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साफ़ माथे का समाज/मन्ना: वे गीत फ़रोश भी थे

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दिल्ली: पेंगुइन, पृष्ठ २३९ से – २४८ तक

 

मन्ना: वे गीत फ़रोश भी थे


थोड़ा बहुत लिखना-पढ़ना मन्ना से ही सीखा पर उन पर कभी कुछ लिखा नहीं। मन्ना को गए आज 15 बरस हो रहे हैं, लेकिन उनके बारे में कभी 15 शब्द भी नहीं लिखे।

कारण कई थे। पहला तो वे ख़ुद थे। कुछ के लिए वे ज़रूर 'गीत फ़रोश' रहे होंगे, पर हमारे लिए तो वे बस पिता थे। हर पिता पर उसके बेटे-बेटी कुछ लिखें-यह उन्हें पसंद नहीं था। कुल मिला कर हम सबके मन में भी यह बात ठीक उतर गई थी। मन्ना ने एकाध बार बहुत ही मज़े-मज़े में हमें बताया था कि कोई भी पिता अमर नहीं होता। पिता के मरते ही उसके बेटे-बेटी उनकी याद में कोई स्मारिका छाप बैठें, ख़ुद लेख लिखें, दूसरों से लिखाते फिरें, उनकी स्तुति, योगदान को स्थाई रूप देने के लिए उनके नाम से कोई संस्था, संगठन खड़ा कर दें-यह सब बिल्कुल ज़रूरी नहीं होता। उनकी मृत्यु के बाद हमने इस बात को पूरी तरह निभाया, न ख़ुद लिखा, न लिखवाया। दूसरा कारण उनकी एक कविता थी- 'क़लम अपनी साध, और मन की बात बिल्कुल ठीक कह एकाध।' क़लम साधना, मन की एकाध बात कहना कठिन काम है। फिर कवि नामक इस कविता की आगे की पंक्तियां और भी कड़ी शर्त रखती हैं: यह कि तेरी भर न हो, तो कह, और बहते बने सादे ढंग से तो बह। तो मन की बात ठीक एकाध कभी सूझी नहीं। सूझी भी तो मन्ना की शर्त 'तेरी भर न हो' लागू करने के बाद कभी कुछ ऐसा बचता नहीं था-लिखने लायक़।

हम सब उन्हें मन्ना कहते थे। भाषा को बिगाड़ने का कुछ पाप जिन संबोधनों से लगता हो, वैसे संबोधन पिता के लिए तब प्रचलित नहीं हुए थे। लेकिन तब के नाम-बाबूजी, पिताजी, बाबा आदि से भी हम और वे बच गए थे। वे खूब बड़े भरे-पूरे परिवार में मंझले भाई थे। पिताजी के बड़े भाई उन्हें प्यार से सिर्फ 'मंझले' कहते और फिर दादा-दादी से लेकर सभी छोटे बहन-भाई, यानी हमारे चाचा, बुआ आदि भी उन्हें आदर से 'मंझले भैया' ही कहने लगे थे। मुझसे बड़े दो भाई सन् 1942 में जब पिताजी को पुकारने लायक उम्र में आ रहे थे कि वे जेल चले गए। जेल में लिखी उनकी कविता 'घर की याद' में इस भरे-पूरे परिवार का, उसके स्नेह का आंखें गीली करने लायक वर्णन है। 2-3 बरस बाद जब वे जेल से छूट कर लौटने वाले थे, तब ये दोनों बेटे अपने पिता को किस नाम से पुकारेंगे-इस बारे में नरसिंहपुर (मध्यप्रदेश) में घर में बुआओं, चाचाओं में कुछ बहस चली थी। दोनों को कुछ सलाह, निर्देश भी दिए गए थे। पर जब वे सामने आकर अचानक खड़े हुए होंगे तो दोनों बेटों ने रटाए सिखाए गए संबोधन कूद के पार कर लिए थे और सहज ही 'मंझले भैया' कह कर उनकी तरफ़ दौड़ पड़े थे। बेटों के लिए भी वे 'मंझले भैया' बने रहे।

