साफ़ माथे का समाज/बारानी को भी ये दासी बना देंगे
बारानी को भी ये दासी बना देंगे
खेती मंत्रालय शायद ज़मीन पर उतर सके। खेती-बाड़ी के राज्यमंत्री चंदूलाल चंद्राकर और कुछ बड़े अधिकारियों ने पहली बार इस हफ्ते स्वीकार किया है कि बारानी असिंचित खेती की तरफ़ ध्यान दिए बिना सातवीं योजना के आखरी छोर पर रखा गया अनाज उत्पादन का लक्ष्य छू पाना बहुत मुश्किल होगा। अगले साल यह लक्ष्य 16 करोड़ टन है और साल के अंत तक इसे 18 करोड़ 80 लाख टन तक पहुंचाने की बात है।
लेकिन ज़मीन पर उतरने का तरीक़ा बहुत हवाई-सा दीखता है। अगले महीने दिल्ली में होने वाले राष्ट्रीय विकास परिषद के सम्मेलन में बारानी खेती की एक राष्ट्रीय योजना को मंजूरी दी जाएगी फिर यह शुष्क भूमि कृषि योजना के नाम से जानी जाएगी। यदि 'नाम में क्या रखा है' ऐसा सवाल उठाया जाए तो कहना पड़ेगा कि योजना का नामकरण ठीक नहीं हुआ है। वह शुष्क भूमि के लिए नहीं, असिंचित भूमि के लिए बनाई गई है और ऐसी असिंचित खेती को वहां के किसान बरसों से बारानी खेती कहते आ रहे हैं।
फ़ारसी से कभी हिंदी में आए बारानी शब्द का मतलब है वर्षा के पानी से होने वाली खेती। यह कोई बताने की बात नहीं है कि बारानी का तरीक़ा इस देश में यहां से वहां तक फैला हुआ है।
लेकिन राष्ट्रीय योजना बनाने से पहले केंद्रीय सरकार ने इसका बाक़ायदा सर्वे किया है और पाया है कि देश की कुल खेती का 73 प्रतिशत बारानी है और कुल अनाज-उपज का 42 प्रतिशत बारानी से उपजता है।
सर्वे वालों को इस बात का बहुत दुख है कि 6 पंचवर्षीय योजनाओं के बाद भी ज़्यादातर बारानी को लाभकारी नहीं बनाया जा सका है। उसका कहना है कि बारानी की ज़मीन में वर्षा के बाद नमी क़ायम रखना एक बड़ी समस्या है और इसमें फ़सल के दानों को पनपाना भी बहुत कठिन काम है। इसलिए इन दो कठिन मामलों पर किसानों की मदद करने के लिए हर जिले में एक-एक विज्ञान केंद्र खोला जाएगा। अभी ऐसे केंद्र 89 जिलों में है। इन केंद्रों के ज़रिए इनको उम्दा बीज, खाद, कीड़ेमार दवाएं और आधुनिक कृषि की तकनीक पहुंचाई जाएगी और इस तरह खेती को लाभदायक और वैज्ञानिक बनाया जाएगा।
दिक़्क़त वहीं से शुरू होगी। हर चीज़ को लाभदायक और वैज्ञानिक बनाने के चक्कर में घोषणाओं ने और ज़्यादातर उनके पीछे चलने वाले नेतृत्व ने कई अच्छे उपजाऊ इलाक़ों को बर्बाद किया है। जो प्यार बारानी पर बरसता दिखने वाला है, वह आज तक तो सिंचित क्षेत्र पर बरसता रहा है। अधिक-से-अधिक खेतों को नहरों के पानी से सींचने से हरित क्रांति लाने की कोशिश ने बारानी खेती की बहुत उपेक्षा की है। जिनकी आंखों में बड़े बांध बड़ी योजनाएं बसी हैं उन्हें बारानी खेती पिछड़ी लगती है। ऐसे इलाक़े, ऐसे किसान, पिछड़े और खेती में बोई जाने वाली फ़सलें