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साफ़ माथे का समाज/माटी, जल और ताप की तपस्या

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दिल्ली: पेंगुइन, पृष्ठ १२५ से – १३५ तक

 

माटी, जल और ताप की तपस्या


मरुभूमि में बादल की हल्की-सी रेखा दिखी नहीं कि बच्चों की टोली एक चादर लेकर निकल पड़ती है। आठ छोटे-छोटे हाथ बड़ी चादर के चार कोने पकड़ उसे फैला लेते हैं। टोली घर-घर जाती है और गाती है:

डेडरियो करे डरूं, डरूं,
पालर पानी भरूं भरूं
आधी रात री तलाई नेष्टेई नेष्टे...

हर घर से चादर में मुट्ठी भर गेहूं डाला जाता है। कहीं-कहीं बाजरे का आटा भी। मोहल्ले की फेरी पूरी होते-होते, चादर का वज़न इतना हो जाता है कि आठ हाथ कम पड़ जाते हैं। चादर समेट ली जाती है। फिर यह टोली कहीं जमती है, अनाज उबाल कर उसकी गूगरी बनती है। कण-कण संग्रह बच्चों की टोली को तृप्त कर जाता है।

अब बड़ों की बारी है, बूंद-बूंद पानी जमा कर वर्ष भर तृप्त होने की। लेकिन राजस्थान में जल संग्रह की परंपरा समझने से पहले इस क्षेत्र से थोड़ा-सा परिचित हो जाना चाहिए।

राजस्थान की कुंडली कम-से-कम जल के मामले में 'मंगली' रही है। इसे अपने कौशल से मंगलमय बना लेना कोई सरल काम नहीं था। काम की कठिनता के अलावा क्षेत्र का विस्तार भी कोई कम नहीं था। आज का राजस्थान क्षेत्रफल के हिसाब से देश का दूसरा बड़ा राज्य है। देश के कुल क्षेत्रफल का लगभग 11 प्रतिशत भाग या कोई 3,42,215 वर्ग किलोमीटर इसके विस्तार में आता है। इस हिसाब से दुनिया के कई देशों से भी बड़ा है हमारा यह प्रदेश। इंग्लैंड से तो लगभग दुगुना ही समझिए।

पहले छोटी-बड़ी इक्कीस रियासतें थीं, अब इकतीस ज़िले हैं। इनमें से तेरह ज़िले अरावली पर्वतमाला के पश्चिम में और अन्य पूर्व में हैं। पश्चिम भाग के तेरह ज़िलों के नाम इस प्रकार हैं: जैसलमेर, बाड़मेर, बीकानेर, जोधपुर, जालौर, पाली, नागौर, चुरू, श्रीगंगानगर, सीकर, हनुमानगढ़, सिरोही तथा झुंझनूं। पूर्व और दक्षिण में बांसवाड़ा, डूंगरपुर, उदयपुर, कांकरोली, चित्तौड़गढ़, भीलवाड़ा, झालावाड़, कोटा, बारां, बूंदी, टौंक, सवाई माधोपुर, धौलपुर, दौसा, जयपुर, अजमेर, भरतपुर तथा अलवर ज़िले आते हैं। जैसलमेर राज्य का सबसे बड़ा ज़िला है। यह लगभग 38 400 वर्ग किलोमीटर में फैला है। सबसे छोटा ज़िला है धौलपुर जो जैसलमेर के दसवें भाग बराबर है।

