साफ़ माथे का समाज/पर्यावरण का पाठ
पर्यावरण का पाठ
योगिता शुक्ल से बातचीत
आपकी दोनों पुस्तकों का विषय मूलतः जल-प्रबंधन पर आधारित है। एक ही विषय पर दो पुस्तकें लिखने में दुहराव का ख़तरा तो रहता ही है, तो क्या इन दोनों पुस्तकों को एक दूसरे के पूरक या विस्तार की तरह देखना चाहिए या फिर दो भिन्न किताबों की तरह। अपनी दोनों पुस्तकों को लेकर आप उनके किस तरह के पाठ प्रस्तावित करना चाहेंगे?
1. इन दोनों पुस्तकों की निर्माण-प्रक्रिया के बारे में और
2. इन पुस्तकों के प्रकाश में आने के पीछे प्रस्थान-बिंदु क्या रहा?
दोनों का विषय एक है इसमें कोई शक नहीं। अगर हम पीछे लौट कर याद करें तो सबसे पहले हमने पानी के काम को समझना राजस्थान से शुरू किया। इस काम की गहराई बहुत थी और हम उसके लायक़ नहीं थे। बहुत तैयारी करनी पड़ी इसको समझने में। राजस्थान से यह यात्रा शुरू हुई फिर बाद के राज्यों को भी धीरे-धीरे समझा और ऐसा लगा कि पहले हम पूरे देश वाला हिस्सा संक्षेप में रख सकते हैं। फिर यह मोह आया कि जहां देश का सबसे कम पानी गिरता है-मरुभूमि-उसका वर्णन हमको अलग ढंग से करना चाहिए। तालाब वाली किताब में आप देखेंगे कि राजस्थान का वर्णन होते हुए भी कम है। फिर हमको यह भी समझ में आया कि जहां समाज में सबसे कम पानी उपलब्ध है-प्रकृति की तरफ़ से-उस समाज ने अपने को सबसे रंग-बिरंगा संगठित किया है। और उसका आकार इतना बड़ा है कि वह संगठन निराकार हो गया। कोई अध्यक्ष, मंत्री, वार्षिक बजट, जीप, गाड़ी, बंगला कहीं नहीं दिखता।
पूरे देश का जो मन है, पानी को रोकने के मामले में वह एक है। अगर हम यह कहें कि एक धागे की माला है; फूल अलग-अलग हो सकते हैं। मरुभूमि का फूल कुछ और रंग का है, उसमें चटक ख़ुशबू है, तो मध्य भारत का फूल अलग है। फूल अलग हैं लेकिन धागा एक ही है। इधर से उधर तक सिद्धांत एक है कि प्रकृति से जो पानी मिले उसको सम्मान के साथ रोक लेना चाहिए। मिट्टी बदलती है, वर्षा का आंकड़ा बदलता है। जहां बहुत तेज़ पानी गिरता है वहां छोटे आगोर से जल्दी तालाब भरा जा सकता है। जैसलमेर वगैरह में बहुत बड़े आकार का आगोर चाहिए क्योंकि पानी कम गिरता है। तो फिर उतने बड़े आगोर की रखवाली के लिए नियम दूसरे बनाने पड़े होंगे समाज को।
आपने निर्माण प्रक्रिया के बारे में भी पूछा है। सबसे पहले हमने बीकानेर में एक बगीची देखी। उसमें एक पक्का आंगन था। फिर करीब घुटने के बराबर एक दीवार थी। सीधे उसको लांघकर भी जा सकते थे लेकिन कुछ एक अड़चन थी आप ऐसे बिना रोक-टोक न जा सकें। जो कुछ भी हमारी छोटी-मोटी पढ़ाई-लिखाई हुई है उसमें हमने ये कभी अनुभव नहीं किया था कि यह क्या चीज़ हो सकती है। हम लोगों ने उनसे पूछा : उन्होंने कहा यह पानी का टांका है। टांका हमने कभी नहीं देखा था, थोड़ा अटपटा भी लगा कि हम बिल्कुल गधे हैं। उन्होंने कहा-'नहीं भीतर चलिए जूते उतार कर'। बगीची के आगोर में वो जूते उतार के ले गए। बीच में चबूतरा था। उस पर एक ढक्कन था। उसको खोलकर उन्होंने दिखाया। भीतर पानी था। मैंने पूछा-'कुआं है?' उन्होंने कहा-'कुआं नहीं, यह टांका है।' टांके और कुएं का अंतर मैंने पहली बार समझा। इसमें वर्षा का पानी इस आगोर से फ़र्श में रोक कर भरा गया है। मुझे बड़ा अचरज हुआ। उन्होंने कहा-'यहां पानी इतना कम गिरता है कि कुएं तो 300-400 फुट गहरे हैं और उनमें अधिकांश में खारा पानी है। यह टांका वर्षा का मीठा पानी रोकने का तरीक़ा है।' फिर ऐसे कितने हैं; उन्होंने कहा-'घर-घर में हैं।' फिर तो एक नियम-सा बन गया कि अपने घर का टांका दिखाओ। एक उत्सुकता में समझते चले गए। वो जिज्ञासा शोध वाली नहीं थी। वह श्रद्धा बनती गई।
इससे पहले मध्यप्रदेश में तालाब वगैरह के बारे में थोड़ा बहुत पता था। उस समय 10-12 साल पर्यावरण का जो छोटा-मोटा काम किया था उससे जो समझ बनी, उसमें पानी का विषय उतना नहीं पकड़ पाया था। जंगल का काम कुछ पकड़ा था-चिपको आंदोलन के कारण। इतना ज़रूर समझ में आता था कि इन सब विषयों में अगर सबसे बड़े विशेषज्ञ हैं तो वे समाज के लोग हैं। दूसरे विशषज्ञों की ज़रुरत नहीं पड़ती समाज को। वो अपना काम खुद करना जानता है अपने इलाके में। पानी में भी ऐसा ही है। यह बाद में समझ आया। राजस्थान का जो यह पहला दर्शन हुआ उससे फिर हमने और कुंड और टांके देखे और फिर यह सब समझना शुरू किया। लेकिन मैं आज भी कहूंगा कि सन् 80 के आसपास काम शुरू हुआ। आज 20 साल हो गए। आज भी राजस्थान के पानी का सब कुछ पता हो गया, कोई ऐसा भाव नहीं है।
राजस्थान के बाद इस तरह की उत्सुकता फिर और प्रदेशों के लिए भी जगने लगी होगी। हम लोगों ने यह भी देखा कि कोंकण में पानी इतना अधिक गिरता है लेकिन फिर भी पानी की खूब समस्या है। तो यह समझ में आया कि पानी गिरा नहीं कि फिर जाकर समुद्र में मिल जाता है। पश्चिमी घाट में, कोंकण, गोवा आदि क्षेत्रों में समाज उसके पूरे ढाल में जो चार-पांच तालाब बनाते थे, वो इस दौर में नष्ट हो गए। इसका मतलब ज्ञान तो चेरापूंजी में भी है और यहां भी है पहले भी रहा है। एक बड़ा फ़र्क यह हुआ कि लोग कहते है कि अब क्यों अकाल पड़ रहा है पहले क्यों नहीं पड़ा। तीन इंच जहां पानी गिरता है या 9-10 इंच गिरता है और जहां 100 से ऊपर गिरता है उन दोनों जगहों के समाजों की जीवन-शैली अपने मिट्टी पानी के अनुकूल थी। लेकिन अब पिछले 100 साल में सबको विकास की एक ऐसी चीज़ मिल गई है, जिसके कारण सबको एक जैसा रहना है, एक जैसा खाना है, एक जैसे कपड़े पहनने हैं, एक जैसी फ़सल लगानी है। गेहूं जो हमारे यहां नदी-घाटी का पौधा माना गया-वहां की फ़सल मानी गई-वह हम जैसलमेर में भी देखना चाहेंगे, बीकानेर में भी देखना चाहेंगे; तभी हम उस इलाके को प्रगतिशील या विकसित कहेंगे। 3 इंच और 9 इंच पानी में नलकूप (चापाकल) के बिना यह सब संभव नहीं होगा। पूरे अहमदाबाद और उसके बाद वाले हिस्से में सौराष्ट्र वगैरह में मूंगफली की खेती आई। लोगों ने एक सी जीवन-शैली अपनाई पर प्रकृति ने एक-सी स्थिति नहीं बनाई। (जलवायु भी एक सी नहीं, वनस्पति भी नहीं हैं) एक-सा पानी नहीं मिलता तो एक-सी फसल कैसे लगाते चले आ रहे हैं। तो ये प्रकृति के शायद स्मरण पत्र हैं बीच-बीच में ऐसे अकाल के ज़रिए; कि भई तुम संभल के चलो नहीं तो इससे भी बड़ा ख़तरा आ सकता है।
जब हम लोगों ने यह काम समझना शुरू किया तब कभी भी इसको किताब के रूप में लिखने की हिम्मत हम नहीं जुटा पाए। हमेशा लगता था कि यह बहुत बड़ा समुद्र है; हमको दो-चार बूंदे मिली हैं हम पूरा नहीं कर पाएंगे। हमारी संस्था गांधी शांति प्रतिष्ठान के सचिव हम लोगों को सब चीजें समझाते रहे पिता की तरह। उन्होंने हम लोगों को इस काम में डाला। वे बार-बार कहते थे-तुमने इतनी सब चीजें इकट्ठी की हैं, तुम किताब क्यों नहीं लिखते। मेरी कोशिश यह रहती थी जितना हो सके इसको और अधिक समझें। ऐसा न लगे कि 'अध-जल गगरी छलकत जाए'। हमारा पानी का काम छलकना नहीं चाहिए। उसमें से जल-दर्शन होना चाहिए। हमने यह माना कि यह समाज का कुछ हज़ार साल का काम है। हम तो इसको सिर्फ 100 पन्नों में समेटने का आरंभिक प्रयास मात्र कर रहे हैं।
हिंदी में पर्यावरण-संबंधी साहित्य का परिदृश्य उल्लेखनीय नहीं कहा जा सकता, ऐसे में आपकी दोनों पुस्तकें न केवल मील का पत्थर साबित हई है बल्कि ताज़ा हवा के झोंके की तरह हैं। बीसवीं सदी के भारतीय परिसर में पश्चिमी तर्ज़ व अंग्रेज़ी का बोलबाला रहा है। ऐसे में इन दोनों पुस्तकों को हिंदी में लिखना एक बड़ा जोखिम व चुनौती थी। लेकिन यह देखकर प्रीतिकर आश्चर्य होता है कि दोनों पुस्तकें व्यापक पाठक समाज के विचार व संवेदना का हिस्सा बन गई हैं और फिर एक दूसरे छोर पर ऐसा भी लगता है कि पुस्तकों को सिर्फ़ हिंदी में ही लिखा जा सकता था। क्योंकि आपकी पुस्तकें इस बात का तर्कसम्मत साक्ष्य देती हैं कि भारत की लोक विरासत और जातीय चेतना अपने भाषा-संसार व समझ में समृद्ध व स्वावलंबी है। इसी बिंदु पर आपका यह कथन बिल्कुल सटीक लगता है कि 'हमने जल प्रबंधन के क्षेत्र में नई-नई शब्दावली ईजाद करके गांव के आम आदमी को ठगा है।' तो फिर जिज्ञासा उपर्युक्त तीनों बिंदुओं को लेकर है:
1.हिंदी में पर्यावरण संबंधी मौलिक व गंभीर साहित्य के गहरे अभाव की स्थिति के पीछे किस तरह के कारण आपको सक्रिय लगते हैं और इनका सामना करने के लिए आप कौन से उपाय व सुझाव प्रस्तावित करना चाहेंगे?
2.हिंदी में लिखने की मूल प्रेरणा व प्रवृत्ति किन कारणों से हुई और पुस्तकें लिखते हुए किस तरह के संशयों और कठिनाइयों का सामना आपने किया?
3.पश्चिमी शिक्षा-दीक्षा के असर में जिस तरह की अनुवादित पदावलियां हम बना रहे हैं उसके बरक्स हमारा अपना स्वदेशी जीवन दर्शन व भाषा-संसार जो सच्चा विकल्प प्रकट करता है उसको लेकर आपकी जागरूकता व सोच ने किस तरह से ठोस आकार ग्रहण किया?
4.सारतः यह कि भाषा और पर्यावरण को लेकर आप किस तरह की सैद्धांतिकी रचना चाहेंगे।
पर्यावरण साहित्य हिंदी में नहीं है यह तो लगभग ठीक ही है। जो कुछ उपलब्ध है वह अंग्रेज़ी का अनुवाद है। और अंग्रेज़ी का अनुवाद होना चाहिए इसमें कोई दिक्कत नहीं है। लेकिन ज़्यादातर उन चीज़ों का अनुवाद है जो हमसे बहुत परे हैं। हमारे संदर्भ नहीं हैं। हमारे विषय नहीं हैं। हमारी बहस नहीं है। उदाहरण के लिए सोशल फ़ॉरेस्ट्री आई हमारे यहां। उस पर पहले अंग्रेज़ी में साहित्य बन गया। फिर उसका हिंदी में अनुवाद होकर सामाजिक वानिकी में बदल गया। ऐसे हिंदी के साहित्य को मैं अंग्रेज़ी का ही मानता हूं-लिपि बदली उसकी; विचार नहीं बदला।
हमारी संस्कृति में पर्यावरण को लेकर मौलिक साहित्य रहा है वह एक तरह से बिखरा हुआ भी है और मुझे लगता है कि उसे समेटने के लिए गंभीर प्रयास की भी बहुत ज़रूरत है।
शायद अपने समाज को लिपि साहित्य रखने की आदत नहीं थी। परंपरा से एक दूसरे को देते चले आ रहे थे। लेकिन 'सामाजिक वानिकी' पर राजस्थान की कोई संस्था कोई किताब निकाले और उसमें ओरण अनुपस्थित है तो वह सामाजिक वानिकी नहीं है। फिर वह अंग्रेज़ी की ही किताब है। देवनागरी में दिखती है, हिंदी में दिखती है लेकिन उसके भीतर की जो आत्मा है वह शुद्ध अंग्रेज़ी है। वैसी हिंदी का कोई मतलब नहीं है, वैसी गुजराती नहीं है। पर आप पाएंगे कि ये अलग-अलग चेहरे हैं लेकिन उनकी जुबान एक हो गई और इसलिए अगर मूल साहित्य भी दिखेगा तो मूल पर भी अंग्रेज़ी विचार का असर है कि वह मौलिक नहीं बचता।
लेकिन जब हम पर्यावरण को देखते हैं तो हम अपने आस-पास की चीज़ को देखते हैं अपने आसपास के जीवन से कुछ सीखते हैं। और आस-पास के जीवन से सीखने का मतलब वहां का जो समाज है, उसको भी सीखना है। पर्यावरण कोई यही नहीं कि हमने फ़लां-फलां पेड़-पौधे देखे हैं। पर्यावरण अपने आप में एक समूचा शब्द है। उसको हम अलग से नहीं देख सकते।
है, समूचा है। अलग से नहीं देख सकते। लेकिन यह देखा तो अलग से ही गया है। समूचा होने के बाद भी उसे टुकड़े-टुकड़े करके देखा है। और हर तीन साल में एक टुकड़े पर ज़्यादा ध्यान गया है दूसरे पर से हट गया है। अगर अपने समाज को लोगों ने खंगाल कर भी देखा है, तो उससे 'शोध' वाली जिज्ञासा ज़्यादा है। इन टुकड़ों के खंडों के कुल जोड़ को, अखंड को फिर से समझने के लिए नए सिरे से बातचीत करनी पड़ेगी। यह बातचीत पिछले 100-50 साल से बंद पड़ी है। समाज को, अपने ही लोगों को हमने प्रशिक्षण का विषय मान लिया है। हर चीज़ के लिए हमारे पास में प्रशिक्षण जैसा शब्द है। उसको इस बात के लिए प्रशिक्षित किया जाए। लोगों को शिक्षित किया जाए, साक्षर बना दिया जाए। उसको संगठित किया जाए। जितनी अच्छी सामाजिक संस्थाएं हैं उसमें धर्म संस्थाएं भी हैं, उसमें ईसाई संस्थाएं भी शामिल हैं, संघ की संस्थाएं शामिल हैं-सबके मन में यही उतावलापन है कि हमारा समाज बहुत गिर-पड़ गया है। उसका कोई संगठन नहीं है। उसको संगठित करना है। हम सब भूल गए हैं कि उसका एक विशाल संगठन था। हमने उसको भुला दिया। थोड़ी धूल ज़रूर पड़ गई है उस पर। आज तो उस धूल को साफ़ करने के लिए एक विनम्र सेवक चाहिए। विशेषज्ञ नहीं चाहिए। झाड़-पोंछे वाले लोग चाहिए जो धूल साफ़ करके चले जाएं; उसको कोई उपदेश न दें। फिर उनसे अगर आपकी मित्रता ऐसी बन जाती है तो थोड़ी डांट-डपट भी कर सकते हैं। समाज की गलती भी बता सकते हैं तब । लेकिन बिना संबंध बनाए उसमें प्रवेश नहीं किया जाए। हो सकता है कि पिछले 50 साल में हमने कोई नई चीज़ ली हो। तो फिर आदान-प्रदान हो कि भाई आपके पास यह चीज़ नहीं है। जैसे आपको अक्षर लिखना नहीं आता, यह इस समय की ज़रूरत है। सीखना चाहो तो सीख लो। हम साक्षरता केंद्र खोल रहे हैं। लेकिन उस भाव से मत खोलो कि तुम मूर्ख हो, गधे हो। तुमको तो कुछ आता ही नहीं है।
हिंदी में लिखने का सबसे बड़ा कारण है कि अंग्रेज़ी नहीं आती। जो साधारण पढ़ाई मैंने की उसमें अंग्रेज़ी पर कभी ज़ोर नहीं दिया। भाषा के नाते प्रेम किया। अच्छी कौन-सी अंग्रेज़ी है, कौन-सी कमज़ोर है ये भी समझ में आता है लेकिन मैंने कभी अपनी अंग्रेज़ी ठीक करने पर जोर नहीं दिया। इसलिए बहुत से लोगों को जानकर अचरज होगा कि मैं शायद ही कभी अंग्रेज़ी में साल में एक-आध चिट्ठी लिखता हूं। टाट-पट्टी वाले साधारण सरकारी स्कूलों में से निकला। उनमें भी लोग अंग्रेजी सीखते ही हैं। ऐसा नहीं है कि केवल महंगे स्कूलों में सीखते हैं। अच्छे सरकारी स्कूलों में भी बहुत अच्छी अंग्रेजी सीखते हैं। पिताजी हिंदी के लेखक थे लेकिन अंग्रेज़ी बहुत अच्छी थी उनकी और भाषा की उनको बहुत गहरी समझ व पकड़ थी। मैंने प्रायः उनके संग्रह में अच्छे अंग्रेज़ी कवियों को और लेखकों को देखा। पर मैंने कोई पढ़ा नहीं उसमें से। जितना कोर्स था उससे संतुष्ट था। शेक्सपियर जितना ज़रूरी था, पढ़ लिया। इससे ज़्यादा फिर कभी देखेंगे पर फिर मौक़ा नहीं मिला।
या चिंतन की दृष्टि से अगर हम देखे तो साहित्य में पश्चिम का साहित्य भी पढ़ना एक तरह से शायद लाज़िमी है।
वह बहुत ज़रूरी है। लेकिन अपना साहित्य ही न पढ़ा हो, अपना चिंतन ही न किया हो, तब केवल पश्चिम का साहित्य पढ़ना किस काम का! पूरब भी तो पढ़ो। अब अगर हमने राजस्थान का पानी कुछ हद तक समझा है तो हम सोच सकते हैं कि इज़राइल में पानी कैसे संभाल कर रखते हैं। उस पर अंग्रेज़ी में किताब हो तो वो देख लें। पर अभी होता यह है कि मोटे तौर पर लोग अंग्रेज़ी का साहित्य पहले पढ़ लेते हैं। पर्यावरण हो या कुछ और हो। फिर उसमें से कुछ अपने इलाके की ग्रामीण आंचलिक गंध का जीरे, राई का छोंक वगैरह लगा लेते हैं। हम इससे ज़्यादा नहीं जाते। तो हमें तो यह लगा कि यह यात्रा दूसरी तरफ़ से होनी चाहिए। पहले वह कर लें; उसके बाद ज़रूरत पड़े तो यह करें। पूरब समझें फिर पश्चिम उत्तर दक्षिण-कुछ भी करें।
अलग-अलग समाजों में किसी काल खंड विशेष में ऐसे दौर आते हैं कि कोई एक भाषा प्रतिष्ठित हो जाती है। वो उस दौर में जानकारी का, प्रतिष्ठा का माध्यम भी बन जाती है। जैसे पिछले दौर में राज की भाषा फ़ारसी थी तो फ़ारसी को ही सारी दुनिया का आईना मान लिया
गया था। वह दौर गया, फ़ारसी गई, पर कहावत अभी भी बाकी है; 'हाथ कंगन को आरसी क्या, पढ़े-लिखे को फ़ारसी क्या।' ताज़ा उदाहरण देखें तो अंग्रेज़ी को सारे ज्ञान का, विवेक का, भंडार मान लिया गया, माध्यम मान लिया गया। वो भाषा है और सब चीजें उसमें उपलब्ध हों यह आग्रह नहीं रहना चाहिए। जो जिस भाषा में लिख सकता हो उसे उसमें लिखना चाहिए। उसी में अच्छे से लिख सकता है। तो एक कारण तो यह है कि मुझे अंग्रेज़ी में लिखने का अभ्यास नहीं था। इसलिए हिंदी में लिखा। लेकिन कभी यह सवाल इस तरह से नहीं उठता कि आपने अंग्रेज़ी में क्यों लिखा? अंग्रेज़ी में लिखने वाले से यह सवाल प्रायः नहीं पूछा जाता। (आपके लिए नहीं कह रहा मैं) अंग्रेज़ी लिखने वाले अपने लेखक या लेखिका से यह नहीं पूछते की आपने हिंदी में क्यों नहीं लिखा। हम यह मानते हैं कि यह तो उसका कर्तव्य है जो उसने पूरा किया। हिंदी के साथ ऐसा क्यों हो जाता है इसलिए कि एक काल खंड में एक भाषा का झंडा लग जाता है। कोई अच्छा काम करना है, तो वह अंग्रेज़ी में ही क्यों होना चाहिए? अपने समाज की मुख्य भाषा अगर हिंदी है जिसमें लोग ज्ञान का, विद्या का संचय करते रहे तो आपको धूल हटाते समय भी उसी भाषा में वापस करना होगा। अंग्रेज़ी में लिखने से निश्चित तौर पर जो नीति निर्धारक हैं, आज जो अंग्रेज़ी में काम करते हैं, उन तक ये बात पहुंच सकती है लेकिन उनके निर्णय लेने से ज़्यादा अच्छा होगा कि जिस समाज मे से यह काम गायब हुआ है उस समाज की स्मृति में उसे सम्मान से फिर से लौटाया जाए। उसकी कोशिश अगर करनी है तो वो आपको राजस्थानी में करनी पड़ेगी। वो हिंदी में करनी पड़ेगी। वो मराठी में करनी पड़ेगी। वो गुजराती में करनी पड़ेगी। और इन दोनों किताबों के साथ यह बहुत अच्छी बात हुई कि धीरे-धीरे इनको अलग-अलग भाषाओं के पाठकों ने उठाया है। अपने-अपने इलाके में अपनी भाषा में इस पर टिप्पणियां की हैं, अनुवाद किए है। मैं ऐसा मानता हूं कि अगर हमने इस
काम को अंग्रेज़ी में किया होता तो एक प्रसिद्ध वर्ग के बीच में ज़रूर यह
घूम जाता लेकिन व्यापक हिस्सा उसको चूम नहीं पाता। आज इन किताबों
को व्यापक हिस्से का भरपूर प्यार मिल सका है।
दोनों पुस्तकों पर काम ही इसलिए शुरू हुआ कि मन में बहुत संशय था कि हमारा समाज इन सब बातों को कैसे देखता था। पानी का काम तो अपने देश में मरुभूमि से लेकर दूर-दूर तक जहां तेज़ पानी गिरता है, सब जगह था। तो वो तालाब कौन बनाते थे? उनकी पढ़ाई-लिखाई कौन करता था? उनको शिक्षा कौन देता था? इनका ख़र्च वगैरह किस तरह से आता था, रख-रखाव कौन करता था। मन में इतने प्रश्न थे और इनके कोई हल नहीं थे हमारे सामने। किसी से भी उसके बारे में हमें जानकारी नहीं मिलती थी। इसीलिए काम शुरू हुआ इन दोनों किताबों पर। पहला संशय इन किताबों के लिखने से पहले का है। दूसरा भी एक दिशा बना रहा पुस्तक लिखते समय भी। आज जिसको हम बहुत हल्के ढंग से परंपरागत ज्ञान कहने लगे हैं, वह इतना बड़ा समुद्र है कि इसमें एकाध डुबकी लगाने से कुछ हाथ नहीं आता है। यह तो कण-कण में व्याप्त है। 7-8 साल की मेहनत के बाद भी कहीं भी जाकर हम लोग अटक जाते। कई बार लगा कि हमारे पास कुछ जानकारियां हैं लेकिन किताब का पूरा एक अध्याय लिखने लायक़ तो कुछ नहीं है। तो हम उसको वहीं छोड़कर एक बार उन इलाकों में फिर चले जाते थे। 'राजस्थान की रजत बूंदे' में जो भूजल वाला अध्याय है उससे पहले की किताब पूरी हो गई थी, टाइप में पड़ी थी लेकिन यह अध्याय लिखते नहीं बन रहा था। तो यहां पर किताब बंद करके जैसलमेर चले गए। मैं इस मौके पर उनका नाम लेना चाहूंगा। वहां जेठूसिंह भाटी से मिले और उनसे कहा कि भाई यह भूजल वाले मामले में तो हम अटक गए हैं, हमसे आगे नहीं बढ़ा जा रहा है। उन्होंने एक कहावत बताई-इंदर थारी एक घड़ी, भूण थारा