फिर जन्म हुआ मुझसे बड़ी बहन नंदिता का। जीजी से 'मंझले भैया' कहते बना नहीं। उन्होंने उसे अपनी सुविधा के लिए 'मन्ने भैया' किया। फिर मन्ने भैया और थोड़ा घिस कर चमकते-चमकते 'मन्ने' और अंत में 'मन्ना' हो गया। जब मेरा जन्म 1948 में वर्धा में हुआ तब तक पिताजी जगत मन्ना बन चुके थे-सिर्फ़ हमारे ही नहीं, आस-पड़ोस और बाहर के छोटे से लेकिन आत्मीय जगत के। बचपन की यादें कोई खास नहीं। शायद घटनाएं भी ख़ास नहीं रही होंगी-उस दौर में एक साधारण पिता के जो संबंध साधारण तौर पर अपने बच्चों से रहते हैं, ठीक वैसे ही संबंध हमारे परिवार में रहे होंगे।

मेरे जन्म के बाद हम सब वर्धा से हैदराबाद आ गए थे। वे दिन हमारे लिए यह सब जानने-समझने के थे नहीं कि मन्ना कहां क्या काम करते हैं। पर एक बार वे घर से कुछ ज़्यादा दिनों के लिए बाहर कहीं चले गए थे। तब शायद मैं पहली कक्षा में पढ़ता था। वे तब मद्रास गए थे। लौटे तो उनके साथ एक सुंदर चमकीला चाकू आया था। मन्ना को सब्ज़ी काटने का ख़ूब शौक़ था सब्ज़ी खरीदने का भी। यह शौक़ कभी-कभी अम्मा की परेशानी में बदल जाता। जितनी सब्ज़ी चाहिए, कई बार उससे बहुत ज़्यादा ढेर उठा लाते क्योंकि बेचने वाली का बच्चा छोटा था, वह सब कुछ बेच जल्दी घर लौट सकती थी। बचपन में हमने उन्हें न तो कविता लिखते देखा न पढ़ते-सुनाते। मद्रास के उस स्टील के चाकू से खूब मज़ा लेकर सब्ज़ी काटते थे-इसकी हमें याद बराबर है।

यह दौर था जब वे मद्रास में ए.वी.एम. फ़िल्म कंपनी के लिए कुछ गीत और संवाद लिखने गए थे। सब्ज़ी ख़रीदने में बहुत ही प्रेम से भावताव करने वाले मन्ना ए.वी.एम. के मालिक चेट्टियार साहब से अपने गीत बेचते समय कोई भावताव नहीं कर पाए थे। गीत बेचने की इस उतावली में उनका लक्ष्य पैसा कमाना नहीं बल्कि कुछ पैसा जुटा लेना था। बड़े परिवार में 2-3 बुआओं का विवाह करना था। रजतपट के उस प्रसंग में उन पर कुछ कीचड़ भी उछला होगा। उसी दौर में उन्होंने गीतफ़रोश कविता लिखी थी। हमने तब घर में रजतपट के चमकीले क़िस्से कभी सुने नहीं। क़िस्से सुने ए.वी.एम. के होटल के जहां रोज़ इतनी सब्ज़ी कटती थी कि अच्छे से अच्छे चाकू कुछ ही दिनों में घिस जाते थे, फिर फेंक दिए जाते थे। रजतपट की सारी चमक हमारे घर में इसी चाकू में समा कर आई थी मद्रास से। चेट्टियार साहब से किसी विवाद के बाद वे गीत बेचने की दुकान बढ़ा कर घर लौट आए। गीत फ़रोश में किस्म-किस्म के गीतों में एक गीत 'दुकान से घर जाने' का भी है। शायद जब वे तरह-तरह के गीत बेच रहे थे, तब उनके मन में घर आने का गीत 'गाहक' की मर्जी से बंधा नहीं था।

ए.वी.एम. की वे फ़िल्में, जिनमें मन्ना ने गीत और संवाद लिखे थे, डिब्बे में बंद नहीं हुईं। वे हैदराबाद के सिनेमाघरों में भी आई होंगी, पर मन्ना ने उन्हें अपनी उपलब्धि नहीं माना। हम लोगों को, अम्मा को सजधज कर उन्हें दिखा लाने का कभी प्रस्ताव नहीं रखा। शायद उनके लिए ये गीत 'मरण' के थे, फ़िल्मी दुनिया में रमने के नहीं, मरने के गीत थे।

