साहित्य सीकर/८—शब्दार्थ विचार

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८—शब्दार्थ-विचार

संस्कृत के अनेक ग्रन्थों के आधार पर, पण्डित गणेश सदाशिव लेले ने, मराठी में, साहित्य शास्त्र-सम्बन्धी एक ग्रन्थ लिखा है। उसमें शब्द और अर्थ का, साहित्य-शास्त्र के नियमों के अनुसार, थोड़े में, अच्छा वर्णन है। यह लेख, प्रश्नोत्तर के रूप में, उसी के कुछ अंश का भावार्थ है।

प्रश्न—शब्द किसे कहते हैं?

उत्तर—जिससे अर्थ का बोध हो, ऐसे एक अक्षर या अनेक अक्षरों के समुदाय का शब्द कहते हैं।

प्र॰—अर्थ-बोधकता के विचार से कितने प्रकार के शब्द होते हैं?

उ॰—तीन प्रकार के—वाचक, लक्षक और व्यञ्जक।

प्र॰—वाचक शब्दों का क्या लक्षण है?

उ॰—जिस शब्द के जिस अर्थ का नियमपूर्वक बोध होता है वह शब्द उस अर्थ का वाचक कहलाता है। और जो अर्थ उस वाचक शब्द से बोधित होता है वह अर्थ उस शब्द का वाच्यार्थ कहलाता है। उसी का नाम शब्दार्थ, मुख्यार्थ, या स्वार्थ भी [ ६६ ]है। इस व्यापार का नाम शक्ति या अभिषा-वृत्ति है। उदाहरण—"घट" शब्द से नियमपूर्वक एक पात्र-विशेष का बोध होता है। इसलिये 'घ' पात्र-विशेष का वाचक और पात्र-विशेष उसका वाच्यार्थ है।

प्र॰—लक्षक शब्द किसे कहते हैं?

उ॰—जब किसी शब्द के वाच्यार्थ (अर्थात् मुख्यार्थ) से वाक्य का मतलब ठीक-ठीक समझ में नहीं आता तब उस शब्द का कोई और अर्थ ऐसा कल्पित कर लिया जाता है जिससे वाक्य का मतलब ठीक-ठीक निकल आवे। इस तरह का कल्पित अर्थ उस शब्द का लक्ष्यार्थ और वह शब्द उस अर्थ का लक्षक कहलाता है। इस शब्द-व्यापार या शब्द-शक्ति का नाम लक्षणावृत्ति है। उदाहरण—"प्लेग के डर से सारा शहर भाग गया"। इस वाक्य में "शहर" शब्द का वाच्य, अर्थात् मुख्य अर्थ प्रदेश-विशेष है। परन्तु किसी प्रदेश का भाग जाना असम्भव बात है। इसलिए "शहर" शब्द में रहने वाले आदमियों के अर्थ का लक्षक और शहर में रहने वाले आदमी उसका लक्ष्यार्थ है।

रूढ़ि और प्रयोजन के अनुसार लक्षणा होती है। जो लक्षणा रूढ़ि के अनुसार होती है उसे निरूढ़लक्षणा और जो प्रयोजन के अनुसार होती है उसे प्रयोजनवती लक्षणा कहते हैं। पूर्वोक्त उदाहरण में जो लक्षणा है वह निरुढ़-लक्षणा है; क्योंकि वह रूढ़ि के अनुसार हुई है।

प्र॰—व्यञ्जक शब्द किसे कहते हैं?

उ॰—वाच्य और लक्ष्य अर्थों के सिवा एक तीसरे ही अर्थ की प्रतीति जिस शब्द से होती है वह शब्द उस अर्थ का व्यञ्जक और वह अर्थ उस शब्द का व्यंग्यार्थ कहलाता है। उदाहरण—'गोविन्द [ ६७ ]स्वामी की कुटी, प्रयाग में, त्रिवेणी पर है।' यहाँ त्रिवेणी शब्द के वाच्यार्थ जल-प्रवाह, के ऊपर कुटी का होना सम्भव नहीं। इसलिए लक्षणा करके त्रिवेणी शब्द से त्रिवेणी के तीर का अर्थ ग्रहण करना पड़ता है। त्रिवेणी के तट पर होने के कारण कुटी की शीतलता और पवित्रता की प्रतीति जो मन में होती है यह त्रिवेणी शब्द का व्यंग्यार्थ है और त्रिवेणी शब्द उस व्यंग्यार्थ का व्यञ्जक है। इस शब्द-व्यापार का नाम व्यञ्जनावृत्ति है। इस उदाहरण में जो लक्षणा की गई है वह कुटी के शीतलत्व और पवित्रत्व की विशेष प्रतीति होने के लिये है।

प्र॰—कितनी तरह से लक्षणा होती है?