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बारह मास। एकदम से जैसे दिमाग में बाकी सब कौंध गया। अपनी सब जानकारी विधिवत कहीं एक खूटी पर टांग सकें वो खूटी नहीं मिली थी तब तक। और वह एक ही अच्छे मित्र से मिल गई।
असल में पिछले दो सौ साल से सारे विचार का केंद्र ही अंग्रेज़ी या पश्चिम माना गया है। इसलिए हमारा पर्यावरण भी इसी तरह का हो गया। हमारे पर्यावरण की बहस भी वही हो गई; जो उनकी बहस है वह हमारी है। मैं अक्सर यह तीन-चार उदाहरण देता हूं। एक दौर में सोशल फ़ॉरेस्ट्री का काम आया। पर्यावरण की चिंता में ऊंघ रहे हम लोग भी 'सामाजिक वानिकी' में चले गए। बिना यह सोचे समझे कि यह सामाजिक वानिकी क्या चीज़ है यानी कि उससे पहले जो अंग्रेजों की फ़ॉरेस्ट्री थी उसको कभी हमने असामाजिक वानिकी कहा होता तो उसका सामाजिक संस्करण ढूंढ़ते। पर यह उनकी समस्या नहीं थी क्योंकि उन्होंने कभी जंगल लोगों के माने ही नहीं थे। यानी क्लास और मास में बंटे हुए समाज और वर्ण में बंटे समाज में बहुत फर्क होता है। मरुभूमि में छोटी-सी-छोटी मानी गई जात का भी झंडा ऊंचा रह सकता था राजा के आगे। पानी का अच्छा काम करने वाले लोग मेघवाल भी रहे हैं और पालीवाल भी। एक ब्राह्मण है और एक जिनको आज अनुसूचित कहा जाता है-दोनों को सिविल इंजीनियर का दर्जा था। ये नहीं है कि मेघवाल इस काम को हाथ नहीं लगा सकता था या पालीवाल इस काम को भला क्यों हाथ लगाए। महाराष्ट्र में हमने किस्से सुने कि कोई एक चितपावन ब्राह्मण तालाब खोद रहे हैं तो दूसरे ब्राह्मणों ने आकर उनका विरोध किया है क्योंकि बाद के दौर में यह आने लगा था कि हाथ का काम कुछ घटिया है। ब्राह्मण नहीं करता है ऐसे काम। कभी कुछ अच्छा दौर आता है। कभी कुछ फिसल जाते हैं कभी संभलते हैं।
मैं यह मानता हूं कि किसी भी इलाके की जो समस्याएं हैं, वो उसकी
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भाषा में सामने आती हैं, उसकी भाषा से ही उसके हल निकलते हैं। अन्ततः भाषा यानी केवल जुबान नहीं है, जुबान एक अंग है। लेकिन जीभ का संचालन दिमाग से होता है। तो एक भाषा विशेष का दिमाग भी बनता है। वह दिमाग वहां के पर्यावरण और उसके समाज से बनता है। उसमें उस समाज की सफलता और असफलता भी शामिल होती है। उसमें उसकी ठोकरों से भी दिमाग बनता है। सफलता के फूल व फल के साथ असफलता की भी पत्तियां गिरती हैं पतझड़ वाली। वह भी समाज को, उसकी भाषा को दुबारा खाद बनाकर देती है। अपनी गलतियों से भी समाज सीखता है। भाषा और समाज का इस तरह से मैं रिश्ता देखता हूं।
भाषा और पर्यावरण को लेकर अलग से शास्त्र रचने की कोई बहुत गुंजाइश मुझे नहीं दिखती क्योंकि उस भाषा को बोलने वाला समाज उसका शास्त्र रचता ही है। पर माध्यम अलग होता है, जैसे अपने यहां लिखित की उतनी परंपरा नहीं रही। एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी अलिखित ही चीजें गई हैं। उसका सबसे अच्छा उदाहरण गजधर परंपरा का है। गजधर का मतलब केवल वास्तुकार नहीं रहा। वो इंजीनियर भी था, वो बाज़ार से कितना पत्थर खरीदना है, किस दाम ख़रीदना है, किस खदान के पास जाना है इसका भी हिसाब लगाना जानता था। एक तरह से आज जिसको हम कंसल्टेंट, कांट्रेक्टर और आर्किटेक्ट कहेंगे, वह इन तीनों का बहुत अच्छा मिश्रण था। और वह काम करवा कर पूरा का पूरा गृहस्थ को सौंपता था। और उसके बाद उसके संबंध काम करके ख़त्म हो गए ऐसा नहीं होता। वो उसके सुख-दुख में भी साथ होता था। एक तरह से शास्त्र तो उसने रचा है, लेकिन अब माध्यम बदल गया है। वह वाचिक परंपरा से हट गया है, अगर उसको कुछ लिखत-पढ़त से मदद मिल सकती है तो एक अच्छे मुंशी नाते इसको दर्ज करना चाहिए। लेकिन अलग से
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रचने का स्वतंत्र संसार नहीं दिखता मुझे। उतनी मेरी हैसियत भी नहीं है। जो कुछ भी मैंने किया अगर आप इन दोनों किताबों के संदर्भ वाले हिस्सों को देखेंगे तो उसमें बिल्कुल ऐसे लोग है जिनको आज हम हाशिए पर चले गए लोग कहते हैं। उसमें आपको 'विशेषज्ञ' के नाम पते नहीं मिलेंगे, किसी ग्वाले का मिलेगा, किसी सुथार का पता मिलेगा। उन सबसे जितना सीखने को मिला है उसे हमने उनके नाम पते समेत उन किताबों में दर्ज करके वापस किया है। यह कोई विनम्रता के नाते नहीं कह रहा परंतु कुछ समय तो हमको अपने समाज में यह वातावरण बनाना चाहिए कि हम विशेषज्ञ नहीं हैं। इस समाज के बेटे-बेटी हैं। इस समाज के लिए मुंशीगिरी का काम कर सकते हैं। उसको अलग से नेतृत्व देने की फ़िलहाल हमारे में गुंजाइश नहीं है। उसने इतना बड़ा काम किया है, उस पर कुछ धूल चढ़ गई है। ठीक से झाडू-पोंछे का काम करना चाहिए। इसमें नया शास्त्र नहीं आता। अगर कुछ सामाजिक तौर पर जोड़ना-घटाना हो तो वह भी एक अच्छे मुंशी का काम मानकर आप कर सकते हैं। एक सिद्धांत के तहत समझने की गुंजाइश है। पर उससे कुछ नया रचने की योग्यता आ जाती हो, ऐसा मुझे अभी भी नहीं लगता है।
मरुभूमि में पानी के अलावा वन/ओरण भी महत्वपूर्ण चीज़ है। जिन लोगों ने इसका विचार किया, उसे मरुभूमि में उतारा उसको मंदिर के साथ जोड़ा। एक ही गांव में, 4-5 तरह के वन मिलेंगे। सबका उपयोग अलग-अलग है, नाम अलग है। कुछ पूरे साल-भर खुले रहने वाले जंगल हैं। कुछ एक विशेष परिस्थिति में खोले जाएंगे तो कुछ बहुत भयानक अकाल में ही खोले जाएंगे। प्रकृति का स्वभाव बदलता है। उस बदलाव में भी समाज ने एक छंद ढूंढ़ा होगा। शायद छोटी-बड़ी ठोकर भी खाई हो। फिर समाज ने अपनी ठोकरों से बचने के इंतजाम बहुत पुख्ता किए। लेकिन यह सब काम आपको सबसे अच्छे पर्यावरण
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के कोर्स में देखने को नहीं मिलेगा। यह सब काम राजस्थान के वन-विभाग के बहुत से उन लोगों को जो अच्छे सहृदय लोग हैं, जो अपने समाज के लिए आज कुछ करना चाहते हैं तो सोशल फ़ॉरेस्ट्री के माध्यम से कुछ करते हैं, वह वेस्ट लैंड डेवलपमेंट के माध्यम से करना चाहते हैं। ओरण जैसी मज़बूत परंपरा उन्हें याद नहीं आती। ये विचार नए-नए हैं। अब ये सामयिक हैं तो ज़रूर जोड़ो। लेकिन किसमें? मुख्य आधार है उसमें जोड़ना होगा, उसे मिटा कर नहीं जोड़ सकते। होता यह है कि आज उसको मिटा दिया जाता है, और फिर अपनी एक संस्था और आंदोलन के साथ एक नया विचार लेकर हम चले आते हैं। ऐसे में बहुत हुआ तो ग्राम समाज एक मजदूर की तरह चाकरी करता है। मज़दूर शब्द बुरा लगे तो एक और शब्द हितग्राही लें। लेकिन वह मालिक की तरह शामिल नहीं हो सकता। इसलिए मेरा निवेदन है कि नए शास्त्र की रचना की उसमें गुंजाइश कम होगी। लोगों ने अगर काम बहुत किया है तो उसे नया या पुराना कहकर छोड़ा नहीं जा सकता, क्योंकि अगर प्रकृति का स्वभाव नहीं बदला है तो आपको फिर उन इलाकों में जंगल उसी तरह से रखने चाहिए जो कुछ साल भर चलें, कुछ दो-तीन साल में विश्राम लेकर फिर से जीवित हो जाएं। अकाल से लड़ने की तैयारी उसी तरह करनी पड़ेगी। ऐसे वन, ओरण आपको जैसलमेर बाड़मेर वगैरह में बड़ी तादात में मिलते हैं। उतने संपन्न अनुभव को आज हम ख़ारिज कर देते हैं। इसलिए मैंने कहा कि पहले हमको शास्त्र समझना पड़ेगा फिर उसमें हम नया जोड़ घटा सकते हैं। तो फ़िलहाल मुंशी की भूमिका ज़्यादा विनम्र व व्यावहारिक है। इसमें समाज का सम्मान भी है।
पर्यावरण और भाषा में मैं अंतर नहीं करता। वह एक दूसरे से निकली हुई चीज़े हैं। जिस इलाके में अगर समुद्र की लहर टक्कर मारती है तो
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वहां की भाषा में आपको उस तरह की ध्वनि गूंजती मिलेगी। जहां मरुभूमि का विस्तार है वहां उस तरह की जीवन-शैली बनेगी। भाषा और वहां का पर्यावरण एक दूसरे से अविछिन्न है। उनको एक दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। अब उसमें अपने को अगर कुछ गिरावट दिखती है तो वह कैसे आई उसे समझना पड़ेगा। उस गिरावट का एक बड़ा कारण यह है कि जो समाज उस भाषा का व्यवहार करता था, इस्तेमाल करता था, हमने उस समाज को भुला दिया है। उसको हमने साक्षरता का विषय मान लिया है, प्रशिक्षण का विषय मान लिया है, ढोर गंवार वाला एक भाव आ गया कि इनको कुछ-न-कुछ सिखाए बिना हम देश को संभाल नहीं पाएंगे। उसमें मुझे लगता है कि नए शास्त्र की पूरी गुंजाइश है। लेकिन उस शास्त्र का जो मुख्य आधार है वह उस समाज को उसकी खोई प्रतिष्ठा वापस करने का होगा। जैसे चीरहरण के किस्से हैं न, उस तरह से हमने अपने समाज की प्रतिष्ठा हरण का काम किया है। सत्ता हरण का काम किया है। संपत्तिहरण का काम किया है, अधिकारहरण किया है। तो ऐसे सब शास्त्रों की कसौटी यह होगी कि हम उस समाज को कितना प्रेम करते हैं; उसको उसकी इज़्ज़त वापस करते हैं कि नहीं। एक बार यह कोई करे तो आप उसको फिर मुंशी की भूमिका कहें, रचयिता की भूमिका कहें तो भी चलेगा। समाज अपना काम कर लेगा उसमें से।
आधुनिक चिंतन के अध्ययन से हम यह जानते हैं कि प्रकृति और मानव के संबंध को मोटे तौर पर पौर्वात्य और पाश्चात्य जीवन दृष्टि के बुनियादी फ़र्क से भी समझा जा सकता। पौर्वात्य दृष्टि का आग्रह प्रकृति से अहिंसक साझे का नाता बनाता है जबकि आधुनिक पश्चिम इसे मात्र उपभोग की वस्तु मानते हुए इसका अनियंत्रित व हिंसा की हद तक जाता शोषण करता है:
1. इस प्रकाश में संस्कृति और पर्यावरण के अंर्तसंबंध व स्वस्थ
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विकास की प्रक्रिया को समझने के लिए आप किस दृष्टि की वकालत करेंगे और क्यों? और इसका किस तरह का प्रारूप प्रस्तावित करेंगे?
2. असल में अगर हम 'पर्यावरण' की आंख से मानवीय विकास और संस्कृति को परिभाषित करने का उपक्रम करें तो आपकी नज़र में इसके क्या और किस तरह के मापदंड हो सकते
यह मेरी सीमा है कि मैंने दुनिया को पूरब और पश्चिम में बांट कर नहीं देखा। मुझे वह मौका ही नहीं मिला। मैंने जब होश संभाला तो पूर्व ही ज़्यादा समझा। उसी में पला बढ़ा। मुझे यह नहीं मालूम कि यह पूर्व कहलाता था और वह पाश्चात्य है। वह खिड़की तो खुली ही नहीं तो हमें तुलना करने का मौका ही नहीं मिला। जो अपनी व्यवस्था मानी जा सकती है, उसी में थोड़ी बहुत गुंजाइश दिखी हमको काम करने की। पहले हमने उसी को समझा और बाद में हमको थोड़ी बहुत इस दूसरी व्यवस्था का पता चला।
विकास की आधुनिक प्रक्रिया में हम रोज़ कुछ नया सोचते करते हैं। उसके बाद जब उसकी ठोकर लगती है तो उसको बदल देते हैं। यह एक स्वस्थ चिंतन नहीं है। तो रोज़ बिना सोचे प्रयोग करने का उदाहरण हुआ कि यह करके देखते है इसमें फंस गए तो फिर वह करेंगे। आज ट्यूबवैल लगा दिए। सारा पानी उलीच दिया। फिर संकट आया तो ट्यूबवैल पर प्रतिबंध तक की बात चल पड़ी। लेकिन दूसरी तरफ़ हमारा पूर्व वाला समाज है जो ऐसा सोचता है कि पानी को ज़रूरत से ज़्यादा उलीचना नहीं है। गति का अंतर है। हमारे यहां मध्यम और मंथर गति है और उन लोगों की गति बड़ी तेज़ है। कोई कहेगा कि यह मजबूरी में है। मैं ऐसा मानता हूं कि यह सोची-समझी भी हो सकती है। राजस्थान में अगर जैसलमेर
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में खेती न अपनाकर पशु पालन पर आधारित समाज अपनाया तो उसने यह देखा होगा कि यहां पर अगर हम लंबे समय तक ठीक जीवन जीना चाहते हैं तो पशु पालना ज़्यादा ज़रूरी है। खेत हमको नहीं पुसा सकेंगे। पूरी तरह से हमको वे नहीं टिकाएंगे और फिर खेती के लिए दूसरे इलाके हैं देश के। वहां से अनाज का आदान-प्रदान कर सकते हैं। स्वावलंबन में एक यह भी है कि भाई कहीं और से कुछ अपने काम की चीज़ थोड़ी बहुत ले लें। मनाही थोड़ी है। गायों की अच्छी नस्ल यहां तैयार हो, दूध-घी यहां पर तैयार हो और कहीं से मूंगफली ले आएंगे। अब विकास का घमंड है कि नहीं सब जगह मूंगफली, सब जगह गेहूं, सब जगह धारा का तेल। जैसे पंजाब में धान बोना है। पहले अपने यहां धान की खेती तटीय इलाकों में और थोड़ी बहुत नदी के किनारे की ज़मीन में होती थी। उसको खूब पानी चाहिए। जब आप मैदानी क्षेत्रों में फैले हुए खेतों को धान के लायक बनाएंगे सारा पानी बह कर कहां जाएगा? 25-50 साल बाद आपको पंजाब में ऐसी खेती नुकसानदेह लगने लगेगी। पर तब बचाना कठिन हो जाएगा उसे। यह सातत्य वाले विकास का कोई रूप नहीं है। यह विकास भी नहीं है।
'पर्यावरण' की आंख से अगर हम अपनी पिछली गतिविधियों को देखेंगे तो ऐसा लगता है कि उसमें बहुत सारी हमारी चीज़ों को एक तरह से अस्वीकार किया है। जैसे नदियों के हिसाब से अगर देखें तो हमारे देश में चौदह बड़ी नदियों का जाल है, मुख्य नदियां फिर उनकी कई सारी सहायक नदियां । यह आंख बार-बार यह कह रही है कि भाई तुमने हमारे लिए कुछ भी नहीं किया। तुमने जो कुछ भी किया कारखाने बनाए तो कुछ समय विकास ज़रूर हुआ होगा। तुमने अच्छी खेती की, रासायनिक खाद डाली, दवाएं डाली लेकिन तुमने हमें तो नष्ट कर दिया। ये नदियां हमें बराबर अस्वीकृत करती चली आ रही हैं। प्रकृति की अस्वीकृति
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में भी एक नम्रता ही होती है। लंबे समय तक तो बताती भी नहीं हैं नदियां। हमें लगेगा की नदी गंदी हो रही है। फिर एकाध बार मछलियां मर गईं तो उसकी खबर छप जाएगी चिंता हो जाएगी। बयान हो जाएंगे। लेकिन ऐसी स्थिति हो जाए कि उस समाज को पीने का पानी न मिले। पंजाब हरियाणा में एक बहुत बड़ी समस्या आ रही है। वहां भूजल नाइट्रेट ज़्यादा है। अब उस पानी को पीने लायक बनाने के लिए कुछ करोड़ रुपए तो दुबारा ख़र्च करने पड़ेंगे। दुगुनी ऊर्जा लगानी पड़ेगी। सही भाषा में कहें तो दुगुनी बेवकूफ़ी होगी। एक बार दिखावटी तौर पर दो-चार गांवों में इसे साफ़ करने के यंत्र लग जाएंगे। लेकिन पूरे समाज की समस्या इसमें से हल नहीं होने वाली है। पर्यावरण की यह आंख बार-बार चेतावनी देती है कि तुम जिसको विकास मानते हो, हम उसको विकास नहीं मानते। इसलिए बार-बार प्रकृति गुहार लगा रही है, प्रेम से समझा रही है और एक स्थिति में थोड़ा गुस्सा भी दिखा रही है, चपत मार रही है, अकाल के रूप में, बाढ़ के रूप में, किसी बड़ी बीमारी के रूप में।
इसी तरह अगर हम समाज की आंख से भी देखें तो एक लंबे दौर से हम लोग अपनी सब तरह की सामाजिक बातचीतों में बहुत सारे टुकड़े काट रहे हैं। उसमें मानवीय विकास एक शब्द होता है, संस्कृति एक शब्द होता है, पर्यावरण एक शब्द होता है, आर्थिक विकास एक हो जाता, शैक्षणिक विकास एक हो जाता है। मुझे लगता है कि हमारे समाज का स्वभाव इतने सारे टुकड़ों में एक साथ सोचने का नहीं था। दो शब्द हिंदी में बहुत मिलते-जुलते हैं-एक है आंख और दूसरा है पांख। समाज अपनी आंख से भी देखता था और पांख से अपने आपको ऊपर उठाकर एक विहंगम दृश्य भी लेता था-अपने समाज का। ऐसा नहीं होगा कि किसी इलाके का आर्थिक विकास अच्छा हो लेकिन पानी का काम छोड़ दिया
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गया कि कहीं से भी चुरा लाएंगे, उधार ले लेंगे या इसको भूल जाते हैं। या जंगल का काम अच्छा कर लें पर फिर पानी का काम भूल जाएं। वह इन सब चीज़ों को एक साथ देखता था।
संस्कृति शब्द भी मेरे लिए तो नया ही है उस हिसाब से। ये बहुत हद तक-मुझे कभी-कभी डर लगता है-कि कल्चर का अनुवाद है। एक समाज का अपना एक स्वभाव होता था। कुछ उसके संस्कार भी होते थे। उसमें शिक्षा भी शामिल है, उसकी गति भी शामिल है, उसके तीज त्योहार भी शामिल हैं। यह सब किसी-न-किसी, कोई-न-कोई ढंग से उस समय के पर्यावरण को दर्ज करने के लिए, उसके साथ जुड़े रहने के लिए, उससे अलग न होने की कोशिशों के नतीजे होते थे। जैसे दीपावली केवल दीया जलाने का त्योहार नहीं है। उसको एक बड़े कथानक से जोड़ा गया। लेकिन उसके पीछे पर्यावरणीय आधार भी बहुत है। किसान समाज के लिए पुरानी फ़सल कट चुकी है। अब एक नई फ़सल की तैयारी का त्योहार है। पशुपालक समाज के लिए भी (मरुभूमि भरी पड़ी है ऐसे समाज से) यह एक त्योहार है। उस दिन के बाद से गायें खुले में चर सकती हैं। अंग्रेज़ी के पर्यावरण के ज्ञान के कारण हमारे यहां अति चराई (ओवरग्रेज़िंग) नाम का एक शब्द आया है कि यह सारा समाज जहां भी हरी घास देखता है, अपनी बकरियों और गायों को चरा देता है! इतना अव्यवस्थित समाज होता तो मर चुका होता, उसका पशु भी और उसका पशुपालक भी। उसको कब तक बांध के खिलाना है और कब खुला छोड़ना है, इसके बिल्कुल केलेंडर के हिसाब से दिन तय किए जाते थे। वर्षा के बाद ज़मीन में जो पानी पड़ा है, उससे नई पौध निकलती है, नई घास निकलती है। घास एक निश्चित उम्र तक बढ़कर अपने फल और बीज वगैरह बना लेती है। अब वो बीज झर कर गिर चुके हैं। अगले मौसम की घास को उगाने के लिए। इसलिए दीपावली के बाद गोचर में गाय भेजी जा सकती है। उससे पहले नहीं।
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तो यह सब बहुत बारीकी से अध्ययन किया था। इसलिए मैं मानता हूं कि पर्यावरण की आंख में सब कुछ आता था।
एक तरह से समूची बीसी सदी को प्रौद्योगिकी के अभूतपूर्व विकास की गाथा की तरह भी पढ़ा जा सकता है। इस गाथा का लेखा-जोखा अपने उजले पक्षों को जिस तरह रेखांकित करता है उसमें हमारे समय की मुख्यधारा अक्सर यह अनदेखा कर देती है कि इसका जो अंधेरा पक्ष है वह विकरालता लेते हुए इसके 'उजले' को ख़त्म भी कर सकता है। मेरा प्रश्न इस उजले-अंधेरे को लेकर है:
1. हमारे समय में विकास और प्रौद्योगिकी के संबंध व दिशा को लेकर आपकी धारणा क्या है?
