संग्राम/३.६

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संग्राम  (1939) 
द्वारा प्रेमचंद

[ १८५ ]


छठा दृश्य
(स्थान—शहरवाला किरायेका मकान। समय—आधीरात,
कंचनसिंह और राजेश्वरी बातें कर रहे हैं।)

राजे०—देवरजी,मैंने प्रेमके लिये अपना सर्वस्व लगा दिया। पर जिस प्रेमकी आशा थी वह नहीं मयस्सर हुआ। मैंने अपना सर्वस्व दिया है तो उसके लिये सर्वस्व चाहती भी हूँ। मैंने समझा था एकके बदले आधीपर संतोष कर लूंगी। पर अब देखती हूँ तो जान पढ़ता है कि मुझसे भूल हो गई। दूसरी बड़ी भूल यह हुई कि मैंने ज्ञानी देवीकी ओर ध्यान नहीं दिया था। उन्हें कितना दुःख, कितना शोक, कितनी जलन होगी इसका मैंने जरा भी विचार नहीं किया था। आपसे एक बात पूछूं नाराज़ तो न होंगे।

कंचन—तुम्हारी बाससे मैं नाराज हूँगा!

राजे०—आपने अबतक विवाह क्यों नहीं किया?

कंचन—इसके कई कारण हैं। मैंने धर्मग्रन्थोंमें पढ़ा था कि गृहस्थ जीवन मनुष्यकी मोक्षप्राप्ति में बाधक होता है। मैंने [ १८६ ]अपना तन, मन, धन सब धर्मपर अर्पण कर दिया था। दान और व्रतको ही मैंने जीवनका उद्देश्य समझ लिया था। उसका मुख्य कारण यह था कि मुझे प्रेमका कुछ अनुभव न था। मैंने उसका सरस स्वाद न पाया था। उसे केवल मायाकी एक कूटलीला समझा करता था, पर अब ज्ञात हो रहा है कि प्रेममें कितना पवित्र आनन्द और कितना स्वर्गीय सुख भरा हुआ है। इस सुखके सामने अब मुझे धर्म, मोक्ष और व्रत कुछ भी नहीं जंचते। उनका सुख भी चिन्तामय है, इसका दुःख भी रसमय।

राजे०—(वक नेत्रोंसे ताककर) यह सुख कहां प्राप्त हुआ?

कंचन—यह न बताऊंगा।

राजे०—(मुसकिरा कर) बताइये चाहे न बताइये, मैं समझ गई। जिस वस्तुको पाकर आप इतने मुग्ध हो गये हैं वह असलमें प्रेम नहीं है। प्रेमकी केवल झलक है। जिस दिन आपको प्रेमरत्न मिलेगा उस दिन आपको इस आनन्दका सच्चा अनुभव होगा।

कंचन—मैं यह रत्न पाने योग्य नहीं हूँ। वह आनन्द मेरे भाग्यमेंही नहीं है।

राजे०—है और मिलेगा। भाग्यसे इतने निराश न हूजिये। आप जिस दिन, जिस घड़ी, जिस पल इच्छा करेंगे यह रत्न [ १८७ ]आपको मिल जायगा। वह आपके इच्छाकी बाट जोह रहा है।

कंचन—(आंखोंमें आंसू भरकर) राजेश्वरी, मैं घोर धर्मसंकटमें हूँ। न जाने मेरा क्या अन्त होगा। मुझे इस प्रेमपर अपने प्राण बलिदान करने पड़ेंगे।

राजे०—(मनमें) भगवन्, मैं कैसी अभागिनी हूँ। ऐसे निश्छल, सरल पुरुषको हत्या मेरे हाथों हो रही है। पर करूँ क्या, अपने अपमानका बदला तो लेना ही होगा। (प्रकट) प्राणेश्वर, आप इतने निराश क्यों होते हैं। मैं आपकी हूँ और आपकी रहूंगी। संसारकी आंखों में मैं चाहे जो कुछ हूँ, दूसरोंके साथ मेरा बाहरी व्यवहार चाहे जैसा हो, पर मेरा हृदय आपका है। मेरे प्राण आपपर न्योछावर हैं। (आंचलसे कंचन के आंसू पोंछकर) अब प्रसन्न हो जाइये। यह प्रेमरत्न आपकी भेंट है।

