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साफ़ माथे का समाज/बीजों के सौदागर

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दिल्ली: पेंगुइन, पृष्ठ ८७ से – ९२ तक

 

बीजों के सौदागर


अभी इधर हम हरी क्रांति के नुक़सान-लाभ की कोई ठीक बहस भी नहीं चला पाए हैं कि उधर हरी क्रांति लादने वाले हम जैसे देशों को एक और भयानक धंधे में झोंकने की तैयारी पूरी कर चुके हैं। हरी क्रांति का यह 'दूसरा चरण' हमारे बीजों की नींव पर खड़ा हुआ है और इस चरण में उत्तरी दुनिया के अमीर देशों की कुछ इनी-गिनी कंपनियों ने कोई 500 अरब रुपए लगाए हैं। कई देशों में धंधा करने वाली ये दादा कंपनियां बीज के धंधे में इसलिए नहीं उतरी हैं कि उन्हें दुनिया की खेती सुधारनी है, फ़सल बढ़ानी है और भुखमरी से निपटना है। इनका पहला और आखरी लक्ष्य है दुनिया की खेती को अपने हाथ में समेट कर उसका फ़ायदा अपनी जेब में डालना।

हरी क्रांति ने पिछले 14 सालों में अपना हल-बखर चला कर तीसरी दुनिया के देशों में इस नए बीज-धंधे को बोने के लिए खेत तैयार कर लिया है। 'ज़्यादा फ़सल' देने वाले बीजों के साथ अनिवार्य रूप से आने वाली बनावटी खाद और कीटनाशकों के पिटारों ने इन दादा कंपनियों की आंख खोल दी है और इसलिए अब उनकी आंखों में खटक रहा है वह साधारण छोटा-सा देशी बीज, जो कभी भी उनको चुनौती दे सकता है। इसलिए अब उसको तीसरी दुनिया के हर खेत से हटाने और उसके बदले कंपनी के 'प्रामाणिक उत्तम बीज' ठूँसने की भारी कोशिशें की जा रही हैं।

बीजों के भीमकाय सौदे को समझने के लिए हमें पहले बीज के रहस्य को समझना होगा। धरती के गिने जाने लायक़ कोई तीन लाख पौधों में से अब तक बस कोई 30,000 पौधों का सरसरी तौर पर अध्ययन हो पाया है। इनमें से कोई 3000 पौधों पर थोड़ा ज्यादा काम हुआ है। हमारी थाली-पत्तल में जो कुछ भी परोसा जाता है उसका 90 फ़ीसदी बस केवल 30 पौधों में से आता है। इनमें भी केवल तीन पौधे-गेहूं, चावल और मक्का-हमारे कुल भोजन का 75 फ़ीसदी भाग जुटाते हैं। लेकिन प्रागैतिहासिक लोग स्वाद के मामले में इतने 'गरीब' नहीं थे। बीजों के जानकार बताते हैं कि हमारे पूर्वज कोई 1500 से 2000 तरह के पौधों से अपना भोजन चुनते थे। पर फिर खेती की खोज के साथ-साथ पौधों की विविधता घटती चली गई और कल मिलाकर खेती का इतिहास तरह-तरह के स्वाद की कंजूसी का इतिहास बन गया।

खाना जुटाने वाले पौधों के प्रकार ज़रूर सिकुड़ते गए पर तीसरी दुनिया के देशों में इन सीमित फ़सलों में भी गजब की विविधता कायम रही। यह बहुत ज़रूरी थी। एक ही किस्म का गेहूं, धान, या दाल मौसम के बदलते रूप, कीड़ों के हमले या अगमारी जैसे फ़सलों के रोगों के आगे टिक नहीं सकते थे। इसलिए पिछले नौ हज़ार सालों में तीसरी दुनिया के किसानों ने आज की गिनीचुनी फ़सलों की हज़ारों किस्में खोजी थीं, उनको पाला था और पीढ़ी-दर-पीढ़ी उनको आगे बढ़ाया था। अब यह बात भी सब लोग जानने लगे हैं कि आज गरीब माने जाने वाले देश बीजों की किस्मों के मामले में बहुत ही अमीर रहे हैं और आज के अमीर देशों की प्लेटों पर परोसा जाने वाला भोजन इन्हीं 'बीज-अमीर' देशों से लाया गया था। अमीर दुनिया में आज बोए जा रहे बीजों के इतिहास में झांकें तो हम भारत, बर्मा, मलेशिया, जावा, चीन, अफ़ग़ानिस्तान, पेरू और ग्वाटेमाला व मैक्सिको के खेतों तक चले आएंगे। पर आज 'बीज-अमीर' देश ख़तरे में हैं। अब तक हर खेत में फैली बीजों की विलक्षण विविधता गायब हो चली है-हरी क्रांति के लिए रास्ता बनाने में। आज से कोई 80 साल पहले भारत में केवल धान की ही 30,000 क़िस्में बोई जाती थीं। यानी हर दसवें-बारहवें खेत में धान की क़िस्म बदल जाती थी, बदल जाते थे कम या ज़्यादा पानी सहने, कीड़ों, खरपतवारों से लड़ने के उसके गुण, उसका स्वाद। लेकिन अगले 15 सालों बाद हमारे पास सिर्फ़ 15 क़स्में बच जाएंगी। सैकड़ों सालों से अपनी तरह-तरह की प्याज़ के लिए प्रसिद्ध मिस्र में अब सिर्फ एक ही क़िस्म बाक़ी रह गई है: उन्नत गीजा 61 सऊदी अरब ने तेल ज़रूर पा लिया है पर पिछले 30 सालों में उसने जौ की 70 प्रतिशत क़िस्में खो दी हैं। हरी क्रांति के महावत से दोस्ती करने के चक्कर में इन सभी देशों ने पीढ़ियों से सुरक्षित बीज-क़िलों की मज़बूत दीवारें ढहाई हैं।

