संग्राम/२.६
बैठी हुई हैं। बाबा चेतनदास ग़लीचेपर मसनद
गुलाबी--आज महात्माजीने बहुत दिनोंके बाद दर्शन दिये।
ज्ञानी--मैंने समझा था कहीं तीर्थयात्रा करने चले गये होंगे।
चेतनदास--माता जी मेरेको अब तीर्थयात्रासे क्या प्रयोजन। ईश्वर तो मनमें है, उसे पर्वतोंके शिखर और नदियों के तटपर क्यों खोजूं। वह घट-घट व्यापी है, वही तुममें है, यही मुझमें है, वही प्राणिमात्रमें है, यह समस्त ब्रह्माण्ड उसीका विराट स्वरूप है, उसीकी अखित ज्योति है। यह विभिन्नता केवल बहिर्जगतमें है, अन्तर्जगतमें कोई भेद नहीं है। मैं अपनी कुटीमें बैठा हुआ ध्यानावस्थामें अपने भक्तोंसे साक्षात करता रहा हूँ। यह मेरा नित्यका नियम है।
गुलाबी--(ज्ञानीसे) महात्माजी अन्तरजामी हैं। महराज
७ मेरा लड़का मेरे कहने में नहीं है। बहूने उसपर न जाने कौन सा मंत्र डाल दिया है कि मेरी बात ही नहीं पूछता। जो कुछ कमाता है वह लाकर बहू के हाथमें देता है, वह चाहे कान पकड़कर उठाये या बैठाये, बोलता ही नहीं। कुछ ऐसा उतजोग कीजिये कि वह मेरे कहने में हो जाय, बहू की ओरसे उसका चित्त फिर जाय। बस यही मेरी लालसा है।
चेतनदास--(मुस्किराकर) बेटे को बहू के लिये ही तो पाला पोसा था। अब वह बहूका हो रहा तो तेरेको क्यों ईर्षा होती है।
ज्ञानी--महाराज यह स्त्रीके पीछे इस विचारीसे लड़नेपर तैयार हो जाता है।
चेतन--यह कोई बात नहीं है। मैं उसे मोम की भांति जिधर चाहूँ फेर सकता हूँ केवल इसको मुझपर श्रद्धा रखनी चाहिये। श्रद्धा, श्रद्धा, श्रद्धा, यही अर्थ, धर्म, काम, मोक्षकी प्राप्तिका मूलमंत्र है। श्रद्धासे ब्रह्म मिल जाता है। पर श्रद्धा उत्पन्न कैसे हो। केवल बातोंहासे श्रद्धा उत्पन्न नहीं हो सकती। वह कुछ देखना चाहती है। बोलो क्या दिखाऊं। तुम दोनों मनमें कोई बात ले लो। मैं अपने योगबलसे अभी बतला दूंगा। ज्ञानी देवी, पहले तुम मनमें कोई बात लो।
ज्ञानी--ले लिया महाराज।
चेतनदास--(ध्यान करके) बड़ी दूर चली गईं। "मोतियोंका हार"है न?