2. खुली अर्थव्यवस्था के पक्षधर माने जाने वाले लोग विदेशी पूंजी व टैक्नोलॉजी के आयात की पुरजोर वकालत करते हुए यह दलील पेश करते हैं कि विकास कार्यक्रमों को अंजाम देने के लिए बड़े पैमाने पर न केवल पूंजी बल्कि उन्नत टैक्नोलॉजी की भी ज़रूरत है। इस व इन तरह की नीतियों का पर्यावरण पर क्या प्रत्यक्ष व परोक्ष प्रभाव पड़ेगा?
पर्यावरण का थोड़ा बहुत काम हम लोगों ने जो 10-20 साल में समझा और किया है उसमें हमें भाषा का दारिद्रय सबसे ज़्यादा दिखा है। पर्यावरण जितना बिगड़ा है, उतनी भाषा भी बिगड़ी है। इसलिए मैं सबसे पहले विकास वाले मामले को लूंगा।
समुद्र तट, बर्फीले इलाके, पहाड़ी इलाके, मैदानी इलाके, तेज़ वर्षा वाले, कम वर्षा वाले, मरु प्रदेश इन सबमें समाज ने अपने कुछ 200-500 साल के अनुभव से कुछ ख़ास तरीके जीवन जीने के अपनाए हैं। उनको आप वहां की रीति कहिए, वहां की संस्कृति कहिए वह एक आकार लेकर
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वहां के सारे सदस्यों के बीच में एक अलिखित संविधान की तरह फैल जाता था। हमको ये-ये काम यहां करने हैं; इससे हमारा जीवन आगे चलेगा। समाज के दुख-सुख का भी ख्याल रखा जाता था। उसके सुख बड़े और दुख कम हों। अगर किसी इलाके में पानी की कमी हो तो पानी का इंतज़ाम कैसे किया जाए। जंगलों की ज़रूरत कुछ ज्यादा है इस इलाके में तो जंगल कैसे ज़्यादा-से-ज्यादा पनपाए जाएं। लोगों को कैसे प्रेरणा दी जाए कि तुम्हारे घर में यह अच्छा काम हुआ तो तुम पेड़ लगाओ या जंगल लगाओ रखवाली करो। या तालाब खोदो।
लेकिन विकास शब्द कैसे आया अपने जीवन में, भाषा में, इसका मुझे अभी बहुत पक्का अंदाज़ नहीं है। यह शब्द अंग्रेज़ी के डेवलपमेंट से आया है, इसमें कोई शक नहीं है। आप अगर पुराने नेताओं के भाषण पढ़ेंगे, संपूर्ण गांधी वाङ्मय जो कई खंडों में चलता है उसमें, विकास शब्द आसानी से नहीं मिलना चाहिए। देश की चिंता गांधीजी को कम नहीं थी, लेकिन एक भी जगह उन्होंने यह नहीं कहा कि इस देश का विकास करना है। यह इलाका बड़ा पिछड़ा है। इस शब्द ने अपने समाज के माथे पर एक खास तरह की मोहर लगा दी है और यह प्रायः पिछड़ेपन की मोहर है। उसमें हम कुछ विकास के टापू दिखाते हैं। किसी भी स्वस्थ समाज में विकास शब्द के बदले उसकी समस्याएं क्या हैं उनको दूर करने की कोशिश अपने-अपने कर्तव्यों से उठती है बजाय एक बड़ी पंचवर्षीय योजना के। विकास वाला शब्द जबसे आया है तबसे मैं ऐसा मानता हूं कि अविकसित इलाके ज़्यादा बढ़े हैं, विकसित इलाकों के बदले और जिनको हमने विकसित माना बाद में पता चला उन क्षेत्रों ने भी अपनी समस्याएं हल नहीं की। आपने उसे बहुत अच्छे से रखा है कि यह उजले-अंधेरे का सारा मामला है। हमने एक हिस्से को उजले में रखा माना और एक को अंधेरे में रखा हुआ माना और अंतत: मालूम चला कि अंधेरे
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वाला हिस्सा ही बढ़ता चला जा रहा है। उजले वाले हिस्से की दिल्ली में कभी भी पानी की कमी नहीं होनी चाहिए। दिल्ली में कभी भी हवा ख़राब नहीं होनी चाहिए। लेकिन धीरे-धीरे हमें यह लग रहा है कि ये सब इलाके भी उतने उजले नहीं रह जाएंगे।
खुद विकास का मामला बड़ा विचित्र है। एक समय में विकास की बात हुई, फिर उससे जब कुछ नुकसान आने लगे तो एक और आपने नारा सुना होगा कि विनाश रहित विकास। अब विकास में कोई और विशेषण लगाने की ज़रूरत ही नहीं होनी चाहिए। ऐसा नहीं होगा कि निंदा रहित तारीफ, प्रशंसा यानी प्रशंसा। तो विकास यानी विकास पर उसके आगे विशेषण लगाना पड़ा कि विनाश रहित विकास। फिर उसके बाद एक और आ गया सस्टेनेबल डेवलपमेंट, सातत्य वाला विकास। उसका कुछ अंग्रेज़ी-हिंदी सब कुछ अभी तक घालमेल है-उसमें से कुछ निकल नहीं रहा। मैं यह मानता कि अभी इन महान लोगों के मन में उनकी योजना और स्वभाव में ही सातत्य नहीं है, फिर उनके विकास में तो आ ही नहीं सकता। ये तो एक तरफ़ चलते हैं और बाक़ी सबको कहते हैं तुम भी इस दिशा में चलो फिर वहां टकरा जाते हैं। फिर कहते हैं अच्छा भाई अब रास्ता बदलना होगा। दाएं घूम जाते हैं तो एक बड़ी विचित्र सी स्थिति में सारा समाज दाएं-बाएं घूमता रहता है। जो उसके मुखर लोग हैं, वे जिसको विकास मानते हैं अभी तक उसको परिभाषित नहीं कर पाए हैं। बाक़ी समाज इस समय अभिशप्त है उनके पीछे चलने के लिए। या फिर उसमें एक बहुत बड़ा हिस्सा चुपचाप खड़ा है। चल नहीं रहा है तो हम उसको अविकसित कह देते हैं।
दूसरा इस विकास के कर्ताधर्ताओं के पास कभी भी इतनी राशि नहीं होगी, बुद्धि तो है ही नहीं। इतनी राशि भी नहीं होगी कि वे पूरे देश को सड़कों से पाट दें, पानी का इंतज़ाम कर दें, पूरे देश के वन ठीक कर लें।
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एक पंजाब बनाया, एक भाखड़ा बनाया। अगर इतना ही बनाने लायक है यह तो मध्यप्रदेश, राजस्थान सबको हरितक्रांति का क्यों नहीं वाहक बना देते? ख़त्म करो इस झगड़े को। हमें तो कोई आपत्ति नहीं है लेकिन पता चलता है कि पंजाब में भी जो हरा रंग किया उसमें हरे रंग के पीछे काला ब्रश चलता ही चला आ रहा है। उसको मिटा रहा है लगातार। उसको हर बार ढक कर छिपाने की कोशिश कर रहे हैं हर साल। दो साल-चार साल ढक सकते हैं। इससे ज़्यादा नहीं ढक पाएंगे। भदरंग बार-बार उभरेगा। आपको शायद याद हो कि साल पहले पंजाब में थोड़ी अति वृष्टि हुई थी और भयंकर बाढ़ आ गई थी। अब ये लोग ऐसा मानते हैं कि बड़े बांधों से बाढ़ रुकनी चाहिए, अकाल से बचना चाहिए। तो पंजाब-हरियाणा में अकाल कभी नहीं आएगा, बहुत अच्छी बात है, बाढ़ भी नहीं आनी चाहिए। पर बाढ़ आई और उसमें छह महीने तक बहुत सारे हिस्सों में पानी फैला तो सिमटा ही नहीं। 6-7 माह रोहतक वगैरह इलाकों में, पटियाला में खेती योग्य हुआ ही नहीं खेत। एक फ़सल तो बाढ़ में डूबी और अगली फसल जब ले सकते थे तब तक उसमें कीचड़ था। एक साल की दोनों फसलों को खो दिया। यह कोई विकास का रास्ता, कोई मापदंड नहीं। इसका मतलब है हमने बहुत आगे तक देखा ही नहीं। जो छोटी-मोटी चीजें हमारे सामने आ रही हैं हम उनको एक तरह से विकास और विज्ञान में अंधविश्वास रखते हुए पूरी 'श्रद्धा' से अपना रहे हैं। इस श्रद्धा के कारण पानी की कमी आएगी तो हैंडपंप लगाते चले जाएंगे। नलकूप खोदते चले जाएंगे। लेकिन अब हरेक नलकूप ज़ोर-ज़ोर से चिल्ला कर कह रहा है कि नीचे पानी नहीं है। मैं तुमको पानी नहीं दे सकता।
नई प्रौद्योगिकी ज़रूर अपनाओ। नलकूप लगाओ लेकिन वहां के चार पुराने तालाबों को दुरुस्त रख के अपनाओगे तो नलकूप ज़्यादा दिनों तक
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चलेगा। जैसलमेर में इस समय जगह-जगह नलकूप लगे हैं, क्योंकि सरस्वती का पानी मिल गया है। प्रकृति के लंबे कैलेंडर में पन्ने अपने से ज़्यादा हैं। अपने तो साल भर के बारह पन्ने और एक जीवन के मान लीजिए 100 पन्ने हैं, 200 पन्ने हैं, 400 पन्ने हैं। प्रकृति के पंचांग में कुछ करोड़ पन्ने हैं। इन पन्नों में कहीं लिखा है कि एक भरी-पूरी नदी थी। फिर वह सूख गई। वहां एक नदी थी और वो आज गायब है तो नलकूप हमारे तो बहुत ही मामूली छलनी बराबर छेद कर रहे हैं। उनको शाश्वत मान बैठना, उन पर भरोसा करना बड़ी मूर्खता है। जो इस समय के सबसे विद्वान लोग हैं वे इस मूर्खता को न देख पाएं तो वे विद्वान कैसे माने जाएंगे!
अपनी भाषा में जो भी नया शब्द आता है उसको कुछ समय तक उलट-पुलटकर देखना चाहिए। फ़िलहाल हम लोग बिना सोचे समझे शब्दों को अपनाते जा रहे हैं। खुली अर्थव्यवस्था भी एक शब्द है। अब काम में लाना पड़ेगा अपने को आपस की बातचीत में लेकिन उस पर अच्छे लोगों को सोचना चाहिए। अर्थव्यवस्था खुली है या बंद है इस सब की कोई परिभाषा तय नहीं हो सकती। इस समय कुल मिलाकर बड़ी परिभाषा यह है कि वे चाहे जैसा सामान बनाएं, यहां वह बिक सके। यह खुली अर्थव्यवस्था मानी गई, ज़रूरी नहीं कि अच्छा सामान बनाएं और ये भी कि हमारा अच्छा सामान वे अपने यहां नहीं लेंगे। इस अर्थव्यवस्था में बहुत आदान-प्रदान भी नहीं है। अभी एक तरफ़ा ज़्यादा है। उनका सब कचरा हमें स्वीकार करना पड़ेगा। उसमें कोका कोला, पेप्सी, कुछ भी हो सकता है। लेकिन ज़रूरी नहीं है कि यहां की कोई चीज़ भी वहां जाए। यहां से जाएगी तो उनकी शर्तों पर। वहां से आएगी तो भी उनकी शर्तों पर। तो यह चित भी मेरी पट भी मेरी है और तो और उछालने वाले को कहते बंटा तो बंटा मेरे बाप का। दोनों में आपको कुछ नहीं मिलने वाला
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है। चित आएगी तो मेरी जीत और पट आएगा तो मैं जीता ही और यह सिक्का तो मेरे पिताजी का है, यह तो मैं लेकर जाऊंगा ही। नहीं तो कम से कम हमें अपना बंटा ही वापस मिल जाता। ऐसी अर्थव्यवस्था में यह सब जो कहा जाता है कि विदेशी पूंजी और टेक्नोलॉजी आयात करने से हमारी बहुत सारी समस्याएं हल हो जाएंगी तो सबसे पहले तो हमें लोगों से बड़ी विनम्रता से पूछना चाहिए कि इस पूंजी में जिसको हम विदेशी पूंजी कहते है, उससे जहां से वह आ रही है उनकी अपनी पूंजी है और अपनी टेक्नोलॉजी है, उससे आपने अपनी कौन-कौन सी समस्याएं हल कर ली? वह तो कम-से-कम हमको दिखा दीजिए। फिर हम देख लेते हैं कि हमारे किस काम की है। ऐसा खुलापन नहीं है। उस पैसे से हल करने की दिशा उनको मिल गई हो तो यहां भी वह स्वागत योग्य है। विदेशी स्वावलंबन की बात थोड़े समय के लिए भूल सकते हैं। कुछ आदान-प्रदान भी समाजों में हो सकता है कि भाई तुम अपना कोई धेला दे दो, हमारे काम आ जाएगा। लेकिन हम उनसे 90 प्रतिशत सहायता लेकर अपने देश को कर्ज में डुबो दें और उसको भी वापस न कर पाएं और जिस कारण से कर्ज लिया गया है वह कारण न दिखे। यानी जो अपने यहां चारवाक का पुराना प्रसिद्ध वाक्य है ऋणम् कृत्वा घृतम पिबेत । ऋण लेकर घी पिओ। घी तो पियो कम से कम ऋण ले कर। घी भी न पिएं या डालडा पी लें या कि घटिया तेल मिले तो बिल्कुल फायदा नहीं है। इतना तो अपने को ख़ातिर करने लायक इंतजाम करना चाहिए। अभी मुझे नहीं दिखता कि इसकी कोई हमने अच्छी समझ बनाई है।
समाज भी कभी दूध से जल जाता है और तब छाछ भी फूंक-फूंक के पीता है। ठोकर खाता है, सबक लेता है और फिर आगे बढ़ता है। उसकी स्मृति में यह सब जमा होता जाता है। पर जब हम बाहर से कोई चीज़ तकनीक अपनाते हैं तो उसमें यह पुराना अनुभव संचित नहीं मिलता।
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हम गर्म दूध को छाछ मानकर बिना फूंके पी लेते हैं। मछली उद्योग का उदाहरण हमारे सामने हैं। देश के समुद्र तटीय भाग इस समय घोर कष्ट में हैं। वहां के मछुआरे कई बार दिल्ली की सड़कों पर आए हैं। मछुआरों को दिल्ली में सड़कों पर आने की क्या ज़रूरत है? जो समुद्र की छाती पर खेलते हैं, सड़कों की छाती कहां उनके मतलब की है। लेकिन उनके भीतर क्रोध है; दुख है इसलिए उनको आना पड़ता है। मछली उनके जीवन का आधार है। मछली उनके लिए केवल जीवन नहीं है वह उनकी संस्कृति है। उसने उन्हें पूरा बनाया है। मछुआरों का एक अलिखित नियम होता है। पूरे देश में यह चलता था कि वर्ष में चार महीने वे नदी में, समुद्र में उतरते नहीं थे। चौमासा में मछलियां अंडे देती हैं, अपनी अगली संतति तैयार करेंगी तो उसको पलने-बढ़ने दो। दूसरा नियम मछुआरों के जाल का है। उसमें जो जाली बनेगी उसका आकार एक पक्का होगा; तालाब में उसका अलग आकार होगा, नदी में अलग होगा। जिसको जो पसंद आ गया, उसने वैसा बना लिया ऐसा नहीं है। जाली बिल्कुल तय है। और वह वहां की मछली की बढ़त देखकर तय होती है। किस इलाके में कौन-सी मछली की प्रजाति सबसे ज़्यादा पाई जाती है वह चार महीने में छह महीने में निकालने योग्य हो गई तो वह इसमें आ जाए। बाकी उसमें से बाहर निकल जाएं। पर जब नई पूंजी और नई तकनीक आई तो ट्रालर नाम की एक चीज़ जुड़ गई। मशीनी नौकाओं के पीछे मच्छरदानी जैसा पतला जाल लगा दिया। मोटर बोट आगे बढ़ेगी और उसमें जो पीछे आता जाएगा वह सब समेट लेगा। फिर बोट पर उसको खोलकर गिराया जाता है, उसमें से जो उनके काम की चीज़ है वो छांट कर अलग कर के बाकी वहां पर तड़प कर मर जाने देते हैं। फिर उन्हें वापस समुद्र में फेंक देते हैं। वे समुद्र को प्रदूषित करेंगी।
सारे तटीय इलाकों में मछली की कमी हुई है। यह पिछले 10 साल
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के विकास के कारण हुई है। अधिक खपत के कारण नहीं हुई। अधिक मारने के कारण हुई है। ज़रूरत नहीं है फिर भी मारकर ले गए। अब वहां के मछुवारे सड़कों पर हैं। इन मशीनी नावों का विरोध कर रहे हैं।
उसी तरह आकाश के साथ हुआ, हवा के साथ हुआ कि जितनी हो सकें हमको चिमनियां ठोकते चले जाना है। वे विकास की नई पताकाएं मानी गई हैं। धुआं न दिखे, मोटर गाड़ियां न हों तो हमें लगेगा कि यह देश या यह शहर विकसित नहीं है। और उसके बाद हम उसे भोग रहे हैं। अब रोज़ विज्ञापन छपते हैं कि दिल्ली में हवा ख़राब है कि यह ख़राब है तो वह ख़राब है। जिस नीले आसमान को महान दादा-दादियों ने, माता-पिताओं ने बुरी तरह से काला कर दिया है, अब हम उनके बच्चों से उम्मीद कर रहे हैं कि वे दीपावली पर पटाखें नहीं फोड़ें और इसे ठीक कर दें!
