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संग्राम/३.९

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संग्राम
प्रेमचंद

काशी: हिन्दी पुस्तक एजेन्सी, पृष्ठ २०९ से – २१५ तक

 


नवा दृश्य
(स्थान—गुलाबीका मकान, समय—संध्या, चिराग जल चुके हैं,
गुलाबी संदूकसे रुपये निकाल रही है।)

गुलाबी—भाग जाग जायंगे। स्वामीजीके प्रतापसे यह सब रुपये दूने हो जायंगे। पूरे ३००) हैं। लौटूंगी तो हाथमें ६००) की थैली होगी। इतने रुपये तो बरसोंमें भी न बटोर पाती। साधु महात्माओं में बड़ी शक्ति होती है। स्वामीजीने यह यंत्र दिया है। भृगुके गलेमें बांध दूं। फ़िर देखूं यह चुड़ैल उसे कैसे अपने बसमें किये रहती है। उन्होंने तो कहा है कि वह उसकी बात भी न पूछेगा। यही तो मैं चाहती हूं। उसका मान-मर्दन हो जाय, घमंड टूट जाय।

(भृगुको बुलाती है।)

क्यों बेटा, आजकल तुम्हारी तबीयत कैसी रहती हैं। दुबले होते जाते हो।

भृगु—क्या करूं। सारे दिन बही खोले बैठे २ एक जाता हूं। ठाकुर कंचन सिंह एक बीड़े पानको भी नहीं पूछते। न कहीं घूमने जाता हूं, न कोई उत्तम वस्तु भोजनको मिलती है। जो लोग लिखने-पढ़नेका काम करते हैं उन्हें दूध, मक्खन, मलाई, मेवा, मिस्री इच्छानुकूल मिलनी चाहिये। रोटी दाल चावल तो मजूरोंका भोजन है। सांझ-सवेरे वायुसेवन करना चाहिये। कभी २ थियेटर देखकर मन बहलाना चाहिये। पर यहाँ इनमेंसे कोई भी सुख नहीं। यही होगा कि सूखते २ एक दिन जानसे चला जाऊँगा।

गुलाबी—ऐ नौज बेटा, कैसी बात मुँहसे निकालते हो। मेरे जानमें तो कुछ फेरफार है। इस चुड़ैलने तुम्हें कुछ कर करा दिया है। यह पक्की टोनिहारी है। पूरबकी न है। वहाँको सब लड़कियाँ टोनिहारी होती हैं।

भृगु—कौन जाने यही बात हो। कंचन सिंहके कमरे में अकेले बैठता हूँ तो ऐसा डर लगता है जैसे कोई बैठा हो। रातको आने लगता हूँ तो फाटफपर मौलसरीके पेड़ के नीचे किसीको खड़ा देखता हूँ। कलेजा थर-थर काँपने लगता है। किसी तरह चित्तको ढाढ़स देता हुआ चला आता हूं। लोग कहते हैं पहले वहाँ किसीकी कबर थी।

गुलाबी—मैं स्वामीजीके पाससे यह जन्तर लाई हूँ। इसे गलेमें बाँध लो। शंका मिट जायगी। और कलसे अपने लिये पावभर दूध भी लाया करो। मैंने खूबा अहीरसे कहा है। उसके लड़केको पढ़ा दिया करो। वह तुम्हें दूध दे देगा।

भृगु—जन्तर लावो मैं बाँध लूँ, पर खूबाके लड़केको मैं न पढ़ा सकूँगा। लिखने-पढ़नेका काम करते-करते सारे दिन योंही थक जाता हूँ। मैं जबतक कंचन सिंहके यहां रहूँगा मेरी तबीयत अच्छी न होगी। मुझे कोई दूकान खुलवा दो।

गुलाबी—बेटा, दूकान के लिये तो पूंजी चाहिये। इस घड़ी तो यह ताबीज बांध लो। फिर मैं और कोई जतन करूँगी। देखो, देवीजीने खाना बना लिया? आज मालकिनने रातको यहीं रहने को कहा है।

(भृगु जाता है और चम्पासे पूछकर आता है,
गुलाबी चौकेमें जाती है।)

