हिन्दुस्थानी शिष्टाचार/व्यक्तिगत शिष्टाचार

विकिस्रोत से
हिन्दुस्थानी शिष्टाचार  (1927) 
द्वारा कामता प्रसाद गुरु
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व्यक्तिगत शिष्टाचार

(१) सम्भाषण में

मनुष्य की विद्या, बुद्धि और स्वभाव का पता उसकी बात- चीत से लग जाता है, इसलिये उसे अपने विचार प्रकट करने के लिए बात-चीत में बड़ी सावधानी रखना चाहिये । सम्भाषण में सावधानी की आवश्यकता इसलिये भी है कि बहुमा बात ही बात में कर्प बढ़ आती है । यथार्थ में मनुष्य की बात-चीत ही उसके कार्यों की सफलता अथवा असफलता का कारण होती है । किसी कवि ने कहा है, “कहें कृपाराम सय सीखियो निकाम, एक बोलियो न सीखो, सब सीखो गयो धूर में"। जिसकी बात-चीत में सभ्यता व शिष्टाचार का अभाव रहता है उससे लोग बात-चीत करना नही चाहते।

सम्भाषण करते समय श्रोता की मर्यादा (हैसियत) के अनुरूप ‘तुम', ‘आप' अथवा ‘श्रीमान' का उपयोग करना चाहिये । इनमे से आप शब्द इतना व्यापक है कि यह ‘तुम' और ‘श्रीमान' का भी स्थान ग्रहण कर सकता है । ‘तुम' का उपयोग अत्यन्त साधारण स्थिति के लोगो के लिए, और ‘श्रीमान' का उपयोग अयन्त प्रतिष्ठित महानुभावो के लिए किया जाये । बहुत ही छोटे लड़को को छोड़कर और किसी के लिए ‘तू' का उपयोग करना उचित नहीं। किसी के प्रश्न का उत्तर देने में ‘हाँ' या ‘नहीं' के लिए केवल सिर हिलाना असभ्यता है। उसके लिए ‘जी हां' या ‘जी नहीं कहने की बड़ी आवश्यकता है। बात-चीत इस प्रकार रुक-रुककर
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न की जावे जिसमे श्रोता को उकताहट मालूम होने लगे । बात-चीत करते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि बोलने-वाला बहुत देर तक अपनी ही बात न सुनाता रहे जिससे दूसरों को बोलने का अवसर न मिले और वे बोलने-वाले की बक-बक से ऊब जावे । बात चीत बहुधा संवाद के रूप में होना चाहिए जिससे श्रोता और वक्ता का अनुराग सम्भाषण के विषय में बना रहे।

सभ्य वार्तालाप में इस बात का ध्यान रखा जाता है कि किसी के जी को दुखाने-वाली कोई बात न कही जाय । सम्भाषण को, जहाँ तक हो सके, कटाक्ष, आक्षेप, व्यङ्ग, उपालम्भ और अश्लीलता से मुक्त रखना चाहिये । अधिकार को अहम्मन्वता में भी किसी के लिए कटु शब्द का प्रयोग करना अपने को असभ्य सिद्ध करना है। किसी किसी को बोलते समय बीच-बीच में क्या कहते हैं, ‘इसका क्या नाम', ‘जो है से करके', ‘राम आप का भला करे', आदि कहने का अभ्यास रहता है । ऐसे लोगो को अपनी आदत सुधारना चाहिये, पर दूसरो को उचित नहीं है कि वे उनके इन दोषों पर हॅसें । कोई लोग बात चीत में किसी बात की सभ्यता सिद्ध करने के लिए सौगंध खाया करते हैं । शिक्षित लोगों में यह दोष न होना चाहिये। यदि वे भी गुँडो के समान—‘जवानी की कसम' या ‘ईमान से' कहेंगे तो उनका हल्कापन प्रकट होगा।

किसी नये व्यक्ति के विषय में परिचय प्राप्त करने के लिए बात- चीत में उत्सुकता प्रकट न की जावे और जब तक बड़ी आवश्यकता न हो तब तक किसी की जाति, वेतन, वंशावलि, धर्म आदि न पूछी जावे । किसी से कुछ पूछते समय प्रश्नों की झड़ी लगाना उचित नहीं । यदि कोई सजन तुम्हारा प्रश्न सुनकर भी उत्तर न दे तो फिर उससे उसके लिये अधिक आग्रह न करना चाहिए । यदि ऐसा
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जान पड़े कि वह उत्तर देना भूल गया है तो अवश्य ही उससे दूसरी बार नम्रता पूर्वक प्रश्न किया जावे।

