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साहित्य सीकर/९—हिन्दी शब्दों के रूपान्तर

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प्रयाग: तरुण भारत ग्रंथावली, पृष्ठ ७० से – ८१ तक

 

 

९—हिन्दी शब्दों के रूपान्तरों

[ बात-चीत ]

गणेशदत्त—मेरी नींद-भूख जाती रही है।

देवदत्त—क्यों?

ग॰—हिन्दी के कुछ लेखक हिन्दी के कुछ शब्दों की बड़ी ही दुर्दशा करते हैं। वे उन्हें एक रूप में नहीं लिखते। कई 'दिये' लिखता है, कोई 'दिए'। इस विषमता ने मेरे उदर में शूल उत्पन्न कर दिया है।

दे॰—कहिए, इसका क्या इलाज किया जाय?

ग॰—मेरा बनाया एक नियम या सूत्र जारी करा दीजिए। उसके अनुसार काम होता देख मेरा शूल दूर हो जायगा और फिर मैं पूर्ववत् खाने-पीने लगूँगा। शब्दों में एक-रूपता भी आ जायगी।

दे॰—अपना सूत्र सुनाइए।

ग॰—सुनिये-किसी शब्द का काई रूप यदि स्वगन्त या व्यञ्जनान्त किये बिना लिखा न जा सके, तो उस शब्द के अन्यान्य रूप भी क्रमानुसार स्वरान्त या व्यञ्जनान्त होंगे।

दे॰—सूत्र तो आपका बड़ा अलबेला है। शास्त्रों में सूत्र का जो लक्षण लिखा है उससे आपका सूत्र कोसों इधर-उधर भाग रहा है। यह उसका अलबेलापन नहीं तो क्या है। अब या तो आपका यह नियम ही रहे या शास्त्रोक लक्षण ही। दोनों नहीं रह सकते।

ग॰—मेरे नियम में दोष क्या है?

दे॰—दोष बताऊँगा, पर पहले आप यह तो बताइए कि स्वरों और व्यञ्जनों के सिवा क्या तीसरे प्रकार के भी कोई वर्ण देवनागरी वर्णमाला में हैं।

ग॰—मैंने कब कहा कि तीसरे प्रकार के भी काई वर्ण हैं।

दे॰—नहीं कहा? तो फिर—"किसी शब्द का कोई रूप यदि स्वरान्त या व्यञ्जनान्त किये बिना लिखा न जा सके"—इसका क्या अर्थ? वर्णों के दो ही भेद हैं—स्वर और व्यञ्जन। शब्दों और शब्दों के रूपान्तरों के अन्त में इनमें से एक अवश्य ही रहेगा। इस दशा में, "यदि न लिखा जा सके" के क्या मानी? सूत्रों में इस प्रकार के निरर्थक और सन्देह-जनक वाक्य नहीं रहते। यह दोष है। समझे।

ग॰—दोष सही। नियम की भाषा पीछे ठीक कर ली जायगी। मतलब की बात कहिए। मेरी प्रयोजन सिद्धि के सहायक हूजिये।

दे॰—जिस बात से आप अपना प्रयोजन सिद्ध करना चाहते हैं उसकी जड़ ही हिल रही है। आपका अर्जी दावा ही गलत है। इस कारण मुकदमें का फैसला कभी आपके अनुकून नहीं हो सकता। पेड़ की जड़ को पहले मजबूत कीजिये। तब उससे फूल और फल पाने की आशा रखिये।

ग॰—अच्छा, मेरी गलती बताइए तो। जड़ की कमजोरी मुझे दिखा तो दीजिये। शान्त भाव से विचार कीजिये।

दे॰—मैंने तो जरा भी अशान्ति नहीं दिखाई। किसी की गलती बताना यदि अशान्ति उत्पन्न करना हो, तो इस मामले को यहीं रहने दीजिये। न आप मुझसे कुछ पूछेंगे, न मुझे आपकी गलती दिखाने का मौका मिलेगा।

ग॰—नहीं, मैं गलती बताने से अप्रसन्न न हूँगा। आप मेरा भ्रम

निःसंकोच होकर दूर करते चलिये।

दे॰—बहुत अच्छा। तो मैं अब आपके बनाये हुये नियम के अनुसार शब्दों का रूपान्तर करता हूँ। देखिए, कैसा तमाशा होता है—नया—शब्द स्वरान्त है। आपके नियमानुसार, अन्त में स्वर रखने पर, उसके दो रूप सिद्ध हुये—नई और नए। मंजूर है?