पिछले दशकों में पारिस्थिति की-विज्ञान के महत्व को लेकर एक तरफ़ तो हमारी जागरूकता में उल्लेखनीय इज़ाफ़ा हुआ है और हम पर्यावरण-संबंधी समस्याओं के प्रति खासे चौकन्ने भी बावजूद इसके समस्याएं दिन-प्रतिदिन बढ़ती और गहरी होती जा रही हैं, ऐसे में कुछ बरस पहले आपने जल-प्रबंधन के क्षेत्र में लोक समाजों में व्याप्त प्राचीन प्रविधियों की ओर ध्यानाकर्षण करते हुए सरकार व समाज को सचेत किया था कि यदि हमने इन स्वदेशी तकनीकी प्रणालियों को पुनर्नवा नहीं किया तो हमें भविष्य में भयानक परिणामों का सामना करना होगाः
1. इन समस्याओं से उबरने के लिए राज्य और समाज की भूमिका क्या होनी चाहिए?
2. क्या आपको यह नहीं लगता कि वर्तमान समय में पर्यावरण समस्याओं को सिर्फ एक क्राइसिस मैनेजमेंट के परिप्रेक्ष्य में देखा जा रहा है? इस बारे में आपकी टिप्पणी क्या है?
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हमारी जागरूकता बढ़ी है। कोई शक नहीं है कि पिछले 20-25 सालों से शायद सन् 1972 के बाद जब संयुक्त राष्ट्र संघ के ढांचे में, उनके सभी सदस्यों ने पर्यावरण दिवस मनाना तय किया। संयुक्त राष्ट्र संघ के ढांचे में पहली बार पर्यावरण कार्यक्रम नाम से एक अलग विभाग खोला गया। फिर संयुक्त राष्ट्र संघ ने अपने सभी सदस्यों से आग्रह किया कि वे भी अपने यहां जल्द-से-जल्द पर्यावरण विभाग बनाएं। पहले तो हमारे देश में विभाग भी नहीं था, एक समिति बनी। संयोजक व 10-20 विद्वान लोगों को लेकर कुछ काम हुआ। फिर समिति को विभाग का रूप मिला। फिर विभाग में से मंत्रालय निकला। जब मंत्रालय बना तो बहुत सारी संस्थाएं भी बनी और कुछ इधर-उधर जो भी उससे संबंधित काम है वे इधर खूब बढ़े हैं। दिवस बहुत मनाने लगे हैं अब। हम पर्यावरण दिवस मनाते हैं, धरती दिवस मनाते हैं, जल दिवस मनाते हैं। सब दिवस मनाते हैं लेकिन हम वर्ष नहीं मनाते। पर्यावरण को 365 दिन का कारोबार नहीं बनाते। विद्वता की कोई कमी नहीं है लेकिन अपने यहां बहुत पुराना शब्द है 'बेदिया ढोर'। वेदों का बोझा ढोने वाला। एक तरह से गधे जैसा काम है। चार वेद ऊपर रख लिए पीठ पर या दिमाग पर और आप कहोगे कि अनुपम मिश्र वेदों का जानकार है! ये तो बोझा ले जाना है। तो पर्यावरण की जागरूकता का ऐसा बोझा अभी बहुत देखने को मिलेगा। पर वह हमारे दिवसों में है, वर्ष में नहीं, आचरण में नहीं है, व्यवहार में नहीं है। सूचना और ज्ञान के इस नए दौर में समाज की रोज़मर्रा की समस्याएं दर्ज नहीं होती और उनके हल भी उसमें से नहीं निकलते। ये अपने रास्ते पर चल रहा है वह अपने पर। ये समानांतर रेखाएं हैं। कहीं जाकर मिलती नहीं हैं।
ऐसा नहीं है कि समाज में कोई गिरावट नहीं आई हो। उसका झंडा
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हम हमेशा ऊंचा नहीं रख सकते। पूंजी और प्रौद्योगिकी बाहर से आ सकती है पर दिमाग और हाथ तो अपने यहां के हैं। अपनी ही योजनाओं ने नलकूपों को कैसे खोदा जिसमें से पानी के बाद अकाल निकल कर आता हो और उन तालाबों की तरफ़ भला उनका ध्यान क्यों नहीं जाता जिनमें पानी के साथ अकाल समा सकता है। तो आज की जो आधुनिक प्रौद्योगिकी है इसने समाज और राज दोनों को भटकाने का काम किया है। इसे हम फिर से दोबारा ठीक कर सकते हैं। कोई भी समाज कितने दिन तक ऐसे भ्रम में रहेगा कि हम अपनी सब समस्याएं हल कर लेंगे लेकिन बिना अपनी बुद्धि का इस्तेमाल किए (क्योंकि बाहर की प्रौद्योगिकी है, बाहर का पैसा है।) इस बार गुजरात में कम से कम तीन हजार गांवों में तालाबों को ठीक करने का अभियान चला है। ऐसा नहीं है कि उनके पास नलकूपों का पैसा नहीं है, उन्होंने 150 करोड़ रुपया इकट्ठा किया जो आज तक किसी संस्था और आंदोलन ने नहीं किया। छह महीने में 150 करोड़ रुपया इकट्ठा करके अपने अकाल को हल करने की कोशिश बहुत बड़ा लक्षण है। उसमें सरकार भी शामिल हुई बाद में। किसी एक को तो पहल करनी पड़ेगी। समाज और राज की तो यह जुगलबंदी है और इसमें बेताल कोई न हो, बेसुरा कोई न हो-इसका ध्यान रखना पड़ेगा।
राजस्थान समाज के आगे मैं इसलिए नतमस्तक हूं कि उसने ओरण की व्यवस्था सैकड़ों वर्षों पहले निकाली। ओरण यानी एक ऐसा जंगल जो केवल अकाल के समय में खुलेगा। इसका मतलब एक ऐसा कुआं जो केवल आग लगाने पर उसे बुझाने के काम में आए। मतलब उसको पीने के लिए या नहाने के लिए नहीं लगाना है। ऐसे विशेष जंगल उन्होंने बनाए। इसका यह मतलब नहीं कि राजस्थान में अकाल नहीं आते। अकाल खूब आए लेकिन उनसे लड़ने की और उनको सहने की हमारी
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तैयारी पक्की रखी। लड़ना भी शब्द नहीं रहा। अकाल भी हमारे परिवार का एक हिस्सा है। प्रकृति आज थोड़ा-सा ज़्यादा पानी बरसा गई है कल थोड़ा कम गिरा देगी। तो उसके स्वभाव को देखना है। उन्होंने एक अंदाज़ लगाया होगा अपने 500 पीढ़ियों के इतिहास में से। हर 13-14 साल में वर्षा कम हो जाती है, अकाल पड़ता है। तो अपने को 12-13 साल तक एक जंगल को बचा कर रखना है। ओरण का जो अलग-अलग बंद और खुलने का समय है वह भी तय किया गया। पूजा और मंदिर से भी जोड़ा गया, वह तो इसलिए कि उनको बड़े पैमाने पर कोई चीज़ करनी थी। वह धर्म से जुड़े बिना नहीं हो सकती थी। लोहिया जी की सबसे अच्छी परिभाषा है धर्म की। उन्होंने यह कहा कि धर्म एक दीर्घकालीन राजनीति है और राजनीति एक अल्पकालीन धर्म है। जो भी आप को पांच दिन के लिए पद मिले, पांच साल के लिए उसको धर्म मानकर अपनाना चाहिए। किसी समाज में कोई बात कुछ हजार साल तक के लिए पहुंचानी है तो उसे धर्म से जोड़ा। ओरण बनाया, उसे मंदिर से जोड़ा। नहीं तो उसको वन-विभाग से जोड़ना पड़ता और वह देखते-देखते उजड़ जाता।
जिनको हम पर्यावरणीय या प्राकृतिक विपदाएं मानते हैं ये विपदाएं नहीं हैं। ये हमारे रोजमर्रा के हिस्से हैं। उनसे हमको खेलना आना चाहिए। फिर हम उनसे आनंद के साथ खेल पाएंगे।
लेकिन व्यापक निष्क्रियता जो समाज में आ गई उसके लिए क्या उपाय करने होंगे?
समाज में एक व्यापक निष्क्रियता आई है तो समाज को उसका दंड भुगतना भी पड़ेगा। इतनी खुशफ़हमी में नहीं रह सकते कि समाज पर कभी विपत्ति न आए। सजग नहीं रहेंगे हम तो विपत्ति आएगी। फिर भोगना भी पड़ेगा। विनोबा जी एक बहुत अच्छी बात कहते थे कि यह
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दौर स्वतंत्र ठोकर खाने का है। आपकी ठोकर से मैं नहीं सीखूगा। आप कहोगे कि भई इसमें तुम्हारा अंगूठा टूटने वाला है पर मैं कहूंगा कि मैं खुद तोड़ कर देखूगा आप कौन होती हैं मुझे सलाह देने वाली! तो स्वतंत्र ठोकर खाने का ज़माना है तो खाते जाओ भई। अगर लोग न सुनना चाहे तो आप क्या करेंगी। अभी तक अकाल की इतनी चर्चा है, इसलिए पहली बार तालाबों पर ध्यान गया है। लेकिन कल अच्छा पानी गिरा सब लोग अगर इसको भूल जाते हैं तो फिर क्या करेंगे। और अगर मुखर लोगों का यानी जिनके हाथ में संपत्ति है, सत्ता है, योजना है उनका ध्यान ही नहीं गया तो क्या कर सकते हैं?
प्रकृति को स्वस्थ तरह से बरतते हुए मनुष्य की रचनात्मकता की यह बहुत सुंदर मिसाल है कि एक ही क्षेत्र में ईजाद की गई व प्रचलित प्रणालियां कमोबेश उसी भौगोलिक व पर्यावरणीय संरचना वाले अन्य क्षेत्र में बिल्कुल भिन्न तरह से आविष्कृत की जाती है। मानो वे एक ही स्रोत (लगभग एक ही तरह की पारिस्थितिकीय परिस्थितियों) से निकलने वाली दो अलग-अलग कृतियां हों। ऐसी आपस में भिन्न प्रणालियों को क्या एक दूसरे क्षेत्र में अवस्थित व अपनाया जा सकता है उन प्रणालियों की भिन्न चारित्रिकताओं को बरकरार रखते व उनसे सीखते हुए?
क्योंकि अमूमन हम अधिक-से-अधिक इन दिनों आधुनिक प्रौद्योगिकी और स्वदेशी प्रणालियों के बीच आवाजाही व सामंजस्य की संभावनाओं को लेकर तो बात करते हैं लेकिन आपस में भिन्न प्रणालियों के परस्पर एक दूसरे के क्षेत्र में अपनाई जा सकने वाली संभावनाओं को अनदेखा कर देते हैं। उदाहरण के लिए लातिन अमेरिका, अफ्रीका, भारत तथा दक्षिण एशिया ये सभी ट्रॉपिकल और सब-ट्रॉपिकल रिज़न्स कहलाते हैं,
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इस तरह से इन जगहों में काफी समानता है। भारत की तरह की लातिन अमेरिका, अफ्रीका और दक्षिण एशियाई है तो क्या हम उन तकनीकों को जान कर व समझ कर व उनमें आपसी तालमेल स्थापित कर उन्हें वर्तमान समय में प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग व उपभोग के एक सुदृढ़ व ठोस विकल्प की तरह नहीं अपना सकते?
परस्पर सीखने में तो कोई बुराई नहीं है, लाभ-ही-लाभ है। अपनी अच्छी चीजें दूसरे तक पहुंचाना, दूसरों की अच्छी चीजें अपनाना। मुख्य इसमें विवेक है कि हमारे योग्य क्या है। और दूसरा न तो भावुकता में और न किसी हीन भावना में उसको अपनाना चाहिए कि यह पश्चिम से आई है इसलिए बहुत अच्छी होगी और ये अफ्रीका से आई इसलिए कमज़ोर होगी। इन सब जगहों के समाजों का अपना एक इतिहास है कुछ हज़ार साल का। कोई भी नया समाज नहीं है। उन्होंने अपने आस-पास की मिट्टी, पानी, हवा से कुछ देखकर अपने लायक चीजें ढूंढ़ ली होंगी। हम नए नायक की तरह जाकर कुछ झंडा लगाएंगे। यह ठीक नहीं है। हां परस्पर प्रशंसा की जा सकती है और आदान-प्रदान की भी गुंजाइश है। उदाहरण के लिए पूरी दुनिया में जितने भी पर्वतीय क्षेत्र हैं उन सबमें पानी ऊपर से नीचे तेज़ी से बहता है। हर समाज ने चाहे वह अनपढ़ रहा हो, पढ़ लिख गया हो, ग्वाटेमाला का हो कोई भी भाषा बोलता रहा हो, आर्थिक स्थिति उसकी स्विट्ज़रलैंड, नेपाल जैसी हो हिमाचल जैसी हो- उसने घराट को ढूंढ़ ही लिया। घराट यानी पनचक्की। बहते पानी को एक जगह रोकना, उसको चलाना, उससे आटा पीसना। इस घराट में बढ़ई, लोहार और टकेरे, पत्थर टंकने वाले इन तीन की विद्वता का सर्वोत्तम जोड़ मिलेगा। ये पानी की ताकत को ठीक तरह से पहचानते थे। कितना पानी रोकना है हौद में, उसे कितनी ऊंचाई से गिराना है ताकि वह घराट का चक्का चला दे, आटा पीस दे ठीक से। कुल मिलाकर
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अपने सभी समाजों में श्रद्धा रखने का बड़ा उदाहरण यह घराट है। अब अंग्रेज़ी में जिसे ट्रांसफर ऑफ़ टेक्नोलॉजी कहा जाता है उसे यह छोटी-सी घराट निरर्थक शब्द बना देती है। जो उपयोगी तकनीक है उसका ट्रांसफ़र समाज में हो ही चुका होगा।
अगर हमारी कोई समस्या ऐसी नहीं आई जो हमारे समाज की ताकत से हल नहीं हो सकती है और वैसी समस्या पहले कहीं आ गई है, उसके हल की दिशा में कुछ प्रयत्न किया गया है, तो उससे सीखने में क्या नुक़सान है। अगर ब्राज़ील से कुछ हमको अच्छा सीखने को मिलता हो और हमारा जंगल थोड़ा भी सुधरता हो तो स्वागत है। लेकिन उसको अपनाने से पहले मेरा ज़ोर है कि अपने समाज को खंगाल कर पूरी तरह से देख लेना चाहिए कि हमारे पास कोई ऐसी चीज़ तो नहीं है जिसकी तरफ़ हमारा ध्यान नहीं गया है। तो मिश्रण होना चाहिए, बाहर का हो, अपने अलग प्रदेशों का हो अच्छी बात है। आदान-प्रदान में कोई दिक्कत नहीं है। इस तरह की संभावनाओं पर लोगों का ध्यान जाना चाहिए, अभी नहीं है। लेकिन होना चाहिए। जैसे अभी एक उदाहरण है कि राजस्थान वाली किताब को पेरिस की किसी संस्था ने देखकर के कहा कि फ्रांसीसी भाषा मरुभूमि में बहुत बोली जाती है। अगर इसमें से कुछ सूडान देश में काम आ सकता है तो इस किताब का उन्होंने अनुवाद किया। इसी तरह से ब्राज़ील ने भारत के गोवंश को अपनाया है। वहां उन नस्लों ने बहुत अच्छे परिणाम दिए। वहां पर यह बहुत सफल प्रयोग रहा। यहां तक कि ब्राज़ील ने कुछ सिक्के भी जारी किए थे इस नस्ल पर। तो आज अगर हम इस तरह की पारस्परिकता को अपनाएं तो एक बेहतर हल निकाला जा सकता है।
बीती अर्धसदी के परिदृश्य में भारतीय राष्ट्र व समाज के पुनराविष्कार के लिए 'स्वयंसेवी संस्थाओं' की भूमिका का विशेष अवदान रहा है चाहे वह विकास या समाज कल्याण या फिर पर्यावरण का ही क्षेत्र हो। आरंभ में इन संस्थाओं ने बहुत मूल्यवान व सराहनीय काम किए हैं, लेकिन पिछले एक दो दशकों में इन संस्थाओं पर गंभीर आरोप लगाए जा रहे हैं और ऐसा लगता है मानो वे अपने उद्देश्य व आदर्शों से च्युत हो गई हैं:
1. पर्यावरणसंकट व इसको लेकर जागरूकता व शिक्षा फैलाने में आप स्वयंसेवी संस्थाओं की भूमिका पर क्या सोचते और इन्हें कितना महत्व देते हैं?
2. ग़ैर-सरकारी संगठन अक्सर विदेशी पूंजी पर निर्भर करते हैं आपको यह किस हद तक ज़रूरी व जायज़ लगता है?
हमारे मित्र राजीव वोरा इन संस्थाओं के बारे में एक बहुत अच्छी उपमा देते हैं: स्वस्थ समाज में स्वयंसेवी संस्थाओं की ज़रूरत ही नहीं। उसके अपने ऐसे संगठन हैं जिनमें से वह अपने को चलाए रखता है जैसे ओरण वग़ैरह की बात है। तालाब हैं। गांव में इतने सारे तालाब थे, मरुभूमि में सब जगह। इनको किसी स्वयंसेवी संस्थाओं ने नहीं बनाया था। आज से 50-100 साल पहले लोग अपने आप बनाते थे। उनको कैसे बनाना, कैसे उसकी योजना तय करना, उसके लिए पैसा कहां से लाना है इत्यादि। इसके लिए विश्व बैंक से पैसा नहीं आता था, कहीं दूसरी जगह से नहीं लाना पड़ता था। स्वस्थ समाज को संस्थाओं की ज़रूरत नहीं पड़ती। वैसी स्थिति में समाज ही सबसे बड़ी संस्था होती है। वह राज्य से भी बड़ी संस्था होती है।
अगर समाज स्वस्थ नहीं रहता, उसकी कोई एक गतिविधि पर असर आ जाए, कमज़ोरी आ जाए तो उसको पूरक भूमिका की तरह स्वयंसेवी संस्था उठा सकती है। टूटी टांग को सहारा देने वाली बैसाखी की भूमिका। बैसाखी जितनी ही होनी चाहिए। इसकी भूमिका यह होनी चाहिए कि उस अंग विशेष की कमज़ोरी को दूर कर दे और फिर हट जाए। अभी ज़्यादातर संस्थाएं समाज के किसी एक कमज़ोर लक्षण के कारण खड़ी होती हैं। आंदोलन हो या समाज सेवी संस्थाएं हों वे पैसा देशी लाती हों या विदेशी लाती हों; स्वभाव उनका यह है कि वे समाज से ऊपर हैं। वे उसका हिस्सा हैं यह ताज़ा स्वभाव नहीं है। उनका स्वभाव अपने आपको समाज का एक उद्धारक मानने का और अपने को समाज से भी ऊपर मानने का बन गया है। वे अपने को समाज का हिस्सा नहीं मानी। संस्थाओं में घमंड बहुत है। वे शिक्षा का काम करती हों, पर्यावरण का कर रही हों, श्रमिकों के बीच में कर रही हों, उनको लगता है कि उनके बिना समाज की कोई गति नहीं है। अच्छी स्वयंसेवी संस्था की भावना यह होनी चाहिए कि समाज के पैर में खराबी आए तो हम बैसाखी की तरह इतने दिन इसके साथ रहें। इसके पैर को जल्दी-से-जल्दी ताक़त दें, और फिर हट जाएं। फिर भी अगर समाज को याद रखना है तो समाज ऐसी संस्था को याद रखेगा कि भाई यहां एक संस्था आई थी, उसने हमारे सब तालाब वग़ैरह ठीक किए अब उस संस्था का छोटा-मोटा ढांचा हमने आज भी बरक़रार रखा है। पर संस्था एक समस्या को लेकर काम करना प्रारंभ करती है। संस्था का रोज़-रोज़ आकार-प्रकार बढ़ता जाता है और अंततः समस्या वहीं-की-वहीं रहती है या वह बढ़ती जाती है! तो संस्था का इस तरह से बढ़ते रहना समाज पर बोझ है और नुक़सानदेह भी है क्योंकि समाज जो काम उस दौर में उंगली पकड़ कर शुरू कर सकता था वह कर नहीं पाता। उसे शुरू ही नहीं करने दिया जाता। इसलिए हम यह मानते हैं कि अच्छी संस्थाओं की भूमिका तो बैसाखी की तरह होनी चाहिए। वे समाज के उस ख़राब हिस्से को ठीक करें और फिर अपने को समेट लें। लेकिन आप देखेंगे कि एक भी ऐसी संस्था नहीं मिलेगी। राजस्थान वाली किताब में मैंने एक जगह लिखा है कि समाज ने पानी का जो ढांचा बनाया है उसका आकार इतना बड़ा किया कि वह निराकर हो गया। बड़े-से-बड़े आकार की सबसे अच्छी परिभाषा यही है कि उसको निराकार हो जाना चाहिए। फिर दिखाई न दे। नहीं तो आप कहेंगे हमने पांच गांव में काम किया अब हम पचास में कर रहे हैं। पांच सौ में कर रहे हैं। आकार रोज-रोज बड़ा हो रहा है। पहले पांच हजार का बजट था फिर दस हजार का हो गया, फिर पांच लाख का हो गया, पांच करोड़ का हो गया। फिर सबसे बड़ा आकार इस समय किस संगठन का है? आप बताइए?-हमारी सरकार का, जो 5 लाख गांवों में काम करती है। संस्था कोई भी 500 गांवों से ऊपर की नहीं मिलेगी। सरकार भी 5 लाख गांव की हिफ़ाज़त कहां करती है। ऐसी संस्थाओं और न ऐसी सरकारों को कोई याद रखता है? इसलिए आंदोलन संस्थाएं और सरकार भी अब बिल्कुल एक-सी हैं, इस समय। उनके स्वभाव में बहुत अंतर नहीं है। भौगोलिक दूरियों में फर्क हो सकता है। राजधानी में बैठी सरकार दो हजार मील दूर दिखती है तो एक गांव के बीच में बैठी स्वयंसेवी संस्था दो कदम की दूरी पर है। पर गांव उन दोनों के मन की दूरी एक-सी है। जब तक हम इसे कम नहीं करेंगे, काम करने की शैली की दूरी कम नहीं करेंगे, हम भी उसी तरह से काम करेंगे और इसीलिए कुछ होता दिखता नहीं।
यह एक बड़ी दुविधा है, हमारे बहुत सारे मित्र इसमें हैं और उनमें से अधिकांश ने इस पूंजी का कोई अच्छा उपयोग करके नहीं दिखाया। लेकिन एक-दो ऐसी भी संस्थाएं है जिन्होंने इस पूंजी का अच्छा उपयोग करके दिखाया है। इसमें से तरुण भारत संघ का नाम लिया जा सकता है। हालांकि आदर्श स्थिति यही कि जिस काम को करना है हम वहीं से उसकी ताक़त भी निकालें और पैसा भी निकालें, बुद्धि भी निकालें। हमारे एक मित्र हैं पौड़ी-गढ़वाल में-सच्चिदानंद भारती। विदेशी पैसा नहीं लेते, सरकार से भी नहीं लेते। उनका कहना है कि अगर इस गांव का जंगल अच्छा करना है तो पूरे गांव की ज़िम्मेदारी है उसके लिए पैसा इकट्ठा करना, काम करना हर तरह से। इसलिए पूरे समय के सामाजिक कार्यकर्ता न होकर एक स्कूल में पढ़ाते हैं, वहीं से उनकी तनख्वाह आती है। आजीविका सामाजिक काम से वे नहीं लेते हैं। पर 125 गांव में काम करते हैं। यह कोई कम विस्तार नहीं है। लेकिन न तो उनका दफ्तर है और न घर में कोई ऐसी फ़ाइल है जिसमें 125 गांव की सूची दिखे। किसको दिखाना है? पैसा तो किसी से लिया ही नहीं है। यह बहुत हिम्मत का काम है। ऐसे हिम्मती प्रयोग अभी भी अपने यहां बिरले हैं। तो इसके बीच में कम-से-कम यह समझौता करें कि पैसा वहां से आए लेकिन अक्ल तो यहां की लगाओ। वह तो अपने पास है।
अर्धसदी के परिसर का पुनरावलोकन करने पर हम पाते हैं कि इन 50 वर्षों में अनेकानेक आंदोलन हुए जिन्होंने एक क्षणिक हलचल व विचारोत्तेजना को तो जन्म दिया लेकिन राजनीति व व्यापक नागरिक-निष्क्रियता के चलते अंततः लुप्त हो गए। पर्यावरण संकट व इसकी चेतना के संदर्भ में आंदोलनों के स्वरूप व इनकी प्रासंगिकता पर आपकी राय क्या है?
