी है जो सुर - पुरी सदृश लसी।
जो उसमें है इतनी शान्ति विराजती ॥
तो इसमें है हाथ बहुत कुछ प्रिया का।
है यह बात अधितकर जनता जानती ॥४२॥

कुछ अशान्ति जो फैल गई है इन दिनों।
वे ही उसका वारण भी. हैं कर रही ।
विविध - व्यथाये सह बह विरह - प्रवाह में ।
वे ही दुख - निधि में हैं अहह उतर रही ॥४३॥

भला कामना किसको है सुख की नहीं।
क्या मैं सुखी नही रहना हूँ चाहता ।।
क्या मैं व्यथित नही हूँ कान्ता - व्यथा से ।
क्या मैं सद्रत को हूँ नहीं निबाहता ॥४४॥

तन, छाया - सम जिसका मेरा साथ था।
आज दिखाती उसकी छाया तक नहीं ।।
प्रवह - मान - संयोग - स्रोत ही था जहाँ ।
अब वियोग - खर - धारा बहती है वही ॥४५॥

१३७
नवम सर्ग

आज बन गई है वह कानन - वासिनी।
जो मम - आनन अवलोके जीती रही ।।
आज उसे है दर्शन - दुर्लभ हो गया ।
पूत - प्रेम - प्याला जो नित पीती रही ॥४६॥

आज निरन्तर विरह सताता है उसे।
जो अन्तर से प्रियतम अनुरागिनी थी।
आह भार अब उसका जीवन हो गया।
आजीवन जो मम - जीवन - सगिनी थी ॥४७।।

तात। विदित हो कैसे अन्तर्वेदना ।
काढ़ कलेजा क्यों मैं दिखलाऊँ तुम्हें ।।
स्वयं बन गया जब मैं निर्मम - जीव तो।
मर्मस्थल का मर्म क्यो वताऊँ तुम्हे ॥४८॥

क्या माताओं की मुझको ममता नही।
क्या होता हूँ दुखित न उनका देख दुख ॥
क्या पुरजन परिजन अथवा परिवार का ।
मुझे नही वांछित है सच्चा आत्म - सुख ॥४९॥

सुकृतिवती का विह्वलतामय - गान सुन ।
क्या मेरा अन्तस्तल हुआ नही द्रवित ॥ -
कथा वाजियों की सुन कर करुणा भरी।
नही हो गया क्या मेरा मानस व्यथित ।।५०।।

१३८
वैदेही-वनवास

किन्तु प्रश्न यह है, है धार्मिक - कृत्य क्या ?
प्रजा - रंजिनी - राजनीति का मर्म क्या ?
जिससे हो भव - भला लोक - आराधना ।
वह मानव - अवलम्बनीय है कर्म क्या ॥५१॥

अपना हित किसको प्रिय होता है नहीं।
सम्बन्धी का कौन नही करता भला ।।
जान बूझ कर वश चलते जंजाल में ।
कोई नही फंसाता है अपना गला ॥५२।।

स्वार्थ - सूत्र में बंधा हुआ संसार है।
इष्ट - सिद्धि भव - साधन का सर्वस्व है।
कार्य -क्षेत्र में उतर जगत में जन्म ले।
सबसे प्यारा सबको रहा निजस्व है ॥५३॥

यह स्वाभाविक - नियम प्रकृति अनुकूल है।
यदि यह होता नही विश्व चलता नही।
पलने पर विधि - वद्ध - विधानों के कभी ।
जगतीतल का प्राणि - पुंज पलता नहीं ॥५४।।

किन्तु स्वार्थ - साधन, हित-चिन्ता-स्वजन की।
उचित वहीं तक है जो हो कश्मल - रहित ॥
जो न लोक - हित पर - हित के प्रतिकूल हो।
जो हो विधि - संगत, जो हो छल - बल - रहित ॥५५।।

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नवम सर्ग

कर पर का अपकार लोक - हित का कदन ।
निज - हित करना पशुता है, है अधमता ।।
भव-हित पर - हित देश - हितों का ध्यान रख ।
कर लेना निज - स्वार्थ - सिद्धि है मनुजता ॥५६।।

मनुजों में वे परम - पूज्य हैं वंद्य हैं।
जो परार्थ - उत्सर्गी - कृत - जीवन रहे ।'
सत्य, न्याय के लिये जिन्होंने अटल रह ।
प्राण - दान तक किये, सर्व - संकट सहे ।।५७।।

नृपति मनुज है अत: मनुजता अयन है।
सत्य न्याय का वह प्रसिद्ध आधार है।
है प्रधान - कृति उसकी लोकाराधना।
उसे शान्तिमय शासन का अधिकार है ।।५८।।

अवनीतल में ऐसे नृप - मणि हैं हुए ।
इन बातों के जो सच्चे - आदर्श थे।
दिव्य - दूत जो विभु - विभूतियों के रहे।
कर्म - पूततम जिनके मर्म - स्पर्श थे ।।५९।।

हरिश्चन्द्र, शिवि आदि नृपों की कीर्तियाँ।
अव भी है वसुधा की शान्ति - विधायिनी ।।
भव - गौरव ऋषिवर दधीचि की दिव्य - कृति ।
है अद्यापि अलौकिक शिक्षा - दायिनी ॥६०॥'