ग॰—आपको समझ की बलिहारी! जनाब-आली, 'नया' शब्द स्वरान्त नहीं व्यञ्जनान्त है। देखते नहीं, उसके अन्त में 'या' है। क्या इतना भी नहीं जानते कि 'या' व्यञ्जन है? मेरे नियम के अनुसार 'नया' के दूसरे दो रूप हुए–'नयी' और 'नये'।

दे॰—इन्द्र, चन्द्र और पाणिनि आदि ही का नहीं, महेश्वर तक का आपने अपमान किया। आप इस विषय में विवाद या शास्त्रार्थ करने और नियम बनाने के अधिकारी नहीं। जिसे स्वर और व्यञ्जन का भेद तक मालूम नहीं उसके साथ शब्दों के रूपान्तरों का विचार करना समय को व्यर्थ नष्ट करना है। 'या' के उत्तरार्द्ध में 'आ' स्वर है। वह य—व्यंजन और आ—स्वर के मेल से बना है। अतएव स्वरान्त ही है, व्यंजनान्त नहीं।

ग॰—क्षमा कीजिए। मैंने जरूर गलती की। मुझे अब आप अपना शिष्य समझिये और शिष्यवत् मेरा शासन करते हुये मेरे निर्म्मित नियम पर विचार कीजिये।

दे॰—विचार करूँ तो क्या करूँ? आपके नियम में कुछ जान भी हो। यह तो अव्याप्ति, अतिव्याप्ति आदि दोषों का आकार हो रहा है। आपके नियम का एक अंश है—"किसी शब्द का कोई रूप"। बताइए, आप शब्द किसे कहते हैं? आपका 'नया' यदि शब्द की परिभाषा के भीतर है, तो 'नई' क्या उसके बाहर है? फिर 'नया' को इतना महत्व क्यों? जैसे 'नया' एक शब्द है, वैसे ही 'नई' भी है। देखिए, आपके नियम में फिर भी एक दोष निकल आया। 'नया' को बहुवचन में आप 'नये' लिखिए। पर कृपा करके 'नई' की 'नयी' लिखने का साहस न कीजिए। 'नई' पर 'नया' का कुछ भी प्रभुत्व नहीं। वह तो एक जुदा शब्द है। अतएव आप अपने नियम के फन्दे में डालकर लोगों से नयी, नयियाँ, नयियों को, नयियों ने इत्यादि रूप लिखाने का द्राविड़ी प्राणायाम न कराइये। दया कीजिये—व्यञ्जनों पर स्वरों का प्रभुत्व है। जो काम अकेले एक स्वर—ई—से हो सकता है उसे करने के लिये 'य्' को भी क्यों आप दिक करना चाहते है?

ग॰—अनेक बड़े-बड़े लेखक 'नयी' लिखते हैं। क्या वे सभी व्याकरण से अनभिज्ञ हैं?

दे॰—आप विचार करने चले हैं या औरों के व्याकरणज्ञान की माप? मैं मानता हूँ कि भाषा-रूप सागर का बहाव व्याकरण की दीवार से नहीं रुक सकता। यदि सभी बड़े-बड़े लेखक 'नयी' लिखने लगेंगे तो व्याकरण रक्खा रहेगा; रिवाज की जीत होगी। परन्तु जब तक ऐसा नहीं हुआ तब तक तो आप अपना नियम सँभाल कर बनाने की कृपा कीजिए और प्राकृतिक नियमों का गला न घोटिए।

ग॰—अच्छा, 'लिया' का बहुवचन 'लिये' लिखा जा सकता है, या नहीं?

दे॰—हाँ, लिखा जा सकता है।

ग॰—तो फिर 'इसलिए' लिखना गलत है?

दे॰—क्यों?

ग॰—इस कारण कि उसमें भी 'य' की आवश्यकता है।

दे॰—आवश्यकता किसे कहते हैं?