उ॰—दो तरह से—वाच्यार्थ के सादृश्य के अनुसार और वाच्यार्थ के सम्बन्ध के अनुसार। उदाहरण—"देवदत्त, तुम आदमी नहीं, बैल हो।" यहाँ, बैल के बुद्धि-मान्द्य आदि गुण, अर्थात् धर्म, देवदत्त में होने से यह अर्थ हुआ कि यह बैल—अर्थात् बैल के सदृश हैं। इसलिए इस लक्षणा का नाम सादृश्य निबन्धना है। इसी को कोई-कोई गौणी-वृत्ति भी कहते हैं।

"प्लेग के डर से सारा शहर भाग गया"—इस उदाहरण में शहर शब्द से शहर-सम्बन्धी आदमियों का अर्थ, और "गोविन्द-स्वामी की कुटी, प्रयाग में, त्रिवेणी पर, है"—इसमें त्रिवेणी शब्द से त्रिवेणी-सम्बन्धी तट का अर्थ ग्रहण करना पड़ता है। इसलिये दोनों लक्षणायें सम्बन्ध-निबन्धना हैं।

प्र॰—सम्बन्ध-निबन्धना लक्षणा कितने प्रकार की होती है?

उ॰—दो प्रकार की—जहस्वार्था और अजहत्स्वार्था।

प्र॰—दोनों का अलग-अलग लक्षण क्या है?

उ॰—जहाँ वाच्यार्थ का बिलकुल ही त्याग होता है वहाँ जहत्स्वार्था होती है। जैसे, "प्लेग के डर से सारा शहर भाग गया"—इस [ ६८ ]उदाहरण में शहर शब्द के वाच्यार्थ, प्रदेश-विशेष, का सर्वथा त्याग होकर सिर्फ उससे सम्बन्ध रखनेवाले आदमियों का अर्थ लिया गया। इसलिये यह जहत्स्वार्था हुई। जहाँ लक्ष्यार्थ के साथ वाच्यार्थ का भी ग्रहण होता है वहाँ अजहत्स्वार्था होती है। जैसे "यहाँ पर दही रक्खा है। बिल्ली न आने पावे।" इस उदाहरण में बिल्ली शब्द से एक प्राणि-विशेष से भी मतलब है और उसके सिवा कुत्ता या कोवा इत्यादि दही खाने वाले और भी प्राणियों से मतलब है, क्योंकि कहने वाले की यह इच्छा नहीं कि सिर्फ बिल्ली ही दही के पास न आने पावे; और प्राणी आवे तो आने दो। अतएव यहाँ पर अजहत्स्वार्था नामक सम्बन्ध-निबन्धना हुई।

कोई कोई, विशेष करके वेदान्तो लोग, जहदजहत्स्वार्था नामक भी लक्षणा मानते हैं। उनमें वाच्यार्थ के कुछ अंश का त्याग होकर अशिष्ट अंश लक्ष्यार्थ के साथ अपेक्षित अर्थ का बोध कराता है। यह बहुत सूक्ष्म और क्लिष्ट-कल्पना है। इसके उदाहरण की जरूरत नहीं।

प्र॰—जैसे शब्द में व्जञ्जकता होती है वैसे ही क्या अर्थ में भी होती है?

उ॰—हाँ, कभी कभी अर्थ में भी व्यञ्जकता होती है। जैसे "अरे मार डाला" इस वाक्य से यह अर्थ निकलता है कि बचाने के लिए कोई दौड़ो अथवा—"अरे दस बज गये!" यह कहने से सूचित होता है कि स्कूल या दफ़्तर इत्यादि जाने का समय हो गया।

प्र॰—लक्षणा के क्या और भी कोई प्रकार है?

उ॰—हैं। लक्षित-लक्षणा और विपरीत-लक्षणा इत्यादि और भी इसके कई प्रकार हैं। उदाहरण—"द्विरेफ" शब्द से भौंरे के अर्थ का बोध होने से लक्षित-लक्षिणा हुई। अर्थात् जिसमें दो रेफ हैं, ऐसे द्विरेफ शब्द ने भौंरे को लक्षित करके उसके अर्थ का बोध [ ६९ ]करा दिया। "आप बड़े होशियार हैं"—इस वाक्य में जहाँ "होशियार" शब्द से "बेवकूक" का अर्थ अपेक्षित होता है वहाँ विपरीत (उल्टी) लक्षणा होती है।

बहुत से शब्द भी लाक्षणिक होते हैं; जैसे जोड़-तोड़। इसका वाच्यार्थ है जोड़ना और तोड़ना। परन्तु लक्षणा से इसका अर्थ प्रबन्ध करना या मेल मिलाना आदि होता है। उदाहरण—'शिवदत्त, आजकल, एक बहुत बड़ा ठेका लेने के इरादे से जोड़-तोड़ लगा रहे हैं। इस तरह के बहुत से रूढ़ शब्द व्यवहार में आते हैं। जैसे "दवा-पानी" में पानी शब्द से दवा ही के समान और चीज़ों का बोध होता है। "रोना-पीटना" में पीटना शब्द से भी रोने ही का बोध होता है।

"हमने तुम्हें सौ दफे मना किया कि तुम ऐसा काम मत करो"—इसमें सौ दफे से सिर्फ बहुत दफे का अर्थ लक्षित होता है।

[ नवम्बर १९०६