१४०
वैदेही-वनवास

है वह मनुज न, जिसमें मिली न मनुजता ।
अनीति रत में कहाँ नीति - अस्तित्व है ।।
वह है नरपति नही जो नही जानता।
नरपतित्व का क्या दत्तरदायित्व है ॥६१।।

कोई सज्जन, ज्ञानमान, मतिमान, नर ।
यथा - शक्ति परहित करना है चाहता ।।
देश, जाति, भव - हित अवसर अवलोक कर ।
प्रायः वह निज - हित को भी है त्यागता ॥६२॥

यदि ऐसा है तो क्या यह होगा विहित ।
कोई · तृप अपने प्रधान - कर्त्तव्य का ।।
करे त्याग निज के सुख-दुख पर दृष्टि रख ।
अथवा मान निदेश मोह - मन्तव्य का ॥६३।।

जिसका जितना गुरु - उत्तरदायित्व है।
उसे महत उतना ही बनना चाहिये ।।
त्याग सहित जिसमें लोकाराधन नही।
वह लोकाधिप कहलाता है किस लिये ॥६४॥

बात तुम्हें लोकापवाद की ज्ञात है।
मुझे लोक - उत्पीड़न वांछित है नही ।।
अतः बनूँ मैं क्यों न लोक - हित - पथ - पथिक ।
जहाँ सुकृति है शान्ति विलसती है वही ॥६५॥

१४१
नवम सर्ग

मैं हूँ व्यथित अधिकतर - व्यथिता है प्रिया ।
क्योंकि सताती है आ आ सुख - कामना ।
है यह सुख - कामना एक उन्मत्तता ।
भरी हुई है इसमें विविधा - वासना ॥६६॥

यह सरसा - सस्कृति है यह है प्रकृति - रति ।
यह विभाव संसर्ग - जनित - अभ्यास है।
है यह मूर्ति मनुज के परमानन्द की।
वर - विकास, उल्लास, विलास, निवास है ॥६७॥

त्याग - कामना भी नितान्त कमनीय है।
मानवता - महिमा द्वारा है अंकिता ।।
वन कर्त्तव्य परायणता से दिव्यतम ।
लोक - मान्य - मन्त्रों से है अभिमंत्रिता ॥६८॥

मैंने जो है त्याग किया वह उचित है।
ऐसा ही करना इस समय सुकर्म था ।
इसीलिये सहमत विदेहजा भी हुई।
क्योकि यही सहधर्मिणी परम धर्म था ॥६९।।

कितने सह साँसते बहुत दुख भोगते ।
कितने पिसने पड़ प्रकोप तलवों तले ।।
दमन - चक्र यदि चलता तो बहता लहू ।
वृथा न जाने कितने कट जाते गले ॥७०॥

१४२
वैदेही-वनवास

तात ! देख लो साम - नीति के ग्रहण से।
हुआ प्राणियों का कितना उपकार है।
प्रजा सुरक्षित रही पिसी जनता नहीं।
हुआ लोक - हित मचा न हाहाकार है ।।७१॥

हॉ ! वियोगिनी प्रिया - दशा दयनीय है।
मेरा उर भी इससे मथित अपार है।
किन्तु इसी अवसर पर आश्रम में गमन ।
दोनों के दुख का उत्तम - प्रतिकार है ।।७२।।

जब से सम्बन्धित हम दोनों हुए हैं।
केवल छ महीने का हुआ वियोग है।
रहीं जिन दिनों लंका में जनकांगजा ।
किन्तु आ गया अव ऐसा संयोग है ।।७३।।

जो यह बतलाता है अहह वियोग यह ।
होगा चिरकालिक वरसों तक रहेगा।
अतः सताती है यह चिन्ता नित मुझे। .
पति प्राणा का हृदय इसे क्यों सहेगा ॥७४।।

पर मुझको इसका पूरा विश्वास है।
हो अधीर भी तजेगी नहीं धीरता ।।
प्रिया करेंगी मम - इच्छा की पूर्ति ही।
पूत रहेगी नयन - नीर की नीरता ।।७५।।

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नवम सर्ग

सहायता उनके सद्भाव - समूह की।
सदा करेगी तपोभूमि - शुचि - भावना ।।
उन्हे सँभालेगी मुनि की महनीयता ।
कुल - दीपक संतान - प्रसव - प्रस्तावना । ७६।।

इसी लिये मुझको अशान्ति में शान्ति है।
और विरह मे भी हूँ वहुत व्यथित न मैं ।।
चिन्तित हूँ पर अतिशय - चिन्तित हूँ नही।
इसीलिये वनता हूँ विचलित - चित न मैं ॥७७।।

किन्तु जनकजा के अभाव की पूर्तियाँ ।
हमें तुम्हें भ्राताओं भ्रातृ - वधू सहित ।।
करना होगा जिससे माताये तथा ।
परिजन, पुरजन, यथा रीति होवे सुखित ।।७८।।

तात ! करो यह यत्न दलित दुख - दल बने ।
सरस - शान्ति की धारा घर घर में बहे ।।
कोई कभी असुख - मुख अवलोके नही।
सुखमय - वासर से विलसित वसुधा रहे ॥७९।।

दोहा

सीता का सन्देश कह, सुन आदर्श पवित्र ।
वन्दन कर प्रभु - कमल - पग चले गये सौमित्र ।।८०॥