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साफ़ माथे का समाज/थाली का बैंगन

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दिल्ली: पेंगुइन, पृष्ठ १४९ से – १५५ तक

 

थाली का बैंगन


भाषा में अगर हम किसी तरह की असावधानी दिखाते हैं तो हम व्यवहार में भी असावधानी पाते हैं। उदार शब्द हिंदी का बड़ा ही शुभ शब्द है। अगर राजनीतिक, आर्थिक व्यवस्था का उदारीकरण करना है तो 15 साल बाद उसका निरीक्षण क्यों करना? जब मन उदार बन रहा है, व्यवस्था उदार हो रही है तब हमारे मन में संशय और डर कैसा? इसका मतलब है हमने एक ग़लत उद्देश्य के लिए एक अच्छे शब्द की बलि दी है। यह दुख की बात है कि हिंदी भाषा के बुद्धिजीवी, अख़बार, साहित्यकार किसी ने समाज का ध्यान इस ओर नहीं खींचा। उदार का विपरीत अर्थ कंजूस, कृपण और झंझटी है तो क्या इसके पहले की व्यवस्था कंजूसी की थी, कृपणता की थी, संकीर्णता की थी? वह दौर किनका था? वह दौर सर्वश्रेष्ठ नेताओं का था। नेहरूजी जैसे लोगों का। अगर वह दौर कृपणता का था तो अब हम उदार हो गए हैं। हम पाते हैं आज उस दौर से कमज़ोर नेता हमारे पास हैं। यह कैसे हो सकता है कि कृपणता के दौर में अच्छे नेता थे और अब उदारीकरण के समय कमज़ोर नेता? पहले हमें इसका हल ढूंढ़ना चाहिए। फिर 15 साल कैसे बीते उस पर बग़ैर किसी कटुता के बात करनी चाहिए। मंच कोई भी हो उस पर खुले मन से अगर बात आगे नहीं बढ़ाएंगे तो हम लोगों को प्रत्येक 15 साल में एक झटका महसूस होगा। अगर ऐसा नहीं करते हैं तो जिस तरह से पहले हमने अर्थव्यवस्था चलाई है उससे मुंह मोड़ा है। पहले भी वही गलतियां हुई हैं। दुनिया के किसी एक पक्ष ने हमें पढ़ाया कि राष्ट्रीयकरण कर लो। हमने वह पाठ तोते की तरह पढ़ लिया। हमने आगे-पीछे का कुछ भी नहीं सोचा। हमने अपने तोतों से भी नहीं पूछा कि क्या तुम्हें भी कुछ पाठ पढ़ाया गया है? कुछ नहीं तो डाल पर बैठे अपने तोतों से ही पूछ लेते तो शायद मामला ठीक हो जाता। शायद हमें पता चल जाता कि राष्ट्रीयकरण में ऐसा कुछ नहीं था कि इसके नीचे जो भी डाल देंगे सब ठीक हो जाएगा। वह प्रयोग भी बहुत सफल नहीं होने वाला था। अब दौर आया कि हर चीज़ का राष्ट्रीय हटाकर बाज़ारीकरण करते जाइए और इसे उदारीकरण का नाम दे दिया गया। मैं इस शब्द में कोई अलंकार या अनुप्रास देखने का मोह नहीं रखता। वस्तुतः यह हमारे दिमाग का, हमारी व्यवस्था का उदारीकरण नहीं उधारीकरण है। हमें अपने देश को चलाने के लिए बाहर की चीज़ें उधार लेनी पड़ती हैं। जान-बूझकर सोच-समझकर लेना, पूरी दुनिया का दरवाज़ा खुला रखना एक अलग बात है। लेकिन दुनिया में जिस चीज़ का झंडा ऊपर हो जाए, कभी साम्यवाद, कभी इस वाद का, कभी उस वाद का और हम उससे अछूते ही नहीं रहे बल्कि उसकी लपेट में पूरी तरह से आ जाएं, यह बहुत चिंतनीय दौर है। पूरे दौर में इस देश में जिसका मन लोहे जैसा है, इस्पात जैसा है क्यों इतनी जल्दी पिघल जाता है?