आज के भूगोल वाले इस सारे हिस्से को चार भागों में बांटते हैं। मरुभूमि को पश्चिमी बालू का मैदान कहा जाता है या शुष्क क्षेत्र भी कहा जाता है। उससे लगी पट्टी अर्धशुष्क क्षेत्र कहलाती है। इसका पुराना नाम बागड़ था। फिर अरावली पर्वतमाला है और मध्यप्रदेश आदि से जुड़ा राज्य का भाग दक्षिणी-पूर्वी पठार कहलाता है। इन चार भागों में सबसे बड़ा भाग पश्चिमी बालू का मैदान यानी मरुभूमि का क्षेत्र ही है। इसका एक पूर्वी कोना उदयपुर के पास है, उत्तरी कोना पंजाब छूता है और दक्षिणी कोना गुजरात। पश्चिम में पूरा-का-पूरा भाग पाकिस्तान के साथ जुड़ा है। मरुभूमि भी सारी मरुमय नहीं है। पर जो है, वह भी कोई कम नहीं। इसमें जैसलमेर, बाड़मेर, बीकानेर, नागौर, चुरू और श्रीगंगानगर जिले समा जाते हैं। इन्हीं हिस्सों में रेत के बड़े-बड़े टीले हैं, जिन्हें धोरे कहा जाता है। गर्मी के दिनों में चलने वाली तेज़ आंधियों में ये धोरे 'पंख' लगा कर इधर-से-उधर उड चलते हैं। तब कई बार रेल की पटरियां. छोटी-बड़ी सड़कें और राष्ट्रीय मार्ग भी इनके नीचे दब जाते हैं। इसी भाग में वर्षा सबसे कम होती है। भूजल भी खूब गहराई पर है। प्रायः सौ से तीन सौ मीटर और वह भी ज़्यादातर खारा है।

अर्धशुष्क कहलाने वाला भाग विशाल मरुभूमि और अरावली पर्वतमाला के बीच उत्तर-पूर्व से दक्षिण-पश्चिम तक लंबा फैला है। यहीं से वर्षा का आंकड़ा थोड़ा ऊपर चढ़ता है। तब भी यह 25 सेंटीमीटर से 50 सेंटीमीटर के बीच झूलता है और देश की औसत वर्षा से आधा ही बैठता है। इस भाग में कहीं-कहीं दोमट मिट्टी है तो बाक़ी में वही चिर परिचित रेत। 'मरु विस्तार' को रोकने की तमाम राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय योजनाओं को धता बताकर आंधियां इस रेत को अरावली के दरों से पूर्वी भाग में भी ला पटकती हैं। ये छोटे-छोटे दर्रे ब्यावर, अजमेर और सीकर के पास

इस क्षेत्र में ब्यावर, अजमेर, सीकर, झुंझुनूं ज़िले हैं और एक तरफ़ नागौर, जोधपुर, पाली, जालौर और चुरू का कुछ भाग आता है। भूजल यहां भी सौ से तीन सौ मीटर की गहराई लिए है और प्रायः खारा ही मिलता है।

यहां के कुछ भागों में एक और विचित्र स्थिति है: पानी तो खारा है ही, ज़मीन भी 'खारी' है। ऐसे खारे हिस्सों के निचले इलाकों में खारे पानी की झीलें हैं। सांभर, डेगाना, डीडवाना, पचपदरा, लूणकरणसर, बाप, पोखरन और कुचामन की झीलों में तो बाक़ायदा नमक की खेती होती है। झीलों के पास मीलों दूर तक ज़मीन में नमक उठ आया है।

इसी के साथ है पूरे प्रदेश को एक तिरछी रेखा से नापती विश्व की प्राचीनतम पर्वतमालाओं में से एक माला अरावली पर्वत की। ऊंचाई भले ही कम हो पर उम्र में यह हिमालय से पुरानी है। इसकी गोद में हैं सिरोही, डूंगरपुर, उदयपुर, आबू, अजमेर और अलवर। उत्तर-पूर्व में यह दिल्ली को छूती है और दक्षिण-पश्चिम में गुजरात को। कुल लंबाई सात सौ किलोमीटर है और इसमें से लगभग साढ़े पांच सौ किलोमीटर राजस्थान को काटती है। वर्षा के मामले में राज्य का यह संपन्नतम इलाक़ा माना जाता है।

अरावली से उतर कर उत्तर-पूर्व से दक्षिण-पूर्व तक फैला एक और भाग है। इसमें उदयपुर, डूंगरपुर के कुछ भाग के साथ-साथ बांसवाड़ा, भीलवाड़ा, बूंदी, टौक, चित्तौड़गढ़, जयपुर और भरतपुर ज़िले हैं। मरुनायकजी यानी श्रीकृष्ण के जन्म स्थान ब्रज से सटा है भरतपुर। दक्षिणी-पूर्वी पठार भी इसमें फंसा दिखता है। इसमें कोटा, बूंदी, सवाई माधोपुर और धौलपुर हैं। धौलपुर से मध्यप्रदेश के बीहड़ शुरू हो जाते हैं।

यहां जिस तरह नीचे माटी का स्वभाव बदलता है, इसी तरह ऊपर आकाश का भी स्वभाव बदलता जाता है।

