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सङ्कलन/६ स्वाधीनता

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संकलन
महावीर प्रसाद द्विवेदी
स्वाधीनता की भूमिका

काशी: भारतीय भंडार, पृष्ठ २८ से – ४७ तक

 

स्वाधीनता

इंग्लैंड में जान स्टुअर्ट मिल नामक एक तत्त्ववेत्ता हो गया है। उसे मरे अभी कुल इकतीस वर्ष हुए। उसने कई अच्छी अच्छी पुस्तकें लिखी हैं। उनमें से एक का नाम 'लिबर्टी' (Liberty) है।

मिल का जन्म २० मई १८०६ को लन्दन में हुआ। उसका पिता जेम्स मिल भी अपने समय में एक प्रसिद्ध तत्ववेत्ता था। जिस समय जान स्टुअर्ट मिल की उम्र कोई तेरह वर्ष की थी, उस समय उसके बाप को ईस्ट इंडिया कम्पनी के दफ्तर में एक जगह मिली। वहाँ उसे इस देश की अनेक बातें मालूम हुई और सैंकड़ों तरह के कागज़-पत्र और ग्रंथ देखने को मिले। उनके आधार पर उसने भारतवर्ष का एक बहुत अच्छा इतिहास लिखा। यह इतिहास देखने के लायक है।

मिल के पिता ने मिल को किसी स्कूल या कालेज में पढ़ने नहीं भेजा। उसने खुद उसे पढ़ाना शुरू किया। जब तक उसे पढ़ाने की ज़रूरत समझी, तब तक वह उसे बराबर पढ़ाता रहा। तीन वर्ष की उम्र में मिल ने ग्रीक भाषा की वर्णमाला

सीखी। आठ वर्ष की उम्र में उसने उस भाषा का थोड़ा सा अभ्यास भी कर लिया। बहुत से गद्य ग्रंथ उसने पढ़ डाले। आठवें वर्ष मिल ने लैटिन सीखना शुरू किया। कुछ दिन बाद अंक-गणित, बीज-गणित और रेखा-गणित भी वह सीखने लगा। बारह वर्ष की उम्र में मिल को ग्रीक और लैटिन का अच्छा ज्ञान हो गया। वह प्लेटो और अरिस्टाटल के गहन ग्रंथ अच्छी तरह समझने लगा। दिल बहलाने के लिए वह इतिहास और काव्य भी पढ़ता था और कभी कभी कविता भी लिखता था। पोप का किया हुआ इलियड का भाषांतर उसे बहुत पसंद आया। उसे देखकर वह छोटी छोटी कवितायें लिखने लगा। इससे मिल को शब्दों का यथा-स्थान रखना आ गया। पद्य- रचना के विषय में मिल के पिता ने पुत्र की प्रतिकूलता नहीं की। यह काम उसकी अनुमति से मिल ने किया।

मिल को अपनी हमजोली के लड़कों के साथ खेलने-कूदने को कभी नहीं मिला। उसने अपना आत्म-चरित अपने हाथ से लिखा है। उसमें एक जगह वह लिखता है कि उसने एक दिन भी 'क्रिकेट' नहीं खेला। लड़कपन में यद्यपि वह बहुत मोटा- ताज़ा और पलवान नहीं था, तथापि वह इतना दुबला और अशक्त भी नहीं था कि उसके लिखने-पढ़ने में बाधा आती। जब वह तेरह वर्ष का हुआ, तब उसके बाप ने उसे विशेष गंभीर विषयों की शिक्षा देना आरंभ किया। ग्रीक, लैटिन और अँगरेज़ी भाषा में उसने तत्व-विद्या और तर्क-शास्त्र की अनेक

पुस्तकें पढ़ डालीं। उसका बाप रोज़ बाहर घूमने जाया करता था। अपने साथ वह मिल को भी रखता था। राह में वह उससे प्रश्न करता जाता था। जो कुछ वह पढ़ता था, उसमें वह उसकी रोज परीक्षा लेता था। जो चीज़ बाप पढ़ाता था, उसका उपयोग भी वह पुत्र को बतला देता था। उसका यह मत था कि जिस चीज़ का उपयोग मालूम नहीं, उसका पढ़ना व्यर्थ है। तर्क-शास्त्र अर्थात् न्याय, और तत्व-विद्या अर्थात् दर्शन- शास्त्र में मिल थोड़े ही दिनों में प्रवीण हो गया। किसी ग्रंथ- कार के मत या प्रमाण को कबूल करने के पहले उसकी जाँच करना मिल को बहुत अच्छी तरह आ गया। दूसरों की प्रमाण-श्रृंखला में वह बड़ी योग्यता से दोष ढूँढ निकालने लगा। यह बात सिर्फ अच्छे नैयायिक और दार्शनिक पंडितों ही में पाई जाती है; क्योंकि प्रतिपक्षी की इमारत को अपनी प्रबल दलीलों से ढहाकर उस पर अपनी नई ईमारत खड़ा करना सब का काम नहीं। खंडन-मंडन की यह विलक्षण रीति मिल को लड़कपन ही में सिद्ध हो गई। इसका फल भी बहुत अच्छा हुआ। यदि थोड़ी ही उम्र में उसकी तर्क-शक्ति इतनी प्रबल न हो जाती तो वह वयस्क होने पर इतने अच्छे ग्रंथ न लिख सकता। मिल के घर उसके पिता से मिलने अनेक विद्वान् आया करते थे। उनमें परस्पर अनेक विषयों पर वाद-विवाद हुआ करता था। उनके कोटि-क्रम को मिल ध्यानपूर्वक सुनता था। इससे भी उसको बहुत फायदा हुआ। उसकी बुद्धि बहुत जल्द

