साफ़ माथे का समाज/साध्य, साधन और साधना
साध्य, साधन और साधना
यह शीर्षक न तो अलंकार के लिए है, न अहंकार के लिए। सचमुच ऐसा लगता है कि समाज में काम कर रही छोटी-बड़ी संस्थाओं को, उनके कुशल संचालकों को, हम कार्यकर्ताओं को, और इस सारे काम को ठीक से चलाने के लिए पैसा जुटाने वाली उदारमना, देसी-विदेशी अनुदान संस्थाओं को आगे-पीछे इन तीन शब्दों पर सोचना तो चाहिए ही। साध्य-साधन पर तो कुछ बातचीत होती है, लेकिन इसमें साधना भी जुड़ना चाहिए।
साधन उसी गांव, मोहल्ले, शहर में जुटाए जाएं या कि सात समुंदर पार से आए-इसमें पर्याप्त मतभेद हो सकते हैं पर कम-से-कम साध्य तो हमारे हों। कुछ अपवाद छोड़ दें तो प्रायः होता यही है कि साधनों की बात तो दूर हम साध्य भी अपने नहीं देख पाते। यहां साध्य शब्द अपने संपूर्ण अर्थ में भी है और काम चलाऊ हल्के अर्थ में भी-यानी काम, लक्ष्य, कार्यक्रम आदि।
पर्यावरण विषय के सीमित अनुभव से मैं कुछ कह सकता हूं कि इस क्षेत्र में काम कर रही बहुत-सी संस्थाएं साध्य, लक्ष्य के मामले में लगातार थपेड़े खाती रही हैं। लोग भूले नहीं होंगे जब पर्यावरण के 'शेयर बाज़ार' में सबसे ऊंचा दाम सामाजिक वानिकी का था। हम सब उसमें जुट गए, बिना यह बहस किए कि असामाजिक वानिकी क्या थी। फिर एक दौर आया बंजर भूमि विकास का। अंग्रेज़ी में यह 'वेस्टलैंड डेवलपमेंट' था। तब भी बहस नहीं हो पाई कि 'वेस्टलैंड' है क्या। ख़ूब साधन और समय इसी 'साध्य' में वेस्ट यानी बर्बाद हो गया। बंजर जमीन के विकास का सारा उत्साह अचानक अकाल मृत्यु को प्राप्त हो गया और उसके बदले हम सब फ़िलहाल 'वॉटरशेड डेवलपमेंट' में रम गए हैं। इस नए कार्यक्रम के हिंदी से सिंधी तक अनुवाद हो गए हैं-जलग्रहण क्षेत्र शब्द भी चल रहा है जलागम क्षेत्र भी। थोड़े देसी हो गए तो मराठी वालों ने 'पानलोट' विकास नाम रखा लिया है पर मूल में एक विचित्र वॉटरशेड की कल्पना ही है-इस सबके पीछे।
'ज्वाइंट फ़ॉरेस्ट मैनेजमेंट' दूसरा नया झंडा है। इसमें भी हमारी हिंदी प्रतिभा पीछे नहीं है-'संयुक्त वन प्रबंध कार्यक्रम' फल फूल रहा है। यदि हम अपनी संस्था को ज़मीन से जुड़ा मानते हैं तो हो सकता है हमें 'संयुक्त' शब्द पर आपत्ति हो, तब हम इसे 'सांझा' शब्द से पटकी खिला देते हैं-नाम कुछ भी रखें काम यानी साध्य वर्ल्ड बैंक-हिंदी में कहें तो विश्व बैंक ने तय किया है। साधन भी उसी तरह की संस्थाओं से आ रहे हैं।
यह विवरण मज़ाक़ या व्यंग्य का विषय नहीं है। सचमुच दुख होना चाहिए हमें। इस नए काम की इतनी ज़रूरत यदि आ भी पड़े तो जे.एफ.