हमारे देश में वर्षा मानसूनी हवा पर सवार होकर आती है। मई-जून में पूरा देश तपता है। इस बढ़ते तापमान के कारण हवा का दबाव लगातार कम होता जाता है। उधर समुद्र में अधिक भार वाली हवा अपने साथ समुद्र की नमी बटोर कर कम दबाव वाले भागों की तरफ़ उड़ चलती है। इसी हवा को मानसून कहते हैं।

राजस्थान के आकाश में मानसून की हवा दो तरफ़ से आती है। एक पास से, यानी अरब सागर से और दूसरी दूर बंगाल की खाड़ी से। दो तरफ से आए बादल भी यहां के कुछ हिस्सों में उतना पानी नहीं बरसा पाते, जितना वे रास्ते में हर कहीं बरसाते आते हैं।

दूर बंगाल की खाड़ी से उठने वाली मानसून की हवा गंगा का विशाल मैदान पार करते-करते अपनी सारी आर्द्रता खो बैठती है। राजस्थान तक आते-आते उसकी झोली में कुछ इतना बचता ही नहीं है कि वह राजस्थान को भी ठीक से पानी दे जा सके। अरब सागर से उठी मानसून की हवा जब यहां के तपते क्षेत्र में आती है तो यहां की गर्मी से उसकी आर्द्रता आधी रह जाती है। इसमें पूरे प्रदेश को तिरछा काटने वाली अरावली की भी भूमिका है।

अरावली दक्षिण-पश्चिम से उत्तर-पूर्व में फैली है। मानसून की हवा भी इसी दिशा में बहती है। इसलिए मानसून की हवा अरावली पार कर पश्चिम के मरुप्रदेश में प्रवेश करने के बदले अरावली के समानांतर बहती हुई वर्षा करती चलती है। इस पर्वतमाला में सिरोही और आबू में खूब वर्षा होती है, कोई 150 सेंटीमीटर। यह मात्रा राज्य की औसत वर्षा से तिगुनी है। यह भाग अरावली के ऊंचे स्थानों में है, इसलिए मानसूनी हवा यहां टकरा कर अपना बचा ख़ज़ाना खाली कर जाती है। और मरुभूमि को अरावली के उस पार छोड़ कर चुक जाता है आज का भूगोल भी।

लेकिन मरुभूमि के समाज की भाषा माटी, वर्षा और ताप की इस नई वैज्ञानिक परिभाषा से बिल्कुल अलग है। इस समाज में माटी, वर्षा और ताप की तपस्या मिलेगी, और इस तप में जीवन का तेज़ भी है और शीतलता भी। फागुन महीने में होली पर अबीर-गुलाल के साथ ही यहां मरुनायकजी यानी श्रीकृष्ण पीली रेत उड़ाने लगते हैं। चैत माह आते-आते धरती तपने लगती है। नए भूगोल वाले जिस सूरज की गर्मी से यहां सबसे ज़्यादा आतंकित दिखते हैं, उस सूरज का यहां एक नाम पीथ है, और पीथ का एक अर्थ यहां जल भी है। सूरज ही तो धरती पर सारे जल चक्र का, वर्षा का स्वामी है।

आषाढ़ के प्रारंभ में सूरज के चारों ओर दिखने वाला एक विशेष प्रभामंडल जलकूडो कहलाता है। यह जलकूडो वर्षा का सूचक माना जाता है। इन्हीं दिनों उदित होते सूर्य में माछलो, यानी मछली के आकार की एक विशेष किरण दिख जाए तो तत्काल वर्षा की संभावना मानी जाती है। समाज को वर्षा की जानकारी देने में चंद्रमा भी पीछे नहीं रहता। आषाढ़ में चंद्रमा की कला हल की तरह खड़ी रहे और श्रावण में वह विश्राम की मुद्रा में लेटी दिखे तो वर्षा ठीक होती है: ऊभो भलो आषाढ़, सूतो भलो सरावण। जलकूडो, माछलो और चंद्रमा के रूपकों से भरा पड़ा है भडली पुराण। इस पुराण की रचना डंक नामक ज्योतिषाचार्य ने की थी। भडली उनकी पत्नी थीं, उन्हीं के नाम पर पुराण जाना जाता है। कहीं-कहीं दोनों को एक साथ याद किया जाता है। ऐसी जगहों में इसे डंक-भडली पुराण कहते हैं।