विकसित हो उठी और बड़े बड़े गहन विषयों को वह समझ लेने लगा।

बाप की सिफारिश से मिल ने प्लेटो के ग्रन्थ विचारपूर्वक पढ़े। इतिहास, राजनीति और अर्थ-शास्त्र का भी उसने अध्य- यन किया। चौदह पन्द्रह वर्ष की उम्र में उसका गृह-शिक्षण समाप्त हुआ। तब वह देश-पर्यटन के लिए निकला। फ्रांस की राजधानी पेरिस में वह कई महीने रहा। इस यात्रा में उसे बहुत कुछ तजरुवा हुआ। कुछ दिनों बाद, घूम घाम कर, वह लन्दन लौट आया। तब से उसकी यथा-नियम शिक्षा की समाप्ति हुई। जितनी थोड़ी उम्र में मिल ने तर्क और अर्थ- शास्त्र आदि कठिन विषयों का ज्ञान प्राप्त कर लिया, उतनी थोड़ी उम्र में और लोगों के लिए इस बात का होना प्रायः असम्भव समझा जाता है।

सत्रह वर्ष की उम्र में मिल ने इंडिया हाउस नामक दफ्तर में प्रवेश किया। वहाँ उसकी क्रम क्रम से उन्नति होती गई। अन्त में वह एग्ज़ामिनर के दफ़्तर का सबसे बड़ा अधिकारी हो गया। पर १८५८ ईसवी में जब ईस्ट इंडिया कम्पनी टूटी, तब वह दफ़्तर भी टूट गया। इसलिए उसे नौकरी से अलग होना पड़ा। कोई पचीस वर्ष तक उसने नौकरी की। नौकरी ही की हालत में उसने अनेक उत्तमोत्तम ग्रन्थ लिखे। उसका मत था कि जो लोग केवल पुस्तक-रचना करने और समाचार-पत्रों में छपने के लिए लेख भेजने ही पर अपनी जीविका चलाते हैं,

उनके लेख अच्छे नहीं होते, क्योंकि वे जल्दी में लिख जाते हैं। पर जो लोग जीविका का कोई और द्वार निकाल कर पुस्तक- रचना करते हैं, वे सावकाश और विचार-पूर्वक लिखते हैं। इससे उनकी विचार-परम्परा अधिक मनोग्राह्य होती है और उनके ग्रन्थों का अधिक आदर भी होता है।

१८६५ से १८६८ तक मिल पारलियामेंट का मेम्बर भी रहा। वह यद्यपि अच्छा वक्ता न था, तथापि जिस विषय पर वह बोलता था, सप्रमाण बोलता था। उसकी दलीलें बहुत मज़बूत होती थीं। ग्लैडस्टन साहब ने उसकी बहुत प्रशंसा की है। एक ही बार मिल का प्रवेश पारलियामेंट में हुआ। कई कारणों से लोगों ने उसे दुवारा नहीं चुना। उन कारणों में सबसे प्रबल कारण यह था कि पारलियामेंट में हिन्दुस्तान के हितचिन्तक ब्राडला साहब के प्रवेश-सम्बन्धी चुनाव में मिल ने उनकी मदद की थी। ऐसे घोर नास्तिक की मदद! यह बात लोगों को बरदाश्त न हुई। इसी से उन्होंने दुबारा मिल को पारलियामेंट में नहीं भेजा। यह सुनकर कई जगह से मिल को निमन्त्रण आया कि तुम हमारी तरफ से पारलियामेंट की उम्मेदवारी करो। परन्तु ऐसे झगड़े का काम मिल को पसन्द न आया। इससे उसने उम्मेदवार होने से इनकार कर दिया। तब से उसने एकान्त-वास करने और पढ़ने ही लिखने में अपनी बाक़ी उम्र बिताने का निश्चय किया। वह अविगनान नामक गाँव में जाकर रहने लगा। १८७३ में वहाँ उसकी मृत्यु

