सौ अजान और एक सुजान/१०

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सौ अजान और एक सुजान  (1944) 
द्वारा बालकृष्ण भट्ट

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दसवाँ प्रस्ताव
संगत ही गुन ऊपजे, संगत ही गुन जाय।

हीराचंद के घर से दस घर के फासिले पर कुछ कच्चा कुछ पक्का एक मकान था। उसमें नंददास नाम का एक मनुष्य रहता था। यह कौन था, और कब से यहाँ रहता था, [ ५६ ]
इसका कोई ठीक पता नहीं मालूम ; पर इतना अलबत्ता पता लगता था कि यह हीराचद की बिरादरी का था, और इन बाबुओं को भैया-भैया कहा करता था । इससे यह भी कुछ टोह लगती थी कि इसका बाबुओं के घराने से कोई दूर का रिश्ता भी रहा हो, तो क्या अचरज ! बाबू के सब नौकर इसे नंदू बाबू कहा करते थे। बाप इसका शुरू में कपड़े तथा दूसरी-दूसरी देशी चीजों की एक साधारण-सी दूकान करता हुश्रा निरा बकाल के सिवा किसी गिनती में , न था। मसल है, 'तीन दिवाले साव" । वह इस हिकमत को अमल में लाकर कई बार दिवाला काढ़ और पीछे आधे- तिहाई पर अपने देनदारो से मामला कर लाख-पचास हजार की पूॅजी भी इसके लिये छोड़ गया था। इसलिये नंदू अपना दिमाग इन बाबुओं से कुछ कम न रखता था। थोड़ी उर्दू जानता था; टूटी-फूटी अँगरेजी भी बोल लेता था। वही के दिहाती मदरसों में पढ़ा था ; दो - एक छोटे-मोटे इम्तिहान भी पास किए था। बस, इतना ही कि मुख्तारी और मुसिफी तक वकालत करने का अख्तियार हासिल था। पर कानूनी लियाकत मे अपने आगे हाईकोर्ट के वकीलो को भी कुछ माल न गिनता था, और साधारण लियाकत मे तो बृहस्पति और शुक्राचार्य को भी अपना चेला समझे बैठा था। तरहदारी और अमीरी में पूरा दम भरता था, पर उस तरह को तरहदारी और अमीरी नहीं कि गॉठ का पैसा
[ ५७ ]खो बैठे, वरन् ऐसे-ऐसे लटके सीखे था कि किसी ऐसे बड़े मालदार नए उभरे हुए को ढूँढ़े, जिसे कोई रोकने-टोकनेवाला न हो, पर वह कमसिनी ही में खुदमुख्तार बन बैठा हो। नितांत अल्पज्ञता के कारण इतना मदांध और निर्विवेक था कि बहुधा अपने छिछोरपन और सिफलापन के सबब शिष्ट-समाज में कई बार भरपूर दक्षिणा पा चुका था, तो भी अपने छिछोरपन से बाज नहीं आता था। यदि कोई समझदार और तमीज़वाला होता, तो आत्मगौरव न रहने के रंज से समाज में फिर मुँह न दिखलाता। पर ग़ैरत को तो यह घोलकर पी बैठा था; इसकी आँख का पानी ढरक गया था। शरम और हया कैसी होती है, जानता ही न था। सच मानिए, शिष्ट समाज और शराफत के कलंक ऐसे ही लोग होते हैं, जो जाहिरा में दिखलाने को ऐसा रँगे-चुँगे चूना-पोती क़बर के माफिक बने-ठने रहते हैं कि बस, मानो रियासत के खंभ हैं, शिष्टता के स्रोत हैं, भलमनसाहत के नमूने हैं। पर भीतर पैठकर देखो, तो उनके घिनोने और मैले कामों से जी इतना घिनाता है कि ऐसों का संपर्क कैसा, मुख-मात्र के अवलोकन में महाप्रायश्चित्त लगता है। ऐसों के संपर्क से जो बचे हुए हैं, उन पर ईश्वर की मानो बड़ी कृपा है। आँख चुंधी, गाल फूले, चेचक-रू, कोती गरदन, पस्त कद, किंतु बनावट और सजावट से यह कामदेव से उतरकर दूसरा दरजा अपना ही कायम करता था। नंदू ही के समानशील [ ५८ ]
लोगों का एक गण-का-गण था, जो महादेव के गण नदी- भृंगी के समान इसके आश्रित थे। उन सगे मे एक इसका बडा विश्वासपात्र था । नाम इसका रघुनदन था, पर नदू इसे रग्घू कहा करता । र घू जाति का ब्राह्मण था, पर कदयता से अत्यत पामर महाशूद्र से भी गया-बीता था। केवल नामधारी ब्राह्मण था । नंदू का कोई ऐसा काम न होता था, जिसमे रग्घू मौजूद न रहे । सच तो यों है कि नदू इस रग्ब् का इतना आश्रित हो गया था कि विना इसके नदू लु ज-पुज सा रहता । तारबकीं के समान नदू जिस काम मे इसे प्रवृत्त कर देता था, उसे पूरा होते जरा देर नलगती थी। बसता जैसा उन बाधुओं का परिचारक और मुफ्तखोरा खुशागदी था, वैसा ही रग्घू नदू बाबू का अनुचर था ( अतर उसमे और इसमें केवल इतना ही था कि बसता निपट निरक्षर कुंदे- नातराश था, पर रघू को अक्षरो से भेट थी। पर वही नाम-मात्र को, इतना कि जिससे हर इसे पढ़ा-लिखा या साक्षर नहीं कह सकते । वसंता निपट उजडऔर जघन्य था, कितु रग्धू चालाकी में एकता और अमीरों का रत्व पहचान उन्हे खुश रखने के हुनर मे बहुत प्रवीण था । जहाँ-जहाँ नदू आया-जाया करता था, वहाँ-वहाँ रग्घू उसका पुछल्ला ही था। तब क्यों- कर सभव था कि इसके चरण भी कहॉ न पधारं । इस द्वार से प्राय अनंतपुर के छोटे-बडे रईम तथा आस-पास के ताल्लु- केदारो से इसकी भरपूर जान-पहचान हो गई थी। यहाँ तक
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कि इन अमीरों में यह "नंदू के रग्घू" इस नाम से प्रसिद्ध था। रग्घू की भी अपनी तरहदारी और अंदाज़ का दिमाग नंदू बाबू से कुछ कम न था। घर में चाहे भूँजी भाँग न हो, पर बाहर यह ऐसे अंदाज से रहता था एक नया आदमी, जो इसका सब कच्चा हाल नजानता हो, इसे बड़ा अमीर मान लेता।

