संग्राम/२.७

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संग्राम  (1939) 
द्वारा प्रेमचंद

[ ११८ ]


सातवां दृश्य
समय--प्रातःकाल, ज्येष्ठ। स्थान--गंगाका तट। राजेश्वरी

एक सजे हुए कमरे में मसनद लगाये बैठी है। दो तीन
लौडियाँ इधर-उधर दौड़कर काम कर रही हैं।

सबल सिंहका प्रवेश।

सबल--अगर मुझे, उषाका चित्र खींचना हो तो तुम्हीको नमूना बनाऊँ। तुम्हारे मुखपर मंद समीरणसे लहराते हुए केश ऐसी शोभा दे रहे हैं मानो............

राजे०--दो नागिनें लहराती चली जाती हों, किसी प्रेमीको डँसनेके लिये।

सबल--तुमने हँसीमें उड़ा दिया, मैंने बहुत ही अच्छी उपमा सोची थी।

राजे०--खैर, यह बताइये तीन दिनतक दर्शन क्यों नहीं दिया?

सबल--(असमंजसमें पड़कर) मैंने समझा शायद मेरे रोज आनेसे किसीको सन्देह हो जाय। [ ११९ ]राजे०--मुझे इसकी कुछ परवाह नहीं है। आपको वहां नित्य आना होगा। आपको क्या मालूम है कि यहाँ किस तरह तड़प-तड़पकर दिन काटती हूं।

सबल--राजेश्वरी, मैं अपनी दशा कैसे दर्शाऊँ। बस यही समझ लो जैसे पानी बिना मछली तड़पती हो। न सैर करनेका जी चाहता है न घरसे निकलने का, न किसीसे मिलने-जुलने का, यहाँतक कि साइनेमा देखने को भी जो नहीं चाहता। जब यहाँ आने लगता हूं तो ऐमी प्रबल उत्कण्ठा होती है कि उड़कर आ पहुँचूँ। जब यहाँसे चलता हूं तो ऐसा जान पड़ता है कि मुकदमा हार आया हूं। राजेश्वरी, पहले मेरी केवल यही इच्छा थी कि तुम्हें आँखोंसे देखता रहूँ, तुम्हारी मधुर वाणी सुनता रहूँ। तुम्हें अपनी देवी बनाकर पूजना चाहता था पर जैसे ज्वरमें जलसे तृप्ति नहीं होती, जैसे नई सभ्यतामें विलासकी वस्तुओंसे तृप्ति नहीं होती, वैसे ही प्रेमका भी हाल है; वह सर्वस्व देना और सर्वस्व लेना चाहता है। इतना यत्न करनेपर भी घरके लोग मुझे चिन्तित नेत्रों मे देखने लगे हैं। उन्हें मेरे स्वभावमें कोई ऐसी बात नज़र आती है जो पहले नहीं आती थी। न जाने इसका क्या अंत होगा।

राजे०--इसका अन्त होगा वह मैं जानती हूँ और उसे जानते हुए मैंने इस मार्गपर पाँव रखा है। पर उन चिन्ताओंको [ १२० ]छोड़िये। जब ओखलीमें सिर दिया है तो मूसलों का क्या डर। मैं यही चाहती हूँ कि आप दिनमें किसी समय अवश्य आ जाया करें। आपको देखकर मेरे चित्तकी ज्वाला शांत हो जाती है जैसे जलते हुए घावपर मरहम लग जाय। अकेले मुझे डर भी लगता है कि कहीं वह हलजोत किसान मेरी टोह लगाता हुआ आ न पहुँचे। यह भय सदैव मेरे हृदयपर छाया रहता है। उसे क्रोध आता है तो वह उन्मत्त हो जाता है। उसे ज़रा भी खबर मिल गई तो मेरी जानकी खैरियत नहीं है।

सबल--उसकी ज़रा भी चिन्ता मत करो। मैंने उसे हिरासतमें रखवा दिया है। वहां ६ महीनेतक रखूंगा। अभी तो १ महीनेसे कुछ ही ऊपर हुआ है। ६ महीने के बाद देखा जायगा। रुपये कहां हैं कि देकर छूटेगा।