साहित्य में रुचि रखने वालों के लिए मन्ना का वह दौर प्रसिद्ध साहित्यिक पत्रिका कल्पना का दौर था। पर हम बच्चों की कल्पना कुछ और ही थी। घर में कभी शराब नहीं आई पर हैदराबाद में हम शराब के ही घर में, मोहल्ले में रहते थे। मोहल्ले का नाम था टकेरवाड़ी। चारों तरफ़ अवैध शराब बनती थी। उसे चुआने की बड़ी-बड़ी नादें यहां-वहां रखी रहती थीं। यों हमारे मकान मालिक जिन्हें हम बच्चे शीतल भैया मानते थे, खुद इस धंधे से एकदम अलग थे। पर चारों तरफ इसी धंधे में लगे लोग छापा पड़ने के डर से कभी-कभी कुछ समान, नाद आदि हमारे घर के पिछवाड़े में पटक जाते। 4-5 बरस के हम भाई-बहनों की क्या ऊंचाई रही होगी तब। हम इन नादों में छिपकर तब की ताज़ा कहानी अली बाबा और चालीस चोर का नाटक खेल डालते थे।

कभी-कभी मन्ना हमें बदरी चाचा (श्री बदरीविशाल पित्ती) के घर ले जाते। घर क्या विशाल महल था। शतरंज के दो बित्ते के बोर्ड पर सफेद-काले रंग का जो सुंदर मेल हमने कभी अपने घर में देखा, वह यहां बदरी चाचा के पूरे घर में, आंगन में, कमरों के फ़र्श में सभी जगह पूरी भव्यता से फैला मिलता। बदरी चाचा के घर ऐसे मौक़ों पर बड़े-बड़े लोग जुटते थे, पर हम उन सबको उस रूप में पहचानते नहीं थे। बदरी चाचा सचमुच विशाल थे हम सबके लिए। कभी-कभी वे हम सबको हैदराबाद से थोड़ी दूर बसे शिवरामपल्ली गांव ले जाते। वहां तब विनोबा का भूदान आंदोलन शुरू हुआ था। बदरी चाचा अच्छे फ़ोटोग्राफ़र भी थे। उस दौर में उनके द्वारा खींचे गए चित्र आज भी हमारे मन पर ज्यों के त्यों अंकित हैं-काग़ज़ वाले प्रिंट ज़रूर कुछ पीले-भूरे और धुंधले पड़ गए हैं।

मन्ना कविता लिखते थे, पढ़ने भी लगे थे, शायद रेडियो पर भी। लेकिन हमें घर में कभी इसकी जानकारी मिली हो-ऐसा याद नहीं आता। तब तक घर में रेडियो नहीं आया था। हैदराबाद रेडियो स्टेशन से हर इतवार सुबह बच्चों का एक कार्यक्रम प्रसारित होता था। हम एकाध बार वहां मन्ना के साथ गए थे। ऐसे ही किसी इतवार को नंदी जीजी ने लकड़हारे की कहानी माईक के सामने सुना दी थी। जिस दिन उसे प्रसारित होना था, उससे एक दिन पहले मन्ना एक रेडियो ख़रीद लाए थे। रेडियो सेट मन्ना की कविता के लिए नहीं, जीजी की कहानी सुनाने के लिए घर में आया था-इसे आज रेडियो स्टेशन में ही काम करने वाली नंदिता मिश्र भूली नहीं हैं।

हैदराबाद से मन्ना आकाशवाणी के बंबई केंद्र में आ गए थे। तब मैं तीसरी कक्षा में भर्ती किया गया था। उस स्कूल में हमें दूसरों से, अध्यापकों के व्यवहार से पता चला था कि हमारे पिताजी को घर से बाहर के लोग भी जानते हैं। क्यों जानते हैं? क्योंकि वे कविताएं लिखते हैं। हमारे मन्ना कवि हैं!