नंदू का बड़ा प्रेमी और दिली दोस्त एक तीसरा आदमी और था । इसके जन्म-कर्म का सच्चा हाल किसी को मालूम न था । पर नंदू इसे हकीम साहब कहा करता था । हकीम साहब अपने को नवाबजादा बतलाते थे, और अपनी पैदाइश का हाल बहुत छिपाते थे। पर जो असल बात होती है, वह किसी-न-किसी तरह अंत को प्रकट हो ही जाती है। अस- लियत इसकी यों है कि इसका बाप कंदहार का रहनेवाला, नवाब शुजाउद्दौला के खुशामदी उमराओं में से था। इसने एक खानगी रख ली थी । उससे एक लड़की और एक लड़का हुआ था । उपरांत का हाल फिर कुछ मालूम नहीं कि यह लखनऊ से यहाँ क्योंकर आया, और कब से यह अनंतपुर में आ बसा । उस कंदहासी अमीरी की दूसरी ओलाद इसकी हमशीरा को भी बराबर तलाश करते रहिएगा, तो हमारे इसी किस्से में कही-न-कहीं पर अवश्य ही पा जाइएगा । यह हकीम साहब बाहर तो बड़े तूमतड़ाँग और लिफाफे से रहते थे, पर भीतर मियांँ के सिवा एक टूटी खाट
[ ६० ]और तीन सनहकी के कुछ न था। असल मे इसका नाम क्या था, कौन जाने ; पर सब लोगों में हकीम फीरोजबेग कंदहारी अपने को मशहूर किए था। नंदू इसका सिद्धसाधक था। इसलिये जहाँ तक बन पड़ता, छोटे-बड़े सबों में इसकी बहुत-सी तारीफ कर-कराय इसका प्रवेश उस ठौर करा देता था। यह क्यों इसकी इतनो सिफ़ारिश करता था इसका भेद भी, आप धीरज धरे चले चलिए, खुली जायगा। इस बात की ताक में तो यह न जानिए कब से था कि किसी-न-किसी तरह हीरा- चंद के घराने में हकीम साहब का प्रवेश करावे; पर चद् के कारण, जो देखते ही आदमी की नस-नस पहचान जाता था, दूसरे हीराचद को स्त्री रमादेवी के कारण, जिसे हकीमी दवा तथा मुसलमानों से किसी तरह संपर्क रखने में घिन और चिढ़ थी, नंदू की कुछ चलती न थी। हकीम भी यह केवल नाम ही का हकीम था; हिकमत मुतलक न पढ़ा था । मुसलमानों में यह एक चलन है कि जो लोग कुछ पढ़े-लिखे होते हैं; और उन्हें कहीं कुछ जीविका का डौल न लगा, तो वे या तो हकीम बन जाते हैं, या मौलवी हो लड़कों को पढ़ा अपना पेट पालते हैं। पढ़ा-लिखा तो यह बहुत ही कम था: पर शीन-काफ का ऐसा दुरुस्त और बातचीत ऐसी साफ करता था कि कही से पकड़ न हो सकती थी कि यह मख है। तस्वी एकदम इसके हाथ से न छूटती थी। देखनेवाले तो यही समझते थे कि हकीम साहब बड़े दीनदार और खुदा[ ६१ ]
परस्त हैं, पर इस तस्वी से कुछ और ही मतलब निकलता था । तस्बी की गुरियों को जो वह जाहिरा में फेरा करता था, सो मानो इसकी गिनती गिना रहा था कि इतनों को मै अपनी चालाकी का शिकार बना चुका हूँ। तस्बी फेरते-फेरते जो कभी-कभी आँख मूंद लेता था, सो मानो बक-ध्यान लगा- कर यह सोचता था कि नए असामियों को अब क्योंकर चंगुल में लाऊँ।