कटु और मीठे अनुभव की तरफ़ जाने से पहले समाज को बैठकर यह देखना चाहिए कि हम पहले से बेहतर हुए हैं क्या? अगर लोगों को उसकी क़ीमत चुकानी पड़े तो चुकाना चाहिए। लेकिन समाज एक दौर में इतना निष्ठुर हो जाता है कि कुछ लोगों के भले के लिए ज्यादा लोगों की क़ीमत चुकवा देता है। कम लोगों के लिए कीमत तो फिर भी समझ में आने वाली बात है। उदाहरण के तौर पर हरसूद को लेना लाज़िमी होगा। वहां नर्मदा नदी पर एक बांध बनाया जा रहा है। हरसद नाम का बड़ा कस्बा डूब रहा है। हरसूद शहर नहीं, छोटा क़स्बा भी नहीं परंतु एक बड़ा क़स्बा तो है। उसे डूबने से बचाने की तैयारी सरकारों ने पिछले 20 वर्षों में नहीं की है।

इस बांध की निर्माण योजना से गुजरात और मध्यप्रदेश के बीच बिजली और खेती (सिंचाई) की योजना है। अगर इस योजना से ज़्यादा लोग लाभ पा रहे हैं तो सरकार को यह बताना चाहिए कि नुकसान कितने लोगों का हो रहा है? आज हम गिनती को छुपा रहे हैं। उसकी भरपाई नहीं सोच रहे हैं। सरकार तो उन्हें बोझ मानती है। उस बोझ की ज़िम्मेदारी मानकर उसे ढोकर ठीक जगह पुर्नस्थापित नहीं करना चाहती है। आज हरसूद उजड़ता दिख रहा है। परंतु पिछले 20-25 साल से वह मन से उजड़ चुका है। 20 साल पहले भी हरसूद के लोग आज की तरह भय और संशय की स्थिति में अपने उजड़ने की प्रतीक्षा कर रहे थे। आज उदारीकरण से लाभ पाने वालों की संख्या अगर अधिक है तो अल्पसंख्यक समुदाय का ज़रूरत से ज़्यादा ख्याल रखना चाहिए।

आज के दौर में लोगों के सामने बड़ी चुनौती है-उनके विवेक हरण की। हम राष्ट्रीयकरण के आने पर राष्ट्रीयकरण के गुण गाने लगते हैं। उदारीकरण के आने पर उसके गुण गाने लगते हैं। चुनौती आने पर पूरा समाज बैठकर हल ढूंढ़े ऐसा वातावरण नहीं बचा है। छोटे-मोटे आंदोलनों को छोड़ दीजिए। उनकी तो कोई जगह इनमें नहीं बन पा रही है। वे इसके हिस्से बन जाते हैं। बड़ा काम कर सकने वाले जो लोग हैं उनका विरोध क्षणिक और ऊपरी सतह का दिखता है।

कोक-पेप्सी एक ऐसा उद्योग है जिसे पानी कच्चे माल के तौर पर चाहिए। मशीन धोने, मशीन बनाने, कपड़ा बनाने, कपड़ा धोने में पानी की ज़रूरत होती है। पंप लगाकर पानी की ज़रूरत पूरी करना उसके उत्पादन का ज़रूरी हिस्सा हो जाता है। उनकी ज़रूरत कम है या ज़्यादा, अलग विवाद है। कोक-पेप्सी और बोतलबंद पानी ऐसे उद्योग हैं जिनके उत्पादन का मुख्य हिस्सा पानी है। ज़मीन के छोटे हिस्से को ख़रीदकर वहां से हज़ारों-लाखों लीटर पानी वे अगर उलीच लेना चाहते हैं और अगर वर्तमान कानून इसकी इजाज़त देता है तो वह उचित नहीं है। यह चुनौती सरकार के सामने है। कोक पेप्सी की मनमानी के खिलाफ़ बहुत बड़े जन समुदाय के लिए दख्खल देना बहुत ज़रूरी हो गया है। ऐसा नहीं होना चाहिए कि एक गज़ ज़मीन ख़रीदकर वहां से एक हज़ार लीटर पानी खींच लिया जाए। मैं कोक-पेप्सी को बाहर करने की मांग नहीं करता हूं। ऐसी मांगें भी अपने यहां उठती हैं। वे समाज और पर्यावरण का नुकसान कर रहे हैं, वह उनकी भरपाई करें, ऐसा कानून बनाया जाए या उन्हें लूट-खसोट के लिए खुला छोड़ दें?