बात-चीत में आत्म प्रशंसा को यथा-सम्भव दूर रखना चाहिये। साथ ही बात-चीत का ढंँग भी ऐसा न हो कि सुनने वाले को उसमें अपने अपमान की झलक दिखाई देवे । बात-चीत म विनोद बहुत ही आनन्द लाता है, परन्तु सदेव ही हँसी ठट्ठा करने को टेव वक्ता ओर श्रोता दोनो के लिए हानिकारक है । सम्भाषण में उपमा और रूपक का प्रयोग भी बड़ी सावधानी से किया जावे, क्योकि इसमें बहुधा अर्थ का अनर्थ हो जाने का डर रहता है । यदि वार्तालाप करते समय कवियो के छोटे छोटे पद्यो ओर कहावतो का उपयोग किया जाये तो इनसे बोल-चाल में सरसता और प्रामाणिकता आजाती है, तथापि अति सब की बुरी होती है।

यदि कोई दो चार सज्जन इकट्ठे किसी विषय पर बात-चीत कर रहे हो तो अचानक उनके बीच में जाना अथवा उनकी बात सुनना अशिष्टता है । ऐसे अवसर पर लोगो के पास जाकर बिना पूछे ही कुछ बात-चीत करना और भी अनुचित है । कभी-कभी किसी मनुष्य को चुपचाप देखकर लोग उससे कुछ कहने का आग्रह करते हैं। ऐसी अवस्था में उस मनुष्य का कर्तव्य है कि वह कोई मनोरंजक बात या विषय छेड़कर उनकी इच्छा पूर्ति करे।

जव कोई बात-चीत करता हो उस समय बीच में बोलना अथवा वक्त की बात काटना असभ्यता है । यदि किसी को दूसरे की बात के विरुद्ध कहना हो तो बोलने वाले की बात समाप्त होने पर अथवा बात-चीत में उसके कुछ ठहर जाने पर ही उसे कुछ कहना चाहिये । कभी-कभी बोलने वाला लगातार बोलता ही जाता है और दूसरे को कुछ कहने का अवसर ही नहीं देता। ऐसी अवस्था में, नम्रता पूर्वक, बोलने वाले से अपने बोलने की अनुमति
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लेना चाहिये। कुछ हल्के हदय वाले लोग किसी के मुंँह से अशुद्ध उच्चारण सुनकर हॅस देते हैं, पर यह प्रत्यक्ष असभ्यता है।

किसी की असम्भव बातें सुनकर भी हांँ में हांँ मिलाना चाप -लूसी है और न्यायसगत बातें सुनकर भी उनका खंडन करना दुरा- ग्रह है। लोगो को इन दोषों से बचना चाहिये । यद्यपि वार्तालाप में दूसरे के मत का सम्मान करने में अथवा उसको प्रशंसा के दो- चार शब्द कहने में चापलूसी का कुछ आभास रहता है, तथापि इतनी चापलूसी के बिना सभाषण नीरस और अप्रिय हो जाता है। इसी प्रकार अपने मत के समर्थन में और दूसरे के मत का खंडन करने में कुछ न कुछ दुराग्रह दिखाई देता है, तो भी इतना दुराग्रह सभ्य ओर शिक्षित समाज में क्षतव्य है। किसी अनुपस्थित सज्जन की अका- रण निन्दा करना शिष्टता के विरुद्ध है। यदि बात-चीत में ऐसे महाशय का उल्लेख होवे तो उसके नाम के पूर्व या पीछे किसी आदर सूचक शब्द का प्रयोग करना चाहिये । विद्वानो की समाज में मत-भेद होने के अनेक कारण उपस्थित होते हैं, इसलिये जब किसी के मत का खंडन करने का अवसर आवे तब उस मत का खंडन नम्रता-पूर्वक क्षमा प्रार्थना करके और ऐसी चतुराई से करना चाहिये जिसमें विरुद्ध मत-वाले को बुरा न लगे । बात-चीत में क्रोध के आवेश को रोकना चाहिये और यदि यह न हो सके तो उस समय मौन ही धारण करना उचित है। व्यंग्य वचनों का उत्तर व्यंग्य ही से देना नीति की दृष्टि से अनुचित नहीं है, तथापि शिष्टा- चार उन्हें कम से कम एक बार सहन करने का परामर्श देता है।