एम. यानी ज्वाइंट फ़ॉरेस्ट मैनेजमेंट का काम उठाते हुए हमें यह तो सोचना ही चाहिए कि इस 'ज्वाइंट' से पहले 'सोलो' मैनेजमेंट किसका था? कितने समय से था? वन विभाग ने अपने कंधों पर पूरे देश के वन प्रबंध का बोझ कैसे उठाया, उस बोझ को लेकर वह कैसे लड़खड़ाया और उसकी उस लड़खड़ाहट की कितनी बड़ी कीमत पूरे देश के पर्यावरण ने चुकाई? ये वन समाज के किस हिस्से से कितनी निर्ममता से छीने गए और जब वनों का वह गर्वीला एकल वन प्रबंध सारे विदेशी अनुदानों के सहजे संभाले नहीं संभला तो अचानक 'संयुक्त' प्रबंध की याद कैसे आई? पल भर के लिए, झूठा ही सही, एकल वन प्रबंधकों को सार्वजनिक रूप से कुछ पश्चाताप तो करना ही चाहिए था, क्षमा मांगनी चाहिए थी और तब विनती करते कि अरे भाई यह तो बड़ा भारी बोझा है, हमारे अकेले के बस का नहीं, पिछली गलती माफ़ करो, जरा हाथ तो बंटाओ।
साधन और साध्य का यह विचित्र दौर पूरी तरह उधारीकरण कर रहा है। जो हालत पर्यावरण के सीमित विषय में रही है, वही समाज के अन्य महत्वपूर्ण विस्तृत क्षेत्रों में भी मिलेगी। महिला विकास, बाल विकास, महिला सशक्तीकरण, बंधुआ मुक्ति, महाजन मुक्ति, बाल श्रमिक, लघु या अल्प बचत, प्रजनन स्वास्थ्य 'गर्ल चाइल्ड' सब तरह के कामों में शर्मनाक रूप दिखते हैं-पर हम तो आंख मूंद कर इनको जपते जा रहे हैं।
यूरोप अमेरिका की सामाजिक टकसाल से जो भी शब्द-सिक्का ढलता है, वहां वह चले या न चले, हमारे यहां वह दौड़ता है। यह भी संभव है कि इनमें से कुछ काम ऐसे महत्वपूर्ण हों जो करने ही चाहिए। तो भी इतना तो सोचना चाहिए कि हम सबका ध्यान इन कामों पर पहले क्यों नहीं जाता?
सामाजिक कामों के इस 'शेयर बाज़ार' में सामाजिक संस्थाओं के साथ-साथ सरकारों की भी गज़ब की भागीदारी है। केंद्र समेत सभी राज्यों की, सभी तरह की विचारधाराओं वाले सभी दलों की सरकारों में इस मामले में गज़ब की सर्वसम्मति है। विश्व बैंक हर महीने कोई 200 पन्नों का एक बुलेटिन निकालता है। इसमें पिछले महीने में पारित सभी देशों के राज्यों की विभिन्न सरकारों को दिए जाने वाले ऋण का विस्तृत ब्योरा रहता है। इसे देख लें-पक्का भरोसा हो जाएगा कि डॉलर विचार की करंसी में बदल गया है।
ऐसा नहीं कि सभी बिक गए हैं। इस वृत्ति से लड़ने वाले भी हैं। पर कई बार खलनायक से लड़ते-लड़ते हमारे नायक भी कुछ वैसे ही बन जाते हैं। आपातकाल को अभी एक पीढ़ी तो भूली नहीं है। उससे लड़कर, जीतकर सत्ता में आए हमारे श्रेष्ठ नायकों ने तब कोकाकोला जैसे लगभग सर्वव्यापी पेय को खदेड़ा था। बदले में उसी जैसे रंग का, वैसी ही बोतल में उतने ही प्रमाण का यानी चुल्लू भर पानी बनाकर उसका नाम कोकाकोला के बदले '77, (सतत्तर नहीं) डबल सेवन रखा-आपातकाल की स्मृति को समाज के मन में स्थायी रूप देने! यानी हमारे पास अपने कठिन दौर को याद रखने का इससे सरल कोई उपाय नहीं था। चलो यह भी स्वीकार है। कष्ट के दिनों को मनोरंजन के, शीतल पेय के माध्यम से ही याद रखते। पर हम उसे भी टिका नहीं पाए। डबल सेवन डूब गया, वे नायक भी डूबे। फिर कोकाकोला वापस आ गया, पहले से भी ज़्यादा जोश से और संयोग यह कि हमारे डूबे नायक भी फिर से वापस आ गए। 'सहअस्तित्व' का सुंदर उदाहरण है यह प्रसंग। तो साधनों की बहस हमें वहां ले जाएगी जब हम साध्य, लक्ष्य, अपने सामने खड़े काम, कार्यक्रम ही नहीं खोज पाएंगे। एक बार साध्य समझ लें तो फिर बाहर के साधन भी कोई उस तरफ़ मोड़ सकता है। तब ज़्यादा गुंजाइश वैसे इसी बात की होगी कि साध्य अपना होगा तो साधन भी फिर अपने सूझने लगते हैं।