कोई भी समस्या उठती है तो धीरे-धीरे उसको कुछ लोग समझते हैं। फिर उसके बारे में कुछ अपनी तरफ़ से काम शुरू करते हैं। आंदोलन को बनने में भी थोड़ा समय लगता है। कभी अचानक वह किसी एक घटना की प्रतिक्रिया में निकल आता है। जैसे चिपको के बारे में बात करें। हिमालय में वन कटे और उसका गांवों पर असर, बाढ़ पर असर और अकाल पर असर पड़ा, यह सब बहत लंबे समय तक लोगों ने देखा। लेकिन आंदोलन एक झटके में शुरू हुआ। वहां खेल-कूद का सामान बनाने वाली एक कंपनी को सरकार ने कीमती पेड़ काटने की इजाज़त दी। पेड़ का नाम है अंगू। अंग्रेज़ी में उसको ऐश कहते हैं। उससे टेनिस, बैडमिंटन के बल्ले बनते हैं। बहुत हल्की और मज़बूत लकड़ी होती है। लेकिन प्रकृति ने उसे बल्लों के लिए नहीं बनाया था। किसान उससे पहाड़ में जुआ बनाते हैं, हल के लिए। यह हल्का भी रहता है और मज़बूत भी है। किसानों को मना करता रहा वन विभाग कि अभी हमारे पास ये पेड़ देने के लिए बचा नहीं हैं। ये बहुत क़ीमती हैं। यहां 12 हैं वहां 15 पेड़, तुम्हें कैसे दे दें? लेकिन लखनऊ की एक बड़ी कंपनी को दे दिया। सन् 73 की बात है। जहां से पेड़ काटने थे, उसके पास छोटा-सा क़स्बा था गोपेश्वर। इतना छोटा कस्बा था कि वहां पर कोई होटल नहीं था। संस्था दशौली ग्राम स्वराज संघ और उसके मुख्य कार्यकर्ता चंडी प्रसाद भट्ट इस कटान के विरुद्ध थे। उन्हीं का एक छोटा-सा अतिथि-गृह था। खेल कंपनी के लोगों ने बस स्टेंड पर उतरकर जब पूछा कि यहां कहां रह सकते हैं तो वहां के लोगों ने कहा यहां तो कोई होटल या धर्मशाला नहीं है, लेकिन एक सर्वोदय की संस्था है और उनका एक कमरे का अतिथि-गृह है, पूछ लीजिए, लोग रुका देते हैं। उनको वहीं ठहराया गया। बाद में भट्ट जी को पता चला कि वे लोग आ गए हैं और अपने ही अतिथि गृह में रुके हैं। फिर उन्होंने कहा कि उनको जाकर कहिए कि कल जब पेड़ काटने जाएंगे तो उनको पेड़ों पर लोग चिपके मिलेंगे। पहले अपनी पीठ पर कुल्हाड़ी चलवाएंगे और उसके बाद पेड़ों को काटने देंगे।
सत्याग्रह की एक ऊंची मिसाल है। उनको अपने अतिथि-गृह में ठहराया। लेकिन उनके ख़िलाफ़ घोषणा भी की है कि कल जब वो पेड़ काटने जाएंगे तो लोग पेड़ों पर चिपके मिलेंगे। उसके बाद कभी उनको चिपकने की ज़रूरत नहीं पड़ी। अगले दिन जब कंपनी के लोग गए तो उनको इतने सारे लोग जंगल में मिले थे कि कंपनी के चार लोग क्या काट लाते। वो तो वापस आ गये। तो इस तरह से किसी एक बड़ी घटना के कारण आंदोलन जन्म लेते हैं लेकिन फिर धीरे-धीरे उनकी अपनी दिशा बदलती है रफ़्तार बदलती है। चिपको के साथ करीब दस साल काम करने पर मैं ऐसा मानता हूं कि योजना के स्तर, सरकार के स्तर पर, वैज्ञानिकों के स्तर पर हिमालय को बचाने का एक बहुत बड़ा अभियान इसके कारण चला। चिपको की बातों को लगभग सबने स्वीकार किया। अब फिर किसी तरह से कोई चीज़ अगर थोड़ी कम हो जाए तो मैं ऐसा मानता हूं कि पूरे समय जैसे घुड़सवार घोड़े पर नहीं बैठा रहता। उसको कभी उतरना भी पड़ता है, थोड़ा आराम भी करना पड़ता है। तो हमें अपने आंदोलनों के बारे में भी यह मानना चाहिए कि वे एक रफ़्तार से दौड़ते हैं फिर थक भी जाते हैं, छाया में थोड़ा आराम भी करते होंगे। किस वजह से गायब हो जाते है, इसका कोई एक कारण हम पकड़ नहीं सकते हैं। आंदोलन के भीतर की भी कमी हो सकती है और कभी बाहर भी कमी हो सकती है।
1. मनुष्य की पर्यावरण के प्रति बढ़ती संवेदना के दौर में शिक्षा के क्षेत्र में पर्यावरण और पर्यावरण के क्षेत्र में शिक्षा के योगदान को आप किस तरह से देखते हैं?
2. वर्तमान पाठ्यक्रम की संरचना व गठन को लेकर जो विवाद है उन सबके बीच स्नातक व स्नातकोत्तर स्तर पर पर्यावरण विषय को पाठ्यक्रम में समाविष्ट करने की प्रासंगिकता पर अपनी टिप्पणी से अवगत कराएं?
3. हमारे यहां सदियों से तकनीकी शिक्षा ने श्रुति माध्यम के तहत अवस्थित रहते हुए एक लंबा सफ़र तय किया है और एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक यह ज्ञान मौखिक तरह से ही हस्तांतरित हुआ है। समय व स्पेस में परिवर्तन व परिष्कार के पश्चात भी यह शिक्षा-पद्धति प्रामाणिक व प्रायोगिक सिद्ध हुई है। इन सबके बावजूद आधुनिकीकरण ने अपने उदय होने के पश्चात अपेक्षाकृत बहुत ही कम समय में हमारी प्राविधिक शिक्षा-पद्धति को हाशिए पर पहुंचा दिया है और वर्तमान समय में अपने वजूद के लिए संघर्षरत रहते हुए शनैः-शनैः ये स्वदेशी प्रणालियां लुप्त प्राय हो गई हैं। आपके विचार में इन स्वदेशी तकनीकी शिक्षा-पद्धति के अवसान की क्या प्रमुख वजहें रही होंगी? क्या इसका कारण ज्ञान का मौखिक तरह से हस्तांतरण तो नहीं था।
4. वर्तमान शिक्षा-प्रणाली में इस स्वदेशी ज्ञान को किस रूप में समावेश करना सबसे ज़्यादा उपयुक्त होगा जिससे मानवीय रचनात्मकता को नयी दिशा प्रदान की जा सके? पारिस्थतिकी विज्ञान के पाठ्यक्रम में इस ज्ञान की क्या भूमिका हो सकती है?
मेरा अपना जो छोटा-सा अनुभव है उस आधार पर कह सकता हूं कि पर्यावरण के प्रति संवेदना आज बढ़ने के बदले घटी है। दिखती है बढ़ी हुई, लेकिन परिणाम नहीं दिखते उस अनुपात में। अपने सभी पुराने समाजों में इससे ज़्यादा संवेदना थी। उन्होंने अपनी पूरी जीवन शैली अपने उस पर्यावरण के इर्द-गिर्द ढाली थी। उन दोनों में कोई फ़र्क़ नहीं था। ऐसा नहीं था कि पर्यावरण की शिक्षा देने से पर्यावरण मजबूत होगा या पर्यावरण के कारण शिक्षा मजबूत होगी-उस तरह की दो आंखों में यह विषय उन्होंने नहीं बांटा था। फिर एक बिल्कुल भिन्न किस्म की शिक्षा प्रणाली अंग्रेज़ों के कारण आई। वह अपने इलाक़े के पर्यावरण से कटी हुई है। वह बिल्कुल एक-सा काम सिखाती है लोगों को। अब चाहे नागालैंड में रहता हो उसको पढ़ने वाला या मरुभूमि में रहता हो, उसको अपने इलाक़े से कोई मतलब नहीं। सिर्फ़ साधारण शिक्षा ही नहीं, भूगोल की शिक्षा भी वही है। जानकारी सबकी चाहिए लेकिन उसको बचाने के लिए अपनी क्या परंपराएं रही हैं इन सबकी तरफ से लोगों का बिल्कुल ध्यान हट गया है। एक दौर पिछले चार-पांच साल में यह भी आया है कि पर्यावरण के अलग से कोर्स बने हैं। प्राथमिक से लेकर महाविद्यालयों तक सभी स्तर पर कोर्स चलते हैं जो शायद आपने भी पढ़े होंगे। लेकिन इस समय जो कुल मिला कर शिक्षा का वातावरण है, उसमें पर्यावरण में अच्छे नंबर मैं ले आऊं, तो ज़रूरी नहीं है कि मैं अपने पर्यावरण की अच्छी रखवाली भी करूं। निचले स्तर पर इसकी शिक्षा की बहुत बातचीत हुई तो उसमें आप वर्तमान शिक्षा के दोषों से भी नहीं बच सकते। पर्यावरण की शिक्षा में भी नक़ल से काम चलेगा। जो लोग शिक्षा की धारा से काट दिए गए हैं, उन्होंने इसको शिक्षा का विषय न मानकर जीवन का विषय बनाया था और जीवन की शिक्षा से बड़ी कोई शिक्षा नहीं होती। उसी में से सब चीजें निकलनी चाहिए। इसलिए मुझे लगता है कि पर्यावरण का पाठ बहुत आगे नहीं ले जाएगा। पढ़ा-लिखा समाज इसमें से बनेगा वह विद्वान ज़रूर होगा लेकिन पर्यावरण के लिए अपने को न्यौछावर करने को तैयार नहीं होगा। उस चतुर में इतनी चतुराई होगी कि समाज के, पर्यावरण के संकट में, वह अपने को बचा लेगा!
किसी एक क्षेत्र विशेष के पर्यावरण का आज की शिक्षा में कोई दखल ही नहीं बचा है। इसलिए वह अलग-थलग पड़ा विषय बन गया है इस समय। लेकिन वह चोट करता है धीरज से। काफ़ी अत्याचार सहने के बाद। जब ऐसा कोई संकट समाज पर आता है तो मजबूरी में उसे अपने को पर्यावरण से जोड़ना पड़ता है। अपनी शिक्षा को नहीं जोड़ पाता है वह लेकिन अपने व्यवहार को जोड़ता है। उसका सबसे अच्छा उदाहरण गुजरात का अकाल है। शिक्षा को पर्यावरण से नहीं जोड़ पाया होगा गुजरात का बहुत बड़ा हिस्सा। लेकिन उसने अपने कामों को इसी पर्यावरण से जोड़ा और यह तय किया कि हमें अपने सब पुराने तालाबों की मरम्मत करनी चाहिए। जितना हो सके छोटे-छोटे नदी नालों को बांधना चाहिए। एक गांव में किसी सज्जन ने बहुत ही अच्छी बात कही। उससे शायद यह शिक्षा वाला मामला निकलता है। उन्होंने कहा कि हमने इस अकाल में तीन आधुनिक व्यवस्थाओं को असफल होते देखा। एक हमारे घर में पाइप की सप्लाई, दूसरा हमारे खेत का ट्यूबवेल और तीसरे हमारे मोहल्ले में हैंडपंप। तीनों सूख गए इस अकाल में। हमारे तालाब टूटे पड़े थे। तालाब उन्होंने ठीक किये। उसके बाद थोड़ा-सा एक झला गिरा, थोड़ा-सा पानी गिरा। वह तालाब में इकट्ठा हुआ। तालाब ठीक हो गया था। टूट-फूट उसकी उन्होंने ठीक कर दी थी तो पानी नीचे गया और उसने थोड़े ही दिनों में हैंडपंप को चालू कर दिया और फिर नलकूप में भी पानी आ गया। उन्होंने यह कहा कि हमने तीन आधुनिक चीजों को अपने सामने असफल होते हुए देखा और एक पुरानी व्यवस्था, जिसको हम भूल गए थे, जिससे हम कट गए थे, उसको हमने थोड़ी-सी मेहनत करके ठीक किया तो उसने इन नयी चीजों में भी जान डाल दी। इसलिए मुझे लगता है कि शिक्षा में यह बात दूसरे सिरे से जुड़ेगी कि अब हमको अपने स्कूल और कॉलेजों में पानी के प्रबंध के बारे में ऐसी शिक्षा देनी चाहिए या नहीं। बहस तो उठ सकती है। हो सकता है कि ये क्षेत्र अपनी औपचारिक शिक्षा में, तकनीकी शिक्षा में तालाबों की बात करें। इस तरह से शिक्षा भी हमारे पर्यावरण में जुड़ सकती है।
इस पाठ्यक्रम की एक और बड़ी दिक़्क़त दिखती है। सरकारी वाक्य है-कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक। एक स्टैंडर्डराइज़ेशन समाज में चाहिए एक-सी नौकरियों के लिए। लेकिन शायद एक से जीवन के लिए नहीं चाहिए। सारा जोर नौकरियों का पढ़ाई पर है। जो कि होना भी चाहिए। लेकिन वह बहुत कम लोगों को रोजगार दे पाती है और उसके बदले बहुत सारे लोगों का रोज़गार नष्ट करती है। एक-सा पाठ्यक्रम होने के नाते। गुजरात में नए-से-नए पानी के प्रबंध के साथ पुराने प्रबंध को भी कम-से-कम परक तो माना जा सकता था। पर उसको उन लोगों ने उसमें से हटा दिया। और एक बार जब हम बुरी तरह से ठोकर खा चुके हैं तो हमें लगता है कि इसकी तरफ ध्यान जाना चाहिए।
अभी तो पर्यावरण का विषय भी उतना ही नक़ली है जितना बाक़ी पढ़ाई का विषय है। उसका अपने लोगों से कोई संबंध नहीं है।
अंग्रेज़ों के आने से ठीक पहले हमारी शिक्षा व्यवस्था क्या थी इसके बारे में आज कोई जानकारी नहीं बची है। एक तरह से पूरी स्लेट साफ़ कर दी गई है और फिर उसमें अंग्रेज़ी की 'बारहखड़ी' लिखी गई है। कभी-कभी उस स्लेट के प्रति हमारे मन में शुभ इच्छा जग जाती है तो हमें लगता है कि हमारे यहां ज्ञान की बहुत बड़ी मौखिक परंपरा थी। मौखिक परंपरा थी या लिखित थी? इसके भी प्रमाण नहीं हैं अभी अपने पास। धर्मपालजी नाम के एक वरिष्ठ गांधीवादी हैं, उन्होंने इस पर कुछ बुनियादी काम किया है।
उन्होंने मद्रास प्रेसीडेंसी में अंग्रेजों के आने से ठीक पहले कैसे स्कूल चल रहे हैं, उसमें क्या विषय पढ़ाया जाता है, कौन उनमें पढ़ने आते हैं इस सबका बहुत विशेष अध्ययन किया है। उनकी शैली बहुत अच्छी है 18-19 साल वे लंदन में रहे। वहां की इंडिया ऑफ़िस में लाइब्रेरी में राज लिटरेचर सबसे अधिक भरा पड़ा है, अंग्रेज़ों के अपने हाथ के हिंदुस्तान के बारे में नोट्स संस्करण सरकारी डायरी वगैरह। उन्होंने यह सब निकाला है। आगे भूमिका दी है 70-80 पन्ने की। बाक़ी पीछे पूरा दस्तावेज़ है। उस दौर में लंदन से आए अंग्रेज़ अधिकारी स्कूल का वर्णन कर रहे हैं। स्कूल की व्यवस्था कैसी होती थी। कैसे पैसा आता था। मंदिर द्वारा संचालित थे। वे अंग्रेज़ ही इन सबका अच्छा वर्णन कर रहे हैं। उसमें देखें तो यह पता चलता है कि ऐसे विषय बाकायदा पढ़ाए जाते थे। स्वतंत्र समाज के अपने लक्ष्य थे। वह अपना स्कूल चला सकता है, उसमें एक पाठ्यक्रम होना ज़रूरी नहीं है। राजा की आज्ञा की मर्जी से पाठ्यक्रम नहीं बनते थे। प्रजा की ज़रूरत को देख कर पढ़ाई-लिखाई तय होती थी।
किसी एक शिक्षा मंत्री की सील नहीं लगी थी उस पर। तो बहुत सारे विषय इन स्कूलों में नए-नए होते थे। कुछ ओवरलैप करते थे। कुछ गेप्स भी होते थे। उन्होंने लिखा है कि इन पाठशालाओं के अलावा काफ़ी बड़ा हिस्सा घरों में गुरुओं के माध्यम से पढ़ाया जाता था। इसके अलावा तीसरी एक सीढ़ी रही होगी जो केवल मौखिक परंपरा थी गुरु शिष्य परंपरा की। जैसे गजधर परंपरा, जिसको हम उस समय का सिविल इंजीनियर या वास्तुशिल्पकार मान सकते हैं। कुछ लोग काम करते-करते सीखते थे। लिखा-पढ़ी वाली पाठशालाएं भी र्थी और मौखिक व्यावहारिक शिक्षा वाली भी। कौन-सी कितनी ज़्यादा र्थी या कम थीं के बदले मैं यह कहूंगा यह दोनों धाराएं एक-दूसरे की पूरक थीं। लेकिन अचानक अंग्रेज़ों के आने के बाद किस तरह से यह टूटा यह तो अभी एक रहस्य है। मैं उसको नहीं समझा सकता। लेकिन इतना ज़रूर कहूंगा कि अपने सबसे अच्छे समाज सेवक जो बुद्धि में किसी से कम नहीं थे, राजा राममोहन राय जैसे लोगों के मन में भी यह बात आई कि अंग्रेजों के आने से पहले हमारे यहां शिक्षा थी ही नहीं। कितने बड़े पैमाने पर विस्मृति हुई है। हमारे सबसे अच्छे शिक्षाविद भी कहते रहे कि स्त्रियों की शिक्षा नहीं थी। धर्मपाल जी ने 18वीं शताब्दी में मद्रास प्रेसिडेंसी (तमिलनाडु ही नहीं, उसमें केरल और कर्नाटक सब शामिल थे) के स्कूलों की संख्या में स्त्रियों की हाज़िरी बताई है। क्योंकि एक अंग्रेज़ गया है स्कूल में अपने, सामने हाज़िरी ले ली है कि कितनी लड़कियां बैठी हैं, कितने लड़के बैठे हैं। उस किताब का नाम है 'द ब्यूटीफ़ुल ट्री'। यह वैसे 20-25 साल पहले की किताब है। वह पुस्तक ज़रूर पढ़नी चाहिए। उससे थोड़ा अंदाज़ लगता है कि अंग्रेजों से पहले हमारी शिक्षा कैसी थी। गांधीजी ने शायद गोलमेज़ कॉन्फ़्रेंस स में या किसी जगह पर कहा था कि आप इस मुगालते में न रहें कि आपके आने से पहले हमारे यहां शिक्षा नहीं थी। आपके आने से पहले शिक्षा का एक भरा पूरा वृक्ष हमारे पास था जिसकी जड़ें बहुत गहरी गई र्थी और जिसकी शाखाओं का अनंत विस्तार था। इस वाक्य से धर्मपाल जी ने अपनी किताब का नाम 'दी ब्युटीफ़ुल ट्री' रखा था।
मुझे लगता है कि दो तरह की शिक्षा रही होगी। एक जीवन की कुछ गंभीर बातों की और दूसरी रोज़मर्रा के काम की। यानी दोनों तरह की शिक्षा का उतना ही सम्मान था। यह सब कैसे नष्ट हुआ? यह मेरा विषय नहीं है इसलिए मैं कह नहीं सकता। लेकिन एक बार हारा हुआ समाज हारता चला जाता है। फिर उसके सिरहाने पर भी कुछ रखा हो तो उसको वह भूल जाता है। उसकी ऐसी मनोदशा हो जाती है। तालाब वाली किताब चूंकि आधार है इन सारी बातचीत का इसलिए दर्ज करना ठीक रहेगा कि तालाब कैसे बनाते थे इसका कोई छोटा-मोटा दस्तावेज़, पुरानी हस्तलिपि संस्कृत में, बोली में बहुत खोजने पर भी हमको कहीं नहीं मिली। फिर एक जगह हमको यह सूझा कि तालाब कैसे बनते थे के बदले समाज ने यह किया कि तालाब ऐसे बनते थे। बना के दिखाया। आप उसे बना लीजिए। तो कैसे बनते के बदले ऐसे बनते थे पर ज़्यादा ज़ोर दिया। एक के बाद एक हर पीढ़ी तालाब बनाती चली गई तो कोई नई चीज़ किसी को सीखने की ज़रूरत नहीं थी। वह नयी रही ही नहीं।
शून्य हो तो सीखना पड़ेगा। जब रोज़मर्रा का काम हो तो फिर सिखाने की ज़रूरत नहीं। आप प्रतिष्ठा हर लीजिए, तब तालाब कैसे बनेंगे फिर? अपने यहां कभी ऐसी कर प्रणाली नहीं थी राजा की तरफ़ से। क्रूर राजाओं के किस्से पिछले 100-150 सालों में हमने सब सने हैं। पर किसी भी राजा के हाथ में कभी इतनी शक्ति नहीं रही जितनी आज शायद एक कलेक्टर के हाथ में होगी या डी.एम. के हाथ में होगी। जैसे हर्षवर्धन के बारे में कहते हैं कि वे हर कुंभ में अपना खज़ाना खाली कर जाते थे। इसके दो अर्थ हो सकते हैं कि राजा बहुत उदार थे। पूरा ख़ज़ाना वे कुंभ में बांट देते थे। दूसरा शायद ज़्यादा व्यावहारिक है कि उनका ख़ज़ाना इतना कम होता था कि उसे बारह साल में खाली कर जाना कोई कठिन काम नहीं होता था!