हुई। उसका घर पुस्तकों और अख़बारों से भरा रहता था। साल में सिर्फ कुछ दिनों के लिए वह अविगनान से लन्दन आता था।

जिस समय मिल की उम्र पचीस वर्ष की थी, उस समय टेलर नामक एक आदमी की स्त्री से उसकी जान-पहचान हुई। धीरे धीरे दोनों में परस्पर स्नेह हो गया। उसकी क्रम-क्रम से वृद्धि होती गई। इस कारण लोग मिल को भला-बुरा भी कहने लगे। उसके पिता को भी यह बात पसन्द न आई। परन्तु प्रेम- प्रवाह में क्या शिक्षा, दीक्षा और उपदेश कहीं ठहर सकते हैं ? बीस वर्ष तक यह स्नेह-सम्बन्ध अथवा मित्र-भाव अखण्डित रहा। इतने में टेलर साहब की मृत्यु हो गई। यह अवसर अच्छा हाथ आया देख ये दोनों प्रेमी विवाह-बन्धन में बँध गये। परन्तु सिर्फ़ सात वर्ष तक मिल साहब को इस स्त्री के समागम का सुख मिला। इसके बाद उसका शरीर छूट गया। इस वियोग का मिल को बेहद रंज हुआ। अविगनान ही में मिल ने उसे दफ़न किया और जो बातें उसे अधिक पसन्द थीं, उन्हीं के करने में उसने अपनी बची हुई उम्र का बहुत सा भाग बिताया। मिल के साथ विवाह होने के पहले ही इस स्त्री के एक कन्या थी। माँ के मरने पर उसने मिल की बहुत सेवा- शुश्रूषा की। उसने मिल को गृह-सम्बन्धी कोई तकलीफ़ नहीं होने दी।

मिल ने अनेक ग्रन्थ लिखे हैं। वह अकसर प्रसिद्ध प्रसिद्ध

अख़बारों और मासिक-पुस्तकों में लेख भी दिया करता था। छोटी छोटी पुस्तकें तो उसने कई लिखी हैं। पर उसके जिन ग्रन्थों की बहुत अधिक प्रसिद्धि है, वे ये हैं—

१—अर्थशास्त्र के अनिश्चित प्रश्नों पर निबन्ध ( Essays on Unsettled Questions in Political Economy.)

२—तर्क-शास्त्र पद्धति.( System of Logic.)

३—अर्थ-शास्त्र ( Political Economy.)

४—स्वाधीनता ( Liberty. )

५—पारलियामेंट के सुधार-सम्बन्धी विचार (Thoughts on Parliamentary Reform.)

६—प्रतिनिधि-सत्तात्मक राज्य-व्यवस्था ( Represen- tative Government.)

७—स्त्रियों की पराधीनता (Subjection of women.)

८—हैमिल्टन के तत्त्व-शास्त्र की परीक्षा (Examination of Hamilton's Philosophy. )

९—उपयोगिता-तत्त्व ( Utilitarianism.)

‘प्रकृति’(Nature) और ‘धर्म की उपयोगिता’ (Utility of Religion) इन दो विषयों पर भी उसने निबन्ध लिखे; पर वे उसकी मृत्यु के बाद प्रकाशित हुए। मिल के पिता ने मिल को किसी विशेष प्रकार की धर्म-शिक्षा नहीं दी; क्योंकि उसका विश्वास किसी धर्म पर न था। पर उसने सब धर्मों और धार्मिक सम्प्रदायों के तत्त्व मिल को अच्छी तरह समझा

दिये थे। लड़कपन में इस तरह का संस्कार होने के कारण मिल के धार्मिक विचार अनोखे थे। उनको उसने 'धर्म की उपयोगिता' में बड़ी ही योग्यता से प्रकट किया है। उसकी स्त्री विदुषी थी। तत्त्व-विद्या में वह भो खूब प्रवीण थी। पुस्तक- रचना में भी उसे अच्छा अभ्यास था। 'स्वाधीनता और स्त्रियों की पराधीनता' को मिल ने उसी की सहायता से लिखा है। और भी कई पुस्तकें लिखने में उसने मिल की सहायता की थी। अपने आत्म-चरित में मिल ने उसकी अत्यधिक प्रशंसा की है। 'स्वाधीनता' को उसने अपनी स्त्री ही को समर्पण किया है। उसका समर्पण भी बहुत ही विलक्षण है। उसमें उसने अपनी स्त्री की प्रशंसा की पराकाष्ठा कर दी है। मिल बड़ा उदार पुरुष था। सत्य के खोजने में वह सदैव तत्पर रहता था। जिस बात से अधिक आदमियों का हित हो उसी को वह सब से अधिक सुखदायक समझता था। इस सिद्धान्त को उसने अपने 'उपयोगिता-तत्त्व' में बहुत अच्छी तरह प्रमाणित किया है। नई और पुरानी चाल की ज़रा भी परवा न करके जिसे वह अधिक युक्तियुक्त समझता था, उसी को वह मानता था। वह सुधारक था; परन्तु उच्छृंखल और अविवेकी न था। उसने अनेक विषयों पर ग्रन्थ लिखे। जो लोग बिना समझे- बूझे पुरानी बातों को वेद-वाक्य मानते थे, उनके अनुचित विश्वासों को उसने विचलित कर दिया, उनकी सदस- द्विचार शक्ति को उसने जागृत कर दिया; उनकी विवेचना