ग॰—'लिया' का बहुवचन 'लिये' हुआ न? जैसा उसका उच्चारण ही 'इसलिए' के लिए' का भी।

दे—आवश्यकता का लक्षण आपने अच्छा बताया! यदि उच्चारण की अनुरूपता के आधार पर ही शब्दों के रूपान्तर लिखे जाने चाहिए तो 'लिये', 'दिये', 'किये' आदि रूप लिखना आप आज से छोड़ दीजिये। क्योंकि 'लिए', 'दिए', 'किए' आदि रूप लिखने से भी उच्चारण में भेद नहीं पड़ता। इन पिछले रूपों में 'ए' स्वर का प्रयोग होता है। और स्वर ही प्रधान वर्ण है अतएव यही रूप लिखना अधिक युक्तिसंगत है। हिन्दी, नहीं नागरी की एक बहुत बड़ी सभा ने, इसी कारण, इस विषय का एक नियम ही बना दिया है। बहुसम्मति से उसकी आज्ञा है कि जहाँ स्वर से काम निकलता है वहाँ व्यञ्जन न रखना चाहिए। वह 'दिए', 'किए', 'लिए' ही शुद्ध समझती है।

ग॰—अच्छा तो आपकी क्या राय है?

दे॰—सुनिए। 'लिया' भूतकालिक क्रिया है। उसका बहुवचन यदि 'लिये' लिखा जाय तो हर्ज नहीं, क्योंकि 'लिये' का 'लिया' से कुछ सम्बन्ध है। परन्तु 'इसलिए' तो अव्यय है। 'लिया' से यह कुछ भी सरोकार नहीं रखता। आप 'इसलिया' तो कभी लिखते ही नहीं। अतएव 'इसलिये' न लिखकर आप आज से 'इसलिए' ही लिखा कीजिए।

ग॰—अच्छा 'चाहिये' लिखा करूँ या 'चाहिए'।

दे॰—यदि 'लिया' की तरह आप कभी 'चाहिया' भी लिखते हों तो खुशी से 'चाहिये' लिखा कीजिए; अन्यथा 'चाहिए'। जो कुछ मैंने ऊपर कहा उस पर यदि आपने ध्यान दिया होता तो ऐसा प्रश्न ही आप न करते।

म॰—'कहलाया' में 'या' है। परन्तु कुछ लोग उसके रूप का खयाल न करके 'कहलाएगा' लिखते हैं, 'कहलायेगा' नहीं। एकारयुक्त रूप तो सरासर गलत मालूम होता है।

दे॰—जो स्वर और व्यञ्जन का भेद नहीं जानता वह सही को गलत और गलत को सही यदि कह दे तो क्या आश्चर्य है?

ग—मैं अपनी कमज़ोरी समझ गया। अब उस बात की याद दिला कर आप क्यों मुझे लज्जित करते हैं। मेरा बनाया हुआ नियम अवश्य ही सदोष है। यदि उसके अनुसार शब्दों के रूपान्तर किये जायँगे तो पहले तो हिन्दी में व्यञ्जनान्त शब्द ही बहुत थोड़े मिलेंगे और जो मिलेंगे भी उनके व्यञ्जनान्त रूपान्तर ही न हो सकेंगे।

दे॰—मुझे यह जानकर बहुत सन्तोष हुआ कि आपको अपने बनाये नियम की कमजोरी मालूम हो गई। अच्छा, सुनिये। 'कहलाया' का 'कहलाएगा' पर रत्ती भर भी जोर नहीं—'कहलाया' की कुछ भी सत्ता 'कहलाएगा' पर नहीं। दोनों 'कहलाना' क्रिया के भिन्न-कालवाची रूपान्तर हैं। और कहलाना में 'या' या 'य' की गन्ध नहीं। 'कहलाया' में या उच्चारण के अनुरूप है। आप चाहें तो उसका बहुवचन 'कहलायें', लिख सकते हैं। पर 'कहलाएगा' के 'ए' की जगह 'ये' को दे डालने का आपको क्या अधिकार? 'कहलायेगा' अन्यकालवाची एक पृथक् रूप है। उस पर यदि किसी की कुछ सत्ता है तो 'कहलाना' की है, 'कहलाया' की नहीं। जो काम 'ए' से हो जाता है उसके लिये 'य्' को भी पकड़ना कहाँ का न्याय है।