जिससे बात-चीत की जाती है उसकी योग्यता का विचार करके वर्णनात्मक अथवा विचारात्मक विषय पर सम्भाषण किया जावे । नव-युवको से वेदान्त की चर्चा करना ओर वयोवृद्ध लोगो को श्रृंगार रस की विशेषताएँ बताना शिष्टाचार के विरुद्ध है।
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सड़क पर खड़े होकर अथवा चलते हुए दूसरे घर की किसी स्त्री से बात-चीत करना अशिष्ट समझा जाता है। यदि कोई मनुष्य किसी विचारात्मक कार्य में लगा हो तो उसके पास ही जोर जोर से बात न करना चाहिये । रोगी मनुष्य से अधिक समय तक बात-चीत करना उसके लिये हानि-कारक है और उसमसे रोग की भयकरता का उल्लेख करना भयानक है । यदि तुम से कोई तुम्हारे अनुप- स्थित मित्र या सम्बन्धी को निन्दा करे तो तुम्हें उसे नम्रता पूर्वक इस कार्य से विरत कर देना चाहिए और यदि इतने पर भी वह न माने तो तुम्हें किसी मित्र से उस समय उसके पास से चले आना चाहिये । सम्भव है कि इससे उसे तुम्हारी अप्रसन्नता और अपनी मूर्खता का कुछ आभास हो जायगा । जो मनुष्य स्वय किसी दूसरे की अकारण निन्दा नहीं करता, उसके पास ऐसी निन्दा करने का औरो को भी बहुधा साहस नहीं होता । पर निंदक को सभ्य तथा शिक्षित लोग बहुधा अनादर की दृष्टि से देखते हैं।

किसी सभा या जमाव म अपने मित्र अथवा परिचित व्यक्ति से ऐसी भाषा का अथवा ऐसे शब्दों का उपयोग न करना चाहिये जिसे दूसरे लोग न समझ सके अथवा जो उनको विचित्र जान पड़े। ऐसे अवसर पर किसी विशेष विषय की अथवा अपने ही धंधे की या अपनी ही नौकरी की बातें करने से दूसरे लोगो को अरुचि उत्पन्न हो सकती है। यदि किसी विशेष अथवा गहन विषय पर बहुत समय तक सभाषण करने की आवश्यकता न हो, तो थोड़े- थोड़े समय के अन्तर पर विषय को बदल देना उचित होगा।

सभाषण में थोड़ा-बहुत विनोद आनंद देता है, पर उसकी अधिकता से बात-चीत म फीकापन आ जाता है। किसी को लक्ष्य बनाकर विनोद करना अशिष्ट और हानि-कारक है । बात-चीत म व्यक्ति-गत आक्षेप न आना चाहिये । बात-चीत करते समय भाषा

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की उपयोगिता पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है। कई लोग