'बीज-अमीर' देशों की किस्मों में घुन लग गया है अब। जिन 'बीज-ग़रीब' देशों के कारण घुन लगा है अब उन्हीं देशों की सरकारें और दादा कंपनियां इन देसी बीजों को बचाने की आवाज़ लगाने लगी हैं। इसके पीछे भी उनकी नीयत अच्छी नहीं है। उनके यहां से बनी उन्नत क़िस्म की प्रजातियां भी उन्हीं के कीटनाशक दवाओं के बावजूद नए तरह के कीड़ों के सामने गच्चा खा जाती हैं। ऐसे में उन्नत बीज के दबदबे को बनाए रखने और कृषि विज्ञान का बिजूका गाड़े रखने के लिए उन्हें फिर से किसी पुराने मज़बूत देसी बीज से संकर बीज बनाने की ज़रूरत आ पड़ती है। इसलिए देसी बीजों का भंडार बनाने का काम शुरू हो गया है।

आज दुनिया भर में 11 केंद्रों में भारी सुरक्षा और भारी तामझाम के बीच देसी बीजों के बैंक बने हैं। इनमें से कुछ तो सीधे-सीधे दादा कंपनियों के बैंक हैं और जो कुछ संयुक्त राष्ट्रसंघ के खाद्य कार्यक्रम आदि जैसे संदेह से परे संगठनों के भंडार हैं, उनके भी अनुदान के इतिहास में जाएं तो दो-तीन 'दानवीर' दादा कंपनियां सामने आती हैं। संवर्धन की उनकी नीयत दो उदाहरणों में साफ़ हो जाती है। अमीर देशों में फलों का धंधा करने वाली 'यूनाइटेड फूड कंपनी' ने पिछले दौर में केले की लुप्त हो रही क़िस्मों के संवर्धन का झंडा उठाया था। कंपनी ने केलों की तीन-चौथाई क़िस्मों की रज जमा कर ली। इससे उसे जो कुछ नए प्रयोग करने थे कर लिए और फिर पिछले साल इन्हीं दिनों में एकाएक कह दिया कि अब वह केलों की रज का संवर्धन बंद कर रही है। इसी तरह रबर टायर आदि का धंधा करने वाली फ़ायरस्टोन कंपनी ने एशिया, ब्राज़ील और श्रीलंका से रबर की लुप्त हो रही 700 क़िस्मों की रज जमा की और फिर बहुत दुख के साथ घोषणा की कि कुछ 'अपरिहार्य' कारणों से रबर-रज शोध बंद की जा रही है। ये उदाहरण हांडी के दो चावल हैं, बीजों के सौदागरों की पूरी हांडी ऐसे क़िस्सों से भरी पड़ी

बीजों की रज पर क़ब्ज़े का मतलब है-आपके-हमारे खेतों में बोए जाने से लेकर काट कर बेचे जाने तक के हर फ़ैसले पर किसी और का नियंत्रण। रज हथिया लो, सब कुछ हाथ में आ जाएगा। बीजों की रज में छिपी है विराट सत्ता और अथाह संपत्ति। लेकिन यह ऐसे ही नहीं मिलेगी, इसलिए जैसे मिलेगी. उसका भी इंतजाम किया जा रहा है। ये सब दादा कंपनियां अपने-अपने इलाकों में बीज-कानून पास करवा रही हैं। इससे उनके हाथों में किसी भी विशिष्ट किस्म के बीजों का एकाधिकार आ जाएगा-पौधों की आनुवांशिकता पर उनका हक़ हो जाएगा। वे इस पर अपनी क़ीमत लगा सकती हैं, रॉयल्टी कमा सकती हैं। 'प्लांट ब्रीडर्स राइट' नामक यह बेहद ख़तरनाक क़ानून दुनिया के बीजों को इन कंपनियों की झोली में डाले दे रहा है।