कंचन—राजेश्वरी, उस प्रेमको भोगना मेरे भाग्यमें नहीं है। मुझ जैसा भाग्यहीन पुरुष और कौन होगा जो ऐसे दुर्लभ रत्नकी ओर हाथ नहीं बढ़ा सकता। मेरी दशा उस पुरुषकी सी है जो क्षुधासे व्याकुल होकर उन पदार्थों की ओर लपके जो किसी देवताकी अर्चनाके लिये रखे हुए हों। मैं वही अमानुषी कर्म कर रहा हूँ। मैं पहले यह जानता कि प्रेमरत्न कहां मिलेगा तो तुम अपसरा भी होती तो आकाशसे उतार लाता। [ १८८ ]दूसरोंकी आंख पड़नेके पहले तुम मेरी हो जाती फिर कोई तुम्हारी ओर आंख उठाकर भी न देख सकता। पर तुम मुझे उस वक्त मिली जब तुम्हारी ओर प्रेमकी दृष्टिसे देखना भी मेरे लिये अधर्म हो गया। राजेश्वरी, मैं महापापी, अधर्मी जीव हूं। मुझे यहां इस एकान्तमें बैठनेका, तुमसे ऐसी बातें करनेका अधिकार नहीं है। पर प्रेमघातने मुझे संज्ञाहीन कर दिया है। मेरा विवेक लुप्त हो गया है। मेरे इतने दिनका ब्रह्मचर्य्य और धर्मनिष्ठाका अपहरण होगया है। इसका परिणाम कितना भयङ्कर होगा ईश्वर ही जाने। अब यहां मेरा बैठना उचित नहीं है। मुझे जाने दो (उठ खड़ा होता है।)

राजेश्वरी—(हाथ पकड़कर) न जाने पाइयेगा। जब इस धर्म अधर्मका पचड़ा छेड़ा है तो उसका निपटारा किये जाइये। मैं तो समझती थी जैसे जगन्नाथपुरीमें पहुँचकर छूता-छूतका विचार नहीं रहता उसी भांति प्रेमकी दीक्षा पानेके बाद धर्म अधर्मका विचार नहीं रहता। प्रेम आदमीको पागल कर देता है। पागल आदमीके काम और बातका विचार और व्यवहारका कोई ठिकाना नहीं।

कंचन—इस विचारसे चित्तको संतोष नहीं होता। मुझे अब जाने दो। अब और परीक्षामें मत डालो।

राजे०—अच्छा बतलाते जाइये कबआइयेगा? [ १८९ ]कंचन—कुछ नहीं जानता क्या होगा। (रोते हुए) मेरे अपराध क्षमा करना।

(जीनेसे उतरता है। द्वारपर सबलसिंह आते दिखाई देते हैं।
कंचन एक अंधेरे बरामदेमें छिप जाता है।)

सबल—(ऊपर जाकर) अरे! अभी तक तुम सोईं नहीं?

राजे०—जिन आंखोंमें प्रेम बसता है वहाँ नींद कहां।

सबल—यह उन्निद्रा प्रेममें नहीं होती। कपट प्रेममें होती है।

राजे०—(सशंक होकर) मुझे तो इसका कभी अनुभव नहीं हुआ। आपने इस समय आकर बड़ी कृपा की।

सबल—(क्रोधसे) अभी यहां कौन बैठा हुआ था?

राजे०—आपकी याद।

सबल-मुभे भ्रम था कि याद सदेह नहीं हुआ करती। आज यह नयी बात मालूम हुई। मैं तुमसे विनय करता हूँ बतला दो अभी कौन यहांसे उठकर गया है।

राजे०—आपने देखा है तो क्यों पूछते हैं?