नदी जोड़ने के संबंध को अगर हम उदारीकरण के अंतर्गत या बाहर करके भी देखें तो यह एक स्वतंत्र रूप से बनी योजना है। इसकी झलक हमें ऐतिहासिक रूप से राष्ट्रीयकरण के दौर में मिलती है। वह युग के. एल. राव और नेहरू जी का था। तब नदी जोड़ने का बड़ा सपना देखना बड़ा ही अच्छा माना जाता था। आज भी इसे ग़लत नहीं माना जाता है। राष्ट्रीयकरण से लेकर उदारीकरण तक अगर जोड़ने की बात है तो वह नदी जोड़ो योजना है। वह इन दोनों छोरों को जोड़ती है। और हमें बार-बार गलत साबित करती है कि केवल बाज़ार के लालच ने ही नहीं, बल्कि अच्छे राष्ट्रीयकरण का दौर भी नदी जोड़ने से हमें अलग नहीं कर पा रहा था। प्रकृति को जब ज़रूरत होती है वह अपनी नदियों को जोड़ लेती है। वह पांच दस साल नहीं बल्कि लाखों हज़ारों वर्षों की योजना बनाकर अपने को जोड़ती है। वह गंगा को कहीं बहाती है, यमुना को कहीं बहाती है तब जाकर वह इलाहाबाद में अपने को मिलाती है। यह जोड़ समाज के लिए संगम या तीर्थ कहलाता है। वह पर्यावरण की एक बड़ी घटना होती है। दोनों नदियों में वनस्पति अलग, जलचर का अलग-अलग स्वभाव होता है। पहले नदियां निचले स्तर में, धाराओं में साम्य लाती हैं। ऐसी जगहों को वहां के समाज ने बहुत उदार भाव से देखा होगा। प्रकृति की इन घटनाओं को आदर भाव से संगम घोषित किया गया होगा। वे प्रकृति की इन घटनाओं का आदर करते हैं। अभी जो हम नदी जोड़ो की बात कर रहे हैं उसमें हम नदियों को संख्या दे देंगे। यह तीर्थ नहीं बनने वाला है। यह तकनीकी कार्य होगा। इसका नतीजा भी तकनीकी ही होगा। हमें यह सब कुछ नदियों पर ही छोड़ देना चाहिए।

नदियां, समुद्र में प्रवेश करने से पूर्व अपने बहुत सारे टुकड़े करती हैं। अन्यथा उन रास्तों से प्रवेश कर समुद्र प्रलय मचाता। नदियां बहुत संतुलन और धैर्य के साथ समुद्र में विलीन होती हैं। गंगा बांग्लादेश और पश्चिम की नदियां अरब सागर में कई टुकड़ों में बंटकर मिलती हैं। प्रकृति पर श्रद्धा रखना वैज्ञानिक सोच है। यह सोच विकसित करनी होगी कि जितना प्रकृति ने दिया है उसके हिसाब से अपना जीवन चलाएं। प्रकृति ने अलग-अलग क्षेत्रों में कई नदियां बनाई हैं। अन्यथा वह एक नदी बनाती। कश्मीर से चलाकर कन्याकुमारी तक उसे पहुंचाती। ऐसा संभव नहीं है। भूगोल ऐसी अनुमति नहीं देता है। यह काम पर्यावरण से ज़्यादा भूगोल नष्ट करेगा। पर्यावरण को संतुलित किया जा सकता है। परंतु भूगोल को नहीं। पृथ्वी की जो ढाल है, चढ़ाव है जिनके कारण ज़्यादातर नदियां पूरब की तरफ़ बहती हैं उन्हें पश्चिम की तरफ़ अगर मोड़ेंगे तो आनेवाली पीढ़ी हमें माफ़ नहीं करेगी।

