संग्राम/३.८

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संग्राम  (1939) 
द्वारा प्रेमचंद

[ १९८ ]


आठवां दृश्य
(स्थान—नदीका किनारा, समय—४ बजे भोर, कंचन

पूजाकी सामग्री लिये आता है और एक
तख्तपर बैठ जाता है, फीटन घाटके

ऊपर ही रुक जाती है)

कंचन (मनमें) यह जीवनका अंत है! यह बड़े २ इरादों और मंसूबोंका परिणाम है! इसीलिये जन्म लिया था। यही मोक्षपद है। यह निर्वाण है। माया बन्धनोंसे मुक्त रहकर आत्माको उच्चतम पदपर ले जाना चाहता था। यह वही महानपद है। यही मेरी सुकीर्ति रूपी धर्मशाला है, यही मेरा आदर्श कृष्ण-मन्दिर है! इतने दिनोंके नियम और सयम, सत्संग और भक्ति, दान और व्रतने अन्तमें मुझे वहां पहुँचाया जहाँ कदाचित् भ्रष्टाचार और कुविचार, पाप और कुकर्मने भी न पहुँचाया होता। मैंने जीवनयात्राका कठिनतम मार्ग लिया पर हिन्सक जीव-जन्तुओंसे बचनेका, अथाह नदियोंको पार करनेका, दुर्गम घाटियोंसे उतरनेका कोई साधन अपने [ १९९ ]साथ न लिया। मैं स्त्रियोंसे अलग-अलग रहता था, इन्हें जीवनका कांटा सममता था, उनके बनाव-श्रृंगारको देखकर मुझे घृणा होती थी। पर आज...वह स्त्री जो मेरे बड़े भाईकी प्रेमिका है, जो मेरी माताके तुल्य है.........प्रेममें इतनी शक्ति है, मैं यह न जानता था! हाय, राह आग अब बुझती नहीं दिखाई देती। यह ज्वाला मुझे भस्म करके ही शान्त होगी। यही उत्तम है। अब इस जीवनका अंत होना ही अच्छा है। इस आत्मपतन के बाद अब जीना धिक्कार है। जीनेसे यह ताप और ज्वाला दिन दिन प्रचंड होगी। घुल घुलकर, कुढ़ कुढ़कर मरनेसे, घर में बैरका बीज बोनेसे, जो अपने पूज्य हैं उनसे वैमनस्य करनेसे, यह कहीं अच्छा है कि इन विपत्तियों के मूलही, का नाश कर दूं। मैंने सब तरह परीक्षा करके देख लिया। राजेश्वरीको किसी तरह नहीं भूल सकता, किसी तरह ध्यानसे नहीं उतार सकता।

(चेतनदासका प्रवेश)

कंचन—स्वामीजीको दण्डवत् करता हूं।

चेतन—बाबा सदा सुखी रहो। इधर कई दिनोंसे तुमको नहीं देखा। मुख मलिन है, अस्वस्थ तो नहीं थे?

कंचन—नहीं महाराज, आपके आशीर्वादसे कुशलसे हूं। पर कुछ ऐसे झंझटोंमें पढ़ा रहा कि आपके दर्शन न कर सका। [ २०० ]बड़ा सौभाग्य था कि आज प्रातःकाल आपके दर्शन हो गये। आप तीर्थयात्रापर कब जाने का विचार कर रहे हैं?

चेतन—बाबा अब तक तो चला गया होता पर भगतोंसे पिण्ड नहीं छूटता। विशेषतः मुझे तुम्हारे कल्याणके लिये तुमसे कुछ कहना था और बिना कहे मैं न जा सकता था। यहां इसी उद्देश्यमे आया हूँ। तुम्हारे ऊपर एक घोर संकट आनेवाला है। तुम्हारा भाई सबलसिह तुम्हें वध करनेकी चेष्टाकर रहा है। घातक शीघ्रही तुम्हारे ऊपर आघात करेगा। सचेत हो जाओ।

कंचन—महाराज, मुझे अपने भाईसे ऐसी आशङ्का नहीं है।

चेतन—यह तुम्हारा भ्रम है। प्रेम ईर्षा में मनुष्य अस्थिरचित्त, उन्मत्त हो जाता है।

कंचन—यदि ऐसाही हो तो मैं क्या कर सकता हूँ। मेरी आत्मा तो स्वयं अपने पापके बोझसे दबी हुई है।