कवि कालदर्शी होता है? हमें नहीं मालूम था। कल क्या होगा बच्चों का, उनकी पढ़ाई-लिखाई कैसी करनी है-बहुत ही बड़े माने गए ऐसे प्रश्न हमारे कवि पिता ने कभी सोचे नहीं होंगे। जब एक शाम मैं और नंदी स्कूल से घर लौटे थे तो मन्ना ने हमें बताया कि अगले दिन हम सब बंबई से बेमेतरा जाएंगे। बड़े भैया के पास। मन्ना के बड़े भैया म.प्र. के दुर्ग जिले की एक छोटी सी तहसील बेमेतरा में तब तहसीलदार थे। हम सब बेमेतरा जा पहुंचे। दो-चार दिन बाद पता चला कि मन्ना और अम्मा वापस बंबई लौट रहे हैं और अब हम यहीं बेमेतरा में बड़े भैया के पास रह कर पढ़ेंगे। हैदराबाद में एक बार सीढ़ियों से गिरने पर काफ़ी चोट लगने से मैं खूब रोया था। तब के बाद अब की याद है-बेमेतरा में खूब रोया, उनके साथ वापस बंबई लौटने को। आंखें तो उनकी भी गीली हुई थीं पर हम वहीं रह गए, मन्ना-अम्मा लौट गए। ताऊजी यानी बड़े भैया का प्यार मन्ना से बड़ा ही निकला। यह तो हमें बहुत बाद में पता चला कि बड़े पिताजी के छह में से पांच बेटे बड़े होकर कॉलेज हॉस्टल आदि में चले गए थे और उन्हें अपना घर सूना लगने लगा था, इसलिए उस सूने घर में रौनक लाने के लिए मंझले भाई मन्ना ने हम दोनों को उन्हें सौंप दिया था।

बंबई से मन्ना दिल्ली आकाशवाणी आ गए। तब हम भी एक गर्मी में बेमेतरा से शायद चौथी/पांचवीं की पढ़ाई पूरी कर दिल्ली बुला लिए गए। हैदराबाद, बंबई की यादें धुंधली-सी ही थीं। बेमेतरा छोटा कस्बा था और बड़े भैया सरकार के बड़े अधिकारी थे, इसलिए बाज़ार आना-जाना, खरीददारी, डबलरोटी-ऐसे विचित्र अनुभवों से हम गुजरे नहीं थे। दिल्ली आने पर मन्ना के साथ घूमने-खुद चीजें खरीदने के अनुभव भी जुड़े। एक साधारण ठीक माने गए स्कूल रामजस में उन्होंने मुझे भर्ती किया। सातर्वी-आठवीं-नौंवी में विज्ञान में नंबर थे। इसी बीच उन्हें सरकारी मकान किसी और मोहल्ले में मिल गया। शुभचिंतकों के समझाने पर भी मन्ना ने मेरा स्कूल फिर बदल दिया-नए मोहल्ले सरोजनी नगर में टेंट में चलने वाले एक छोटे से सरकारी स्कूल में। यह घर के ठीक पीछे था। पैदल दूरी। 'बच्चा नाहक दिल्ली की ठंड/गर्मी में 8-10 मील दूर के स्कूल में बसों में भागता फिरे' यह उन्हें पसंद नहीं था। यहां विज्ञान भी नहीं कला की कक्षा में बैठा। मुझे खुद भी तब पता नहीं था कि विज्ञान मिलने न मिलने से जीवन में क्या खोते हैं-क्या पाते हैं। यहीं नौंवी में हिंदी पढ़ाते समय जब किसी एक सहपाठी ने हमारे हिंदी के शिक्षक को बताया कि मैं भवानीप्रसाद मिश्र का बेटा हूं तो उन्होंने उसे 'झूठ बोलते हो' कह दिया था। उस टेंट वाले स्कूल में ऐसे कवि का बेटा? बाद में उन्होंने मुझसे भी लगभग उसी तेज़ आवाज़ में पिता का नाम पूछा था। फिर हल्की आवाज़ में घर का पता पूछा था। फिर किसी शाम वे घर भी आए अपनी कविताएं भी मन्ना को सुनाईं। मन्ना ने भी कुछ सुनाया था। मन्ना की प्रसिद्धि हमें इन्हीं मापदंडों, प्रसंगों से जानने को मिली थी।