रूपी तलवार पर जो मोरचा लग गया था, उसे उसने जड़ से उड़ा दिया।

मिल के ग्रन्थों में स्वाधीनता, उपयोगिता तत्त्व, न्यायशास्त्र और स्त्रियों की पराधीनता -- इन चार ग्रन्थों का बड़ा आदर है। इन पुस्तकों में मिल ने जिन विचारों से -- जिन दलीलों से -- काम लिया है, वे बहुत प्रबल और अखण्डनीय हैं। यद्यपि कई विद्वानों ने मिल की विचार-परम्परा का खण्डन किया है, तथापि वे कृतकार्य नहीं हुए -- उनको कामयाबी नहीं हुई। ये ग्रन्थ सब कहीं प्रीतिपूर्वक पढ़े जाते हैं। स्वाधीनता में मिल ने जिन सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है, वे बहुत ही दृढ़ प्रमाणों के आधार पर स्थित हैं। यह बात इस पुस्तक को पढ़ने से अच्छी तरह मालूम हो जाती है।

इस पुस्तक में पाँच अध्याय हैं। उनकी विषय-योजना इस प्रकार है --


पहला अध्याय -- प्रस्तावना।
दूसरा अध्याय -- विचार और विवेचना की स्वाधीनता।
तीसरा अध्याय -- व्यक्ति-विशेषता भी सुख का साधन है।
चौथा अध्याय -- व्यक्ति पर समाज के अधिकार की सीमा।
पाँचवाँ अध्याय -- प्रयोग।

मिल साहब का मत है कि व्यक्ति के बिना समाज या गवर्नमेंट का काम नहीं चल सकता और समाज या गवर्नमेंट के बिना व्यक्ति का काम नहीं चल सकता। अतएव दोनों को

परस्पर एक दूसरे की आकांक्षा है। पर एक को दूसरे के काम में अनुचित हस्तक्षेप करना मुनासिब नहीं। जिस काम से किसी दूसरे का सम्बन्ध नहीं, उसे करने के लिए हर आदमी स्वाधीन है। न उसमें समाज ही को कोई दस्तन्दाज़ी करना चाहिए और न गवर्नमेंट ही को। पर हाँ, उस काम से किसी आदमी का अहित न होना चाहिए। ग्रन्थकार ने स्वाधीनता के सिद्धा- न्तों का प्रतिपादन बड़ी ही योग्यता से किया है। उसकी विवेचना-शक्ति की जितनी प्रशंसा की जाय, कम है। उसने प्रतिपक्षियों के आक्षेपों का बहुत ही मज़बूत दलीलों से खण्डन किया है। उसकी तर्कना प्रणाली खूब सरल और प्रमाण-पूर्ण है।

स्वाधीनता का दूसरा अध्याय सब अध्यायों से अधिक महत्त्व का है। इसी से वह औरों से बड़ा भी है। इस अध्याय में जो बातें हैं, उनके जानने की आजकल बड़ी ही ज़रूरत है। आदमी का सुख विशेष करके उसकी मानसिक स्थिति पर अवलम्बित रहता है। मानसिक स्थिति अच्छी न होने से सुख की आशा करना दुराशा मात्र है। विचार और विवेचना करना मन का धर्म है। अतएव उनके द्वारा मन को उन्नत करना चाहिए। मनुष्य के लिए सबसे अधिक अनर्थकारक बात विचार और विवेचना का प्रतिबन्ध है। जिसे जैसे विचार सूझ पड़ें, उसे उन्हें साफ़ साफ़ कहने देना चाहिए। इसी में मनुष्य का कल्याण है। इसी से, जितने सभ्य देश हैं, उनकी गवर्नमेंटों ने सब लोगों को यथेच्छ विचार, विवेचना और आलोचना

