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संग्राम/२.५

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संग्राम
प्रेमचंद

काशी: हिन्दी पुस्तक एजेन्सी, पृष्ठ १०३ से – १११ तक

 


पांचवां दृश्य
(स्थान--सबलसिहका दीवानखाना, खसकी टट्टियाँ लगी हुई हैं,

पंखा चल रहा है। सबल शीतलपाटीपर लेटे हुए
Democracy नामक ग्रंथ पढ़ रहे हैं, द्वारपर
एक दबन बैठा झपकियाँ ले रहा है।

समय--दो पहर, मध्याह्नकी प्रचंड धूप।)

समय--"हम अभी जन सत्तात्मक राज्यके योग्य नहीं है, कदापि नहीं है। ऐसे राज्यके लिये सर्वसाधारणमें शिक्षाकी प्रचुर मात्रा होनी चाहिये। हम अभी उस आदर्शसे कोसों दूर हैं। इसके लिये महान स्वार्थत्यागकी आवश्यकता है। जब तक प्रजामात्र स्वार्थको राष्ट्रपर बलिदान करना नहीं सीखते इसका स्वप्न देखना मनकी मिठाई खाना है। अमरीका, फ्रान्स, दक्षिणी अमरीका आदि देशोंने बड़े समारोहसे इसकी व्यवस्था की पर उनमेसे किसीको भी सफलता नहीं हुई। वहाँ अब भी धन और सम्पत्तिवालोंके ही हाथों में अधिकार है। प्रजा अपने प्रतिनिधि कितनी ही सावधानीसे क्यों न चुने पर अन्तमें सत्ता गिने गिनाये आदमियोंके ही हाथों में चली जाती है। सामाजिक और राजनैतिक व्यवस्था ही ऐसी दूषित है कि जनताका अधिकांश मुट्ठीभर आदमियों के वशवर्ती हो गया है। जनता इतनी निबल, इतनी अशक्त है कि इन शक्तिशाली पुरुषों के सामने सिर नहीं उठा सकती। यह व्यवस्था सर्वथा अपवादमय, विनष्टकारी और अत्याचार पूर्ण है। आदर्श व्यवस्था यह है कि सबके अधिकार बराबर हों, कोई जमींदार बनकर, कोई महाजन बनकर जनतापर रोब न जमा सके। यह ऊँच नीचका घृणित भेद उठ जाय। इस सबल निबल संग्राम में जनताकी दशा बिगड़ती चली जाती है। इसका सबसे भयङ्कर परिणाम यह है कि जनता आत्मसम्मान विहीन होती जाती है, उसमें प्रलोभनोंका प्रतिकार करने, अन्यायका सिर कुचलनेका सामर्थ नहीं रहा। छोटे छोटे स्वार्थके लिये बहुधा भयवश, कैसे-कैसे अनर्थ हो रहे हैं। (मनमें) कितनी यथार्थ बात लिखी है। आज ऐसा कोई असामी नहीं है जिसके घर में मैं अपने दुष्टाचरणका तीर न चला सकूँ। मैं कानूनके बलसे, भयके बलसे, प्रलोभनके बलसे, अपना अभीष्ट पूरा कर सकता हूँ। अपनी शक्तिका ज्ञान हमारे दुस्साहसको, कुभावोंको और भी उत्तेजित कर देता है। खैर! हलधर को जेल गये हुए आज दसवाँ दिन है, मैं गाँवकी तरफ नहीं गया। न जाने राजेश्वरी पर क्या गुजर रही है। कौन मुंह लेकर जाऊं? अगर कहीं गांववालोंको यह चाल मालुम हो गई होगी तो मैं वहां मुंह भी न दिखा सकूंगा। राजेश्वरीको अपनी दशा चाहे कितनी कष्टप्रद जान पड़ती हो, पर उसे हलधरसे प्रेम है। हलधरका द्रोही बनकर मैं उसके प्रेमरसको नहीं पा सकता। क्यों न कल चला जाऊँ, इस उधेड़ बुनमें कबतक पड़ा रहूँगा। अगर गाँववालोंपर यह रहस्य खुल गया होगा तो मैं विस्मय दिखाकर कह सकता हूँ कि मुझे खबर नहीं है, आज ही पता लगाता हूँ। सब तरह उनकी दिलजोई करनी होगी और हलधरको मुक्त कराना पड़ेगा। सारी बाजी इसी एक दाँवपर निर्भर है। मेरी भी क्या हालत है पढ़ता हूँ (Democracy) और......अपनेको धोखा देना व्यर्थ है, यह प्रेम नहीं है, केवल कामलिप्सा है। प्रेमदुर्लभ वस्तु है, वह उस अधिकारका जो मुझे असामियोंपर है, दुरुपयोग मात्र है।

(दर्बान आता है)

क्या है? मैंने कह दिया है इस वक्त मुझे दिक मत किया करो, क्या मुख्तार आये हैं? उन्हें और कोई वक्त ही नहीं मिलता?