श्री मोहनलाल बाजपेयी यानी लालजी कक्कू मन्ना के पुराने मित्र थे। मन्ना ने उनके नाम एक पूरी पत्रनुमा कविता लिखी थी। बड़ा भव्य व्यक्तित्व। शांति निकेतन में हिंदी पढ़ाते थे। शायद सन् 1957 में वे रोम विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग की स्थापना करने बुलाए गए थे। वहां से जब वे दिल्ली आए एक बार तो एक बहुत ही सुंदर छोटा-सा टेपरिकॉर्डर लाए थे मन्ना के लिए। नाम था जैलेसो। जैलेसो यानी ईर्ष्या । उसमें छोटे स्पूल लगते थे। उन दिनों कैसेट वाले टेप चले नहीं थे। शहर का न सही शायद मोहल्ले का तो यह पहला टेपरिकॉर्डर रहा ही होगा! इसका हमारे मन पर बहुत गहरा असर पड़ा था। विज्ञान के आगे मैंने तो माथा ही टेक दिया था। क्या गज़ब की मशीन थी! हर किसी की आवाज़ कैद कर ले, फिर उसे ज्यों का त्यों वापस सुना दें। शायद लालजी कक्कू ने यह यंत्र इसलिए दिया था कि मन्ना इस पर कभी-कभी अपना काव्यपाठ रिकॉर्ड करेंगे। पर वैसा कभी हो नहीं पाया। एक तो ऐसे यंत्र चलाने में उनकी दिलचस्पी नहीं थी, और फिर अपनी कविता खुद बटन दबा कर रिकॉर्ड करना, उसे खुद सुनाना, दूसरों को सुनना-उन्हें पसंद नहीं था। बाद में हमारे एक बड़े भाई बंबई से वास्तुशास्त्र पढ़कर जब दिल्ली आए तो जैलेसो पर मुकेश, किशोर कुमार और लता के गाने ज़रूर जग गए थे। आज भी हमारे घर में मन्ना की एक भी कविता का पाठ रिकॉर्ड नहीं है। कभी-कभी नितांत अपरिचित परिवार में परिचय होने के बाद सन्नाटा, गीत फ़रोश, घर की याद, सतपुड़ा के घने जंगल आदि कविताओं के पाठों की रिकॉर्डिंग हमें सुनने मिल जाती हैं। ये कविताएं उन्हीं शहरों में मन्ना ने पढ़ी होंगी। वहीं वे रिकॉर्ड कर ली गयीं। हमें ऐसे मौक़ों पर लालजी कक्कू के जैलेसो की याद ज़रूर आ जाती है, पर ईर्ष्या नहीं होती।

कविकर्म जैसे शब्दों से हम घर में कभी टकराए नहीं। मन्ना कब कहां बैठकर कविता लिख लेंगे-यह तय नहीं था। अक्सर अपने बिस्तरे पर, किसी भी कुर्सी पर एक तख्ती के सहारे उन्होंने साधारण से साधारण चिट्ठों पर, पीठ कोरे (एक तरफ़ छपे) काग़ज़ पर कविताएं लिखी थीं। उनके मित्र और कुछ रिश्तेदार उन्हें हर वर्ष नए साल पर सुंदर, महंगी डायरी भी भेंट करते थे। पर प्रायः उनके दो-चार पन्ने भर कर वे उन्हें कहीं रख बैठते थे। बाद में उनमें कविताओं के बदले दूध का, सब्ज़ी का हिसाब भी दर्ज हो जाता, कविता छूट जाती। भेंट मिले कविता संग्रह उन्हें खाली नई डायरी से शायद ज़्यादा खींचते थे। हमें थोड़ा अटपटा भी लगता था पर उनकी कई कविताएं दूसरों के कविता संग्रहों के पन्नों की खाली जगह पर मिलती थी। पीठ कोरे पन्नों से मन्ना का मोह इतना था कि कभी बाज़ार से काग़ज़ ख़रीद कर घर में आया हो-इसकी हमें याद नहीं। फिर यह हम सबने सीख लिया था। आज भी हमारे घर में कोरा कागज़ नहीं आता। परिचित-अपरिचित, पाठक, श्रोता, रिश्तेदार-उनकी दुनिया बड़ी थी। इस दुनिया से वे छोटे से पोस्टकार्ड से जुड़े रहते। पत्र आते ही उसका उत्तर दे देते। कार्ड पूरा होते ही उसे डाक के डिब्बे में डल जाना चाहिए। हम आसपास नहीं होते तो वे खुद उसे डालने चल देते। फ़ोन घर में बहुत ही बाद में आया। शायद सन् 1968 में। इन्हीं पोस्टकार्डों पर वे संपादकों को कविताएं तक भेज देते।