करने की अनुमति दे रक्खी है। कल्पना कीजिए कि किसी विषय में कोई आदमी अपनी राय देना चाहता है और उसकी राय ठीक है। अब यदि उसे बोलने की अनुमति न दी जायगी तो सब लोग उस सच्ची बात को जानने से वञ्चित रहेंगे। यदि वह बात या राय सर्वथा सच नहीं है, केवल उसका कुछ ही अंश सच है, तो भी यदि वह प्रकट न की जायगी -- तो उस सत्यांश से भी लोग लाभ न उठा सकेंगे। अच्छा, अब मान लीजिये कि कोई पुराना ही मत ठीक है, नया मत ठीक नहीं है। इस हालत में भी यदि नया मत न प्रकट किया जायगा तो पुराने की खूबियाँ लोगों की समझ में अच्छी तरह न आवेंगी। दोनों के गुण-दोषों पर जब अच्छी तरह विचार होगा, तभी यह बात ध्यान में आवेगी, अन्यथा नहीं। एक बात और भी है। वह यह कि प्रचलित रूढ़ि या परम्परा से प्राप्त हुई बातों या रस्मों के विषय में प्रतिपक्षियों के साथ वाद-विवाद न करने से उनकी सजीवता जाती रहती है। उनका प्रभाव धीरे-धीरे मन्द होता जाता है। इसका फल यह होता है कि कुछ दिनों में लोग उनके मतलब को बिलकुल ही भूल जाते हैं और सिर्फ पुरानी लकीर को पीटा करते हैं।

मिल की मूल पुस्तक की भाषा बहुत क्लिष्ट है। कोई कोई वाक्य प्रायः एक एक पृष्ठ में समाप्त हुए हैं। विषय भी पुस्तक का क्लिष्ट है। इससे इस अनुवाद में हम को बहुत कठिनता का सामना करना पड़ा है। हमको डर है कि हमसे अनुवाद-

सम्बन्धी अनेक भूलें हुई होंगी। अतएव हमको उचित था कि हम ऐसे कठिन काम में हाथ न डालते। पर जिन बातों का विचार इस पुस्तक में है, उनके जानने की इस समय बड़ी आवश्यकता है। अतएव मिल साहब के विचारों के अनुसार जब तक कोई अनुवाद सर्वथा निर्दोष न प्रकाशित हो, तब तक इसका जितना भाग निर्दोष या पढ़ने के लायक़ हो, उतने ही से पढ़नेवाले स्वाधीनता के सिद्धान्तों और लाभों से जानकारी प्राप्त करें।

यदि कोई यह कहे कि हिन्दी के साहित्य का मैदान बिलकुल ही सूना पड़ा है तो उसके कहने को अत्युक्ति न समझना चाहिए। दस पाँच किस्से, कहानियाँ, उपन्यास या काव्य आदि पढ़ने लायक पुस्तकों का होना साहित्य नहीं कह- लाता और न कूड़े-कचरे से भरी हुई पुस्तकों ही का नाम साहित्य है। इस अभाव का कारण हिन्दी पढ़ने-लिखने में लोगों की अरुचि है। हमने देखा है कि जो लोग अच्छी अँग- रेज़ी जानते हैं, अच्छी तनख्व़ाह पाते हैं और अच्छी जगहों पर काम करते हैं, वे हिन्दी के मुख्य मुख्य ग्रन्थों और अख़- बारों का नाम तक नहीं जानते। आश्चर्य यह है कि अपनी इस अनभिज्ञता पर वे लज्जित भी नहीं होते। हाँ, लज्जित वे इस बात पर ज़रूर होते हैं, यदि समय का सत्यानाश करनेवाले अपने मित्र-मण्डल में बैठकर वे यह न बतला सकें कि अमुक न्शी साहब, या अमुक मिरज़ा साहब, या अमुक पण्डित (!)

साहब आजकल कहाँ पर डिप्युटी कलेक्टर हैं; अमुक साहब कहाँ की कलेक्टरी पर बदल दिये गये हैं; अमुक सदरआला साहब कब छुट्टी पर जायँगे; अमुक सुनसरिम साहब के लड़के की शादी कहाँ हुई है; अमुक हेड मास्टर साहब नौकरी से कब अलग होंगे ! एक दिन एक मशहूर ज़िला-स्कूल के हेड मास्टर ने अपने स्कूल के ढोलन ( Roller ) का इतिहास वर्णन करके हमारे दो घण्टे नष्ट कर दिये। पर अनेक अच्छी अच्छी पुस्तकों को नाम लेने पर आपने एक को भी देखने की इच्छा प्रकट न की। इसका कारण रुचि-विचित्रता है। यदि ऐसे आदमियों में से दस पाँच भी अपने देश के साहित्य की तरफ़ ध्यान दें और उपयोगी विषयों पर पुस्तकें लिखें तो बहुत जल्द देशोन्नति का द्वार खुल जाय। क्योंकि शिक्षा के प्रचार के बिना उन्नति नहीं हो सकती; और देश में फ़ी सदी दो चार आदमियों का शिक्षित होना न होने के बराबर है। शिक्षा से यथेष्ट लाभ तभी होता है जब हर गाँव में उसका प्रचार हो; और यह बात तभी सम्भव है जब अच्छे अच्छे विषयों की पुस्तकें देश-भाषा में प्रकाशित होकर सस्ते दामों पर बिकें। जापान की तरफ़ देखिए। उसने जो इतना जल्द इतनी आश्चर्यजनक उन्नति की है, उसका कारण विशेष करके शिक्षा का प्रचार ही है। हमने एक जगह पढ़ा है कि जिस जापानी ने मिल साहब की स्वाधीनता ( Liberty ) का अपनी भाषा में अनुवाद किया, वह सिर्फ़ इसी एक पुस्तक को लिखकर अमीर हो गया। थोड़े