चेतन—यह क्षत्रियोंकी बातें नहीं हैं। भूमि, धन, और नारीके लिये संग्राम करना क्षत्रियोंका धर्म है। इन वस्तुओंपर उसीका वास्तविक अधिकार है जो अपने बाहुबलसे उन्हें छीन सके। इस संग्राममें दया और धर्म, विवेक और विचार, मान और प्रतिष्ठा, सभी कायरताके पर्याय हैं। यही उपदेश कृष्ण भगवानने अर्जुनको दिया था, और वही उपदेश मैं तुम्हें दे रहा [ २०१ ]हूँ। तुम मेरे भक्त हो इसलिये यह चेतावनी देना मेरा कर्तव्य था। योद्धाओंकी भांति क्षेत्र में निकलो और अपने शत्रुके मस्तकको पैरोंसे कुचल डालो, उसका गेंद बनाकर खेलो अथवा अपनी तलवारकी नोकपर उछालो। यही वीरोंका धर्म है। जो प्राणी क्षत्रिय वंशमें जन्म लेकर संग्रामसे मुंह मोड़ता है वह केवल कापुरुष ही नहीं, पापी है, विधर्मी है, दुरात्मा है। कर्मक्षेत्रमें कोई किसीका पुत्र नहीं, भाई नहीं, मित्र नहीं, सब एक दूसरेके शत्रु हैं। यह समस्त संसार कुछ नहीं; केवल एक वृहतः विराट शत्रुता है। दर्शनकारों और धर्माचार्य्यों ने संसारको प्रेममय कहा है। उनके कथनानुसार ईश्वर स्वयं प्रेम है। यह उस भ्रान्तिका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है जिसने संसारको वेष्ठित कर रखा है। भूल जाओ कि तुम किसीके भाई हो। जो तुम्हारे ऊपर आघात करे उसका प्रतिघात करो, जो तुम्हारी ओर वक्र नेत्रोंसे ताके उसकी आंखें निकाल लो। राजेश्वरी तुम्हारी है, प्रेमके नाते उसपर तुम्हारा ही अधिकार है। अगर तुम अपने कर्तव्य-पथसे हटकर उसे उस पुरुषके हाथोंमें छोड़ दोगे जिससे उसे चाहे पहले प्रेम रहा हो पर अब वह उससे घृणा करती है, तो तुम न्याय, नीति और धर्मके घातक सिद्ध होगे और जन्म जन्मान्तरों तक इसका दण्ड भोगते रहोगे।

(चेतनदासका प्रस्थान)

[ २०२ ]कंचन—(मनमें) मन अब क्या कहते हो? क्षत्रियधर्मका पालन करके भाईसे लड़ोगे, उसके प्राणोंपर आघात करोगे या

क्षत्रियधर्मको भंग करके आत्महत्या करोगे? जी तो मरनेको नहीं चाहता। अभीतक भक्ति और धर्मके जंजालमें पड़ा रहा, जीवनका कुछ सुख नहीं देखा। अब जब उसकी आशा हुई तो यह कठिन समस्या सामने आ खड़ी हुई। हो क्षत्रियधर्मके विरुद्घ, पर भाईसे मैं किसी भांति विग्रह नहीं कर सकता। उन्होंने सदैव मुझसे पुत्रवत् प्रेम किया है। याद नहीं आता कि कोई अमृदु शब्द उनके मुंहसे सुना हो। वह योग्य हैं, विद्वान हैं, कुशल हैं, मेरे हाथ उनपर नहीं उठ सकते। अवसर न मिलने की बात नहीं है। भैयाका शत्रु मैं हो ही नहीं सकता। क्षत्रियों के ऐसे धर्मसिद्धान्त न होते तो जरा जरासी बातपर खून की नदियां क्योंकर बहतीं और भारत क्यों हाथसे जाता? नहीं कदापि नहीं, मेरे हाथ उनपर नहीं उठ सकते। साधुगण झूठ नहीं बोलते, पर यह महात्माजी उनपर भी मिथ्या दोषारोपण कर गये। मुझे विश्वास नहीं आता कि वह मुझपर इतने निर्दय हो जायेंगे। उनके दया और शीलका पारावार नहीं। वह मेरी प्राणहत्याका संकेत नहीं दे सकते। एक नहीं, हजार राजेश्वरियां हों पर भैया मेरे शत्रु नहीं हो सकते। यह सब मिथ्या है। मेरे हाथ उनपर नहीं उठ सकते। [ २०३ ]हाय, अभी एक क्षणमें यह घटना सारे नगरमें फैल जायगी। लोग समझेंगे पांव फिसल गया होगा,राजेश्वरी क्या समझेगी? उसे मुझसे प्रेम है, अवश्य शोक करेगी, रोयेगी और अबसे कहीं ज्यादा प्रेम करने लगेगी। और भैया? हाय यही तो मुसीबत है। अब मैं उन्हें मुँह नहीं दिखा सकता। मैं उनका अपराधी हूँ। मैंने धर्मकी हत्याकी है। अगर वह मुझे जीता चुनवा दें तोभी मुझे आह भरनेका अधिकार नहीं है। मेरे लिये अब यही एक मार्ग रह गया है। मेरे बलिदानसे ही अब शान्ति होगी। पर भैयापर मेरे हाथ न उठेंगे। पानी गहरा है। भगवन् मैंने बड़े पाप किये हैं, तुम्हें मुँह देखाने योग्य नहीं हूँ। अपनी अपार दया की छांहमें मुझे भी शरण देना। राजेश्वरी, अब तुझे कैसे देखूंगा।