बादल यहां सबसे कम आते हैं, पर बादलों के नाम यहां सबसे ज़्यादा निकलें तो कोई अचरज नहीं। खड़ी बोली और बोली में ब और व के अंतर से, पुल्लिंग, स्त्रीलिंग के अंतर से बादल का वादल और वादली, बादलो, बादली है, संस्कृत से बरसे जलहर, जीमूत, जलधर, जलवाह, जलधरण, जलद, घटा, क्षर (जल्दी नष्ट हो जाते हैं), सारंग, व्योम, व्योमचर, मेघ, मेघाडंबर, मेघमाला, मुदिर, महीमंडल जैसे नाम भी हैं। पर बोली में तो बादल के नामों की जैसे घटा छा जाती है: भरणनद, पाथोद, धरमंडल, दादर, डंबर, दलवादल, घन, घणमंड, जलजाल, कालीकांठल, कालाहण, कारायण, कंद, हब्र, मैंमट, मेहाजल, मेघाण, महाघण, रामइयो और सेहर। बादल कम पड़ जाएं, इतने नाम हैं यहां बादलों के। बड़ी सावधानी से बनाई इस सूची में कोई भी ग्वाला चाहे जब दो-चार नाम और जोड़ देता है!

भाषा की और उसके साथ-साथ इस समाज की वर्षा-विषयक अनुभव-संपन्नता इन चालीस, चवालीस नामों में समाप्त नहीं हो जाती। वह इन बादलों का उनके आकार, प्रकार, चाल-ढाल, स्वभाव के आधार पर भी वर्गीकरण करती है: सिखर है बड़े बादलों का नाम तो छीतरी हैं छोटे-छोटे लहरदार बादल। छितराए हुए बादलों के झुंड में कुछ अलग-थलग पड़ गया छोटा-सा बादल भी उपेक्षा का पात्र नहीं है। उसका भी एक नाम है-चूंखो। दूर वर्षा के वे बादल जो ठंडी हवा के साथ उड़ कर आए हैं, उन्हें कोलायण कहा गया है। काले बादलों की घटा के आगे-आगे श्वेत पताका-सी उठाए सफ़ेद बादल कोरण या कागोलड़ हैं। और इस श्वेत पताका के बिना ही चली आई काली घटा कांठल या कलायण है।

इतने सारे बादल हों आकाश में तो चार दिशाएं उनके लिए बहुत कम ही होंगी। इसलिए दिशाएं आठ भी हैं और सोलह भी। इन दिशाओं में फिर कुछ स्तर भी हैं। और इस तरह ऊंचाई पर, मध्य में और नीचे उड़ने वाले बादलों को भी अलग-अलग नाम से पुकारा जाता है। पतले और ऊंचे बादल कस या कसवाड़ हैं। नैऋत कोण से ईशान कोण की ओर थोड़े नीचे तेज़ बहने वाले बादल ऊब हैं। घटा का दिन भर छाए रहना, थोड़ा-थोड़ा बरसना सहाड़ कहलाता है। पश्चिम के तेज़ दौड़ने वाले बादलों की घटा लोरां है और उनसे लगातार होने वाली वर्षा लोरांझड़ है। लोरांझड़ वर्षा का एक गीत भी है। वर्षा कर चुके बादल यानी अपना कर्तव्य पूरा करने के बाद किसी पहाड़ी पर थोड़ा टिक कर आराम करने वाले बादल रीछी कहलाते हैं।

काम में लगे रहने से आराम करने तक बादलों की ऐसी समझ रखने वाला समाज, उन्हें इतना प्यार करने वाला समाज उनकी बूंदों को कितना मंगलमय मानता रहा होगा?