ही दिनों में उसकी लाखों कापियाँ बिक गई। जापान के राजेश्वर खुद मिकाडो ने उसकी कई हज़ार कापियाँ अपनी तरफ़ से मोल लेकर अपनी प्रजा को मुफ्त़ में बाँट दीं। परन्तु इस देश की दशा बिलकुल ही उलटी है। यहाँ मोल लेने का तो नाम ही न लीजिये, यदि इस तरह की पुस्तकें यहाँ के राजा, महाराजा और अमीर आदमियों के पास कोई यों ही भेज दे, तो भी शायद वे उन्हें पढ़ने का कष्ट न उठावें। इससे बहुत सम्भव है कि हमारी यह पुस्तक बे-छपी ही रह जाय! खैर!

इस दशा में हमारी राय यह है कि इस समय हिन्दी में जितनी पुस्तकें लिखी जाएँ, खूब सरल भाषा में लिखी जायँ। यथासम्भव उनमें संस्कृत के कठिन शब्द न आने पावें। क्योंकि जब लोग सीधी सादी भाषा की पुस्तकों ही को नहीं पढ़ते, तब वे क्लिष्ट भाषा की पुस्तकों को क्यों छूने लगे। अतएव जो शब्द बोलचाल में आते हैं -- फिर चाहे वे फ़ारसी के हों, चाहे अरबी के हों, चाहे अँगरेजी के हों -- उनका प्रयोग बुरा नहीं कहा जा सकता। पुस्तक लिखने का मतलब सिर्फ यह है कि उसमें जो कुछ लिखा गया है, उसे लोग समझ सकें। यदि वह समझ में न आया, अथवा क्लिष्टता के कारण उसे किसी ने न पढ़ा, तो लेखक की मिहनत ही बरबाद जाती है। पहले लोगों में साहित्य-प्रेम पैदा करना चाहिए। भाषा-पद्धति पीछे से ठीक होती रहेगी।

इन्हीं कारणों से प्रेरित होकर हमने मिल की स्वाधीनता

के अनुवाद में हिन्दी, उर्दू, फारसी और संस्कृत इत्यादि के शब्द -- जहाँ पर हमें जैसी ज़रूरत जान पड़ी है -- लिखे हैं। मतलब को ठीक ठीक समझाने के लिए कहीं कहीं पर हमने एक ही बात को दो दो तीन तीन तरह से लिखा है। कहीं कहीं पर एक ही अर्थ के बोधक अनेक शब्द हमने रक्खे हैं। कहीं मूल के भाव को हमने बढ़ा दिया है और कहीं पर कम कर दिया है। यदि पुस्तक उपयोगी समझी गई और यदि लोगों ने इसे पढ़ने की कृपा की (जिसकी हमें बहुत कम आशा है) तो इसकी भाषा ठीक करने में देर न लगेगी। इस पुस्तक का विषय इतना कठिन है कि कहीं कहीं पर इच्छा न रहते भी, विवश होकर, हमें संस्कृत के क्लिष्ट शब्द लिखने पड़े हैं, क्योंकि उनसे सरल शब्द हमें मिले ही नहीं।

जून १९०४ में जब हम झाँसी से कानपुर आये, तब हमने, आजकल के समय के अनुकूल, कुछ उपयोगी पुस्तकें लिखने का विचार किया। हमारा इरादा पहले और एक पुस्तक के लिखने का था। परन्तु बीच में एक ऐसी घटना हो गई जिससे हमें उस इरादे को रहित करके इस पुस्तक को लिखना पड़ा। ७ जनवरी को आरम्भ करके १३ जून को हमने इसे समाप्त किया। बीच में, कई बार, अनिवार्य कारणों से, अनुवाद का काम हमें बन्द भी रखना पड़ा। किसी सार्वजनिक समाज की सार्वजनिक बातों की यदि समालोचना होती है तो वह समा- लोचना उसे अक्सर अच्छी नहीं लगती। इससे उसे रोकने