(पीलपायेपर खड़ा होकर अथाह जलमें कूद पड़ता है)
(हलधरका तलवार और पिस्तौल लिये आना)

हलधर—बड़े मौकेसे आया। मैंने समझा था देर हो गई। पाखंडी, कुकर्मी कहींका। रोज गङ्गा नहाने आता है, पूजा करता है, तिलक लगाता है और कर्म इतने नीच। ऐसे मौकेसे मिले हो कि एकही बारमें काम तमाम कर दूँगा। और पराई स्त्रियों पर निगाह डालो। (पिलपायेकी आड़में छिपकर सुनता है पापी भगवानसे दयाकी याचना कर रहा है। यह नहीं जानता है [ २०४ ]कि एक क्षणमें नर्कके द्वारपर खड़ा होगा। राजेश्वरी, अब तुम्हें कैसे देखूंगा? अभी प्रेत हुए जाते हो फिर उसे जी भरकर देखना। (पिस्तौलका निशाना लगाता है) अरे! यह तो आपही आप पानीमें कूद पड़ा, क्या प्राण देना चाहता है?

(पिस्तौल किनारेकी ओर फेंककर पानी में कूद पड़ता है और
कंचन सिहको गोंदमें लिये एक क्षण में बाहर आता है।)

(मनमें) अभी पानी पेटमें बहुत कम गया है। इसे कैसे होशमें लाऊँ। है तो यह अपना बैरी,पर जब आप ही मरनेपर उतारू है तो मैं इसपर क्या हाथ उठाऊँ। मुझे तो इसपर दया आती है।

(कंचन सिहको लेटाकर उसकी पीठमें घुटने लगाकर

उसके बाहोंको हिलाता है)

(चेतनदासका प्रवेश)

चेतनदास—(आश्चर्यसे) यह क्या दुर्घटना हो गई। क्या तूने इसको पानीमें डुबा दिया?

हलघर—नहीं महाराज, यह तो आप नदीमें कूद पड़े। मैं तो बाहर निकाल लाया हूँ।

चेतन—लेकिन तू इन्हें वध करनेका इरादा करके आया था। मुर्ख मैंने तुझे पहले ही जता दिया था कि तेरा शत्रु सबल सिंह है, कंचनसिंह नहीं, पर तूने मेरी बातका विश्वास न किया। उस धूर्त सबलके बहकावेमें आ गया। अब फिर कहता [ २०५ ]हूँ कि तेरा शत्रु वही है, उसीने तेरा सर्वनाश किया है, वही राजेश्वरीके साथ विलास करता है।

हलधर—मैंने इन्हें राजेश्वरीका नाम लेते अपने कानोंसे सुना है।

चेतन—हो सकता है कि राजेश्वरी जैसी सुन्दरीको देखकर इसका चित्त भी चंचल हो गया हो। सबलसिंहने सन्देह वश इनके प्राण-हरणकी चेष्टाकी हो। बस यही बात है।