अभी तो सूरज ही बरस रहा है। जेठ के महीने में कृष्णपक्ष की ग्यारस से नौतपा प्रारंभ होते हैं। ये तिथियां बदलती नहीं, हां, कैलेंडर के हिसाब से ये तिथियां मई महीने में कभी दूसरे तो कभी तीसरे हफ्ते में आती हैं। नौतपा, नवतपा-यानी धरती के खूब तपने के नौ दिन। ये खूब न त तो अच्छी वर्षा नहीं होती। इसी ताप की तपस्या से वर्षा की शीतलता आती है।

ओम-गोम, आकाश और धरती का, ब्रह्म और सृष्टि का यह शाश्वत संबंध है। तेज़ धूप का एक नाम घाम है, जो राजस्थान के अलावा बिहार, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश के कई इलाकों में चलता है। पर ओघमो शब्द राजस्थान में ही है-वर्षा से पहले की तपन। इन्हीं दिनों मरुभूमि में बलती यानी लू और फिर रेतीली आंधियां चलती हैं। खबरें छपती हैं कि इनसे यहां का जीवन 'अस्त-व्यस्त हो गया है। रेल और सड़कें बंद हो गई हैं। पर अभी भी यहां लोग इन 'भयंकर' आंधियों को ओम-गोम का एक हिस्सा मानते हैं।

इसलिए मरुभूमि में जेठ को कोई कोसता नहीं। उन दिनों पूरे ढके शरीर में केवल चेहरा ही तो खुला रहता है। तेज़ बहती दक्खिनी हवा रेत उठा-उठा कर चेहरे पर मारती है। लेकिन चरवाहे, ग्वाले जेठ के स्वागत में गीत गाते हैं और ठेठ कबीर की शैली में साईं को जेठ भेजने के लिए धन्यवाद देते हैं: जेठ महीनो भलां आयो, दक्खन बाजे बा (हवा), कानों रे तो कांकड बाजे, वाड़े साईं वाह।

ऐसे भी प्रसंग हैं, जहां बारह महीने आपस में मिल बैठ बातें कर रहे हैं और हरेक महीना अपने को प्रकृति का सबसे योग्य बेटा बता रहा है। पर इस संवाद में बाज़ी मार ले जाता है जेठ का महीना। वही जेठू यानी सबसे बड़ा भाई सिद्ध होता है। जेठ ठीक तपे नहीं, रेत के अंधड़ उठे नहीं तो 'जमानो' अच्छा नहीं होगा। जमानो यानी वर्षा काल। वर्षा, खेतीबाड़ी, और घास-चारे के हिसाब से ठीक स्थिति का दौर। इसी दौर में पीथ यानी सूरज अपना अर्थ बदलकर जल बनता है।

आउगाल से प्रारंभ होते हैं वर्षा के संकेत। मोहल्लों में बच्चे निकलेंगे चादर फैलाकर 'डेडरियो' खेलने और बड़े निकलेंगे 'चादरें' साफ़ करने। जहां-जहां से वर्षा का पानी जमा करना है, वहां के आंगन, छत और कुंडी के आगौर की सफाई की जाएगी। जेठ के दिन बीत चले हैं। आषाढ़ लगने वाला है। पर वर्षा में अभी देरी है। आषाढ़ शुक्ल की एकादशी से शुरू होगा वरसाली या चौमासा। यहां वर्षा कम होती हो, कम दिन गिरती हो, पर समाज ने तो उसकी आवभगत के लिए पूरे चार महीने रोक कर रखे हैं।

समाज का जो मन कम आने वाले बादलों का इतने अधिक नामों से स्मरण करता हो, वह उनकी रजत बूंदों को कितने रूपों में देखता होगा, उन्हें कितने नामों से पुकारता होगा? यहां भी नामों की झड़ी लगी मिलेगी।

बूंद का पहला नाम तो हरि ही है। फिर मेघपुहुप है। वृष्टि और उससे बोली में आया बिरखा और व्रखा है। धन का, बादल का सार, घणसार है। एक नाम मेवलियो भी है। बूंदों की तो नाममाला ही है। बूला और सीकर जलकण के अर्थ में हैं। फुहार तथा छींटा शब्द सब जगह प्रचलित हैं। उसी से छांटो, छांटा-छड़को, छछोहो बने हैं। फिर नभ से टपकने के कारण टपका है, टपको और टीपो है। झरमर है, बूंदा-बांदी। यही अर्थ लिए पुणंग और जीखा शब्द हैं। बूंदा-बांदी से आगे बढ़ने वाली वर्षा की झड़ी रीठ और भोट है। यह झड़ी लगातार झड़ने लगे तो झंडमंडण है।