की वह चेष्टा करता है। जब उसे यह बात बतलाई जाती है कि सार्वजनिक कामों की आलोचना का प्रतिबन्ध करने से लाभ के बदले हानि ही अधिक होती है, तब वह अक्सर यह कह बैठता है कि हम समालोचना को नहीं रोकते, किन्तु "व्यर्थ निन्दा" को रोकना चाहते हैं। अतएव ऐसे व्यर्थ-निन्दा- प्रतिरोधक लोगों के लाभ के लिए हमने पहले इसी पुस्तक को लिखना मुनासिब समझा; क्योंकि प्रतिबन्ध-हीन विचार और विवेचना की जितनी महिमा इस पुस्तक में गाई गई है, उतनी शायद ही कहीं गाई गई हो।

जिस आदमी को सर्वज्ञ होने का दावा नहीं है, उसे अपने काम-काज की विवेचना या समालोचना को रोकने की भूल से भी चेष्टा न करनी चाहिए। और इस तरह की चेष्टा करना सार्वजनिक समाज के लिए तो और भी अधिक हानिकारक है। भूलना मनुष्य की प्रकृति है। बड़े बड़े महात्माओं और विद्वानों से भूलें होती हैं। इससे यदि समालोचना बन्द कर दी जायगी -- यदि विचार और विवेचना की स्वाधीनता छीन ली जायगी -- तो सत्य का पता लगाना असम्भव हो जायगा। लोगों की भूलें उनके ध्यान में आवेंगी किस तरह ? हाँ, यदि वे सर्वज्ञ हों तो बात दूसरी है।

व्यर्थ निन्दा कहते किसे हैं ? व्यर्थ निन्दा से मतलब शायद झूठी निन्दा से है। जिसमें जो दोष नहीं है, उसमें उस दोष के आरोपण का नाम व्यर्थ निन्दा हो सकता है। परन्तु इसका

जज कौन है कि निन्दा व्यर्थ है या अव्यर्थ ? जिसकी निन्दा की जाय, वह ? यदि यही न्याय है तो जितने मुजरिम हैं, उन सब की ज़बान ही को सेशन कोर्ट समझना चाहिए। इतना ही क्यों, उस दशा में यह भी मान लेना चाहिए कि हाई कोर्ट और प्रिवी कौंसिल के जजों का काम भी मुजरिमों की ज़बान ही के सिपुर्द है। कौन ऐसा मुजरिम होगा जो अपने ही मुँह से अपने को दोषी क़बूल करेगा ? कौन ऐसा व्यक्ति होगा जो अपनी निन्दा को सुनकर खुशी से इस बात को मान लेगा कि मेरी उचित निन्दा हुई है ? जो इतने साधु, इतने सत्यशील, इतने सच्चरित्र होते हैं कि अपनी यथार्थ निन्दा को निन्दा और दोष को दोष कबूल करते नहीं हिचकते, उनकी कभी निन्दा ही नहीं होती। उन पर कभी किसी तरह का जुर्म ही नहीं लगाया जाता। अतएव जो कहते हैं कि हम अपनी व्यर्थ निन्दा मात्र को रोकना चाहते हैं, वे मानों इस बात की घोषणा करते हैं कि हमारी बुद्धि ठिकाने नहीं; हम व्यर्थ प्रलाप कर रहे हैं, हम अपनी अज्ञानता को सबके सामने रख रहे हैं। जो समझदार हैं, वे अपनी निन्दा को प्रकाशित होने देते हैं; और जब निन्दा प्रकाशित हो जाती है तब, उपेक्ष्य होने के कारण, या तो उसे उपेक्षा की दृष्टि से देखते हैं, या वे इस बात को सप्रमाण सिद्ध करते हैं कि उनकी जो निन्दा हुई है, वह व्यर्थ है। अपने पक्ष का जब वे समर्थन कर चुकते हैं, तब सर्व-साधारण जज का काम करते हैं। दोनों पक्षों की दलीलों

को सुनकर वे इस बात का फ़ैसला करते हैं कि निन्दा व्यर्थ हुई है या अव्यर्थ।

हम कहते हैं कि जब तक कोई बात प्रकाशित न होगी, तब तक उसकी व्यर्थता या अव्यर्थता साबित किस तरह होगी? क्या निन्द्द व्यक्ति को उसकी निन्दा सुना देने ही से काम निकल सकता है ? हरगिज़ नहीं। क्योंकि सम्भव है, वह अपनी निन्दा को स्तुति समझे; और यदि निन्दा को वह निन्दा मान भी ले तो उसे दण्ड कौन देगा? जिन लोगों के काम-काज का सर्व-साधारण से सम्बन्ध है, उनकी निन्दा सुनकर सब लोग जब तक उनका धिक्कार नहीं करते, तब तक उनको धिक्कार-रूप उचित दण्ड नहीं मिलता। जो लोग इन दलीलों को नहीं मानते, वे शायद अख़बारवालों से किसी दिन यह कहने लगें कि तुमको जिसकी निन्दा करना हो या जिस पर दोष लगाना हो, उसे अख़बार में प्रकाशित न करके चुपचाप उसे लिख भेजो। परन्तु जिनकी बुद्धि ठिकाने है -- जो पागल नहीं हैं -- वे कभी ऐसा न कहेंगे।