ग॰—संस्कृत में तो इस तरह का गदर नहीं। वहाँ तो जो वर्ण किसी शब्द के एक रूप में रहता है वही अन्य रूपों में भी रहता है।

दे॰—संस्कृत का आप नाम न लें। बात हिन्दी की हो रही है, संस्कृत की नहीं। संस्कृत का अनुकरण करने से काम न चलेगा। संस्कृत में तो नियम के भीतर नियम और अपवाद के भीतर अपवाद हैं। वह तो विचित्रताओं की खान है। संस्कृत के आप पीछे पड़ेंगे तो, 'दाराः' शब्द से उल्लिखित होने पर, आपकी पत्नी आपका स्त्रीत्व खोकर पुरुस्तव को प्राप्त हो जायगी; इसके सिवा एक होने पर भी उसे अनेकत्व प्राप्त हो जायगा; और, आपके सुहृद सखाराम 'मित्र' बनकर पुरुस्त्व से हाथ धो बैठेंगे।

ग॰—यह तो लिंग और वचन के भेद की बात हुई। क्रियापदों में तो यह बात नहीं होती। उनके रूपान्तरों में धातु या क्रियापद-गत वर्णों को छोड़कर अन्य वर्ण नहीं आ जाते।

दे॰—आप अनधिकार चर्चा कर रहे हैं। संस्कृत में जो कुछ होता है उसका यदि शतांश भी हिन्दी में होने लगे तो आप घड़ी भर में पिड़ी बोल जायँ और हाथ से कलम रख दें। संस्कृत में एक धातु है—इ। उसके एक प्रकार के भूतकालिक क्रियापद होते है—इयाम, ईयतुः, ईयुः। अब देखिये इनमें कितने नये नये वर्ण आ गये। 'व्यपेयाताम्' भी इसी धातु का एक उपसर्ग-विशिष्ट रूप है। इसमें तो मूल धातु—इ—का कहीं पता तक नहीं। 'दिया' का बहुवचन यदि किसी ने 'दिए' लिख दिया तो आपके पेट में दर्द होने लगता है, 'इयाय' का बहुवचन 'ईयुः' देखकर नहीं मालूम आपको कौन ब्याधि आ घेरेगी।

ग॰—कुछ भी हो, इस प्रकार की विषमता से हिन्दी को बचाना ही अच्छा है। हिन्दी को हम लोग राष्ट्र-भाषा बनाना चाहते हैं। उसकी क्लिष्टता दूर करने के लिए उसके हिज्जों में समता होनी चाहिए। तभी अन्य-प्रान्त वाले उसे सीखेंगे। दे॰—अँगरेज़ी और संस्कृत को भी आप किसी लायक समझते हैं या नहीं? उनकी एकरूपता या विषमता पर भी कभी विचार किया है? अँगरेजी तो विषमताओं और विलक्षणताओं की खानि ही है? संस्कृत में भी इन गुणों या दोषों की कमी नहीं। उसके अनेक शब्द ऐसे हैं जिन्हें, विभक्तियों के पेंच में पड़कर, दो ही दो नहीं, तीन-तीन तक रूपान्तर धारण करने पड़ते हैं। तिस पर भी हजारों साल से लोग उसे सीखते आते हैं। अनन्त ग्रन्थ राशि उसमें तैयार हो चुकी है। उसका अधिकांश नष्ट हो जाने पर भी, लाखों ग्रन्थ अब तक मौजूद हैं। हिज्जों की विषमता ने उसकी साहित्य-वृद्धि में बाधा नहीं डाली। फिर आप हिन्दी की इस तुच्छ विषमता से क्यों इतना भयभीत हो रहे हैं? संस्कृत देववाणी कहाती है। उसका संस्कार बड़े-बड़े ऋषियों और मुनियों ने किया है। उसको आप हिन्दी की जननी कहने में तो गर्व करते हैं, पर उसकी विषमता स्वीकार करते घबराते हैं। 'कोश' और 'कोष', 'बैय्याकरण' और 'वैयाकरण', 'शारदा' और 'सारदा' आदि शब्दों के दो-दो रूप होने से संस्कृत को कितनी हानि पहुँची है? कभी इस बात को भी आपने सोचा है? 'दिया', 'किया', 'लिया' आदि के रूप, बहुवचन में, यदि कोई 'दिये', 'किए', 'लिए' ही लिखे तो क्या इतनी ही द्विरूपता से हिन्दी की सारी उन्नति रुक जायगी और उसमें अनन्त क्लिष्टता आ जायगी? जो भारतवासी बीस-बीस साल तक कठिन परिश्रम करके अँगरेजी और संस्कृत के सदृश महाजटिल और क्लिष्ट भाषाओं के आचार्य हो जाते हैं वे दस-पाँच शब्दों की द्विरूपता देखकर ही हिन्दी से डर जायँगे, इस बात को आप अपने ध्यान तक में न लाइए।