दर्बान--जी नहीं, मुख्तार नहीं आये हैं। एक औरत है। सबल--औरत है? कोई भिखारिनी है क्या? घरमेंसे कुछ लाकर दे दो। तुम्हें ज़रा भी तमीज नहीं है, जरासी बातके लिये मुझे दिक किया।

दर्बान--हुजूर भिखारिनी नहीं है। अभी फाटकपर एक्केपरसे उतरी है। खूब गहने पहने हुए है। कहती हैं मुझे राजा साहबसे कुछ कहना है।

सबल--(चौंककर) कोई देहातिन होगी। कहां है?

दर्बान--वहीं मौलसरीके नीचे बैठी है।

सबल--समझ गया, ब्राह्मणी है, अपने पिताके लिये दवा मांगने आई है। (मनमें) वही होगी। दिल कैसा धड़कने लगा। दोपहरका समय है। नौकर चाकर सब सो रहे होंगे। दर्बानको बरफ लाने के लिये बाजार भेज दूं । उसे बगीचेवाले बंगले में ठहराऊं। (प्रगट) उसे भेज दो और तुम जाकर बाजारसे बरफ़ लेते आयो।

(दबीन चला जाता है। राजेश्वरी आती है। सबलसिंह तुरत
उठकर उसे बगीचेवाले बंगले में ले जाते हैं।)

राजेश्वरी--आप तो टट्टी लगाये आराम कर रहे हैं और मैं जलती हुई धूपमें मारी-मारी फिर रही हूँ। गांवकी ओर जाना ही छोड़ दिया। सारा शहर भटक चुकी तो मकानका पता मिला। सबल--क्या कहूँ, मेरी हिमाक़तसे तुम्हें इतनी तक़लीफ हुई, बहुत लज्जित हूं। कई दिनसे आनेका इरादा करता था पर किसी न किसी कारणसे रुक जाना पड़ता था। बरफ़ आती होगी, एक ग्लास शर्बत पीलो तो यह गरमी दूर हो जाय।

राजेश्वरी--आपकी कृपा है मैंने बरफ़ कभी नहीं पी है। आप जानते हैं मैं यहां क्या करने आई हूँ?

सबल--दर्शन देने के लिये।

राजे०--जी नहीं, मैं ऐमी निस्वार्थ नहीं हूं। आई हूँ आपके घरमें रहने; आपका प्रेम खींच लाया है। जिस रस्सीमें बंधी हुई थी वह टूट गई। उनका आज दस ग्यारह दिनसे कुछ पता नहीं है। मालूम होता है कहीं देस-विदेस भाग गये। फिर मैं किसकी होकर रहती। सब छोड़-छाड़ कर आपकी सरन आई हूं, और सदाके लिये। उस ऊजाड़ गांवसे जी भर गया।

सबल--तुम्हारा घर है, आनन्दसे रहो। धन्य भाग कि मुझे आज यह अवसर मिला। मैं इतना भाग्यवान हूँ, मुझे इसका विश्वास ही न था। मेरी तो यह हालत हो रही है।

हमारे घरमें वह आयें खुदाकी कुद्रत है।
कभी हम उनको कभी अपने घरको देखते हैं।

ऐसा बौखला गया हूँ कि कुछ समझमें ही नहीं आता तुम्हारी कैसे खिदमत करूं।

राजे०--मुझे इसी बंगलेमें रहना होगा?

सबल--ऐसा होता तो क्या पूछना था, पर यहां बखेड़ा है, बदनामी होगी। मैं आज ही शहरमें एक अच्छा मकान ठीक कर लूंगा। सब सामान वहीं हो जायगा।

राजे०--(प्रेम कटाक्षसे देखकर) प्रेम करते हो और बदनामीसे डरते हो। यह कच्चा प्रेम है।

सबल--(झेंपकर) अभी नया रंगरूट हूँ न।

राजे०--(सजल नेत्रोंसे) मैंने अपना सर्बस आपको दे दिया। अब मेरी लाज आपके हाथ है।

सबल--(उसके दोनों हाथ पकड़ कर तस्कीन देते हुए) राजेश्वरी, मैं तुम्हारी इस कृपाको कभी न भूलूँगा। मुझे भी आजसे अपना सेवक, अपना चाकर जो चाहे समझो।