हलधर—स्वामीजी क्षमा कीजियेगा, मैं सबलसिंहकी बातों में आ गया। अब मुझे मालूम हो गया कि वही मेरा बैरी है। ईश्वरने चाहा तो वह भी बहुत दिनतक अपने पापका सुख न भोगने पायेंगे।

चेतन—(मनमें) अब कहाँ जाता है। आज पुलिसवाले भी घरकी तलाशी लेंगे। अगर उनसे बच गया तो यह तो तलवार निकाले बैठा ही है। ईश्वरकी इच्छा हुई तो अब शीघ्रही मनोरथ पूरे होंगे। ज्ञानी मेरी होगी और मैं इस विपुल सम्पत्ति का स्वामी हो जाऊंगा। कोई व्यवसाय, कोई विद्या, मुझे इतनी जल्द इतना सम्पत्तिशाली न बना सकती थी?

(प्रस्थान)

कंचन—(होशमें आकर) नहीं तुम्हारा शत्रु मैं हूँ। जो कुछ किया है मैंने किया है। भैया निर्दोष हैं, तुम्हारा अपराधी मैं [ २०६ ]हूँ। मेरे जीवन का अंत हो यही मेरे पापोंका दण्ड है। मैं तो स्वयं अपनेको इस पाप-जालसे मुक्त करना चाहता था। तुमने क्यों मुझे बचा लिया। (आश्चर्य्य से) अरे, यह तो तुम हो हलधर?

हलधर—(मनमें) कैसा बेछल कपट का आदमी है। (प्रगट) आप आरामसे लेटे रहें, अभी उठिये न।

कंचन—नहीं अब नहीं लेटा जाता। (मनमें) समझमें आ गया। राजेश्वरी इसीकी स्त्री है। इसीलिये भैयाने वह सारी माया रची थी। (प्रगट) मुझे उठाकर बैठा दो। बचन दो कि तुम भैयाका कोई अहित न करोगे?

हलधर—ठाकुर मैं यह बचन नहीं दे सकता।

कंचन—किसी निर्दोषकी जान लोगे? तुम्हारा घातक मैं हूं। मैंने तुम्हें चुपकेसे जेल भिजवाया और राजेश्वरीको कुटनियों द्वारा यहाँ बुलाया।

(तीन डाकू लाठियां लिये आते हैं।)

एक—क्यों गुरू, पड़ा हाथ भरपुर।

दूसरा—वह तो खासा टैयांसा बैठा हुआ है। लाओ मैं एक हाथ दिखाऊँ।

हलधर—खबरदार हाथ न उठाना।

पहला—क्या कुछ हत्थे चढ़ गया क्या? [ २०७ ]हलधर—हाँ असरफियोंकी थैली है। मुँह धो रखना।

तीसरा—यह बहुत कड़ा ब्याज लेता है। सब रुपये इसके तोनमेंसे निकाल लो।

हलधर—जबान संभालकर बात करो।

पहला—अच्छा—इसे ले चलो, दो चार दिन वर्तन मंजवायेंगे। आराम करते-करते मोटा हो गया है।

दूसरा—तुमने इसे छोड़ क्यों दिया?

हलधर—इसने बचन दिया है कि अब सूद न लूंगा।

पहला—क्यों बच्चा, गुरूको सीधा समझकर झांसा दे दिया।

हलधर—बक बक मत करो। इन्हें नावपर बैठाकर डेरेपर ले चलो। यह बिचारे सूद ब्याज जो कुछ लेते हैं अपने भाईके हुकुमसे लेते हैं। आज उसीकी खबर लेने का विचार है।

(सब कंचनको सहारा देकर नावपर बैठा देते हैं और
गाते हुए नाव चलाते हैं।)

नारायणका नाम सदा मनके अंदर लाना चहिये।
मानुष तन है दुर्लभ जगमें इसका फल पाना चहिये॥
दुर्जन संग नरकका मारग उससे दूर जाना चहिये।
सतसंगतमें सदा बैठके हरिके गुण गाना चाहिये॥
धरम कमाई करके अपने हाथोंकी खाना चाहिये।
दुखी जीवको देख दया करके कुछ दिलवाना चाहिये॥

[ २०८ ]

परनारीको अपनी माताके समान जानना चाहिये।
झूठ कपटकी बात सदा कहनेमें शरमाना चाहिये॥
कथा पुरान सन्त संगतमें मनको बहलाना चहिये।
नारायणका नाम सदा मनके अंदर लाना चहिये॥