सबल—शायद मुझे भ्रम हुआ हो।

राजे०—ठाकुर कंचनसिंह थे।

सबल—तो मेरा गुमान ठीक निकला। वह क्या करने आया था?

राजे०—(मनमें) मालूम होता है मेरा मनोरथ उससे जल्द [ १९० ]पूरा होगा जितनी मुझे आशा थी। (प्रगट) यह प्रश्न आप व्यर्थ करते हैं। इतनी रात गये जब कोई पुरुष किसी अन्य स्त्रीके पास जाता है तो उसका एकही आशय हो सकता है।

सबल—उसे तुमने आने क्यों दिया?

राजे०—उन्होंने आकर द्वार खटखटाया, कहारिन जाकर खोल आई। मैंने तो उन्हें यहां आनेपर देखा।

सबल—कहारिन उससे मिली हुई है?

राजे०—यह उससे पूछिये।

सबल०—जब तुमने उसे बैठे देखा तो दुत्कार क्यों न दिया?

राजे०—प्राणेश्वर, आप मुझसे ऐसे सवाल पूछकर दिल न जलावें। यह कहांकी रीति है कि जब कोई आदमी अपने पास आये तो उसको दुत्कार दिया जाय, वह भी अब आपका भाई हो। मैं इतनी निठुर नहीं हो सकती। उनसे मिलनेमें तो भय जब होता कि जब मेरा अपना चित्त चंचल होता,मुझे अपने ऊपर विश्वास न होता। प्रेमके गहरे रंगमें सराबोर होकर अब मुझपर किसी दूसरे रङ्गके चढ़नेकी सम्भावना नहीं है। हां, आप बाबू कंचनसिंहको किसी बहानेसे समझा दीजिये कि अबसे यहां न आबें। वह ऐसी प्रेम और अनुरागकी बातें करने लगते हैं कि उसके ध्यानसेही लज्जा आने लगती है। विवश होकर बैठती हूँ, सुनती हूँ। [ १९१ ]सबल—(उन्मत्त होकर) पाखडी कहींका, धर्मात्मा बनता है, विरक्त बनता है, और कर्म ऐसे नीच! तु मेरा भाई सही पर तेरा वध करनेमें कोई पाप नहीं है। हां, इस राक्षसको हत्या मेरे ही हाथों होगी। ओह! कितनी नीच प्रकृति है, मेरा सगा भाई और यह व्यवहार! असह्य है अक्षम्य है, ऐसे पापीके लिये नर्क ही सबसे उत्तम स्थान है। आज ही, इसी रातको तेरी जीवन-लीला समाप्त हो जायगी। तेरा दीपक बुझ जायगा। हा धूर्त, क्या तेरी कामलोलुपताके लिये यही एक ठिकाना था! तुझे मेरे ही घरमें आग लगानी थी! मैं तुझे पुत्रवत् प्यार करता था। तुझे.........(क्रोधसे ओठ चबाकर) तेरी लाशको इन्हीं आंखोंसे तड़पते हुए देखूंगा।

(नीचे चला जाता है)

राजे०—(आपही आप) ऐसा जान पड़ता है भगवान स्वयं यह सारी लीला कर रहे हैं, उन्हींकी प्रेरणासे सब कुछ होता हुआ मालूम होता है। कैसा विचित्र रहस्य है। मैं बैलोंका मारा जाना नहीं देख सकती थी, चिंउटियोंको पैरों तले पड़ते देख- कर मैं पाँव हटा लिया करती थी। पर अभाग्य मुझसे यह हत्याकाण्ड करा रहा है! मेरेही निर्दय हाथोंके इशारेसे यह कठपुतलियां नाच रही हैं!(करुण स्वरों में गाती है)

ऊधो कर्मनकी गति न्यारी। (गाते गाते प्रस्थान)