पांच-दस साल में हमने जो बाहर से बड़े ट्रालर (मशीनीकृत नौका) मंगवाए हैं, उसका जाल बहुत ही बारीक होता है। वह मछली पकड़ने की कोई सीमा नहीं मानता है। पुराने मछुआरे बरसात के दिनों में मछली नहीं मारते थे। जाल का आकार भी बड़ा रखते थे ताकि छोटी मछलियां निकल जाएं। वे केवल बढ़त चाहते थे। अभी के जाल में सारी छोटी-बड़ी मछलियां फंस जाती हैं। उन्हें जो चाहिए होता है वह छांटकर अपने काम में ले आते हैं और बची मछलियों को कचरे की तरह समुद्र में प्रदूषण फैलाने के लिए फेंक देते हैं। यह बहुत बड़ी बर्बादी का कारण है। पहले के मछुआरे मछली ज़रूर मारते थे। परंतु उनके प्रजनन के दौर में वे पानी में जाल बिल्कुल नहीं डालते थे। मछली के साथ उनका जीवन का संबंध था। मछली को खाते थे, मारते थे, बेचते थे सब कुछ करते थे। मगर मछली के साथ उनका सांस्कृतिक संबंध था, मछुआरे उनके दुख-सुख के साथी होते थे। उदारीकरण के दौर में जहां भी बड़े ट्रालरों का उपयोग हो रहा है सबने बहुत नुकसान उठाया है। मछली के उत्पादन पर इसका बुरा असर पड़ा है।

हम स्थायी या टिकाऊ विकास की बात करते हैं, परंतु अभी तो हमारा विचार ही टिकाऊ नहीं है। हमसे राष्ट्रीयकरण की कोई बात करता है तो हम उसके पीछे दौड़ पड़ते हैं। हमें उदारीकरण का झंडा ऊंचा दिखता है तो हम उसके पीछे दौड़ने लगते हैं। कोई हमें बड़े ट्रालरों से मछली पकड़ने को कहता है तो हम बड़े ट्रालर से मछली पकड़ने लगते हैं। हम यह नहीं जानना चाहते हैं कि जहां बड़े ट्रालर से मछली पकड़ी जा रही है, उनके क्या अध्ययन हैं? हमारे कुछ अच्छे अधिकारी वहां जाकर साल भर अध्ययन करें, मछुआरा समाज के विशेष प्रतिनिधि जाकर वहां देखें कि क्या ठीक है, वह करें। हमें जो कुछ भी कहा जाता है, हम बगैर जांच-परखे उसके पीछे दौड़ते हैं। बाज़ार में बिकने लायक़ जो भी पद्धति हमें दिखती है, हम उसका अनुसरण करने लगते हैं। यह दुखद है। हमें यह तय करना होगा कि हम एक ऐसे बाज़ार के लिए तैयार हैं, जिसमें कोई प्रमाण नहीं बचा है। इस बाज़ार की कोई दृष्टि नहीं है। यह तो केवल पैसा-डॉलर समझता है। हम कभी ऐसे बाज़ार के हिस्से हुआ करते थे जिस पर समाज व किसान का नियंत्रण था। हम आज बहुत पीछे छूट गए हैं। 15 साल के उदारीकरण से आई इन बातों की चिंता आज ज़रूरी है। इसकी चिंता बाज़ार नहीं करेगा, थाली नहीं करेगी। हम बैंगन तो चिंता करें।