ज्ञानी--हां महाराज यही बात थी।
चेतन--गुलाबी, अब तुम कोई बात लो।
गुलाबी--ले ली महराज।
चेतन--(ध्यान करके मुस्किरा कर)--बहू से इतना द्वेष 'वह मर जाय'।
गुलाबी--हाँ महराज यही बात थी। आप सचमुच अंतरजामी हैं।
चेतन--कुछ और देखना चाहती हो, बोलो 'क्या वस्तु यहाँ मंगवाऊं? मेवा, मिठाई, हीरे, मोती, इन सब वस्तुओंके ढेर लगा सकता हूँ। अमरूदके दिन नहीं हैं, जितना अमरूद चाहो मंगवा दूं। भेजो प्रभूजी, भेजो तुरत भेजो--
(मोतियों का ढेर लगता है।)
गुलाबी--आप सिद्ध हैं।
ज्ञानी--आपकी चमत्कार शक्तिको धन्य है।
चेतनदास--और क्या देखना चाहती हो? कहो यहांसे बैठे २ अंतरध्यान हो जाऊं और फिर यही बैठा हुआ मिलूं। कहो वहां उस वृक्ष के नीचे तुम्हें नैपध्यमें गाना सुनाऊं। हां यही अच्छा है। देवगण तुम्हें गाना सुनायेंगे, पर तुम्हें उनके
दर्शन न होंगे। उस वृक्ष के नीचे चली जावो। ध्वनि आने लगती है।)
बाहिर ढूंढन जा मत सजनी
प्रिया घर बीच बिराज रहे री॥
गगन महलमें सेज बिछी है
अनहद बाजे बाज रहे री॥
अमृत बरसे, बिजली चमके
घुमर घुमर घन गाज रहे री॥
ज्ञानी--ऐसे महात्माओंके दर्शन दुर्लभ होते हैं।
गुलाबी--पूर्वजन्ममें बहुत अच्छे कर्म किये थे। यह उसीका फल है।
ज्ञानी--देवताओंको भी बसमें कर लिया है।
गुलाबी--जोगबलकी बड़ी महिमा है। मगर देवता बहुत अच्छा नहीं गाते। गला दबाकर गाते हैं क्या?
ज्ञानी--पगला गई है क्या। महात्माजी अपनी सिद्धि दिखा रहे हैं कि तुम्हारे लिये देवताओं की संगीत मंडली खड़ी की है।
गुलाबी--ऐसे महात्माको राजा साहब धूर्त कहते हैं।
ज्ञानी--बहुत विद्या पढ़नेसे आदमी नास्तिक हो जाता है। मेरे मनमें तो इनके प्रति भक्ति और श्रद्धाकी एक तरंग सी उठ रही है। कितना देवतुल्य स्वरूप है। गुलाबी--कुछ भेंट-भाँट तो लेंगे नहीं?
ज्ञानी--अरे राम राम! महात्माओं को रुपये पैसेका क्या मोह। देखती तो हो कि मोतियों के ढेर सामने लगे हुए हैं, किस चीज़की कमी है?
(दोनों कमरेमें आती हैं। गाना बन्द होता है।)
ज्ञानी--अरे! महात्माजी कहां चले गये? यहाँसे उठते तो नहीं देखा।
गुलाबी--उसकी माया कौन जाने। अंतरध्यान हो गये होंगे।
ज्ञानी--कितनी अलौकिक लीला है!
गुलाबी--अब मरते दमतक इनका दामन न छोडूँगी। इन्हींके साथ रहूंगी और सेवा टहल करती रहूँगी।
ज्ञानी--मुझे तो पूरा विश्वास है कि मेरा मनोरथ इन्हींसे पूरा होगा। सहसा चेतनदास मसनद लगाये बैठे दिखाई देते हैं।
गुलाबी--(चरणोंपर गिर कर) धन्य हो महाराज, आपकी लीला अपरमपार है।
ज्ञानी--(चरणोंपर गिरकर) भगवान, मेरा उद्धार करो।
चेतनदास--कुछ और देखना चाहती है?
ज्ञानी--महराज बहुत देख चुकी। मुझे विश्वास हो गया कि आप मेरा मनोरथ पूरा कर देंगे।
चेतन--जो कुछ मैं कहूं वह करना होगा
ज्ञानी--सिरके बल करूँगी।
चेतन--कोई शंका की तो परिणाम बुरा होगा।
ज्ञानी--(कांपती हुई) अब मुझे कोई शंका नहीं हो सकती। जब आपकी शरण आ गई तो कैसी शंका।
चेतन--(मुस्किराकर) अगर आज्ञा दूँ कुवेंमें कूद पड़।
ज्ञानी--तुरत कूद पड़ूँगी। मुझे विश्वास है कि उससे भी मेरा कल्याण होगा।
चेतन--अगर कहूँ अपने सब आभूषण उतारकर मुझे दे दे तो मनमें यह तो न कहेगी, इसीलिये यह जाल फैलाया था, धूर्त है।
ज्ञानी--(चरणोंपर गिरकर) महाराज, आप प्राण भी मांगें तो भापकी भेंट करूँगी।
चेतन--अच्छा अब जाता हूं। परीक्षाके लिये तैयार रहना।