चार मास वर्षा के और उनमें अलग-अलग महीने में होने वाली वर्षा के नाम भी अलग-अलग। हलूर है तो झड़ी ही, पर सावन-भादों की। रोहाड़ ठंड में होने वाली छुटपुट वर्षा है। वरखावल भी झड़ी के अर्थ में वर्षावलि से सुधरकर बोली में आया शब्द है। मेहांझड़ में बूंदों की गति भी बढ़ती है और अवधि भी। झपटो में केवल गति बढ़ती है और अवधि कम हो जाती है-एक झपट्टे में सारा पानी गिर जाता है।

त्राट, त्रमझड़, त्राटकणो और धरहरणो शब्द मूसलाधार वर्षा के लिए हैं। छोल शब्द भी इसी तरह की वर्षा के साथ-साथ आनंद का अर्थ भी समेटता है। यह छोल, यह आनंद सन्नाटे का नहीं है। ऐसी तेज़ वर्षा के साथ बहने वाली आवाज़ सोक या सोकड़ कहलाती है। वर्षा कभी-कभी इतनी तेज़ और सोकड़ इतनी चंचल हो जाती है कि बादल और धरती की लंबी दूरी क्षण भर में नप जाती है। तब बादल से धरती तक को स्पर्श करने वाली धारावली यहां धारोलो के नाम से जानी जाती है।

न तो वर्षा का खेल यहां आकर रुकता है, न शब्दों का ही। धारोलो की बौछार बाहर से घर के भीतर आने लगे तो बाछड़ कहलाती है और इस बाछड़ की नमी से नम्र, नरम हुए और भीगे कपड़ों का विशेषण बाछड़वायो बन जाता है। धारोलो के साथ उठने वाली आवाज़ घमक कहलाती है। यह वज़नी है, पुल्लिंग भी। घमक को लेकर बहने वाली प्रचंड वायु वाबल है।

धीरे-धीरे वाबल मंद पड़ती है, घमक शांत होता है, कुछ ही देर पहले धरती को स्पर्श कर रहा धारोलो वापस बादल तक लौटने लगता है। वर्षा थम जाती है। बादल अभी छंटे नहीं हैं। अस्त हो रहा सूर्य उनमें से झांक रहा है। झांकते सूर्य की लंबी किरण मोघ कहलाती है और यह भी वर्षासूचक मानी जाती है। मोघ दर्शन के बाद रात फिर वर्षा होगी। जिस रात खूब पानी गिरे, वह मामूली रैण नहीं, महारैण कहलाती है।

तूठणो क्रिया है बरसने की और उबरेलो है उसके सिमटने की। तब चौमासा उठ जाता है, बीत जाता है। बरसने से सिमटने तक हर गांव, हर शहर अपने घरों की छत पर, आंगन में, खेतों में, चौराहों पर और निर्जन में भी बूंदों को संजो लेने के लिए अपनी 'चादर' फैलाए रखता है।

पालर यानी वर्षा के जल को संग्रह कर लेने के तरीके भी यहां बादलों और बूंदों की तरह अनंत हैं। बूंद-बूंद गागर भी भरती है और सागर भी-ऐसे सुभाषित पाठ्य पुस्तकों में नहीं, सचमुच अपने समाज की स्मृति में समाए मिलते हैं। इसी स्मृति से श्रुति बनी। जिस बात को समाज ने याद रखा, उसे आगे सुनाया और बढ़ाया और न जाने कब पानी के इस काम का इतना विशाल, व्यावहारिक और बहुत व्यवस्थित ढांचा खड़ा कर दिया कि पूरा समाज उसमें एक जी हो गया। इसका आकार इतना बड़ा कि राज्य के कोई तीस हज़ार गांवों और तीन सौ शहरों, कस्बों में फैल कर वह निराकार-सा हो गया।

ऐसे निराकार संगठन को समाज ने न राज को, सरकार को सौंपा, न आज की भाषा में 'निजी क्षेत्र को। उसने इसे पुरानी भाषा के निजी हाथ में रख दिया। घर-घर, गांव-गांव लोगों ने ही इस ढांचे को साकार किया, संभाला और आगे बढ़ाया।

पिंडवड़ी यानी अपनी मेहनत और अपने श्रम, परिश्रम से दूसरे की सहायता। समाज परिश्रम की, पसीने की बूंदें बहाता रहा है, वर्षा की बूंदों को एकत्र करने के लिए।