आज की सरकार जैसा करोड़ों का और वह भी करोड़ों के घाटे का खजाना नहीं रहा होगा। कुछ पैसा देना है तो वहां पर न्यौछावर कर दिया। ऊपर राजा तक बहुत कम राशि पहुंच पाती थी। अधिकांश चीजें नीचे छूट जाती थीं। धर्मपाल जी ने अंग्रेजों से पहले के भारत में बताया है कि एक अच्छे कृषि संपन्न गांव में से कितनी पैदावार हुई, रुपया या मुद्रा के हिसाब से उसका कितना प्रतिशत वहीं रह गया। उसमें यह पता चलता है कि सबसे बड़ा भाग, अधिकांश हिस्सा वहीं रह जाएगा और वह मंदिर को जाएगा। मंदिर का मतलब चढ़ावे के लिए नहीं। उस समय का मंदिर उस आमदनी को सामाजिक कामों में लगाता था। किसी एक अंग्रेज़ डॉक्टर का वर्णन है कि किसी इलाके में चेचक जैसी महामारी फैली है तो मंदिर का पुजारी टीका लगा रहा है।
एक जगह यह वर्णन है कि पुलिस की सारी व्यवस्था मंदिर देखता है। आज हम इसकी कल्पना नहीं कर सकते और उसमें यह भी कि अगर उस गांव में चोरी हो जाती है और पुलिस पता नहीं कर पाती है तो पुलिस के कुल वेतन में से वह रकम काट के वापस करता है मंदिर। पुजारी कहेगा कि भाई हमसे गलती हुई। इतने रुपए चीरी हुए, हम इतने दिन में पता नहीं कर पाए। यह इनकी तनख़ाह में से काट कर जमा किया जा रहा है। इसके बाद कौन-सी चोरी होगी ऐसी कि जो पकड़ में नहीं आ सके! यह स्मृति 200 साल बाद भी पूरी तरह से मिटी नहीं है। अभी इस अकाल में एक गांव का बहुत वर्णन छपा है। गुजरात के राजसमदड़िया नाम के गांव के सरपंच बीस साल पहले अंग्रेज़ी में एम.ए. करके पुलिस की नौकरी में जा रहे थे। पर उन्होंने कहा कि नहीं अपने गांव की सेवा करनी चाहिए। तो गांव में सरपंच बन गये। उन्होंने अभी एक अखबार के इंटरव्यू में कहा है हमारे यहां अगर कोई अपराध हो, चोरी हो उसकी रिपोर्ट पुलिस में लिखवाने पर हम दंड देते हैं। पुलिस के पास मत जाओ। ग्राम सभा को रिपोर्ट करो। तीन दिन में हम अगर आपका हल नहीं ढूंढ़ पाए तो हम उतना पैसा वापस करेंगे।
आज की शिक्षा प्रणाली में स्वदेशी ज्ञान की रत्ती भर गुंजाइश नहीं दिखती। एक तरफ़ हम देखते हैं कि स्वदेशी शब्द पिछले दो-चार साल में बहुत ऊपर आया है। इसके बाद भी वह व्यवस्था में कोई जगह बना पाएगा ऐसा नहीं लगता। लेकिन एक दौर ज़रूर आ सकता है। जैसे कि गुजरात वाली बात हुई। ऐसे दो-तीन छुट-पुट किस्से अगर होते हैं तो लोगों का ध्यान इस बारे में तो ज़रूर आएगा कि स्वदेशी की बात एक सिद्धांत के नाते नहीं व्यवहार के नाते भी ज़रूरी है। जिसकी स्मृति में से जो चीज़ जाती है पहले वहीं वापस आनी चाहिए। पहले समाज के मुख्य हिस्से से जो चीजें गईं तो उनके ध्यान में आनी चाहिए। फिर शिक्षा में वापस आएगी, ऐसा नहीं होगा कि शिक्षा के माध्यम से समाज में आएगी, कुछ पूरक भूमिका ज़रूर हो सकती है।
इसलिए अकाल के कारण, कभी बाढ़ के कारण, कभी किसी और चीज़ के कारण ठोकरें लगेंगी। उनको लगेगा कि ये तालाब मामूली गड्ढे नहीं थे। ऊलजुलूल उटपटांग हरकतें नहीं थीं। सोची समझी एक तकनीकी व्यवस्था का रूप था। लेकिन यह वैसा रूप नहीं था जो आज हम इंजीनियरिंग के पाठ्यक्रम में पाते हैं। उसके पीछे एक सांस्कृतिक आधार था। उसके पीछे तीज त्योहार थे। उसी से लौटना होगा क्या? दो शब्द हैं-समयसिद्ध और स्वयंसिद्ध। अगर कोई चीज़ समयसिद्ध है तो 25-50, 100 साल की उपेक्षा की आंधी उस पर कोई असर नहीं डालेगी। अगर कोई समयसिद्ध है, स्वयंसिद्ध है तो उसे किसी बाहरी चीज़ की कोई ज़रूरत नहीं है। उसने समाज के बहुत बड़े इतिहास की सेवा की है। वर्तमान में वह थोड़ी देर के लिए लुप्त हो गई है। भविष्य में वह वापस आ सकती हो, तो ही वह एक परंपरा या स्वदेशी कहलाएगी। नहीं तो उससे जब छुटकारा मिले, मिल जाने दो। उसका मोह क्यों करें? यह 'हमारी' चीज़ है मोह इसलिए रखना ज़रूरी है? हम तो कहते हैं कि कोई आधुनिकतम मशीन या आविष्कार अगर मरुभूमि को पानी दे दे तो हम कुंड, कुएं व तालाबों को एक म्यूज़ियम बना कर रख दें हमेशा के लिए। चार आने का टिकट लगा देंगे। लेकिन हो यह रहा है कि जिनको हम आधुनिक मानते हैं वह तकनीक, तरीके केवल पानी निकाल सकते हैं। पानी पैदा नहीं कर सकते, पानी का संग्रह नहीं कर सकते। इसलिए लौट कर आपको उसी पर आना पड़ेगा। और यह सब केवल अपने यहां का नहीं-सभी जगह यह अनुभव ठोकर खा कर वापस आएगा।
अभी के विज्ञान की पढ़ाई और 'पारिस्थितिकी विज्ञान' की पढ़ाई में अंतर नहीं है। यह नया है। अपने समाज से कटा हुआ पढ़ाई-लिखाई का कोई भी ढांचा एक तरह से बोझा ही होता है। पर्यावरण विषय भी उसी पद्धति में से निकला हुआ एक विषय है। माध्यम हिंदी हो, अंग्रेज़ी हो यह बहस नहीं है। कुल मिला कर जो ज्ञान दिया जा रहा है, वह अंग्रेजी विचार का दिया जा रहा है। फ़र्क़ समझ में आ गया ना? भाषा हिंदी हो सकती है, सिंधी, गुजराती हो सकती है लेकिन विचार अंग्रेज़ी का है। दुनिया को देखने का, पर्यावरण को समझने का। उसमें से कोई नई भूमिका बनती हो अभी यह मुझे नहीं दिखता। भूमिका बन ज़रूर सकती है। लेकिन उसके पीछे कुछ लोगों की अच्छी मेहनत और परिस्थितियों का भी हाथ हो शायद। जैसा गुजरात वाले अकाल में चर्चा की। जो वन विज्ञान पढ़ते हैं वह बिल्कुल एक भिन्न किस्म की प्रोडक्शन फ़ॉरेस्ट्री है। उस विज्ञान से वनों का कटना लोगों ने देख लिया। तो उसके बाद जब उन्हीं को लगा कि इसमें से कुछ ज़्यादा नुक़सान हो रहा है तो उन्होंने सोशल फ़ॉरेस्ट्री नाम से उसमें से एक छोटा-सा कार्यक्रम निकाला। लेकिन अच्छे से-अच्छे, ईमानदार वन वैज्ञानिक, अधिकारी के मन में भी यह बात कभी नहीं आ सकी कि अपने यहां सामाजिक वानिकी का सबसे अच्छा रूप तो ओरण परंपराएं हैं। चलो उसी को क्यों नहीं सुधार लें! ओरण शब्द आपको मरुभूमि के एक भी विश्वविद्यालय में देखने, सुनने, पढ़ने को नहीं मिलेगा। यह आज इतना अछूत शब्द कैसे है? उसको विश्वविद्यालय हाथ लगाते हुए क्यों डरता है? चाहे इस सरकार के समय में चाहे उसके। स्वदेशी के समय में हो विदेशी के समय में-सभी इन चीज़ों को हाथ लगाते हुए डरते हैं। इसलिए अभी औपचारिक शिक्षा में यह विषय उस रूप में नहीं उतरेगा, जिस रूप में हमें वह समाज में मिलता है।
जाति, धर्म, संप्रदाय में बटे समाज को एकसूत्र में पिरोने के लिए आप व्यक्ति के पर्यावरण के प्रति संवेदना को कितना कारगर मानते हैं और पर्यावरण के माध्यम से इस तरह की एकता को आप किस रूप में देखते हैं?
बहुत पक्का नहीं कह सकता कि जाति धर्म और संप्रदाय ने समाज को कितना बांटा है और कितना एक सूत्र में पिरो कर रखा है। अभी गुजरात का ताज़ा उदाहरण है जहां पर अकाल के बाद पाटीदार समाज ने क़रीब-क़रीब दो हज़ार गांवों में पानी का काम शुरू किया। अब वे चार हज़ार गांवों में फैलना चाहते हैं। इतनी बड़ी कोई संस्था नहीं है। इतनी बड़ी कोई सरकारी पहल नहीं। पाटीदार समाज ने अपने आप को एक साल में संगठित करके दो हजार गांव में फैलाया और क़रीब-क़रीब 150 करोड़ रुपया, 1.5 अरब चंदा इकट्ठा किया। यह जाति की एकता के कारण हुआ होगा। उसमें वह गांव भी शामिल है, जिसमें उनकी जाति नहीं है। पर्यावरण के कारण एक हुए, उनको पानी की चोट पड़ी थी। वे हीरों के व्यापारी हैं। उन्होंने देखा कि उनके पास हीरा है, पैसा भी है पर पानी कहीं नहीं बचा। पानी लगातार कम हुआ है गांव में तो उनको लगा कि इन दोनों को फिर से जोड़ना चाहिए। यह एक उदाहरण है। जाति द्वारा जोड़ने का। धर्म ने भी समाज को बांटा है या जोड़ा है यह पक्का नहीं कह सकते। धर्म तो बाद की बात है, संप्रदाय भी समाज को जोड़ कर रख सकते हैं। परिस्थति कैसी है यह देखना पड़ता है। संप्रदाय या धर्म तोड़ने का ही काम करेगा या जोड़ने का ही काम करेगा ये दोनों ही आवश्यक नहीं है। कभी वह तोड़ भी सकता है कभी वह जोड़ भी सकता है। इसका सबसे अच्छा उदाहरण हमें बाड़मेर में एक ओरण में देखने को मिला। ओरण के मंदिर की पूजा मुसलमान पुजारी करते हैं। उनसे हम लोगों ने पूछा कि इस्लाम में तो बुत-परस्ती को अच्छा नहीं मानते। यह तो मूर्ति पूजा हुई वह भी हिंदू देवी की हुई। उन्होंने बड़ी कड़क आवाज़ में उत्तर दिया कि यह देवी साक्षात देवी है, बुत नहीं, पत्थर की नहीं। ऐसा उत्तर शायद सनातन हिंदू भी नहीं देगा कि मैं जिस पत्थर की पूजा कर रहा हूं, वह पत्थर नहीं है। मुसलमान कहे कि मैं तो सामने जो देवी बैठी है उनकी पूजा कर रहा हूं यानी उसमें प्राण है। मुझे लगता है इसका कारण है कि ओरण इतना ज़रूरी है उनके लिए। उस इलाके के गोधन के लिए। चराई के लिए। अपने जीवन के लिए। वहां हिंदू हो या मुसलमान, वह उस ओरण सेवा से जुड़ा रहेगा। उसका नाता ओरण से है। ओरण इतना महत्वपूर्ण नहीं होता तो वह अपने धर्म को दांव पर नहीं लगाता।
इसलिए जो आपने कहा है वह सही है कि पर्यावरण उन दोनों को जोड़ के रख सकता है। बटे हुए समाज को भी एक तालाब जोड़ कर रख सकता है क्योंकि वही सबको पानी देगा। इसलिए उसे गंदा नहीं होने देना है तो उसके जो भी नीति नियम हैं उन्हें मानना पड़ेगा।
पर्यावरण-तंत्र को समझने वाले लोगों ने बहुत ही प्रामाणिक तौर पर यह कहा है कि प्रकृति का अपना चेक और बैलेंस होता है। और इसके अंतर्गत यदि कोई भी प्रजाति अपनी सीमाओं का अतिक्रमण करती है तो उसका अंत हो जाता है यानी कि एक सीमा के पश्चात हर प्रजाति का अवसान होता है। और अब तक के इतिहास में प्रकृति में ऐसा ही घटित हुआ है जो इस तर्क का पुख्ता साक्ष्य प्रदान करते हैं कि जब भी कोई प्रजाति, प्रकृति की केरिंग कैपेसिटी से ज़्यादा हो जाती है तो अंतर-प्रजातीय प्रतिद्वंद्व के फलस्वरूप स्वयं के विनाश की ओर ही अग्रसर होती है। परंतु इसके साथ-साथ एक और तर्क यह भी है कि चूंकि मानव में बुद्धि है, क्षमता है चीज़ों को जानने समझने और विश्लेषण करने की; मानवीय विकास प्रक्रिया में उस तरह का मुकाम नहीं आएगा। फिर भी आज जिस तरह की आपातकालीन परिस्थितियों में हम घिरे हैं उसमें इस तरह के तर्कों के बारे में आपका सोचना क्या है?
नींद में चलना एक बीमारी है। सोते-सोते कोई भी उठ जाता है और चलने लगता है। उसके लिए वह बिल्कुल सहज है पर दूसरों को देख कर लगता है यह कैसी बेवक़ूफ़ी हो रही है। मैं सोचता हूं कि समाज के इतिहास में कई क्षण आते हैं जब वह वास्तव में नींद में चलने लगता है। कुछ लोगों को दिखाई देता है कि यह नींद में चल रहा है। इसको जागना चाहिए। इस समय का दौर एक सोए हुए समाज का है जो चल रहा है। वह किसी भी समय छत पर से नीचे गिर सकता है। मुंडेर से टकराकर। पर उसे इतना आत्मविश्वास है। उसको लगता है कि वह ठीक सीढ़ियों से चढ़ेगा और उतरेगा और बाद में अपने बिस्तर पर आकर विश्राम करेगा। तो ऐसा नहीं है कि ऐसी दुर्घटना नहीं होगी। इसको हम दूसरे अर्थों में यह भी कह सकते हैं कि कई बार हमें विज्ञान पर अंधश्रद्धा हो जाती है या अंधविश्वास जो विज्ञान के स्वभाव से परे है। पर विज्ञान और वैज्ञानिक भी अंधविश्वास का आधार बन सकते हैं। तभी हमको लगता है कि हम कितनी भी अत्त (अति) करें, हम तो बच जाएंगे। कोई-न-कोई हल निकल आएगा। पहले सारा पानी ट्यूबवैल लगा कर उलीच कर फेंक दो। विज्ञान पानी दे देगा। एक नदी का पानी दूसरी नदी के क्षेत्र में ले आएगा। एक नदी सुखा दें हम, विज्ञान, तकनीक दूसरी नदी ले आएंगे। पिछले कई साल से सुन रहे हैं कि सारी नदियों को जोड़ देंगे हिंदुस्तान की। बाढ़ का पानी अकाल तक ले जाएंगे और शायद अकाल का सूखापन बाढ़ के इलाके में आ जाएगा। सूखा गीले में बदल जाएगा और गीला सूखे में। यह अंधविश्वास है आज के सबसे पढ़े-लिखे लोगों का। तो इससे कुछ होता नहीं है। इसलिए हर एक समय में समाज में ऐसी समझदारी, विवेक, आधार चाहिए जिससे वह देखे कि कब वह अपनी कुल्हाड़ी से न सिर्फ पेड़ काट रहा है बल्कि उसी तरफ़ बैठा है। दूसरा कब उसने पेड़ काटना बंद कर अपना पैर काटना शुरू किया है। अपने हाथ से अपनी कुल्हाड़ी से अपना पैर काटा। यह इस समय का बहुत बड़ा लक्षण है और उसको यह दिखाई नहीं देता। वह नींद में चल रहा है और अपने आपको जगा हुआ मान रहा है। ऐसे में प्रकृति ज़रूर झटका देती है। अकाल बाढ़ वगैरह उसके झटके हैं याद दिलाने के लिए कि भाई अब तुम जग जाओ, बहुत हो गया। अब जिसको हम मां की ममता वगैरह कहते हैं, प्रकृति ऐसे शब्द कभी-कभी भुला देती है और फिर अच्छी तरह से थप्पड़ भी लगा देती है।
समाज के कुछ हिस्से में यह विवेक हो कि वह सोते हुए को हल्के से हिला कर बता सके कि तुम नींद में चल रहे हो। अगर वह भूमिका बिल्कुल समाप्त हो जाएगी तो समाज टकराएगा, गिरेगा।
आपके विचार में किसी भी स्थान के क्लाइमेटिक सेटअप और पैटर्न एक समाज की जीवन-पद्धति व शैली को निर्धारित व निर्देशित करने में क्या भूमिका अदा करता है?
पूरी भूमिका उसी की होती है मैं तो यह मानता हूं। अगर हम अलग-अलग समाजों के रीति व्यवहार इन सबमें परिवर्तन देखते हैं तो यह कोई दुर्घटना नहीं है। यह अगर वहां पानी बहुतायत है तो उसके कारण पानी की आदतें वैसी होंगी, कमी है तो वैसी होंगी। समुद्र के किनारे हैं तो समुद्र जैसा उसका स्वभाव होगा। पता नहीं ऐसा उदाहरण देना चाहिए या नहीं लेकिन बिहार में बड़ी नदियों के किनारे रहने वाले ब्राह्मण भी मछली खाते हैं और पूरा बंगाल तो खाता ही है। लेकिन बाक़ी इलाक़ों में ब्राह्मण मछली खाने की सोच भी नहीं सकते। उसको मांस मानेंगे। पर बिहार, बंगाल में मछली का नाम है जल तरोई। तरोई तो अपने यहां सब्जी है। बिल्कुल यह जल तरोई है। ऐसे नाम भी देने पड़े उनको। उस इलाके की जो रीति बनती है जो संस्कार बनते हैं, वह वहां हवा, पानी, मिट्टी से बनते है। बर्फ़ के इलाक़े में अलग संस्कार होंगे। लेकिन इसके बाद भी एक कोई समान व्यवहार भी होता है। और उससे आपको लगेगा कि वह आसपास के उन इलाके से भी मेल खाता है। समाज को हम डको जोन में नहीं बांट सकेंगे कि देश में 18 इको ज़ोन है तो 18 संस्कृतियां भी होंगी! संस्कृति एक ही होगी-मरुभूमि की भी और महाराष्ट्र की भी। लेकिन उनके बीच में अंतर बराबर दिखेंगे।
हम स्वदेशी शब्द सुनते हैं। जीवन शैली भी है। स्वदेशी का मतलब केवल धोती कुर्ता या साड़ी पहनना नहीं। उस इलाके की सब चीज़ों में मन रम जाए। वहां की जो चीज़ें हैं उनको अपने भोजन में शामिल करना, उनको अपनी पढ़ाई में शामिल करना यह सब स्वदेशी का हिस्सा है। फिर एक स्थिति ऐसी आई हमारे समाज में कि अपने आसपास की चीज़ों का ध्यान ही नहीं रखना है। उनसे हमारा जीवन नहीं चल रहा। अब जो इस समय हमारे आधुनिक लोग हैं उनका सुबह का नाश्ता, दोपहर का भोजन, रात का खाना हो सकता है दो सौ चार सौ किलोमीटर दूर से आता हो। उनके कपड़े हांगकांग के बने होंगे कि सिंगापुर के। एक अगर औसत अमेरिकी या यूरोपीय व्यक्ति के जीवन का हम विश्लेषण करें तो अधिकांशत: उनकी चीजें आस-पास से न होकर दूर-दूर से आ रही हैं। यानी वे अपने निकटतम पर्यावरण पर आधारित न होकर अब दूर-से-दूर के पर्यावरण पर आधारित हैं। चीजें बहुत दूर से आती हैं और उस दूरी में भी सघन रूप से निचोड़ी जाती हैं। इस कारण वहां का पर्यावरण बुरी तरह बर्बाद होता है। लेकिन दूर बैठे लोगों को वहां की बर्बादी से कोई लेना-देना नहीं हैं। कहीं से कुछ भी आ सकता है। ताज़ा फल अपने यहां तो फिर भी केला भुसावल का है। लेकिन अमेरिका वगैरह में तो 'बनाना स्टेट' से आता है। ये विशेष देश हैं, उनके यहां से केले की फ़सल पूरी-की-पूरी उखाड़ कर अमेरिका की खाने की टेबल पर आती है। बड़ी-बड़ी कंपनियां टमाटर की चटनियां वग़ैरह बनाती हैं। वे इन देशों को गिरवी रखती हैं। वहां से टमाटर पैदा होता है क्योंकि वहां मज़दूर सस्ता है और हवाई जहाज़ से यहां पटका जाता है उनकी टेबलों पर तो, इससे अपने पर्यावरण के प्रति कोई लगाव नहीं बचता है। किसी भी पारिस्थतिकी-तंत्र के स्वस्थ व समृद्ध होने के लिए अधिकतम जैव-विविधता (bio-diversity) अनिवार्य है और पारिस्थितिकी-विज्ञान का सिद्धांत है कि higher the diversity the more stable an eco-system is.
