सत्य के प्रयोग/ वह सप्ताह!-२

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सत्य के प्रयोग  (1948) 
द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक हरिभाऊ उपाध्याय

[ ४८८ ]अध्याय ३२ : वह सप्ताह !--२ ४७१ कमिश्नरसे मैंने जो कुछ देखा था उसका वर्णन किया । उसने संक्षेपमें जवाब दिया-- “ जलूस को हम फोर्टकी ओर जाने देना नहीं चाहते थे । वहां जलूस जाता तो उपद्रव हुए बिना नहीं रह सकता था । और मैंने देखा कि लोग केवल कहने से ही लौट जानेवाले नहीं थे । इसलिए भीड़में धंसे बिना और चारा ही नहीं था । ”

मैंने कहा-- “ मगर उसका परिणाम तो आप जानते थे ? लोग घोड़ोंके नीचे जरूर ही कुचल गये हैं । मुझे तो ऐसा मालूम होता है कि घुड़सवारों की टुकड़ीको भेजने की जरूरत ही न थी ।” -

साहबने जवाब दिया--“ इसका पता आपको नहीं चल सकता । हम पुलिसवालों को आपसे कहीं अधिक इसका पता रहता हैं कि लोगोंके ऊपर आपकी सीखका कैसा असर पड़ा है । हम अगर पहलेसे ही कड़ी कार्रवाई न करें तों अधिक नुकसान होता हैं । में आपसे कहता हूं कि लोग तो आपके भी प्रभावमें रहनेवाले नहीं हैं। कानूनके भंगकी बातं वे चट समझ लेते हैं, मगर शांतिकी बात समझना उनकी शक्तिके बाहर हैं । आपका हेतु अच्छा है, मगर लोग आपका हेतु नहीं समझते; वे तो अपने ही स्वभावके अनुसार काम करेंगे ।” मैन कहा-- “ यही तो आपके और मेरे बीच मतभेद हैं । लोग स्वभावसे ही लड़ाके नहीं हैं । किंतु शांतिप्रिय हैं ।” प्रब बहस होने लगी । अंतम साहब बोले-- “ खैर अगर आपको यह विश्वास हो जाय कि लोगोंने आपकी शिक्षाको नहीं समझा, तो आप क्या करेंगे ?”

मैंने जवाब दियां--“ अगर मुझे यह विश्वास हो जाय तो इस लड़ाई-को मै स्थगित कर दूंगा । ” 