बीजों में इन कंपनियों की रुचि जगने के कुछ और भी मिले-जुले कारण हैं। विलियम टेवेलस एंड कंपनी ने तो इस परे मामले पर एक मोटा पोथा ही तैयार कर लिया है-'द ग्लोबल सीड स्टडी' नाम के इस पोथे की क़ीमत है 25000 अमेरिकी डॉलर। पोथे के एक-एक शब्द से शानदार मुनाफ़े की फ़सल काटी जा सकती है तभी तो यह बिक रही है। बीजों में बढ़ती रुचि का एक अंदाज़ इस धंधे के केंद्रीकरण से भी लग सकता है। दादा कंपनियां बीज के धंधे में लगी दो-चार छोटी कंपनियों को हर साल अपने में विलीन कर रही हैं। इंग्लैंड में सन् 80 के अंत में 'प्लांट ब्रीडर्स राइट' क़ानून पास होने के आसपास एक बड़ी कंपनी ने कोई 100 छोटी कंपनियों को पूरा-पूरा ख़रीद लिया था। 'अपनी बीज कंपनी कैसे बेचें?' जैसी गोष्ठियां भी होने लगी हैं।

ये नए 'बीजपति' कौन हैं? वही जो अब तक दवाओं, पेट्रोल, रासायनिक खादों और कीटनाशक दवाओं का धंधा करते थे। पर्यावरण की बढ़ती चेतना से इनकी बदनामी भी बढ़ी थी, इसलिए अब ये अपना पैसा बीज जैसे 'साफ़' धंधे में लगा रहे हैं। सीबा-गायगी, यूनियन कार्बाइड, सेंडोज, एस्सो, शैल देखते-ही-देखते इस धंधे में उतर आए हैं।

इस होड़ का हम सब पर क्या असर होगा? सदियों से विकेंद्रित स्तर पर यानी अलग-अलग किसानों के घरों में बंडों, खंतियों में सुरक्षित बीजों की क़िस्मों का अपहरण होगा। और फिर इन्हीं में से कुछ क़िस्में छांटकर, उन्नत बनाकर हमें दी जाएंगी। पर दूल्हा अकेला नहीं आता, साथ पूरी बारात लाता है। तीसरी दुनिया के देशों में इससे रासायनिक खाद और कीटनाशक दवाओं का बाज़ार कोई दस गुणा तक बढ़ जाएगा।

बीज धंधे की बाढ़ आ रही है, पर हमने उससे बचने की अभी तक कोई तैयारी नहीं की है। 15 साल पहले देश के एक प्रसिद्ध (और अब बिल्कुल भुलाए जा चुके) धान विशेषज्ञ डॉ. राधेलाल रिछारिया ने देसी धान की शानदार मज़बूत व स्वावलंबी क़िस्मों की तरफ़दारी करते हुए विदेशी संकर क़िस्मों का विरोध किया था। विरोध का यह पहला अंकुर उसी समय मसल दिया गया। श्री रिछारिया को धान शोध के रायपुर और कटक केंद्रों से बाहर कर दिया गया। बहुत बाद में उन्हें म.प्र. सरकार ने अपना धान-सलाहकार ज़रूर बनाया पर पूरे देश में खेतीबाड़ी की शोध चलाने या कहें चलवाने वालों को यह स्वीकार नहीं हुआ।

बीजों के सौदागरों के ख़िलाफ़ अब फिर से एक आवाज़ उठाने की कोशिश चली है। लेकिन यह आवाज़ कृषि पंडितों की ओर से नहीं, कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं की ओर से उठी है। प्रो. उपेंद्र बक्शी एक साल से इस सारे मामले को उजागर करने वाला एक खुला पत्र जगह-जगह भेज रहे हैं। मद्रास में 'द स्किल्स' नामक कलाकारों की एक संस्था ने बीजों के सौदागरों पर सुरुचिपूर्ण, लेकिन हिला देने वाले 15 पोस्टर बनाए हैं। इन्हें तैयार किया है चंद्रलेखा ने। चंद्रलेखा इन्हें लेकर विभिन्न गैर-सरकारी संस्थाओं, सभा-सम्मेलनों में दिखा रही हैं। अब तिलोनिया की एक सामाजिक संस्था के कुछ ग्रामीण कलाकार कठपुतलियों के जरिए राजस्थान में इसे उठाने जा रहे हैं।

जब तक अनाज के बारे में फैले-फैलाए गए कुछ भ्रम नहीं टूटते तब तक देसी बीजों की तरह इस देसी विचार को अनुकूल खेत नहीं मिल पाएगा। पहला भ्रम है आबादी का 'विस्फोट' और उससे निपटने के लिए हरी क्रांति का। दूसरा बड़ा भ्रम है कि अमीर देशों की भारी ऊर्जा जलाने वाली तकनीक अनाज के मामले में दुनिया को बेफ़िक्र कर सकती है। तीसरा भ्रम है कि खेती को एक बड़े धंधे में बदलने वाली दादा कंपनियां अपने नए, उन्नत, एक से गुण (या अवगुण) वाले बीजों से हमें तार लेंगी।

खेती का पवित्र रहस्य और उसकी सृजनशीलता वही है जहां वह हमेशा से रही है-किसान परिवारों में। ये ही किसान धरती के बीजों को सुरक्षित रखे आ रहे हैं, भविष्य में भी ये ही उन्हें सुरक्षित रख पाएंगे, बीजों के सौदागर नहीं।