1. मानवीय अतिजीवता और विकास को सुनिश्चित करने के लिए आप जैव-विविधता की क्या भूमिका मानते हैं?
2. भारत जैव-विविधता के क्षेत्र में एक संपन्न देश है और यहां पर विश्व के गिने-चुने जैव-विविधता के हॉट स्पॉट्स हैं। हमारा पारंपरिक ज्ञान विविध flora और fauna के कई सारे इस्तेमाल और संरक्षण की समृद्ध जानकारी रखता है परंतु उनका कोई लिपिबिद्ध संग्रहण नहीं है। ऐसे में आप वर्तमान IPR संरचना और पैटेंटिंग तंत्र की इस माने में सक्षमता को कैसे और किस तरह से आंकते हैं जिससे कि हम अपनी अमूल्य प्राकृतिक व जैविक संपदा को विकसित राष्ट्रों की लालची व्यापारिक जकड़न से बचा सकें?
3. इस तरह के ख़तरों को ध्यान में रखते हुए क्या आपको यह नहीं लगता कि आधुनिक वैज्ञानिक और तकनीकी दक्षता यदि नियंत्रित और व्यवस्थित हो तो हमारी धरोहर को अक्षुण्ण रखने में वह मददगार सिद्ध हो सकती है, जो कि हाल ही में नीम का पैटेंट जीतने से साबित होती है, क्योंकि अगर बी.एच.यू. के प्रो. सिंह आधुनिकतम तकनीक व वैज्ञानिक दक्षता से लैस नहीं होते तो हम इस जीत और अपनी अमूल्य धरोहर के अधिकार से भी वंचित रह जाते?
कई बार चीज़ हमारे हाथ से निकल जाती है तब हमको याद आती है। जैव विविधता वैसा ही शब्द है। जिन समाजों ने अपनी आदतों के कारण अपने विचारों के कारण न सिर्फ़ अपने यहां बल्कि पूरी दुनिया में जैव विविधता को नष्ट किया है, उन्होंने यह नया शब्द भी निकाला है। शब्द को आए हुए भी कुछ चार-पांच साल से ज़्यादा नहीं हुआ। इसलिए अच्छा ही है कि इसके कारण कुछ बच-बुचा जाए। लेकिन जो आप का मुख्य सवाल है वह बहुत महत्वपूर्ण है-किसी भी समाज में यह स्थिति जब सब विषयों में होती है तभी वह बचता है। विविधता सिर्फ जैवीय नहीं। हमारे यहां ऐसा शब्द नहीं पर ऐसा काम कर रहा है। चाहे अन्न में हो, वनस्पति में हो। उसने उसको जैव विविधता नहीं कहा है। बोलियों में इसके लिए शायद कुछ शब्द मिल जाएंगे तो मुझे नहीं पता। खोजना चाहिए। लेकिन अपने यहां एक पुराना शब्द अन्नब्रह्म भी है। उसमें सब कुछ आ जाता है। उसमें हर तरह का जीवन आता है। सबका विचार भी समेटता है। इसी तरह यहां तीन हज़ार-चार हज़ार या 36 हज़ार धान के बीज थे, गेहूं के बीज थे, इन्हें तो हर वर्ष लाखों किसान लाखों खेतों में बोते थे। वास्तव में वे कृषि पंडित थे। उन्होंने यह देखा कि एक गांव में जितने अधिक तरह के धान हम बोएंगे उतना कम कीड़ा लगने वाला है। मिट्टी, पानी, हवा बदलती है तो बीज भी बदलते गए।
सांस्कृतिक विविधता भी उसमें शामिल थी। सहिष्णुता उसमें शामिल थी। मुख्य तो सहिष्णु शब्द रहा कि सबका आदर करना है। सहना नहीं है। सहना और सहिष्णु होना इसमें अंतर है। इज़्ज़त भी करनी है। इनको भी साथ लेकर चलना है। सब बीजों को सब जीवों को बचाना है। हम ही सृष्टि के केंद्र नहीं हैं। इसीलिए पशुओं में भी ऐसा नहीं रहा कि कोई एक को रखा, बाकी को भूल गए। मरुभूमि में और राजस्थान के एक बहुत बड़े हिस्से में धराड़ी नाम की एक प्रथा है। वह धारण से बनी है। हर एक गोत्र के, जाति के जिम्मे पांच-पांच पेड़ कर दिए जाते थे। सब अपने-अपने पेड़ों की रक्षा तो करते ही थे, दूसरों को भी नष्ट नहीं करते थे। किसी को यह नहीं कहा कि तुम्हारा देवता सफ़ेदा है उसको लगाओ और पैसे कमाओ। इस समय तो सब जातियों की एक ही धराडी है। लेकिन यहां तो एक-एक छोटे-बड़े पेड पौधों का ध्यान रख कर उनको पनपने के अवसर बाकायदा दिए गए। यह अनजाने में हो गया ऐसा नहीं। एक व्यवस्थित ढांचा उसका खड़ा किया गया था। इसलिए वह जैव विविधता और वह समाज भी लंबे समय तक बचा रहा। आज वह हमको गिरता पड़ता दिखता है तो शायद यह बहुत छोटा इतिहास है।
ऐसा नहीं है कि आधुनिक ज्ञान और उसके ख़िलाफ़ कमर कस लेनी है। अलग-अलग समय के अलग-अलग हथियार होते हैं। जो उनको चलाने में सिद्धहस्त हैं उन्हें उनको चलाने देना चाहिए। हो सकता है कि उन्हीं के कुछ तरीके भी अपनाने पड़ें। इसमें कोई विवाद नहीं है। लेकिन विवेक तो अपना होना चाहिए। कई बार तो ऐसा हो जाता है कि हम उनके ख़िलाफ़ लड़ते दिखाई देते हैं पर उनके विवेक से लड़ते हैं, अपने विवेक से नहीं लड़ते।
1. हाल ही में वन संरक्षण और प्रबंधन की चर्चा सारे विश्व में जोरों से की जा रही है परंतु सदियों से जो वनवासी इन वनों को धरोहर के रूप में पीढ़ी-दर-पीढ़ी एक दूसरे को सौंपते आए हैं और इनकी देखभाल करते आए हैं उन्हें पूरी चर्चा में कहीं शामिल नहीं किया जा रहा है। उल्टा उन्हें ही दोषी करार देकर इन वनों से बेदख़ल किया जा रहा है। इनकी आबादी में वृद्धि से जंगलों पर ईंधन और चारे का बोझ बढ़ा है, फिर भी इस पूरे परिदृश्य को आप किस दृष्टि से देखते हैं और क्यों?
2. धरती को हरा-भरा करने के चक्कर में वन-विभाग के अफ़सरों ने जो कई सारी exotic प्रजातियां इंट्रोड्यूस की हैं जैसे की यूकिलिप्टस (जिसकी वजह से हिमालय में जल-स्तर नीचे चला गया है) और Prospis Juliflora यानी विलायती बबूल (जो कि बावलों बवाल के रूप में जाना जाने लगा है)। इस तरह के बिना सोचे-समझे किए गए introduction हमारी जैव-विविधता के लिए एक बहुत बड़ा ख़तरा है और चूंकि भारत एक जैव-विविधता संपन्न देश है हमारी ज़िम्मेदारी इस संपदा को संरक्षित करने की और बढ़ जाती है। ऐसे में इस तरह के ख़तरों से आपके विचार में कैसे निपटा जाए जिससे कि वर्तमान समय और आने वाले समय में इनकी वजह से कोई बहुत गहरा संकट न पैदा हो?
अंग्रेज़ों के आने से पहले तक जिन्हें हम अंग्रेज़ी के अनुवाद के कारण आदिवासी वनवासी कहते हैं, उनके बड़े-बड़े राज्य थे। मध्यप्रदेश, गुजरात, राजस्थान वगैरह में उनके राज्य थे, उनके जंगल भी थे। अचानक उससे वे बेदखल कर दिए गए। वे अपने ही आंगन में पराये हो गए। उसके बाद समय-समय पर कुछ करुणा, कुछ उद्धार, इस तरह से इनके बीच कुछ काम हुआ वन के प्रश्नों को लेकर। कभी उनको मालिक मान कर काम नहीं किया कि ये एक लड़ाई हार गए थे लेकिन मालिक तो ये ही थे। आज भी आप देखेंगे चाहे सर्वोदय हो चाहे कोई ईसाई मिशनरी हो राष्ट्रीय स्वयं सेवक के लोग हों जो कोई भी वनवासी क्षेत्र में काम करने जाते हैं उद्धार की भावना से ही जाते हैं। उन्हें मालिक मान कर नहीं जाते। 300 साल पहले हमारे आपके पुरखों में से कोई-न-कोई इन वनवासी राजाओं के यहां सलाहकार रहा होगा, नौकर रहा होगा दरबार में। पर इनका मालिक नहीं था। लेकिन अंग्रेजों के आने के बाद इन वनों का इस्तेमाल शुरू हुआ। सबसे पहले रेल के लिए इनको काट के नीचे लाया गया था। अगम्य इलाकों में उन्होंने रेल की पटरियां बिछाईं। वहां के जंगल भरपूर कटे। आज़ादी के बाद भी वही व्यवस्था चली। पिछले दो-चार साल से बात हो रही है कि अब 'संयुक्त वन प्रबंध' करना चाहिए। वन विभाग से वनों का बोझा ढोते नहीं बना। उनके पैर डगमगा गए। तो विभाग ने कहा, 'आप लोग भी आओ इसमें आप भी शामिल हो'। इसलिए 'संयुक्त प्रबंध' की चर्चा में कम-से-कम 'सोलो' के बारे पूछना चाहिए कि इनका एकल प्रबंध कौन करता था। इससे पहले जो जाति और समाज प्रबंध करते थे, उनको प्रयोग के तौर पर एक ज़िला, एक प्रखंड तो सौंप कर देखो।
हम सुनते रहे हैं कि गांव के बोझ के कारण वनों पर बोझ पड़ा, लकड़हारे, लकड़हारिनें वन काट रही हैं। वन क्षेत्रों के नज़दीक हर जगह पेड़ काटने वालों की कतार चलती आती है। पर यह लकड़ी किसके लिए काट रहे हैं ये? यह अपने चूल्हे के लिए नहीं काट रहे। ये लोग लकड़ी शाम को बाजार में बेचते हैं। जो आबादी गैस नहीं ले पाई है अभी, चूल्हे से छोटे कस्बों में काम चलाती है, उनके लिए लकड़ी कट कर आ रही है। सिर का बोझा अपने लिए नहीं है। आदिवासी अपने लिए तो कचरा जला रहा है। क्या जला रहा है यह तो पता ही नहीं। उनका खाना कैसे बन रहा है? इसमें से तो वह दो पैसे बचाता है। इसलिए यह कहना कि उसके कारण नष्ट हुआ, यह तो बहुत बड़ी गलती है। इसको हम कब सुधारेंगे? कब उनसे क्षमा मागेंगे? जिनको बिना किसी मुआवज़े के बेदख़ल कर दिया गया, आज उनको ज़मीन के लिए लड़ना पड़ता है, आज उन्हें जंगल के लिए लड़ना पड़ता है, उन्हें पानी के लिए लड़ना पड़ता है। इन तीनों चीज़ों पर उनका पूरा नियंत्रण था। उनका प्रबंध भी बहुत अच्छा था। किसी भी दूसरे समाज से कमज़ोर नहीं था।
कुछ हिस्सों में पहाड़ों में और मैदानों में-सफ़ेदा नाम का पेड़ लगा है। हिमालय में भी है गुजरात में भी आया है। लोगों ने अनाज बोना बंद कर यह बोना शुरू किया। कहा गया कि अनाज से ज़्यादा पैसा तो इसमें से मिलेगा। पूरा समाज इसी काम को करने लग जाएं कि अनाज से ज़्यादा तो इसमें से पैसा मिलेगा तो खाओगे क्या? सफ़ेदा खा नहीं सकते। इसी तरह विलायती बबूल का किस्सा है। पूरी मरुभूमि इसमें गई और कच्छ भी गया। कच्छ का बहुत बड़ा हिस्सा। दिल्ली वगैरह में भी खूब आ गया है। वह तो बिल्कुल एक खरपतवार की तरह बढ़ता है।
तीसरा एक पेड़ और है। इसके प्रति वन विभाग का मोह तो है ही, अच्छी स्वयंसेवी संस्थाओं का भी मोह रहा है। वह है सुबबूल। उसका नाम पहले कुबबूल था। बाद में अपने गुणों के कारण इसे सुबबूल नाम मिला। वह भी किस से?
इस पेड़ की तारीफ़ श्रीमती इंदिरा गांधी को इतनी सुनाई गयी कि उन्होंने पूछा कि अगर इतनी तारीफ़ करते हैं इस पेड़ की तो इसका नाम कुबबूल क्यों है? इसका नाम तो सबबल होना चाहिए। उसी दिन से वह सुबबूल हो गया। ऐसे तीन पेड़ों को लगाकर देश को हरा-भरा दिखाने का काम चलता रहा है। यह लीपापोती अपनी गलतियों को छिपाने के लिए है। सफ़ेदा तो सिर्फ इसीलिए लगता रहा है क्योंकि उसे जानवर नहीं खाते। ऐसे वृक्षारोपण का मतलब क्या जिसको जानवर नहीं खाए। इसका मतलब कि इसे राजनीति वाले, वन विभाग वाले खाते हैं! जो किसी विभाग की कमियों को छिपाने के काम आए, इसका मतलब है वह उस विभाग का चारा है। उसके काम का पेड़ था इसलिए विभाग ने उसको बहुत प्यार किया और फिर-थोड़ा बाज़ार के भी काम का था। पर बाज़ार का अपना स्वभाव होता है। बहुत लग गया सफ़ेदा तो दाम गिर गए।
तो उसका इतना मामूली दाम मिलने लगा कि धीरे-धीरे लोग हतोत्साहित होने लगे। सोयाबीन का भी एक दौर आएगा और भी कुछ चीज़ों का। गन्ने का भी आता है। कभी-कभी पश्चिमी उत्तर प्रदेश में लोग उसे भट्टी में जला देते हैं। भैंसा गाड़ी में लादकर उसे चीनी मिल ले जाने तक का ख़र्चा नहीं निकलता। लेकिन सुबबूल और विलायती बबूल अभी भी टिके हैं। ये दोनों खरपतवार की तरह फैल गए हैं। इतना बड़ा नुकसान हुआ है। इसकी तरफ़ किसी आंदोलन का भी ध्यान नहीं है। संस्थाओं का भी नहीं है।
इन तीनों पेड़ों के बारे में हमेशा यही कहा गया था कि ये बड़ी तेजी से बढ़ते हैं। लेकिन समाज केवल 'तेज़ बढ़ने' के तर्क से नहीं चलता। अच्छे कामों, अच्छे उपयोगी पेड़ों को, संतति को भी धीरज और प्यार के साथ पाल-पोस कर बड़ा करना पड़ता है।
ऐसी चीजों से निपटने के लिए ऐसे विचारों से यानी बीजों से भी बचना पड़ेगा। बीज रूपी विचार से भी बचने की तैयारी होनी चाहिए। बाहर से कोई पेड़ आया है। बाहर से कोई विचार आया है, वह हमको तार ले जाएगा। हमारे पर्यावरण को ठीक कर देगा। वह हमारी सब समस्याएं हल कर देगा, ख़ूब तेज़ी से बढ़ता है। इसलिए लकड़ी की कमी पूरी कर देगा-ऐसे विचार रोकने की आदत होनी चाहिए। एक बार ठिठक जाएं हम उसे सुनकर कि इसकी कोई और अच्छी बात बताओ। अभी तो यह अपनाने लायक़ नहीं है। लेकिन यह ठिठकने का स्वभाव इस बीच में नष्ट हुआ। इसका कारण यह है समाज के मुखर हिस्से की पढ़ाई भी उसी विचार से हुई है। विशेषज्ञता पाने के लिए भी वह वहीं जाता है। सामाजिक विज्ञान ही नहीं, वन विज्ञान हो, भाषा विज्ञान हो, साहित्य हो कोई भी चीज हो, उसकी विशेषज्ञता हासिल करने का मतलब आप अपने गुरुत्वाकर्षण वाले केंद्र पर गए कि नहीं। यह केंद्र यूरोप और अमेरिका है। बस्तर के जंगल पर भी विशेषज्ञता प्राप्त करनी है तो बस्तर जाने के बदले लंदन जाना ज़्यादा योग्य माना जाता है! इसलिए विचार रूपी बीज को जब तक हम ठीक नहीं कर पाएंगें, ऐसे पेड़ समय-समय पर आएंगे, ऐसे हल भी समय-समय पर आएंगे जो वास्तव में हल न करके हमारी समस्याएं बढ़ाएंगे। उस बढ़ी हुई समस्या को समझने का विवेक भी ख़त्म हो गया है। नहीं तो सुबबूल लगने के दो साल बाद पता चलता कि यह काम गलत है। उसने भी दस साल लिए। विलायती बबूल को तो अभी समझने का भी दौर नहीं है। समाज का एक हिस्सा उससे त्राही-त्राही कर रहा है। लेकिन जिसे नीति निर्धारक कहते हैं उसका अभी भी ध्यान नहीं। लेकिन ग्वालों को जिनकी गाय उसे खा नहीं पाती हैं, या उसको खाकर ज़हरीली हो जाती हैं, उनको रोज़ ध्यान में आ रहा है। कच्छ में रोज इसे खाते-खाते गाय मर रही हैं। समस्या सब जगह है लेकिन उसको आज स्वीकार करने लायक़ तक विवेक नहीं बचा। जो अच्छे वन विज्ञानी हैं उनके ध्यान में नहीं आ रहा है कि इसके पीछे क्या विज्ञान है; यह तो हमारे काम का नहीं है। हम जिस चीज़ को अपनी थाली में खा न सकें, उसको लगातार लगाते चले जाएं। वही बात आपको सोयाबीन में मिलेगी। उसकी दाल नहीं बनती। फिर भी हम उसे बोए जा रहे हैं-पश्चिम के बाज़ार के लिए।
हमारे समाज में बराबर यह रेखांकित किया जा रहा है कि भारतीयों में राष्ट्रीय चरित्र व नागरिक बोध का गहरा अभाव है ऐसे में एक स्वस्थ पर्यावरणीय संरचना व चेतना हमारे समाज में कारगर तरह से व्याप्त हो सके उसके लिए आप किस तरह के नागरिक उपायों को सुझाना चाहेंगे?
समाज का एक बहुत बड़ा हिस्सा बिल्कुल किनारे कर दिया गया है। समाज के बड़े हिस्से को हाशिए पर कर दिया जाए और बहुत थोड़ा सा हिस्सा पूरी जगह घेर ले और वही मुख्यधारा कहलाने लगे, तब ये दिक्कतें शुरू होती हैं। इसलिए मुझे लगता है कि नागरिक बोध से भी काम नहीं चलेगा। मुख्यधारा के इन नागरिकों में बोध वाली गुंजाइश मुझे बहुत कम दिखती है। मुझे लगता है कि ऐसे में कर्तव्य बोध की ज़्यादा ज़रूरत है। जो जहां है उसका क्या कर्तव्य है, जो जहां है उसका क्या कर्तव्य होना चाहिए; वह सोचना शुरू करे। समाज का अधिकांश हिस्सा तो अभी भी अपने जीवन को उस ढंग से चलाना चाहता है। लेकिन उसके हाथ में अब किसी तरह की पहल, शक्ति, साधन नहीं बचे हैं। वह सब तो उससे छीन लिया गया है। शायद कहीं बीच में एक बातचीत छूट गयी थी। गांव का सबसे अधिक राजस्व वहीं का वहीं छोड़ा जाता था। मैसूर का एक क़िस्सा है। तालाब की किताब में है। जो लोग तालाब की रखवाली करते थे उनसे कम कर लिया जाता था। तालाब बनाने वालों को भी कर में विशेष छूट दी जाती थी। ये सब जब नष्ट कर दिया जाए तो तालाब सरकार के हवाले हो ही जाएगा। हमारा तो सारा पैसा सरकार ने ले लिया, अब हम क्या कर सकते हैं! ऐसे में पर्यावरण के शिविर लगाएं या चेतना जगाएं तो भी क्या हो जाएगा। उनके हाथ में साधन नहीं हों, और उनकी प्रतिष्ठा भी नहीं हो। इसलिए शायद पहले प्रतिष्ठा वापस करना ज़्यादा सरल होगा। उसमें कोई ताक़त और पैसा नहीं लगने वाला। केवल मन लगाने की बात है कि ये लोग हैं जो तालाब बनाते थे, अपना पर्यावरण संवारते थे, सजाते थे, इनके कारण बाक़ी चीजें टिकती थी। इसलिए उनको पहले हम इज़्ज़त वापस करें। इज़्ज़त आने के बाद वे साधन भी ला सकते हैं। कछ इलाक़ों मे पहले साधन आ सकते हैं। वैसे इलाक़े कम होंगे। जैसे गुजरात का उदाहरण यहां दे सकते हैं। पाटीदार समाज ने 150 करोड़ रुपए पहले साधन के रूप में डाल दिया पर वह भी इसलिए हुआ कि उनकी प्रतिष्ठा है, वहां पर। लेकिन हम ऐसी उम्मीद बस्तर से नहीं कर सकते।
अलवर में तरुण भारत संघ ने पहले साधन जुटाए, फिर वहां प्रतिष्ठा भी वापस आयी। कहीं यह होगा, कहीं वह। लेकिन इतनी मेरी श्रद्धा है कि जैसे बुरी बातें तेज़ी से महामारी की तरह फैलती हैं, अच्छी बातें भी समाज में उसी तेजी से फैल सकती हैं। बिल्कुल एक आग की तरह फैलती हैं। तालाब वाला काम एक छोटे से हिस्से में शुरू किया था। आज उसको धड़ा-धड़ दूसरे लोग अपनाते जा रहे हैं। जिस परिस्थिति को बिगड़ने में दो सौ साल लगे, उसे सुधारने में इतना धीरज तो रखना पड़ेगा। एक-दो दिन में नहीं होगा। हम अपनी मेहनत करें, अपना कर्तव्य करें समय जो लगेगा वह तो लगेगा।
और अब आपकी पुस्तकों से जुड़ी जिज्ञासाएं:
1. 'आज भी खरे है तालाब' में ज़िक्र है 'अनपूछी ग्यारस' का, तालाब बनाने में इस दिवस का क्या विशेष औचित्य है-इस बात को थोड़ा विस्तार से समझाएं?
