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सर्वोदय/३-अदल इन्साफ़

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सर्वोदय
मोहनदास करमचंद गाँधी

पृष्ठ ४५ से – ५६ तक

 

 

: ३ :
अदल इन्साफ़।

ईस्वी सन की कुछ शताब्दियों के पहले एक यहूदी व्यापारी हो गया है। उसका नाम सोलोमन था। उसने धन और यश दोनों भरपूर कमाया था। उनकी कहावतों का आज भी यूरोप में प्रचार है। वेनिस के लोग उसे इतना मानते थे कि उन्होंने उसकी मूर्ति स्थापित की। उसकी कहावते आज कल याद तो रखी जानी है, परन्तु ऐसे आदमी बहुत कम है जो उनके अनुसार आचरण करते हो। वह कहता है—"जो लोग भूठ बोलकर पैसा कमाते हैं वे घमण्डी है और यह उनकी मौत की निशानी है।" दूसरी जगह उसने कहा है—"हराम की दौलत से कोई लाभ नहीं होता, सत्य मौत मे बचता है।" इन दोनों कहावतों में सोलोमन ने बतलाया है कि अन्याय में पैदा किये हुए धन का परिणाम मत्यु है। इस जमाने में इतना झूठ बोला और इतना न्याय किया जा रहा है कि साधारणत हम उसे झूठ और अन्याय कह ही नहीं सकते। जैसे कि झूठे विज्ञापन का देना, अपने माल पर लोगों को भुलावे में डालने वाले लेवल लगाना, इत्यादि।

अनन्तर वह बुद्धिमान् कहता है—"जो धन बढ़ाने के लिए गरीबों को दुःख देता है वह अन्त में दर-दर भीख मागेगा।" इसके बाद कहता है—"गरीबों को न सताओ क्योंकि वह गरीब है। व्यापार में दुखियों पर जुल्म न करो क्योकि जो गरीबों को सतायेगा, खुदा उसे सतायेगा!" लेकिन आजकल तो व्यापार में मरे हुए आदमी को ही ठोकर मारी जाती है। यदि कोई संकट में पड़ जाता है तो हम उसके संकट से लाभ उठाने को तैयार हो जाते है। डकैत तो मालदार के यहाँ डाका डालते है परन्तु व्यापार में तो गरीबों को ही लूटा जाना है।

फिर सालोमन कहता है—"अमीर और गरीब दोनों समान हैं। खुदा उनको उत्पन्न करनेवाला है। खुदा उन्हें ज्ञान देता हूँ।" अमीर का गरीब के बिना और गरीब का अमीर के बिना काम नहीं चलता। एक को दूसरे का काम सदा ही पड़ता रहता है। इसलिए कोई किसी की ऊँचा या नीचा नहीं यह लाता। परन्तु जब ये दोनों अपनी समानता को भूल जाते है और जब उन्हें इस बात का होश नहीं रहना कि खुदा उन्हें ज्ञान देने वाला है, तब विपरीत परिणाम होता है।

धन नदी के समान है। नदी सदा समुद्र की और अर्थात् नीचे की ओर बहती है। इसी तरह धन को भी जहाँ आवश्यकता हो वहीं जाना चाहिए। परन्तु जैसे नदी की गति बदल सकती है वैसे धन की गति में भी परिवर्तन हो सकता हँ। कितनी ही नदियाँ इधर-उधर बहने लगती है और उनके आस-पास बहुत-सा पानी जमा हो जाने से जहरीली हवा पैदा होती हैं। इन्हीं नदियों में बाँध-बाँध कर, जिधर आवश्यकता हो उधर उनका पानी ले जाने से वही पानी जमीन को उपजाऊ और आस-पास की वायु को उत्तम बनाता है। इसी तरह धन का मन-माना व्यवहार होने से बुराई बढ़ती है, गरीबी चढ़ती है। सारांश यह है कि वह धन विष तुल्य हो जाता है। पर यदि उसी धन की गति निश्चित कर दी जाय और उसका नियम पूर्वक व्यवहार किया जाय तो बांधी हुई नदी की तरह वह सुखप्रद बन जाता है।

अर्थ-शास्त्री धन की गति के नियन्त्रण के नियम को एक दम भूल जाते है। उनका शास्त्र केवल धन प्राप्त करने का शास्त्र है। परन्तु धन तो अनेक प्रकार से प्राप्त किया जा सकता है। एक जमाना ऐसा था जब यूरप में धनिक को विष देकर लोग उसके धन से स्वयं धनी बन जाते थे। आजकल गरीब लोगों के लिए जो न्याय पदार्थ तैयार किये जाते में उनमें व्यापारी मिलावट कर देते है। जैसे दूध में सुहागा, आटे में आलू, कहवे में 'चीकरी', मक्खन में चरबी इत्यादि। यह भी विष देकर धनवान होने के समान ही है। क्या इसे हम धनवान होने की कला या विज्ञान कह सकते हैं?