साधारण पढ़े-लिखे लोगों के साथ बात-चीत करने में ‘विचार-स्व तय', ‘व्यक्तिगत आक्षेप', ‘वैयक्तिक धारणा' आदि शब्दो का उपयोग करते हैं, पर ये शब्द साधारण पढ़े-लिखे लोगो की समझ में नहीं आ सकते। इसी प्रकार पंडितों की समाज में मनुष्य के लिए मानस पिता के लिए बाप, माता के लिए महतारी, और भोजन के लिए खाना कहना असगत है। हिन्दी भाषी लोग बहुधा ‘ष', ‘श', ‘व' और ‘क्ष' के अशुद्ध उच्चारण के लिए प्रसिद्ध हैं। इसलिये शिक्षित लोगो को इस उच्चारण दोष से बचना चाहिये। कई उर्दूदा सज्जन अपनी बात-चीत में ‘सिर' को 'सर', ‘आगन' को ‘सहन', ‘वजाज को ‘वज्जाज' और ‘कलम' को ‘कलम, कहकर अपनी भाषा-विज्ञत का परिचय देते हैं जो शिक्षित हिन्दी भाषी समाज में उपहास या योग्यहीन समझा जाता है। हमारे कई एक हिन्दी भाषी भाई उर्दू उच्चारण की शुद्धता के मोह में पडकर उस भाषा के ‘ज' वाले शब्दों में ‘ज' का अशुद्ध उच्चारण करते हैं और कदाचित यह समझते हैं कि इससे उनकी ‘उर्दू-दानी' प्रकट होती है। हमने उर्दू न जानने-वाला एक वकील महाशय को ‘जायदद', ‘मजबूर', ‘हर्ज' और ‘ताज़' कहते सुना है, पर शिष्टाचार के अनुरोध से और उनके अप्रसन्न होने के भय से हमने उनको उनकी भूल नहीं बताई । हिन्दी के ‘फ' अक्षर को भी कई लोग भूल से ‘फ' कहते हैं, जैसे फल, फूल और फन्दा। शिष्ट भाषण में इन सब दोषो से बचने की बड़ी आवश्यक ता है। बिना उर्दू पढ़े, उस भाषा के ज, फ, स, और ग का उच्चारण करने का किसी को साहस न करना चाहिये, क्योकि इससे शिक्षित समाज में और विशेष कर शिक्षित मुसलमानो में हँसी होती है। ये लोग अपने शुद्ध उच्चारण पर बड़ा गर्व करते हैं और दूसरी जाति के अशुद्ध उच्चारण की बहुधा हँसी उड़ाया करते हैं। इसके लिए सब
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से उत्तम उपाय यही है कि इनके उर्दू शब्दो का उच्चारण हिन्दी के प्रचलित अक्षरों से किया जाये। हिन्दी लिपि में उर्दू अक्षरों के प्रतिनिधि हिन्दी अक्षरों के नीचे बिन्दी लगाने को जो अनिष्ट प्रथा है उससे उच्चारण-सम्बन्धी ये सब भूलें होती हैं। बिना किसी विशेष कारण के मातृ भाषा को छोड़ आये भाषा में बात-चीत करना शिष्टाचार के विरुद्ध है।

मातृ-भाषा में बात-चीत करते समय बीच-बीच में अँगरेजी शब्द बोलने की जेा दूषित प्रथा है उसका याग सवथा उचित है। इसी प्रकार मातृ भाषा के ऐसे प्रान्तीय शब्द भी काम में न लाये जावें जो या तो अत्यन्त भदेस हो या जिन्हें दूसरे प्रान्तवाले न समझ सके।

( २ ) पत्र-व्यवहार में

पत्र-व्यवहार भी एक प्रकार का बात-चीत है, परन्तु वह इस- की अपेक्षा अधिक स्थायी होता है । बात-चीत में यदि कोई भूल हो जावे तो यह क्षमा के योग्य है, क्योंकि उसमें मनुष्य को सोच विचार के लिए पूरा समय नहीं मिलता, परन्तु यदि पत्र लिखने में किसी कारण से जल्दी न की जावे तो लेखक को सोच सोचकर बातें लिखने का अधिक सुभीता रहता है । ऐसी अवस्था में यदि पत्र में कोई अनुचित बात लिखी जावे तो उससे बात-चीत की अपेक्षा अधिक हानि होती है । सुनी हुई बात को मनुष्य कुछ समय के पश्चात् भूल सकता है, परन्तु लिखी हुई बात को प्रभाव पत्र देखने पर बार-बार पड़ सकता है। बात-चीत की अपेक्षा पत्र व्यवहार में आदर-सूचक शब्दो का प्रयोग अधिकता से किया जाता है।

पत्र-व्यवहार के सम्बन्ध में कई बातें ऐसी हैं जिनका सम्बन्ध बात-चीत से भी है। जिस प्रकार बात-चीत में ऐसी कोई बात नहीं कही जाती जिससे सुनने वाले के मन में खेद होवे अथवा उसको
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व्यर्थ ही संकोच में पडना पड़े, उसी भांति पत्र व्यवहार में भी ऐसी कोई बात न लिखना चाहिये जिससे पढ़ने-वाले को मानसिक कष्ट' हो अथवा उस पर व्यर्थ ही दबाव पडे । फिर जिस प्रकार बात-चीत में श्रोता की योग्यता के अनुरूप शब्दों का प्रयोग किया जाता है, उसी तरह पत्र-व्यवहार में ऐसी भाषा काम में लाना चाहिये जिसे पढ़ने-वाला समझ सके।