2. तालाब बनाने के लिए मुहूर्त, तिथियां, लग्न, ग्रह, नक्षत्र आदि का मिलना सिर्फ मान्यताओं के आधार पर होता है या इसका कोई ठोस कारण है? और अगर है तो क्या है वह?
3. जलसूंघा लोगों द्वारा भूजल की तरंगों के संकेत आम या जामुन की लकड़ी की सहायता से किस तरह से पकड़े जाते हैं? क्या हम आज तक उसका वैज्ञानिक आधार खोज पाए हैं या नहीं?
4. राजस्थान में नवरात्रि के दिनों में तालाब का जल-स्तर देखकर पुजारी जी (भोपा जी) आने वाले समय की भविष्यवाणी किस आधार पर करते थे तथा वह किस बात का संकेत होती थी और आज हमें उसे किस रूप में समझना और ग्रहण करना चाहिए? 5. अलग-अलग प्रांतों और प्रदेशों में बनने वाले तालाबों का वास्तु-शास्त्र वहां की प्राकृतिक और भौगोलिक संरचना पर ही आधारित होता था या समाज में उनका उपयोग व उपभोग भी उनके निर्माण को निर्धारित करता था?
6. इन तालाबों से जुड़ी कहानियां, जातक कथाएं किस तरह से संस्कृति और पर्यावरण की रक्षा में अपना योगदान देती हैं?
मोटे तौर पर समाज अपने काम को याद रखने के लिए कुछ सरल तरीक़े ढूंढ़ता है। उसमें यह मुहूर्त वग़ैरह उसी तरह की चीज़ें है। नहीं तो आपको एक आदेश निकालना पड़ेगा कि तालाब बनाने का मौसम आ गया है। सारे लोगों को कॉपी जाएगी तो कोई एकाध लाख फ़ोटोकॉपी करवानी होंगी। सरकुलर या प्रिंट करना हो तो कितने पतों पर भेजोगे, कौन भेजेगा? आधी डाक में गड़बड़ हो जाएंगी। पता चला कि पाने वाले छुट्टी पर हैं। इस तरह तो वर्षों तक तालाब ठीक नहीं होंगे, नए नहीं खुदेंगे। तो समाज जब बड़े पैमाने पर कोई चीज़ करना चाहता है तो उसको सरल बनाता है। प्रकृति भी ऐसा ही करती है। तो मुझे यह लगता है कि ग्यारस वग़ैरह इसलिए तय किए गए, दिन रखे गए। शुभ दिन का मतलब अनपूछी सबसे व्यावहारिक दिन भी है। दीपावली के 11 दिन बाद बड़ी दीपावली आती है, तुलसी विवाह वाला वह दिन है। इसका शास्त्रीय नाम है 'देवोत्थान एकादशी।' देवउठनी भी उसी तरह बना है।
यह व्यावहारिक दिन भी है। पानी का काम करने के लिए। तालाब का काम आपको करना हो तो मिट्टी ऐसी चाहिए कि उसमें कुदाल, फावड़ा चल सकता हो। कीचड़ में नहीं चल सकता। बिल्कुल सूखे में भी नहीं चल सकता। तो यह बीच का दौर है। वर्षा का पूरा मौसम निकल गया-सितंबर-अक्तूबर। आकाश नीला हो गया। बादल छंट गए। थोड़ी सी धूप भी पड़ गयी। मौसम खुल जाने से कीचड़ भी सूख गया। अब इतनी नमी है कि आप अपने फावड़े कुदाल का प्रयोग करके मिट्टी का काम कर सकते हैं। इसलिए इस दिन को रखा गया। अब जब एक शुभ दिन है, अच्छा मुहूर्त है तो उसका व्यवहार में यह उपयोग हुआ कि भई, आज के दिन के लिए क्या पूछना। यह तो बहुत ही अच्छा दिन है काम शुरू करने के लिए। तो फिर धीरे-धीरे लोगों के बीच उसका नाम प्रचलित हुआ अनपूछी ग्यारस। आज पूछने की भी ज़रूरत नहीं, ऐसी मान्यता बन गयी। बाक़ी के लिए तो पंडित जी के पास एकाध बार पूछना पड़ेगा। कागज़ पत्तर दिखाने पड़ेंगे कि हम यह काम करना चाहते हैं, महाराज बताओ कौन सा दिन ठीक है। पर इसको इस व्यवस्था से भी मुक्त करके इतना व्यापक कर दिया तो मुझे लगता है कि वह एक व्यावहारिक दिन था। तो उसको मुहुर्त माना कि आप बस काम शुरू कर दीजिए।
एक बात और कि किसान समाज के फुर्सत का दिन भी वही है। एक फ़सल कट चुकी। किसान के पास थोड़ी समृद्धि आ गई है। उसके पास अब थोड़ा वक्त भी है। अगली फ़सल बोने से पहले समय भी है और साधन भी हैं। समय है इसलिए बिना पूछे अच्छा काम शुरू करो। समाज को अच्छे कामों में लगाना है तो कोई-न-कोई प्रेरणा देनी पड़ती है।
इसलिए एक दिन इस कोने से उस कोने तक तय हो गया। पूरे देश के पंचांग अनपूछी ग्यारस को इसी रूप में रखते हैं और अपने लोगों से यह कहते हैं कि आज के दिन आपको कोई भी अच्छा काम करना हो, बेझिझक शुरू कर दीजिए। एक तरह का आदेश भी है कि यह अच्छा काम है। शुरू करो और जल्दी ख़त्म करो। निश्चित भी कर दिया कि भगवान साथ हैं।
यह सब भी इसी तरह जुड़े हैं कि समाज के उस तरह के व्यवहार में जो सबसे अनुकूल दिवस हो उनमें ये करना है। फिर थोड़ा बहुत गणित है। हरेक समाज थोड़े बहुत गणित पर चलता है। शुभ-अशुभ अच्छे काम का भी विचार करता है। एकाध बार कभी गलत समय में फावड़ा चलाया वह तालाब बाद में कभी ट गया होगा तो लोगों को लगा होगा कि मुहूर्त नहीं देखा। फिर कुछ इस तरह के क्षण निकल गये। यह एक चेतना का भी स्तर हो सकता है। इससे ज़्यादा तो मैं नहीं जानता। किताब में हम लोगों ने इसलिए लिखा कि लगभग हर जगह दक्षिण में, मध्य प्रदेश में, राजस्थान में एक-सी तिथियां मिलती हैं, इस काम को करने के लिए। कुल बाद में सिमट के मुहूर्त में बदल जाती होंगी। पहले तो यही जानकारी रही होगी कि अमुक दिन करने से लगता है थोड़ा नुकसान हुआ। अमुक दिन करने से नहीं हुआ। फिर एक जगह आकर वह एक सामूहिक चेतना में बदल जाती है। इस तरह से ये दिन तय हुए होंगे। जब सबका अनुभव एक जगह निचुड़ कर आया होगा कि भाई यह अच्छा दिन है। तो यह व्यवहार भी है, विज्ञान भी है लगभग एक जैसा है सब जगह।
पानी के ये जो सिद्ध पुरुष हैं उनको बोली में जलसूंघा भी कहा गया है। पानी सूंघना जानते हैं। जल की अपनी एक तरंग होती है और उसको आज आधुनिक विज्ञान यंत्रों से खोजता है। कुछ के हाथ में शरीर में ऐसी संवेदनाओं का संचार होता होगा कि वे जल तरंग का कंपन ग्रहण कर लेते हैं। ये लोग हाथ में जामुन की, आम की लकड़ी लेकर उसे ज़मीन के समानांतर ले जाते हैं। राजस्थान में बहुत सारी संस्थाएं या घर नए चलन के अनुसार हैंडपंप या ट्यूबवैल वग़ैरह की जगह आधुनिक यंत्रों से पक्की करवाते हैं। बाद में जलसूंघे को बुलाकर उसकी पुष्टि भी करते हैं कि भाई यही जगह ठीक है कि नहीं। यह बहस सन् 50 में अमेरिका में भी खूब चली। तब तक वहां भी ऐसे यंत्र वगैरह नहीं आए थे। इस पर एक किताब भी थी। पानी को लकड़ी से कैसे ढूंढ़ते हैं यह विज्ञान है कि नहीं, वहां बड़ी बहस चली। कुएं वहां भी इसी पद्धति से खोजे गए थे। इसकी विशेष जाति, गुरु शिष्य परंपरा भी चलती है। पिता से पुत्र को भी यह ज्ञान मिलता रहा है। यह भी मान्यता रही है कि इसे बेचना नहीं है। इसको पैसे के काम में मत लगा देना। अगर आप को कुएं की ज़रूरत है तो मैं दो सौ से कम में नहीं बताता ऐसा लालच मत करना। श्रद्धा से जो मिल जाए बस उतना लेना। ये जो टोटके किए कि इसे बेचोगे तो यह लुप्त हो जाएगा, ये इसलिए किए गए कि ऐसे ज्ञान को रखने वाला अपने ज्ञान को बेचे नहीं। इसे समाज के काम में लगाए और यह भी देखा कि वह भूखा भी नहीं मरे। जिसकी सामर्थ्य 51 रुपए देने की है वह 51 रुपए देगा। कोई 101 देगा, कोई 251 दे देगा। तो उसको कुछ-न-कुछ अपनी जीविका चलाने के लिए भी मिले। लेकिन वह इसको बेचने की दुकान न लगाए।
राजस्थान में और ख़ासकर मरुभूमि में एक शब्द है जमानो। ज़माने से बना है। लेकिन वह दुनिया के अर्थ में नहीं है। आने वाली परिस्थिति अच्छी होगी। फ़सल के दिन अच्छे होंगे। इस शब्द से जमानो शब्द निकलता है। और यह बहुत ही वैज्ञानिक पद्धति थी कि पानी पूरा बरस गया। जिस देश में प्रकृति की तरफ़ से पानी की एक निश्चित ऋतु या समय तय है। अब उसके बाद बारिश नहीं होने वाली। तो यह एक कितना बड़ा वैज्ञानिक संगठन था समाज का कि हर गांव में सब लोग सितंबर-अक्टूबर में नवरात्रों के आसपास तालाब के पास आएंगे। वहां एक विशेष व्यक्ति तालाब की पाल पर खड़ा होकर उस तालाब में कितना पानी भरा है, यह देख कर अपने सब लोगों को बता सके कि आने वाला दौर अच्छा होगा या आने वाला ज़माना खराब होगा। भोपा जी यह भविष्यवाणी करते थे। वे कोई टोटके के रूप में नहीं करते थे। जल स्तर देख कर ही करते थे। तालाब आधा भरा है कि पूरा भरा है। अपरा चल दी, चादर चल दी तो ख़ूब पानी है। खूब पानी का मतलब है फ़सल भी अच्छी होगी। अब कोई बड़ी दुर्घटना हो जाए वह अलग बात है। लेकिन कृषि समाज का मुख्य आधार है पानी। उसका इंतज़ाम हो गया तो उसकी फ़सल आ गई। अच्छी हो जाएगी। इसलिए भोपा जी इसकी घोषणा करते थे कि ज़माना कैसा होगा। आज भी ऐसे लोग बचे हैं। अलवर वग़ैरह में वहां ज़माना देखने वाली परंपरा लोग नहीं भूले थे। भोपा जैसा संगठन नहीं है। लेकिन उनकी स्मृति में इस काम का महत्व है। अरवरी नदी किनारे के जितने गांव हैं, उन्होंने आपस में बैठक करके सितंबर में यह तय किया कि इस वर्ष पानी बहुत कम गिरा है। 40 प्रतिशत पानी गिरा। इसलिए ऐसी फ़सल नहीं लगाएं जो पानी ज़्यादा मांगती है। नहीं तो यह पानी ख़त्म हो जाएगा। कम पानी गिरा है तो व्यवहार में भी ऐसा रखो कि पानी का ख़र्च कम हो। इसलिए वे लोग उनके गांव अकाल को सह गए। उन्होंने कहीं भी गन्ना, गेहूं, इस तरह की चीजें नहीं बोईं। अगर ऐसी फ़सल ले लेते, रबी में जिसकी पानी की मांग ज़्यादा होती है तो जो कम पानी गिरा है वह उनको धोखा दे जाता। गुजरात महाराष्ट्र आदि में सब जगह यही हुआ कि पानी कम गिरा। कोई भोपा न पुराना है, न नया भोपा है। नये भोपे कौन हो सकते हैं? यह मज़ाक़ में नहीं कह रहा। नए भोपे कलेक्टर होते हैं। उस ज़िले का प्रमुख अधिकारी जो यह मुनादी करे। रेडियो, टी.वी. से संदेश दे कि भाई इस साल पानी कम गिरा है। किफ़ायत रखनी पड़ेगी। कुएं में पानी का स्तर देख कर ही सिंचाई करो। ज़्यादा मत करो। नहीं तो हम दोनों तरफ़ से चले जाएंगे। तो बाक़ी जगह यह हुआ कि लोगों ने विवेक नहीं दिखाया इस मामले में। ऐसी फ़सलें लगाई जो पानी ज़्यादा लेती हैं। पानी भी गया और फ़सल भी गई। अकाल पड़ा इसलिए। उनका भूजल भी चुक गया। अलवर में उसको बचा कर रख लिया। साधारण फ़सल लगायी। मोटा अनाज। कुछ फ़सल भी हाथ आई। पीने का पानी भी रहा और पशुओं के लिए भी रहा। इसलिए वहां से आबादी का पलायन नहीं हुआ। तो यह भोपा वाली पद्धति ही थी। कोई-न-कोई एक प्रतिष्ठित व्यक्ति यह जानकारी दे कि आने वाले जमाने में तुम्हें क्या व्यवहार करना है। यह ऐसी व्यवस्था थी।
आज लोगों को लगता है कि हमारा जीवन तो विज्ञान पर, तकनीक पर है। पानी कम है तो और गहरे उतर जाएंगे। सब जगह गुजरात, महाराष्ट्र में यही हुआ। पानी कम गिरा है तो क्या हुआ हमारा तो ट्यूबवैल है। तालाब तो है नहीं। तालाब से सिंचित तो कोई इलाक़ा है नहीं। इसलिए बटन दबाएंगे, पानी निकलेगा। इस तरह दो-तीन दिन तो पानी निकला। उसके बाद नहीं निकला। इसलिए अब अन्य रूपों में भी भोपाओं को देखना चाहिए। उसमें कलेक्टर हो सकते हैं। संस्थाएं हो सकती हैं। अलवर में यह सब काम तरुण भारत संघ से हुआ। ये आधुनिक भोपा बन गए। आज के युग में उन्होंने तो काम पूरा किया।
दोनों बाते हैं। कितना पानी गिर रहा है उसको कम क्षेत्र से जल्दी समेट सकते हैं। अगर वर्षा बहुत अच्छी होती है तो तालाब का आगोर जिसको अब हम जलागम वग़ैरह के नाम से जानते हैं, वह छोटा भी हो सकता है। गोवा कोंकण वग़ैरह के जो इलाके हैं, जहां पानी खूब गिरता है, असम के इलाके हैं जहां तेज़ पानी गिरता है, वहां छोटा आगोर काम देता है। वहां 100,200,300 इंचों से ऊपर गिरता है पर मरुभूमि में 8 इंच पानी गिरेगा इसलिए वहां आगोर बड़ा बनता है कि चारों तरफ़ से एक-एक बूंद आ जाए तब वह भर सकेगा। एकदम से नहीं भरने वाला। एक यह कारण और दूसरा यह कि उपयोग भी इसी आधार पर होंगे। जितनी अच्छी आपके पास वर्षा है, जैसी ज़मीन है उसको रोपने वाली, उसकी क्षमता उसका स्वभाव सब देखा जाता है। उसी आधार पर फ़सलें तय करनी होंगी। आप देखेंगे कि मरुभूमि में इतने सारे तालाब हैं, लेकिन वे सिंचाई के काम आते ही नहीं हैं। सारे तालाब भूजल, पाताल पानी के संवर्धन के लिए, निस्तारी के लिए, नहाने धोने के लिए, पशुओं के लिए बनते रहते हैं। उनमें फ़र्क़ होगा कि यह केवल पानी पीने का है तो उसमें नहाना मना है। इस तरह का आरक्षण अलग-अलग करके रखा गया था। उपयोग के आधार पर। छतीसगढ़ में भी निस्तारी के तालाब अलग मिलेंगे। नहाने के अलग मिलेंगे। स्त्रियों के लिए अलग, पुरूषों के लिए अलग। राजस्थान में तालाबों में स्त्रियों के नहाने के लिए विशेष इंतज़ाम रखा जाता था। उनको पानी में तैरने का पूरा आनंद भी मिले और वे बाक़ी हिस्से से कटी भी रहें। जालीदार परकोटा, सीढ़ियां, उसमें कूद कर नहाने तैरने का पूरा प्रबंध रखा जाता था। वे बाहर देख सकें। बाहर के लोग उनको न देख सकें। इसका बहुत अच्छा इंतज़ाम बीकानेर के कोलायत नामक तालाब में मिलेगा। छत्तीसगढ़ धान का इलाक़ा है। धान को पानी चाहिए। वर्षा के अलावा भी सिंचाई चाहिए तो बहुत सारे ऐसे तालाब हैं। उनको सिंचाई के लिए बनाया गया। फिर मछली पालन का चलन है। मरुभूमि में नहीं है वह। मछली के तालाबों में अपरा वग़ैरह सब अलग ढंग से बनेंगी। उसमें नीचे एक नाली बनाते हैं जिससे एक बार वर्ष में पूरा तालाब ख़ाली कर दिया जाए। मछली की बढ़त के लिए यह ज़रूरी है कि एक बार तालाब का तल सूख जाए, उस पर धूप पड़ जाएं। हानिकारक कीटाणु वग़ैरह नष्ट हो जाएं। फिर से उसमें पानी भरा जाए। तब मछली बहुत अच्छी पनपती है। इसे एक फ़सल की तरह देखते हैं। उनके रीति-रिवाज़ हैं। आखरी फ़सल को पकड़ने के भी अलग नियम है। उसमें पूरा गांव इकट्ठा होता है। मछली के ढेर लगते हैं। सब के नाम हर परिवार के। फिर तालाब ख़ाली कर दिया जाता है। उसको धूप दिखाई जाती है। फिर वो दोबारा भरता है। जहां बहुत तेज़ पानी गिरता है वहां तालाब अलग-अलग ढंग से भरते हैं। उनकी अपरा अलग ढंग से बनाएंगे, पानी की मात्रा को देख कर, मिट्टी की सहनशक्ति देख कर संरचनाएं बदलती हैं।
तालाब और पर्यावरण की जितनी भी कहानियां हैं वे तो एक तरह से समाज को बार-बार उससे बांधे रखने के लिए हैं। उसको प्रेरणा देने के लिए हैं। हर बार यह कहो कि भाई तालाब बनाओ। तो दो लोग सुनेंगे दो लोग नहीं सुनेंगे। अनसुनी कर देंगे। लेकिन तालाब बनाने के अच्छे क़िस्से अगर समाज में घूमते रहें, चल रहें हों तो बचपन में कोई काका से सुनेगा, कोई काकी से सुनेगा, कोई दादी से सुनेगा। आदेश न होकर वह एक सहज प्रक्रिया हो जाती है। नहीं तो किसी एक उम्र में आदेश मिलेगा हमको, तब हम जाएंगे अच्छे काम करने। वातावरण बनाने के लिए यह एक बहुत बड़ा काम होता था। अपने यहां तालाब की कुछ ऐसी कहानियां प्रचारित हुई हैं जो किसी को भी रुला सकती हैं। और उसने अगर अभी तालाब बनाने के बारे में न सोचा हो तो वह तालाब बना बैठेगा।
केवल पर्यावरण की नई संस्थाएं खोल देने से पर्यावरण नहीं सुधरता। सिर्फ़ थाने खोलने से अपराध कम नहीं हो जाते। ये कथाएं समाज को चलाए रखती हैं, अच्छे काम सरल बनाती हैं, बुरे काम कठिन। यह पर्यावरण शिक्षा भी है, पर्यावरण-चेतना भी है, पर्यावरण का पाठ्यक्रम भी है। लिखत-पढ़त वाली सब चीजें औपचारिक होती हैं। सब कक्षा में, स्कूल में बैठकर नहीं होता। इतने बड़े समाज का संचालन करने, उसे सिखाने के लिए कुछ और ही करना पड़ता है। कुछ तो रात को मां की गोदी में सोते-सोते समझ में आता है तो कुछ काका, दादा के कंधे पर बैठ चलते-चलते समझ में आ जाता है। यह उसी ढंग का काम है जीवन शिक्षा का।