कल्पना कीजिए कि किसी की राय था, समालोचना को बहुत आदमियों ने मिल कर झूठ ठहराया; उन्होंने निश्चय किया कि अमुक आदमी ने अमुक सभा, समाज, संस्था या व्यक्ति की व्यर्थ निन्दा की; तो क्या इतने से ही उनका निश्चय निर्भ्रान्त सिद्ध हो गया ? साक्रेटिस पर व्यर्थ निन्दा करने का दोष लगाया गया। इसलिए उसे अपनी जान से भी हाथ धोना

पड़ा। परन्तु इस समय सारी दुनिया इस अविचार के लिए अफ़सोस कर रही है, और साक्रेटिस के सिद्धान्तों की शत- मुख से प्रशंसा हो रही है। क्राइस्ट के उपदेशों को निन्द्य समझ कर यहूदियों ने उसे सूली पर चढ़ा दिया। फिर क्यों आधी दुनिया इस निन्दक के चलाये हुए धर्म को मानती है ? बौद्धों ने शङ्कराचार्य को क्या अपने मत का व्यर्थ निन्दक नहीं समझा था ? फिर, बतलाइए यह सारा हिन्दुस्तान क्यों उनको शङ्कर का अवतार मानता है ? जब सैकड़ों वर्ष वाद-विवाद होने पर भी निन्दा की यथार्थता नहीं साबित की जा सकती, तब किसी बात को पहले ही से कह देना कि यह हमारी व्यर्थ निन्दा है, अत- एव इसे मत प्रकाशित करो, कितनी बड़ी धृष्टता का काम है ? निन्दा-प्रतिबन्धक मत के अनुयायी ही इस धृष्टता -- इस अवि- चार का परिमाण निश्चित करने की कृपा करें।

जिन लोगों का यह ख़याल है कि "व्यर्थ निन्दा" के प्रका- शन को रोकना अनुचित नहीं, वे सदय-हृदय होकर यदि मिल साहब की दलीलों को सुनेंगे और अपनी सर्वज्ञता को ज़रा देर के लिए अलग रख देंगे तो उनको यह बात अच्छी तरह मालूम हो जायगी कि वे कितनी समझ रखते हैं। निन्दा-प्रति- बन्धक मत के जो पक्षपाती मिल साहब की मूल पुस्तक को अँगरेज़ी में पढ़ने के बाद "व्यर्थ निन्दा" रोकने की चेष्टा करते हैं, उनके अज्ञान, हठ और दुराग्रह की सीमा और भी अधिक दूर-गामिनी है। क्योंकि जब मिल के सिद्धान्तों का खण्डन बड़े

बड़े तत्त्व-दर्शी विद्वानों से भी अच्छी तरह नहीं हो सकता, तब औरों की क्या गिनती है ? परन्तु यदि उन्होंने मूल पुस्तक को नहीं पढ़ा तो अब तो वे कृपा-पूर्वक इस अनुवाद को पढ़ें। इससे उनकी समझ में यह बात आ जायगी कि अपनी निन्दा व्यर्थ हो चाहे अव्यर्थ -- रोकने की चेष्टा करना मानों इस बात का सबूत देना है कि वह निन्दा झुठ नहीं, बिलकुल सच है। व्यर्थ निन्दा के असर को दूर करने का एक मात्र उपाय यह है कि जब निन्दा प्रकाशित हो ले, तब उसका स-प्रमाण खण्डन किया जाय और दोनों पक्षों के वक्तव्य का फ़ैसला सर्व-साधा- रण की राय पर छोड़ दिया जाय। ऐसे विषयों में जन-समुदाय ही जज का काम कर सकता है। उसी की राय मान्य हो सकती है। जो इस उपाय का अवलम्बन नहीं करते, जो ऐसी बातों को जन-समूह की राय पर नहीं छोड़ देते, जो अपने मुक़- दमे के आप ही जज बनना चाहते हैं, उनके तुच्छ, हेय और उपेक्ष्य प्रलापों पर समझदार आदमी कभी ध्यान नहीं देते। ऐसे आदमी तब होश में आते हैं जब अपने अहंमानी स्वभाव के कारण अपना सर्वनाश कर लेते हैं। ईश्वर इस तरह के आद- मियों से समाज की रक्षा करे !

[अगस्त १९०५.