“ स्थगित करनेके क्या मानी ? आपने तो मि० बोरिंगसे कहा है कि मैं छूटते ही तुरंत पंजाब लौटना चाहता हूं ।” “हां, मेरा इरादा तो दूसरी ही ट्रेन से लौटनेका था; किंतु यह तो आज् नहीं हो सकता ।” “ आप धीरज रक्खेंगे तो आपको और अधिक बातें मालूम होंगी । क्या आपको कुछ पता है कि अभी अहमदाबादमें क्या चल रहा है ? अमृतसरमें [ ४८९ ]४७२ अत्म-कथा : भाग ५ क्या हुआ है ? लोग तो सभी जगह पागल-से हो गये हैं। मुझे भी अभी तो पूरी खबरें नहीं मिली हैं। कितनी ही जगह तार भी टूटे हैं। मैं तो आपसे कहता है। कि इस सारे उपद्रवकी जिम्मेदारी आपके सिर है ।" मैं बोला-- “मेरी जिम्मेदारी जहां होगी, वहां उसे मैं अपने सिर ओढ़े बिना नहीं रहूंगा । अहमदाबादमें लोग अगर कुछ भी करें तो मुझे आश्चर्य और दुःख होगा। अमृतसरके बारे में मैं कुछ नहीं जानता। वहां तो मैं कभी गया भी नहीं हूं। वहां मुझे तो कोई जानता भी नहीं है। किंतु मैं इतना जानता हूं कि पंजाब सरकारने यदि मुझे वहां जाने से रोका न होता तो मैं शांति बनाये रखने- में बहुत हाथ बंटा सकता था। मुझे रोककर सरकारने लोगोंको भड़का दिया है।" . इस तरह हमारी बातें चलीं ! हमारे मतमें मेल मिलनेकी संभावना नहीं थी । चौपाटीपर सभा करने और लोगोंको शांति पालन करने के लिए समझाने- का अपना इरादा जाहिर करके मैंने उनसे छुट्टी ली । | चौपाटी पर सभा हुई । मैंने लोगोंको शांतिके बारे में और सत्याग्रहकी मर्यादाके बारेमें समझाया और कहा--- "सत्याग्रह सच्चेका खेल है। लोग अगर शांतिका पालन न करें तो मुझसे सत्याग्रहकी लड़ाई कभी पार न लगेगी।" अहमदाबादसे श्री अनसूयाबहनको भी खबर मिल चुकी थी कि वहां हुल्लड़ हो गया है। किसीने अफवाह उड़ा दी थी कि वह भी पकड़ी गई हैं। इससे मजदूर पागल-से बन गये। उन्होंने हड़ताल की और हुल्लड़ भी किया। एक सिपाहीका खून भी हो गया था । | मैं अहमदाबाद गया । नड़ियादके पास रेलकी पटरी उखाड़ डालनेका भी प्रयत्न हुआ था। वीरमगाममें एक सरकारी नौकरका खून हो गया था । ज़ब मैं अहमदाबाद पहुंचा, तो उस समय वहां मार्शल-ला जारी था। लोग भयभीत हो रहे थे। लोगोंने जैसा किया वैसा भरा और उसका ब्याज भी पायो । .. कमिश्नर मि० अँटके पास मुझे ले जानेके लिए स्टेशनपर आदमी खड़ा था। मैं उनके पास गया । वह खूब गुस्से में थे । मैंने उन्हें शांति से उत्तर दिया । जो खून हुआ था, उसके लिए अपना खेद प्रकट किया। मार्शल-लॉकी अनावश्यकता भी बतलाई और जिसमें शांति फिरसे स्थापित हो वैसे उपाय, जो करने उचित [ ४९० ]अध्याय ३२ : वह सप्ताह !--२ हों, करनेकी अपनी तैयारी बतलाई । मैंने सार्वजनिक सभा करनेकी इजाजत मांगी व सभा आश्रम मैदानमें करनेकी अपनी इच्छा प्रकट की । यह बात उन्हें पसंद आई । मुझे याद है कि इसके अनुसार १३ मईको रविवारके दिन सभा हुई थी । मार्शल-लॉ भी उसी दिन या उसके दूसरे दिन रद्द हो गया था । इस सभामें मैंने, लोगोंको उनकी गलतियां बतानेका प्रयत्न किय । मैने प्रायश्चित्त के रूप में तीन दिनका उपवास किया और लोगोंको एक दिनका उपवास करनेकी सलाह दी । जो खून वगैरामें शामिल हुए हों, उन्हें अपना गुनाह कबूल कर लेनेकी सलाह दी । अपना धर्म मैंने स्पष्ट देखा । जिन मजदूरों वगैराके बीच मैंने इतना समय बिताया था, जिनकी मेने सेवा की थी, और जिनसे मैं भलेकी ही आशा रखता था, उनका हुल्लड़में शामिल होना मुझे असहा लगा और मैंने अपने आपको उनके दोषमें हिस्सेदार माना । जिस तरह लोगोंको अपना गुनाह कबूल कर लेनेकी सलाह दी, उसी प्रकार सरकारको भी उनका गुनाह माफ करनेके लिए सुझाया । मेरी बात दोनोंमेंसे किसीने नहीं सुनी । न लोगोंने अपना गुनाह कबूल किया और न सरकार ने उन्हें माफ ही किया । स्व० सर रमणभाई वगैरा, अहमदाबांदके नागरिक, मेरे पास आये और सत्याग्रह मुल्तवी रखनेका मुझसे अनुरोध किया । मुझे तो इसकी जरूरत भी न रही थी । जबतक लोग शांतिका पाठ न सीख लें, तबतक सत्याग्रहकी मुल्तवी रखनेका निशचय मैने कर ही लिया था । इससे वे प्रसन्न हुए । कितने ही मित्र नाराज भी हुए । उन्हें ऐसा जान पड़ा कि अगर मैं सर्वत्र शांतिकी आशा रक्खू और यही सत्याग्रहकी शर्त हो, तो फिर बड़े पैमानेपर सत्याग्रह कभी चल ही न सकेगा । मैंने इससे अपना मतभेद प्रकट किया । जिन लोगोंमें हमने काम किया हो, जिनके द्वारा सत्याग्रह चलानेकी हमने आशा रक्खी हो, वे अगर शांतिका पालन न करें तो सत्याग्रह जरूर ही नहीं चल सकता । मेरी दलील यह थी कि इतनी मर्यादित शांतिका पालन करनेकी शक्ति सत्याग्रही नेताओंको पैदा करनी चाहिए । इन विचारोंको में आज भी नहीं बदल सका हूं ।

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