सर्वोदय/४-सत्य क्या है?

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सत्य क्या है?

पिछले तीन प्रकरणों में हम देख चुके हैं कि अर्थशास्त्रियों के जो साधारण नियम माने जाते हैं वह ठीक नहीं है। उन नियमों के अनुसार आचरण करने पर व्यक्ति और समाज दोनों दुःखी होते हैं। गरीब अधिक गरीब बनता है और पैसे वाले के पास अधिक पैसा जमा होता है, फिर भी दोनों में से एक भी सुखी होता या रहता नहीं।

अर्थशास्त्री मनुष्यों के आचरण पर विचार न कर अधिक पैसा बटोर लेने को ही अधिक उन्नति मानते हैं और जनता के सुख का आधार केवल धन को बताते हैं। इसलिए वह सीखते हैं कि कला कौशल आदि वृद्धि से कितना अधिक धन इकट्ठा हो सके उतना उतना ही [ ५८ ]अच्छा है। इस तरह के विचारों के प्रचार के कारण इङ्गलैण्ड और दूसरे देशों में कारखाने बढ़ गये हैं। बहुत से आदमी शहरों में जमा होते हैं और खेती-बारी छोड़ देते हैं। बाहर की सुन्दर स्वच्छ वायु को छोड़कर कारखानों की गन्दी हवा में रात-दिन सांस लेने में सुख मानते हैं। इसके फलस्वरूप जनता कमजोर होती जा रही है, लोभ बढ़ता जा रहा है और अनीति फैलती जा रही है। और जब हम अनीति को दूर करने की बात उठाते हैं तब बुद्धिमान कहलाने वाले लोग कहते हैं कि अनीति‌ दूर नहीं हो सकती, अज्ञानियों को एकदम ज्ञान नहीं हो सकता, इसलिए जैसा चल रहा है वैसा ही चलने देना चाहिए। यह दलील देते हुए वे यह बात भूल जाते हैं कि गरीबों की अनीति का कारण धनवान हैं। उनके भोग विलास का सामान जुटाने के लिए गरीब रात-दिन मजदूरी करते हैं। उन्हें कुछ सीखने या कोई अच्छा [ ५९ ]काम करने के लिए एक पल भी नहीं मिलता। धनिकों को देखकर वह भी धनी होना चाहते हैं। धनी न हो पाने पर खिन्न होते हैं, झुँझलाते हैं। पीछे विवेक खोकर, अच्छे रास्ते से धन न मिलते देख दगा-फरेब से पैसा कमाने का वृथा प्रयास करते हैं। इस तरह पैसा और मेहनत दोनों बर्बाद हो जाते हैं, या दगा-फरेब फैलाने में उनका उपयोग होता है।

वास्तव में सच्चा श्रम वही है जिससे कोई उपयोगी वस्तु उत्पन्न हो। उपयोगी वह है जिससे मानव जाति का भरण-पोषण हो। भरण-पोषण वह है जिससे मनुष्य को यथेष्ट भोजन-वस्त्र मिल सके या जिससे वह नीति के मार्ग पर स्थिर रहकर आजीवन सत्कर्म करता रहे। इस दृष्टि से विचार करने से बड़े-बड़े आयोजन बेकार माने जायँगे। संभव है कि कल-कारखाने खोलकर धनवान होने का मार्ग ग्रहण करना पाप-कर्म मालूम हो। पैसा पैदा [ ६० ]करनेवाले बहुतेरे मिलते है, पर उसका यथाविधि उपयोग करने वाले कम मिलते है। जिस धन को पैदा करने में जनता तबाह होती हो वह धन निकम्मा है। आज जो लोग करोड़पति है वे बड़े-बड़े और अनीतिमय संग्रामों के कारण करोड़पति हुए है। वर्त्तमान युग के अधिकांश युद्धों का मूल कारण धन का लोभ ही दिखाई देता है।

लोग यह कहते हुए दिखाई देते है कि दूसरों को सुधारना, ज्ञान देना असम्भव है, इसलिए जिस तरह ठीक मालूम हो उस तरह रहना और धन बटोरना चाहिए। ऐसा करने वाले स्वयं नीति का पालन नहीं करते। क्योकि जो आदमी नीति का पालन करता है और लोभ से नहीं पड़ता वह पहले तो अपने मन को स्थिर रखता है, वह स्वयं सन्मार्ग से विचलित नही होता और अपने कार्य से ही दूसरों पर प्रभाव डालता है। जिनसे समाज बना है वह स्वयं जब [ ६१ ]तक नैतिक नियमों का पालन न करें तब तक समाज नीतिवान कैसे हो सकता है? हम खुद तो मनमाना आचरण करे और पड़ोसी का अनीति के कारण उसके दोष निकाले तो इसका परिणाम कैसे हो सकता है?

इस प्रकार विचार करने से हम देख सकते हे कि धन साधन मात्र है और इससे सुख तथा दुःख दोनों हो सकते है। यदि यह अच्छे मनुष्य के हाथ में पड़ता है तो उसकी बदौलत खेती होती है और अन्न पैदा होता है, किसान निर्दोष मजदूरी करके सन्तोष पाते हैं और राष्ट्र सुखी होता है। ख़राब मनुष्य के हाथ में धन पड़ने से उसमें (मान लीजिए कि) गोले बारूद बनते हैं और लोगों का सर्वनाश साबित होता है। गोला बनाने वाला राष्ट्र और जिस राष्ट्र पर उनका व्यवहार होता है ये दोनों हानि उठाते और दुःख पाते हैं।

इस तरह हम देख सकते हैं कि सच्चा आदमी [ ६२ ]ही सच्चा धन है। जिस राष्ट्र में नीति है वह धन सम्पन्न है। यह जमाना भोग-विलास का नही है। हरेक आदमी को जितनी मेहनत मजदूरी हो सके उतनी ही करनी चाहिए। पिछले उदाहरणों में हम देख चुके है कि जहाँ एक आदमी आलसी रहता है वहाँ दूसरे को दूनी मेहनत करनी पड़ती है। इङ्गलैण्ड में जो बेकारी फैली हुई है उसका यही कारण है। कितने ही पास में धन हो जाने पर कोई उपयोगी काम नहीं करते अंतः उनके लिए दूसरे आदमियों को परिश्रम करना पड़ता है। यह परिश्रम उपयोगी न होने के कारण करने वाले का इससे लाभ नही होता। ऐसा होने से राष्ट्र को पूँजी घट जाती है। इसलिए ऊपर से यद्यपि यही मालूम होता है कि लोगों को काम मिल रहा है, परन्तु भीतर से जाँच करने पर मालूम होता है कि अनेक आदमियों को बेकार बैठना पड़ रहा है। पीछे ईर्षा उत्पन्न होती है, असन्तोष की [ ६३ ]जड़ जमती है, और अन्त में मालदार गरीब, मालिक मजदूर—दोनों अपनी मर्यादा त्याग देते हैं। जिस तरह बिल्ली और चूहे में सदा अनबन रहनी है उसी तरह अमीर और गरीब, मालिक और मजदूर में दुश्मनी हो जाती है और मनुष्य मनुष्य न कह कर पशु की अवस्था में पहुँच जाता है।