परंपरागत कहलाती हैं। बारानी के विकास की सभी योजनाएं परंपरागत और आधुनिक शब्दों के ख़तरनाक खेल से ऊपर नहीं उठती दिखती। इसलिए योजना बनाने; और उसे लानेवाले इस खेती के उद्धारक की तरह सामने आ रहे हैं। इसलिए वे बारानी के वर्षों के बाद नमी सोखने से लेकर अच्छे उन्नत बीज लाने की बातें कर रहे हैं। बारानी करने वाले किसान ऐसा कहें कि हर किसान से कोई विशेषज्ञ यह पूछेगा कि बारानी वर्षा की नमी सोखना एक समस्या है तो वह हंसेगा। वह समस्या नहीं वह तो तरीका है। तरीक़े को समस्या मान कर देखने लगे तो कुल खेती समस्या बन जाएगी।
बारानी में वर्षा नमी रोकने के लिए हर इलाके के किसानों ने अपने अपने ढंग से शानदार उपाय निकाले हैं। इसका मुख्य आयाम रहा है-ऊंचे-नीचे खेतों में मेड़ बांधकर बरसात का पानी रोकना। मध्यप्रदेश के एक भाग में वह हवेली पद्धति कहलाती है। वह खेती किसान धरती और शबार तीनों की ज़रूरत का ख़्याल रखती है। बारानी में बदल-बदल कर अपने क्रम से आने वाला फ़सल चक्र धरती के उपजाऊपन का भी ख्याल रखता है। कुछ फ़सलें खेत से कुछ ख़ास तत्व उधार लेकर पनपती हैं तो उनके बाद आने वाली फ़सलें खेती को फिर से तत्व वापस लौटाकर उपजाऊपन का पिछला हिसाब बराबर करने की कोशिश करती हैं-जैसे दलहन की फ़सलें। इधर लेन-देन में जो भूल-चूक रह जाती है, उसे किसान कंपोस्ट और गोबर की खाद से पूरा करता है।
लेकिन तिजोरी भत्ते वाला बाज़ार हो, जैसा कि वह अनाथ हो चला है वो इसमें मदद नहीं देखती। अन्न का बाज़ार खेतों का धंधा चलाने वाले बाज़ार का फ़र्क़ किए बिना खेती की और देश के कुल उत्पादन में उसके योगदान को नहीं समझा जा सकता। बारानी को राष्ट्रीय योजना में बताया गया है कि इस खेती से कुल खाद्यान्न का 42 प्रतिशत उत्पादन हो रहा है। बड़े-बड़े बांधों से सिंच रही खेती से उगने वाली 85 प्रतिशत फ़सल कहां जाती है, यह समझ में नहीं आ सकेगा।
देश के सिंचित इलाक़ों में पैदा हो रही फ़सल का एक बड़ा भाग रोकड़ ख़रीद फ़सलों का है। रोकड़ फ़सल खाने के काम नहीं तिजोरी भरने के काम आती है। और इस तरह भरी हुई तिजोरी उन्नत और बनावटी खाद, कीड़ेमार दवाओं खरपतवारों से कीड़ों को ख़त्म करने में फिर से खाली हो जाती है। इस तरह की आधुनिक खेती में कुछ थोड़े से लोग कमाते है शेष किसान गंवाते ही रहते हैं। यहां-वहां उधर किसान आंदोलन का असंतोष और उसके पीछे खेती के खपत मूल्य के आधार पर फ़सल का दाम तय करवाने की मांग का क्षेत्र ब्योरा ज़्यादातर आधुनिक सिंचित क्षेत्रों में उभरा है। यह संयोग नहीं है, रोकड़ फ़सल को बोने-बेचने की मजबूरी से लेकर मोह तक का अनिवार्य नतीजा है।
ग़नीमत थी कि बारानी का इलाक़ा यानी एक तरह से तीन चौथाई देश खेती को धंधे में बदलने वाली आधुनिक बुराइयों से बचा रहा है।