इसका एक छोटा-सा उदाहरण जयपुर जिले के एक गांव का है। वहां ग्राम के काम में लगी एक संस्था ने बाहर की मदद से गरीब गांव में पानी जुटाने के लिए कोई 30,000 रुपए खर्च कर एक तालाब बनवाया। फिर धीरे-धीरे लोगों से उसकी थोडी आत्मीयता बढी। बातचीत चली तो गांव के एक बुजुर्ग ने कहा कि तालाब तो ठीक है पर ये गांव का नहीं, हमारा नहीं, सरकारी-सा दिखता है। पूछा गया कि यह अपना कैसे बनेगा। सुझाव आया कि इस पर पत्थर की एक छतरी स्थापित होनी चाहिए। पर वह तो बहुत महंगी होती है। लागत का अंदाज़ बिठाया तो उसकी कीमत तालाब की लागत से भी ज़्यादा निकली। संस्था ने बताया कि हम तो यह काम नहीं करवा सकते। हमारे पास तो तालाब के लिए अनुदान है, छतरी के लिए नहीं। गांव ने जवाब दिया कि छतरी के लिए संस्था से मांग ही कौन रहा है। ग़रीब माने गए गांव ने देखते-ही-देखते वह पहाड़-सी राशि चंदे से जमा की, अपना श्रम लगाया और तालाब की पाल पर गाजे बाजे, पूजा-अर्चना के साथ छतरी की स्थापना कर डाली।
कुछ को लगेगा कि यह तो फ़िज़ूलख़र्ची है। पर यह मकान और घर का अंतर है। समाज को पानी के केवल ढांचे नहीं चाहिए। समाज को ममत्व भी चाहिए। छतरी लगाने से तालाब सरकारी या संस्था का तकनीकी ढांचा न रहकर एक आत्मिक ढांचे में बदलता है। फिर उसकी रखवाली समाज करता है।
वैसे भी अंग्रेज़ों के आने से पहले देश के 5 लाख गांवों में, कुछ हज़ार कस्बे, शहरों में, राजधानियों में कोई 20 लाख तालाब समाज ने बिना किसी 'वॉटर मिशन', 'वॉटरशेड डेवलमेंट' के अपने ही साधनों से बनाए थे। उनकी रखवाली, टूट-फूट का सुधार भी लोग ही करते थे। जरा कल्पना तो करें हम उस ढांचे के आकार की, प्रकार की, संख्या बल की, बुद्धि बल की, संगठन बल की, जो पूरे देश में पानी का प्रबंध करता था-वह भी एक ऐसे देश में जहां चेरापूंजी से जैसलमेर जैसी विचित्र परिस्थिति थी।
तालाबों का यह छोटा-सा किस्सा बताता है कि साध्य अपना हो तो साधन भी अपने जुटते जाते हैं। हां उसके लिए साधना चाहिए। आज संस्थाएं पूरी दुनिया से बात करने के लिए जितनी उतावली दिखती हैं, उसकी आधी उतावली भी वे समाज से बात करने में लगाएं ('पार्टीसिपेटरी रिरार्च एपराईज़ल', 'पी.आर.ए.' वाली बात नहीं) तो यह साधना अपना रंग दिखा सकती है।
एक कहावत है बुंदेलखंड में : चुटकी भर जीरे से ब्रह्मभोज। सिर्फ ज़ीरा है वह भी चुटकी भर। न सब्ज़ी है, न दाल, न आटा पर ब्रह्मभोज हो सकता है। साध्य ऊंचा हो, साधना हो तो सब साधन जुट सकते हैं। हां चुटकी भर जीरे से 'पार्टी' नहीं हो सकेगी।