ग॰—हिन्दी की उन्नति रुके या न रुके, बात यह है कि यदि सब लोग मिल कर किसी शब्द का कोई एक रूप निश्चित कर लें तो क्यों व्यर्थ में उसके दो रूप रहें।

दे॰—सब लोग? सौ, दो सौ, हजार, लाख? आखिर कितने? सारे हिन्दी-भाषा-भाषियों को तो आप अपने नियम से जकड़ सकेंगे नहीं आपके अखबारों और पुस्तकों की पहुँच होगी कहाँ तक और आपके नियम का पालन करेंगे कितने लोग? लाखों बच्चे मदरसों में शिक्षा पा रहे हैं। क्या उन सब से आप जबरदस्ती नियम का पालन करावेंगे? भाई साहब, नियम बना कर भाषा का प्रतिबन्ध नहीं किया जा सकता। भाषा का रुख और उसके प्रत्येक अंग के भेद-भाव देखकर तदनुकूल नियमों और व्याकरणों की रचना की जाती है। भाषा कुछ आपके नियमों की अनुचरी नहीं। व्याकरण अलबत्ते उसका अनुचर है। लेखकों की प्रवृत्ति, भाषा का प्राकृतिक झुकाव और रिवाज आदि उसे जिस तरफ ले जाते हैं उसी तरह वह जाती है। व्याकरण की गरज हो तो उसके पीछे-पीछे जाय और नियम बनावे। संस्कृत-व्याकरण के प्रणेताओं को तो एक-एक शब्द के लिये भी अलग-अलग नियम बनाने पड़े हैं। यदि 'दिया' का बहुवचन 'दिए' लिखने का रवाज हो जाय, अथवा कुछ लेखक उसे इसी रूप में लिखें तो व्याकरण बेचारे को झखमार ऐसे रूपों की घोषणा करनी ही पड़ेगी।

ग॰—आप तो हठ कर रहे हैं। 'दिये', 'लिये', 'किये' आदि लिखने में आपकी हानि ही कौन सी है? आप यदि इन रूपों को इसी तरह लिखा करें तो आपकी देखा देखी और भी ऐसा ही करने लगेंगे। फल यह होगा कि इनके रूपों में समानता आ जायगी।

दे॰—आप मेरी बात न कहिये। समुदाय की बात कहिए। मेरी तेरी का भाव अच्छा नहीं। मैं क्या लिखता हूँ और कैसे लिखता हूँ, तो आप मेरे लेख देख कर जान सकते हैं। मैं जरा भी हठ नहीं करता। मैं कहता हूँ कि आपका प्रयास बिलकुल ही व्यर्थ है। आज आप यह कहते हैं, कल कहेंगे 'इँगलैंड' न लिखकर हमारी तरह 'इँगलेंड' लिखा करो; परसों कहेंगे 'गवर्णमेण्ट' और 'लण्डण' लिखना ही शुद्ध है। अच्छा यह तो बताइये, अधिकांश लेखक पञ्चम वर्ण का काम अनुस्वार से लेते हैं। आपके व्याकरण से तो ऐसा करना गलत है। फिर इसके लिये आपने नियम क्यों नहीं बनाया?