राजे०--क्या जाने उसके गाय, बैल कहां गये। भूखों मर गये होंगे।

सबल--नहीं, मैंने पता लगाया था। वह बुड्ढा मुसलमान फत्तू उसके सब जानवरों को अपने घर ले गया है और उनकी अच्छी तरह सेवा करता है।

राजे०--यह सुनकर चिन्ता मिट गई। मैं डरती थी कहीं सब जानवर मर गये हों तो हमें हत्या लगे।

सबल--(घड़ी देखकर) यहां आता हूँ तो समयके परसे [ १२१ ]खग जाते हैं। मेरा बस चलता तो एक एक मिनट के एक एक घंटे बना देता।

राजे०--और मेरा बस चलता तो एक एक घण्टेके एक एक मिनिट बना देती। जब प्यास भर पानी न मिले तो पानीमें मुंह ही क्यों लगाये। जब कपड़ेपर रँगके छींटे ही डालने हैं तो उसका उजला रहना ही अच्छा। अब मनको समेटना सीखूंगी।

सबल--प्रिये.........

राजे०--(बात काटकर) इस पवित्र शब्दको अपवित्र न कीजिये।

सबल--(सजल नयन होकर) मेरी इतनी याचना तुम्हें स्वीकार करनी पड़ेगी। प्रिये मुझे अनुभव हो रहा है कि यहां रहकर हम आनन्दमय प्रेमका स्वर्ग सुख न भोग सकेंगे। क्यों न हम किसी सुरम्य स्थानपर चलें जहां विघ्न और बाधाओं, चिन्ताओं और शंकाओंसे मुक्त होकर जीवन व्यतीत हो। मैं कह सकता हूँ कि मुझे जल वायु, परिवर्तन के लिये किसी स्वस्थकर स्थानकी जरूरत है, जैसे गढ़वाल, आबू पर्वत या रांची।

राजे०--लेकिन ज्ञानी देवीको क्या कीजियेगा। क्या यह साथ न चलेंगी?

सबल--बस यही एक रुकावट है। ऐसा कौनसा यत्न [ १२२ ]करूं कि वह मेरे साथ चलनेपर आग्रह न करे। इसके साथ ही कोई संदेह भी न हो।

राजे०--ज्ञानी सती हैं, वह किसी तरह यहां न रहेंगी। यदि आप इस पांच दिन, या एक दो महीने के लिये कहीं जायें तो वह साथ न जायेंगी लेकिन जब उन्हें मालूम होगा कि आपका स्वास्थ्य अच्छा नहीं है तब वह किसी तरह न रुकेगी। और यह बात भी है कि ऐसी सती स्त्रीको मैं दुखी नहीं करना चाहती। मैं तो केवल आपका प्रेम चाहती हूँ। उतना ही जितना ज्ञानीसे बचे। मैं उनका अधिकार नहीं छीनना चाहती। मैं उनके पैरोंकी धूलके बराबर भी नहीं हूँ। मैं उनके घरमें चोरकी भांति घुसी हूँ। उनसे मेरी क्या बराबरी। आप उन्हें दुखी किये बिना मुझपर जितनी कृपा कर सकते हैं उतनी कीजिये।

सबल--(मनमें) कैसे पवित्र विचार हैं। ऐसा नारिरत्न पाकर मैं उसके सुखसे वंचित हूँ। मैं कमल तोड़नेके लिये क्यों पानीमें घुसा जब जानता था कि वहां दलदल है। मदिरा पीकर चाहता हूं कि उसका नशा न हो।

राजेश्वरी--(मनमें) भगवन्। देखूं अपने व्रत का पालन कर सकती हूँ या नहीं। कितने पवित्र भाव हैं, कितना अग्गध प्रेम!

सबल--(उठकर) प्रिये, कल इसी वक्त फिर आऊँगा। प्रेमालिंगन के लिये चित्त उत्कंठित हो रहा है। [ १२३ ]राजे०--यहां प्रेमकी शान्ति नहीं, प्रेमकी दाह है। जाइये। देखूं अब यह पहाड़ सा दिन कैसे कटता है। नींद भी जाने कहां भाग गई।

सबल--(छज्जेके जीनेसे लौटकर) प्रिये, गजब हो गया; वह देखो कंचनसिंह जा रहे हैं। उन्होंने मुझे यहांसे उतरते देख लिया। अब क्या करूँ?

