सौ अजान और एक सुजान/२१

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सौ अजान और एक सुजान  (1944) 
द्वारा बालकृष्ण भट्ट

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इक्कीसवाँ प्रस्ताव

खल उघरे तत्काल ।

मसल है 'सबेरे का भूला सॉझ को आवे, तो उसे भूला न कहना चाहिए।"

दूसरे दिन चंदू बाबुओं के पास गया, और पाला की मारी, मुरझानी कली-सी उनके मुख की छवि पाय चंदू के मन [ ११९ ]में सेठजी के साथ इसका पुराना सच्चा स्नेह उभड़ आया। बाबू भी इसे देख ऑसुओं की धारा बहाने लगे, जिससे मालूम होता था कि अब ये दोनों राह पर आने का पूरा इरादा कर चुके हैं, और जो चूक इनसे बन पड़ी है, उसके लिये भरपूर पछता रहे हैं। चंदू भी अब इन्हें इस समय अधिक लज्जित करना उचित न समझ ढाढ़स बॅधाते हुए बोला– "साँझ का भूला सबेरे आवे, तो उसे भूला नहीं कहते, अब भी कुछ नहीं बिगड़ा; तुम बड़े बाप के लड़के हो, कभी संभव नहीं था कि सेठ हीराचंद ऐसे धर्मात्मा और पुण्यशील के वंशधरों का ऐसा हाल हो। तुम दुःसंग में पड़ यहॉ तक अपने को भूलकर अजान बन गए कि अंत को इस दशा को पहुँचे; अब शोक मत करो, मैं फिकिर कर चुका हूॅ। ईश्वर ने चाहा और सेठ का सुकृत है, तो तुम्हारा बाल न बाकेगा, और अदालत से तुम्हारी रिहाई हो जायगी, किंतु जिनके जाल में तुम अब तक फंसे थे, और जिन्होंने चाहा था कि इन नई चिड़ियों को फॅसाय कबाब-सा भूज निगल बैठे, वे ही अपने पातक-अग्नि में भुॅजकर, कबाब हो जायॅगे। तो अब आगे से प्रण करो कि अब अजान न बनें।"

दोनों की इस तरह पर बातचीत हो रही थी कि सड़क से चिल्लाते हुए किसी की आवाज सुन पड़ी "हाय ! मैने ऐसा नहीं समझा था कि नंदू के कारण मेरी यह दशा होगी। उस बदमाश नंदू ने अपने भरसक बाबुओं को [ १२० ]चेवकूफ बनाकर फॅसाने की कोई बात छोड़ नहीं रक्खी थी। मैं यह जरूर कहूँगा कि बाबू ऐसे रईस खानदानी की यह कभी इच्छा न रही होगी कि वे थोड़े के लिये नियत बिगाड़े। यह नंदू इस बुराई का जैसा बानीमुबानी रहा, वैसा ही यह सब मुसीबत भी उसी पर आ टूटी। मै बेकुसूर हूँ।" पुलीस के सिपाही–"चुप रह वे, सेत-मेत की टायॅ-टायॅ कर रहा है। उस वक्त. इन सब बातों का खयाल क्यों न किया, जब जाल रचने बैठा था। बचा, बहुत दिनों के बाद हम लोगों के चंगुल में आए हो।"

चंदू इन सब बातों को सुन मन-ही-मन प्रसन्न होने लगा, और सोचने लगा कि इसका इस जून का यह चिल्लाना मेरे लिये बहुत फायदे का हुआ। अब मैं जाऊँ, और इसकी खबर पंचानन को दूॅ।

चंदू–(प्रकाश) बाबू, तुम बेखटके रहो। ईश्वर ने चाहा, तो तुम्हारी रिहाई हो जायगी।

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