परन्तु वह न समझ लेना चाहिए कि अर्थ शास्त्री निजी लूट से ही बनी होने की बात कहते है। उनकी ओर से यह कहना ठीक होगा कि उनके शास्त्र कानून-संगत और न्याय युक्त उपायों से धनवान होने का है। पर इस ज़माने में यह भी होता कि अनेक बातें जायज़ होते हुए भी बुद्धि में विपरीत होती है। इसलिए न्याय पूर्वक धन अर्जन करना ही सच्चा रास्ता कहा जा सकता है। और यदि न्याय से ही पैसा कमाने की बात ठीक हो तो न्याय अन्याय का विवेक उत्पन्न करना मनुष्य का पहला काम होना चाहिए। केवल लेन-देन के—व्यावसायिक-नियम से काम लेना या व्यापार करना ही काफी नहीं है। यह तो मछलियों, भेड़िये और चूहे भी करते है बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है, चूहा छोटे जीव जन्तुओं को खा जाता है और भेड़िया आदमी तक को खा डालता है। उनका यही नियम हैं, उन्हें दूसरा ज्ञान नहीं है। परन्तु ईश्वर ने मनुष्य को समझ दी है, न्याय बुद्धि दी है। उसके द्वारा दूसरों को भक्षण कर—उन्हें ठग कर, उन्हें भिखारी बना कर—इसे धनवान न होना चाहिए।

ऐसी अवस्था में हमे देखना है कि मजदूरों को मजदूरी देने का न्याय क्या है?

हम पहले कह चुके हैं कि मजदूर की उचित पारिश्रमिक तो यही हो सकता है कि उसने जितनी मेहनत हमारे लिए की हो उतनी ही मेहनत, जब उसे आवश्यकता हो, हम भी उसके लिए कर दे। यदि उसे कम मेहनत— कम काम मिलता है तो हम उसे उसकी मेहनत का कम बदला देते हैं ज़्यादा मिले तो ज्यादा देते हैं।

एक आदमी को एक मजदूर की आवश्यकता है पर दो आदमी उसका काम करने को तैयार हो जाते हैं। अब जो आदमी कम मजदुरी माँगे उससे काम लिया जाय तो इसे कम मजदूरी मिलेगी। यदि अधिक आदमियों को मजदूर की आवश्यकता हो और मजदूर एक हो तो उसे मुँह-मांगी उजरत मिल जायगी और वह प्रायः जितनी होनी चाहिए उससे अधिक होगी। इन दोनों के बीच की दर उचित मजदूरी कही जायगी।

कोई आदमी मुझे कुछ रुपये उधार दे और उन्हें मैं उसे किसी विशेष अवधि के बाद लौटाना चाहूँ तो मुझे उस आदमी को ब्याज देना होगा। इसी तरह यदि आज कोई मेरे लिए मेहनत करें तो मुझे उस आदमी को उतना ही नहीं, बल्कि व्याज के तौर पर कुछ अधिक परिश्रम देना चाहिए। आज मेरे लिए कोई एक घण्टा काम करदे तो मुझे उसके लिए एक घण्टा और पांच मिनट या इससे अधिक काम कर देने का वचन देना चाहिए। यही बात प्रत्येक मजदूर के विषय में समझनी चाहिए।

अब अगर मेरे पास दो मजदूर आये और उनमें से जो कम ले उसे मैं काम पर लगाऊँ तो फल यह होगा कि जिससे मैं काम लूँगा उसे तो आधे पेट रहना होगा और जो बेरोजगार रहेगा वह पूरा उपवास करेगा। मैं जिस मजदूर को रक्खू उसे पूरी मजदूरी दूँ तब भी दूसरा मजदूर तो बेकार ही रहेगा। फिर भी जिसे मैं काम में लगाऊँगा उसे भूखों न मरना होगा ओर यह समझा जायगा कि मैंने अपने रुपये का उचित उपयोग किया। सच पूछिये तो लोगों के भूखों मरने की अवस्था तभी उत्पन्न होती है जब मजदूरों को कम मजदूरी दी जाती है। मैंं उचित मजदूरी दूँ तो मेरे पास व्यर्थ का धन इकट्ठा न होगा मैं भोग विलास में रुपया खर्च न करूँगा और मेरे द्वारा गरीबी न बढ़ेगी। जिसमें मैं उचित दाम दूँगा यह दूसरों को उचित दाम देना सीखेगा इस तरह न्याय का सोता सीखने के बदले ज्यों ज्यों आगे बटेगा त्यों त्यों उसका जोर बढ़ता जायगा। और जिस राष्ट्र में इस प्रकार की न्याय-बुद्धि होगी वह सुखी होगी और उचित रूप से फूले फलेगा।