गुलाबी—पीढ़ा तक नहीं रखी, लोटेका पानीतक नहीं रखा। अब मैं पानी लेकर आऊँ और अपने हाथसे आसन डालूँ तब खाना खाऊँ। क्यों इतने घमण्डके मारे मरी जाती हो महारानी। थोड़ा इतराओ, इतना आकाशपर दिया न जलायो।

(चम्पा थाली लाकर गुलाबीके सामने रख देती है,

वह एक कौर उठाती है और क्रोधसे थाली

चम्पाके सिरपर पटक देती है।)

भृगु—क्या है अम्मां? गुलाबी—है क्या यह डायन मुझे विष देनेपर तुली हुई है। यह खाना है कि जहर है। मारा नमक भर दिया। भगवान न जाने कब इसकी मिट्टी इस घरसे उठायेंगे। मर गये इसके बाप, चचा। अब कोई झांकतातक नहीं। जबतक व्याह न हुआ था द्वारकी मिट्टी खोदे डालते थे। इतने दिन इस अभागिनीको रसोई बनाते हो गये, कभी ऐसा न हुआ कि मैंने पेटभर भोजन किया हो। यह मेरे पीछे पड़ी हुई है.........

भृगु—अम्मां, देखो सिर लोहूलुहान हो गया। जरा नमक ज्यादा ही हो गया तो क्या उसकी जान ले लोगी। जलती हुई दाल डाल दी। सारे बदनमें छाले पड़ गये। ऐसा भी कोई क्रोध करता है।

गुलाबी—(मुँह चिढ़ाकर) हाँ हाँ देख, मरहम पट्टी कर, दौड़ डाक्टरको बुला ला नहीं कहीं मर न जाय। अभी लौंडा है, त्रिया चरित्र, देखा कर! मैंने उधर पीठ फेरी, इधर ठहाकेकी हँसी उड़ने लगेगी। तेरे सिर चढ़ानेसे तो इसका मिजाज इतना बढ़ गया है। यह तो नहीं पूछता कि दालमें क्यों इतना नमक झोंक दिया, उल्टे और घावपर मरहम रखने चला है।

(झमकमर चली जाती है।)

चम्पा—मुझे मेरे घर पहुँचा दो।

भृगु—मारा सिर लोहूलोहान हो गया। इसके पास रुपये हैं, उसीका इसे घमंड है। किसी तरह रुपये निकल जाते तो यह गाय हो जाती।

चम्पा—तबतक तो यह मेरा कचूमर ही निकाल लेंगी।

भृगु—सबरका फल मीठा होता है।

चम्पा—इस घरमें अब मेरा निवाह न होगा। इस बुढ़ियाको देखकर आँखोंमें खून उतर आता है।

भृगु—अबकी एक गहरी रकम हाथ लगनेवाली है। एक ठाकुरने कानोंकी बाली हमारे यहाँ गिरों रखी थी। वादेके दिन टल गये। ठाकुर का कहीं पता नहीं। पूरब गया था। न जाने मर गया या क्या। मैंने सोचा है तुम्हारे पास जो गिन्नी रखी है उसमें चार-पाँच रुपये और मिलाकर बाली छुड़ा लूँ। ठाकुर लौटेगा तो देखा जायगा। ५०)से कमका माल नहीं है।

चम्पा—सच!

भृगु—हाँ, अभी तौले आता हूं। पूरे दो तोले हैं।

चम्पा—तो कब ला दोगे?

भृगु—कल लो। वह तो अपने हाथका खेल है। आज दालमें नमक क्यों ज्यादा हुआ।

चम्पा—सुबह कहने लगीं खानेमें नमक ही नहीं है। मैंने इस बेला नमक पीसकर उनकी थालीमें ऊपरसे डाल दिया कि खाओ खूब जी भरके। वह एक न एक खुचुड़ निकालती रहती हैं तो मैं भी उन्हें जलाया करती हूँ।

भृगु—अच्छा,अब मुझे भी भूख लगी है, चलो।

चम्पा—(आपही आप) सिरमें जरा सी चोट लगी तो क्या, कानोंकी बालियाँ मिल गईं। इन दामों तो चाहे कोई मेरे सिरपर दिनभर थालियां,कटोरियाँ पटका करे।

(प्रस्थान)