राजे०--देख लिया तो क्या हरज हुआ। समझे होंगे आप किसी मित्रसे मिलने आये होंगे। जरा मैं भी उन्हें देख लूँ।

सबल--जिस बातका मुझे डर था वही हुआ। अवश्य ही उन्हें कुछ टोह लग गई है। नहीं तो इधर उनके आनेका कोई काम न था। यह तो उनके पूजा पाठ का समय है। इस वक्त कभी बाहर नहीं निकलते। हाँ गंगाम्नान करने जाते हैं, मगर घड़ी रात रहे। इधरसे कहाँ जायेंगे? घरवालोंको सन्देह हो गया।

राजे०--आपसे स्वरूप बहुत मिलता हुआ है। सुनहरी ऐनक खूब खिलती है।

सबल--अगर वह सिर झुकाये अपनी राह चले जाते तो मुझे शंका न होती पर वह इधर-उधर, नीचे-ऊपर इस भांति ताकते जाते थे जैसे शोहदे कोठोंकी ओर झांकते हैं। उनका स्वभाव नहीं है। बड़े ही धर्मज्ञ,सच्चरित्र,ईश्वरभक्त पुरुष हैं। संसार [ १२४ ]रिकतासे उन्हें घृणा है। इसलिये अबतक विवाह नहीं किया।

राजे०--अगर यह हाल है तो यहाँ पूछ-ताछ करने जरूर आयेंगे

सबल--मालूम होता है इस घरका पता पहले लगा लिया है। इस समय पूछ-ताछ करने ही आये थे। मुझे देखा तो लौट गये। अब मेरी लज्जा, मेरा लोक सम्मान, मेरा जीवन तुम्हारे आधीन है। तुम्हीं मेरी रक्षा कर सकती हो।

राजे०--क्यों न कोई दूसरा मकान ठीक कर लीजिये।

सबल--इससे कुछ न होगा। बस यही उपाय है कि जब वह यहाँ आयें तो उन्हें चकमा दिया जाय। कहला भेजो मैं सबल सिंहको नहीं जानती। वह यहाँ कभी नहीं आते। दूसरा उपाय यह है कि उन्हें कुछ दिनोंके लिये यहांसे टाल दूं। कह देता हूं कि जाकर लायलपुरसे गेहूँ खरीद लावो। तबतक हम लोग यहाँसे कहीं और चल देंगे।

राजे०--यही तरकीब अच्छी है।

सबल--अच्छी तो है पर हुआ बड़ा अनर्थ। अब परदा ढका रहना कठिन है।

राजे०--(मनमें) ईश्वर, यही मेरी प्रतिज्ञाके पूरे होने का अवसर है। मुझे बल प्रदान करो। (प्रगट) यह सब मुसीबतें मेरी लाई हुई हैं। मैं क्या जानती थी कि प्रेम मार्गमें इतने कांटे हैं! [ १२५ ]सबल--मेरी बातोंका ध्यान रखना। मेरे होश ठिकाने नहीं हैं। चलूं देखूं, मुआमला अभी कंचनसिंह ही तक है या ज्ञानीको भी खबर हो गई।

राजे०--आज संध्या समय आइयेगा। मेरा जी उधर ही लगा रहेगा।

सबल--अवश्य आऊंगा। अब तो मन लागि रह्यो, होनी हो सो होई। मुझे अपनी कीर्ति बहुत प्यारी है। अबतक मैंने मान-प्रतिष्ठा हीको जीवनका आधार समझ रखा था, पर अवसर आया तो मैं इसे प्रेमकी वेदीपर तरह चढ़ा दूंगा जैसे उपासक पुरुषों का चढ़ा देता है, नहों जैसे कोई ज्ञानी पार्थिव वस्तुओं को लात मार देता है।

(जाता है)