ग॰—अनुसार लिखना तो विकल्प से रायज हो गया।

दे॰—खूब कहा! रिवाज में बड़ी शक्ति है। अनुसार की तरह आप 'दिए', 'लिए' आदि रूपों को भी विकल्प से रायज समझिए। जो लोग इस तरह के रूप लिखते हैं उन्हें लिखने दीजिये। आप न लिखिए। आप अपनी पसन्द के लिखें। जो लोग 'दे दी' के बदले 'दे दियो' और 'ले ली' के बदले 'ले लियी' लिखते हैं उन्हें भी वैसा लिखने को कोई मना नहीं कर सकता। व्याकरण बनाने वालों को हजार दफे गरज होगी तो वे ऐसे रूपों का भी उल्लेख अपने ग्रन्थों में करेंगे। क्योंकि लेखक उन्हें जान-बूझकर और सही समझ कर वैसा लिखते हैं। मेरी राय में व्याकरण के नियमों के सुभीते के लिए पहले ही से शब्दों को एकरूपता देने की चेष्टा बड़ी ही अनोखी बात है। महाराज, रिवाज भी कोई चीज है। उसके सामने नियम-उवम सब रक्खे रहते हैं। भारत के अन्य सारे प्रान्तों के लोग सिर ढँकते हैं, पर बंगाली खुले ही सिर रहते हैं। यह रिवाज ही की कृपा का फल है।

ग॰—आप तो रिवाज के बड़े ही भक्त मालूम होते हैं।

दे॰—अनुस्वार के सम्बन्ध में आपने भी तो रिवाज को मान दिया है रिवाज का कायल मैं जरूर हूँ। पर आप तो मुझसे भी बढ़ कर उससे भक्त हैं। इस लिपि-विषयक छोटे से रिवाज को मानने ही में आप कुछ हिचकिचाते हैं। और बड़े बड़े रिवाजों के सामने आप आँख मूंद कर सिर झुकाते हैं।

ग॰—जरा स्पष्ट करके कहिये।

दे॰—क्षमा कीजिए। विषयान्तर होगा। पर आप ही की आज्ञा से। आप पुराने विचारों के दृढ़ सनातन धर्मानुयायी हैं?

ग॰—निःसन्देह!

दे॰—तो फिर आप छोटी उम्र में लड़कियों का विवाह कर देने, स्त्रियों को स्कूलों और कालेजों से दूर रखने, विधवाओं से ब्रह्मचर्य्य पालन कराने और नीच जातियों को अस्पृश्य समझने के रिवाज के पक्षपाती हैं या नहीं?

ग॰—हूँ तो अवश्य; पर वे सब रिवाज नहीं। उसके लिए शास्त्राज्ञा है।

दे॰—शास्त्राज्ञा! स्त्रियों को निरक्षर रखने की भी शास्त्राज्ञा! अच्छा तो मानिए शास्त्राज्ञा। मनु की आज्ञा है—

योऽनधीत्य द्विजो वेदमन्यत्र कुरुते श्रमम्।
स जीवन्नेव शूद्रत्वमाशु गच्छति सान्वयः॥

बताइए, स्कूल और कालेज में आपने कुछ वर्ष गंवाये हैं या नहीं? यह भी बताइए कि कौन-कौन सा वेद आपने याद किया है? शास्त्राज्ञा की बदौलत अब आप अपने अस्पृश्य जनों की बिरादरी में जा रहे हैं, और हिन्दी के कुछ शब्दों की तरह, आपका वर्णान्तर होने भी देर नहीं। शास्त्राज्ञा आपको नहीं बचा सकती। बचा सकता है तो केवल रिवाज, रूढ़ि या लोकाचार। उसमें बड़ा बल है। अतएव, दया करके हिन्दी को उसके आश्रय से वञ्चित न कीजिए।

ग॰—आप तो धर्मशास्त्र की बातें छेड़ रहे हैं।

दे॰—हः हः हः हः और आप निग्रह-स्थान में पड़कर भाग रहे हैं। मेरी सलाह है कि आप ऐसे शुष्कवादों में समय न नष्ट किया करे। कम से कम मैं इस विषय में और अधिक समय नष्ट करने के लिये तैयार नहीं।

[सितम्बर, १९१४