बचपन से लेकर बड़े होने तक हमने मन्ना को किसी से भी अंग्रेज़ी में बात करते नहीं देखा, सुना। जबलपुर में शायद किसी अंग्रेज़ प्रिंसिपल वाले तब के प्रसिद्ध कॉलेज राबर्टसन से उन्होंने बी.ए. किया था। फिर आगे पढ़े नहीं। लेकिन अंग्रेज़ी खूब अच्छी थी। घर में अंग्रेजी साहित्य, अंग्रेज़ी कविताओं की पुस्तकें भी उनके छोटे से संग्रह में मिल जाती थीं। पर अंग्रेज़ी का उपयोग हमें याद ही नहीं आता। बस एक बार संपूर्ण गांधी वाङ्मय के मुख्य संपादक किसी प्रसंग में घर आए। वे दक्षिण के थे और हिंदी बिल्कुल नहीं आती थी उन्हें। मन्ना उनसे काफ़ी देर तक अंग्रेज़ी में बात कर रहे थे-हमारे लिए यह बिल्कुल नया अनुभव था। दस्तख़त, ख़त-किताबत सब-कुछ बिना किसी नारेबाज़ी के, आंदोलन के-उनका हिंदी में ही था और हम सब पर इसका खूब असर पड़ा। घर में, परिवार में प्रायः बुंदेलखंडी और बाहर हिंदी-हमें भी इसके अलावा कभी कुछ सूझा ही नहीं। हमने कभी कहीं भी हचक कर, उचक कर अंग्रेज़ी नहीं बोली, अंग्रेज़ी नहीं लिखी।

कोई भी पतन, गड्ढा इतना ग़हरा नहीं होता, जिसमें गिरे हुए को स्नेह की उंगली से उठाया न जा सके-एक कविता में कुछ ऐसा ही मन्ना ने लिखा था। उन्हें क्रोध करते, कड़वी बात कहते हमने सुना नहीं। हिंदी साहित्य में मन्ना की कविता छोटी है कि बड़ी है, टिकेगी या पिटेगी, इसमें उन्हें बहुत फंसते हमने देखा नहीं। हां अंतिम वर्षों में कुछ वक्तव्य वग़ैरह लोग मांगने लगे थे। तब मन्ना इन वक्तव्यों में कहीं-कहीं कुछ कटु भी हुए थे। एक बार मैं चाय देने उनके कमरे में गया था तो सुना वे किसी से कह रहे थे, 'मूर्ति तो समाज में साहित्यकार की ही खड़ी होती है, आलोचक की नहीं!'

हम उनके स्नेह की उंगली पकड़ कर पले-बढ़े थे। इसलिए ऐसे प्रसंग में हमें उन्हीं की सीख से ख़ासी कड़वाहट दिखी थी। पर उन्हें एक दौर में गांधी का कवि तक तो ठीक, बनिए का कवि भी कहा गया तो ऐसे अप्रिय प्रसंग उनके संग जुड़ ही गए एकाध। फिर उनकी एक कविता में उन्होंने लिखा है कि 'दूध किसी का धोबी नहीं है। किसी की भी जिंदगी दूध की धोई नहीं है। आदमक़द कोई नहीं है।' कवि के नाते उनका क़द क्या था-यह तो उनके पाठक, आलोचक ही जानें। हम बच्चों के लिए तो वे एक ठीक आदमक़द पिता थे। उनकी स्नेह भरी उंगली हमें आज भी गिरने से बचाती है।