राजे०--(मुसकिरा कर) आदमी अपने सेवककी सरन नहीं जाता, अपने स्वामी की सरन आता है। मालूम नहीं आप मेरे मनके भावोंको जानते हैं या नहीं, पर ईश्वरने आपको इतनी विद्या और बुद्धि दी है, आपसे कैसे छिपा रह सकता है। मैं आपके प्रेम, केवल आपके प्रेमके वश होकर आई हूँ। पहली बार जब आपकी निगाह मुझपर पड़ी तो उसने मुझपर मन्त्रसा फूँक दिया। मुझे इस में प्रेमकी झलक दिखाई दी। तभीसे मैं आपकी हो गई। मुझे भोग विलासकी इच्छा नहीं, मैं केवल आपको चाहती हूं। आप मुझे झोपड़ी में रखिये, मुझे गजी गाढ़ा पहनाइये मुझे उसमें भी सरगका आनन्द मिलेगा। बस आपकी प्रेम-दिरिष्ट मुझार बनी रहे।

सबल--(गर्व के साथ) मैं जिन्दगीभर तुम्हारा रहूंगा और केवल तुम्हारा। मैंने उच्चकुलमें जन्म पाया। घरमें किसी चीज़की कमी नहीं थी। मेरा पालन-पोषण बड़े लाड़ प्यारसे हुआ जैसा रईसोके लड़कों का होता है। घरमें बीसियों युवती महरियाँ, महाराजनें थीं। उधर नौकर-चाकर भी मेरी कुवृत्तियोंको भड़काते रहते थे। मेरे चरित्रपतनके सभी सामान जमा थे। रईसोंके अधिकांश युवक इसी तरह भ्रष्ट हो जाते हैं। पर ईश्वर- की मुझपर कुछ ऐसी दया थी कि लड़कपनहीसे मेरी प्रवृत्ति विद्याभ्यासकी ओर थी और उसने युवावस्थामें भी मेरा साथ न छोड़ा। मैं समझने लगा था प्रेम कोई वस्तु ही नहीं, केवल कवियोंकी कल्पना है। मैंने एकसे एक यौवनवती, सुन्दरियाँ देखी है पर कभी मेरा चित्त विचलित नहीं हुआ। तुम्हें देखकर पहली बार मेरी हृदय-वीणाके तारों में चोट लगी। मैं इसे ईश्वरकी इच्छाके सिवाय और क्या कहूं। तुमने पहली ही निगाहमें मुझे प्रेमका प्याला पिला दिया, तबसे आजतक उसी नशेमें मस्त था। बहुत उपाय किये, कितनी ही खटाइयाँ खाई पर यह नशा न उतरा। मैं अपने मनके इस रहस्यको अबतक नहीं समझ सका। राजेश्वरी, सच कहता हूं मैं तुम्हारी ओरसे निराश था। समझता था अब यह जिन्दगी रोते ही कटेगी, पर भाग्यको धन्य है कि आज घर बैठे देवीके दर्शन हो गये और जिस बरदानकी आशा थी वह भी मिल गया।

राजे०--मैं एक बात कहना चाहती हूँ, पर संकोचके मारे नहीं कह सकती।

सबल--कहो कहो, मुझसे क्या संकोच! मैं कोई दूसरा थोड़े ही हूँ।

राजे०--न कहूँगी, लाज आती है।

सबल--तुमने मुझे चिन्तामें डाल दिया, बिना सुने मुझे चैन न आयेगा।

राजे०--कोई ऐसी बात नहीं है, सुनकर क्या कीजियेगा?

सबल--(राजेश्वरीके दोनों हाथ पकड़कर) बिना कहे न जाने दूंगा, कहना पड़ेगा।

राजे०--(असमञ्जसमें पड़कर) मैं सोचती हूं कहीं आप यह न समझें कि जब यह अपने पतिकी होकर न रही तो मेरी होकर क्या रहेगी। ऐसी चञ्चल औरतका क्या ठिकाना......

सबल--बस करो राजेश्वरी, अब और कुछ मत कहो। तुम ने मुझे इतना नीच समझ लिया। अगर मैं तुम्हें अपना हृदय खोलकर दिखा सकता वो तुम्हें मालूम होता कि मैं तुम्हें क्या समझता हूँ। वह घर, उस घरके प्राणी, वह समाज, तुम्हारे योग्य न थे। गुलाबकी शोभा बागमें है, घूरपर नहीं। तुम्हारा वहां रहना उतना अस्वाभाविक था जितना सुअरके माथेपर सेन्दूरकी टीका होती है या झोपड़ीमें झाड़। वह जलवायु तुम्हारे सर्वथा प्रतिकूल थी। हंस मरुभूमिमें नहीं रहता। इसी तरह अगर मैं सोचूं कहीं तुम यह न समझो कि जब यह अपनी विवाहिता स्त्रीका न हुआ तो मेरा क्या होगा तो?

राजे०--(गम्भीरतासे) मुझमें और आपमें बड़ा अन्तर है।

सबल--यह बातें फिर होंगी, इस वक्त आराम करो, थक गई होगी। पंखा खोले देता हूँ। सामनेवाली कोठरीमें पानीवानी सब रखा हुआ है। मैं अभी आता हूं।