नदू बहुधा बड़े बाबू से हकीम साहब की तारीफ किया करता था। दो-एक बार अपने साथ ले भी गया । पर सिवा बंदगी सलाम और रामरमौअल के पहले के माफिक मुखातिब अपनी ओर तथा हकीम की ओर उन्हें न देख मन-ही-मन मसोस कर रह जाता, और चंदू को सैकड़ों गालियाँ दिया करता कि इस खूसट के कारण मेरा जमा-जमाया कारखाना सब उचटा जाता है।

अस्तु । एक रात को अचानके बाबू के पेट में ऐसा शूल उठा कि उन्हें किसी तरह कल न पड़ती थी। मारे पीड़ा के उनकी आँख निकली पड़ती थी, दाँत बेठे जाते थे। सब लोग घबड़ा गए । कई एक वैद्य और डॉक्टर बुलाए गए । दवाइयाँ भी चार-चार मिनट पर कई बार और कई किस्म की दी गई। पर दवाइयाँ तो कोई सजीवन बूटी हई नहीं कि गले के नीचे उतरते ही अमृत वन जायें । कितु अमीरी चोचलों में इतना सबर और धीरज कहाँ ? सब लोग दौड़-धूप में लगे हुए-
[ ६२ ]जिसे जो सूझा-तदवीरें कर रहे थे कि हकीमजी को साथ लिए नदू भी आया, और बोला-"हकीमजी, इस जून आपके उस अर्क की ज़रूरत है, जो आपने एक बार मुझे दिया था। जनाब, अर्क क्या है सजीवन मूल है, देखिए, कैसा तुर्त-फुर्त आपको राहत होती है।" हकीम बोला- "जनाब-आली, मुझे क्या उजर है। अल्लाहताला आपको सेहत दे।" उसके पहले नींद की दवा दी जा चुकी थी, औघाई आ रही थी कि इसी समय हकीम का वह अर्क भी दिया गया। अर्क पीने के बाद ही बाबू को नीद आ गई, रात-भर खूब सोया किए।

दूसरे दिन नंदू फिर आया, और बाबू को चगा देख बोला-"भैया, अब तक तो मैं जब्त किए था, कुछ नहीं कहता-सुनता था. आपको वह पंडित किसी समय ऐसा धोखा देगा कि जन्म-भर पछताते रहेंगे। ये अंडित-पंडित गॅवर- दल होते हैं । ये हम लोगो की शाइस्तह जमात में कभी कदर पाने लायक हो सकते हैं ? उस अहमक ने तो कल आपकी जान ही ली थी। यह तो कहिए, हकीम साहब कल आपके लिये ईश्वर हो गए, जान बचाई. नही तो कुछ बाकी रह गया था ? हकीम साहब बड़े काविल आदमी हैं। मैं कहाँ तक उनकी तारीफ करूं। अब तो आपसे उनसे सरोकार हो चला है। दिनोंदिन ज्यों-ज्यों उनसे लगाव बढ़ता जायगा, आप उनकी सिफतों को पहचानेगे । खैर, आपको सेहत हो गई। [ ६३ ]यकीन जानिए: कल की रात हम लोगों की ऐसे तरद्ददुद में बीती कि जन्म-भर याद रहेगा। अच्छा, तो बंदगी, अब रुखसत होता हूँ। दोपहर तक फिर आऊँगा, और हकीम साहब को भी लेता आऊँगा।"

इसकी बातों का बाबू पर कुछ ऐसा असर पड़ा कि उसी दम से इनकी तबियत में चंदू की ओर से घिन हो गई, और जो कुछ क्रम इसमें सुधराहट और भलाई के आ चले थे, सब बिदा होने लगे। इन धूर्त चौपटों की बन पड़ी। बसंता भी इस समय तक जेल में छ महीने काट आ मिला। इन बाबुओं को ऐगुन की खान कर उन्हें अपना शिकार बनाने को पूरा अखाड़ा जमा हो गया। सच है-"संगत ही गुन ऊपजै, संगत ही गुन जाय ।"