इस विचार के अनुसार अर्थशास्त्री झूठे ठहरते है। उनका कथन है कि ज्यों ज्यों प्रतिस्पर्धा बढ़ती है त्यों त्यों राष्ट्र समृद्ध होता है। वास्तव में यह विचार भ्रान्त है। प्रतिस्पर्धा का उद्देश्य है मजदूरी की दर घटाना।

उसमें धनवान अधिक धन इकट्ठा करता है और गरीब अधिक गरीब हो जाना है। ऐसी प्रतिस्पर्धा चढ़ा-उतरी से अन्त में राष्ट्र का नाश होने की सम्भावना रहती है। नियम तो यह होना चाहिए कि हरेक आदमी को उसकी योग्यता के अनुसार मजदूरी मिला करे। इसमें भी प्रतिस्पर्द्धा होगी, पर इस प्रतिस्पर्द्धा के फलस्वरूप लोग सुखी और चतुर होगे। क्योकि फिर काम पाने के लिए अपनी दर घटाने की जरूरत न होगी, बल्कि अपनी कार्यकुशलता बढ़ानी होगी। इसलिए लोग सरकारी नौकरी पाने के लिए उत्सुक रहते है। वहाँ दरजे के अनुसार तनख्वाह स्थिर होती है, प्रतिस्पर्द्धा केवल कुशलता में रहती हैं। नौकरी के लिए दरखास्त देने वाला कम तनख्वाह लेने की बात नहीं कहता, किन्तु यह दिखाता है कि उसमें दूसरों की अपेक्षा अधिक कुशलता है। फौज और जल सेना की नौकरियों में भी इसी नियम का पालन किया जाता है और इसलिए प्राय ऐसे विभागों में गड़बड़ और अनीति कम दिखाई देती है। व्यापारियों में ही दूषित प्रतिस्पर्द्धा चल रही है और उसके फलस्वरूप धोखेबाजी, दगा, फरेब, चोरी आदि अनीतियाँ बढ़ गई है। दूसरी और जो माल तैयार होता है वह ख़राब और सड़ा हुआ होता है। व्यापारी चाहता है कि मैं खाऊँ, मजदूर चाहता है कि मैं बीच से ही कमा लूं! इस प्रकार व्यवहार बिगड़ जाता है, लोगों में खटपट मची रहती है, गरीबों का जोड़ बढ़ता है, हड़तालें बढ़ जाती है महाजन ठग बन जाते हैं, ग्राहक नीति का पालन नहीं करते। एक अन्याय से दूसरे अनेक अन्याय उत्पन्न होते हैं और अंत में महाजन, व्यापारी, और ग्राहक सभी दुःख भोगते हैं और नष्ट हो जाते हैं। जिस राष्ट्र में ऐसी प्रथायें प्रचलित होती है वह अन्त में दुःख पता है और उसका धन ही विष सा हो जाता है।

"जहाँ धन ही परमेश्वर है वहां सच्चे
परमेश्वर को कोई नहीं पूजता।"

अंग्रेज जाति मुँह में तो कहती है कि धन और ईश्वर में परस्पर विरोध है, गरीब ही के घरमें ईश्वर वास करता है, पर व्यवहारमें वह धन को सर्वोच्च पद देते है। अपने धनी आदमियो की गिनती करके अपने को सुखी मानते है। और अर्थशास्त्री शीघ्र धनोपार्जन करने के नियम बनाते है, जिन्हें सीख कर लोग धनवान हो जाँय। सच्चा शास्त्र न्यायबुद्धि का है। प्रत्येक प्रकार की स्थिति में न्याय किस प्रकार किया जाय, नीति किस प्रकार निबाही जायँ,—जो राष्ट्र इस शास्त्र को सीखता है वही सुखी होता है, बाकी सब बाते वृथा प्रयास है, "विनाश काले विपरीत बुद्धि" के समान है। लोगों को जैसे भी होसके पैसा पैदा करने की शिक्षा देना उन्हें उलटी अक्ल सिखाने जैसा ही है।