हिन्दी में पत्र लिखने की आज कल दो रीतियाँ प्रचलित हैं—एक पुरानी, दूसरी नयी। पुराने विचार के लोगों को पुरानी रीति से और नये विचार-वालो को नयी रीति से पत्र लिखना चाहिये । दोनो रीतियों का मिश्रण अनुचित और अशिष्ट समझा जाता है । विवाहादि उत्सवों के निमंत्रण पत्र बहुधा पुरानी पद्धति से ही लिखे जाते हैं। सरकारी काम-काज के लिए जो प्रार्थना-पत्र लिखे जाते हैं। उनका रूप और उनकी भाषा बहुधा निश्चित रहती है, इसलिये उनमें कोई अनावश्यक परिवर्तन न किया जावे । पत्र में तिथि ओर स्थान लिखना कभी न भूलना चाहिये । जहाँ तक हो अंगरेजी ईसवी सन् के बदले विक्रमीय संवत का प्रयोग किया जावे।

पत्र की लिपि सुपाठ्य और सुडोल हो, शब्दों और लकीरो के बीच में कुछ अन्तर रहे और लेख में विराम चिह्नों का साधारण उपयोग किया जाय । विशेष रूप से विराम चिन्हों का प्रयोग करना पांडित्य का प्रदर्शन समझा जाता है। कुछ लोगो की यह धारणा है कि घसोट-लिपि लिखने से लेसक विद्वान माना जाता है, पर ऐसा मानना निमूल है। घसोट-लिपि लिखने से पढ़ने-वाले को उसके पढ़ने में बहुधा कष्ट होता है और कभी-कभी लेखक का अभिप्राय ही उसकी समझ में नहीं आता । इसलिये शिष्टाचार और सुविधा के अनुरोध से पत्र की लिपि ऐसी होनी चाहिये कि वह सरलता से पढ़ी जा सके। कई लोग अक्षरों की नोकें इतनी लम्बी चौड़ी फट-
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कारते हैं कि उनके कारण दूसरे अक्षरों तक का रूप लुप्त हो जाता है। यह चित्रकारी शिष्टाचार के विरुद्ध है । लिपि में अक्षरों का सिरा बाँधना सुन्दरता का साधन है । पत्र में काटा-कूटी बहुत कम हो।

आजकल अंगरेजी शिक्षा के प्रभाव से हिन्दुस्थानी (हिन्दी- भाषी) अनेक सज्जन अपने मित्रों को ही नहीं, किन्तु अपने परिवार-वालों को भी अंगरेजी में पत्र लिखते हैं। ऐसा करना केवल अशिष्ट ही नहीं है, बरन जातीयता का विद्यातक है। जिस जाति में अपनी भाषा के प्रति आदर-बुद्धि नहीं वह जाति बिना पेंदी का घड़ा है। हाँ, यदि विद्यार्थियों की अँगरेजी योग्यता की जाँच करना अभीष्ट हो तो अवश्य ही उन्हें उस भाषा में पत्र लिखा जाय और उसका उत्तर उसी भाषा में देने के लिये उनसे आग्रह किया जाय।

पत्र में किसी बात को बहुत बढ़ाकर लिखना अनुचित है। अपना आशय स्पष्ट और संक्षिप्त रीति से प्रकट करना चाहिये । हाँ, जिस बात को विशेष रूप से समझाने की आवश्यकता हो उसे कुछ विस्तार पूर्वक लिखने में हानि नहीं । पत्र में यदि किसी मनुष्य के विरुद्ध कुछ लिखने की आवश्यकता आ पड़े तो वह केवल संकेत-रूप से लिखी जावे जिसमें आगे पीछे पत्र किसी दूसरे के हाथ में पड़ने पर मान-हानि के अभियोग की आशंका न रहे। कई एक ऐसे भी गूढ़ विषय होते हैं जो बहुधा पत्र में नहीं लिखे जाते और उनकी चर्चा भेंट होने पर ही अपने सामने हो सकती है, पर जो गूढ़ बात किसी मुकद्दमे से सम्बन्ध रखती हैं वे आवश्यकता पड़ने पर वकील या मुरत्यार को सावधानी से लिखी जा सकती हैं। जो बातें पत्र में लिखी जाती हैं वे एक प्रकार से स्थायी हो जाती हैं और अदालत में गवाही के तौर पर उपस्थित की जा सकती हैं, इसलिये कलम को कागज पर चलाने के पहिले लेखक को प्रत्येक बात दो-बार सोच लेना चाहिये । पत्र की भाषा,
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जहाँ तक हो, सहज और अलंकार-रहित हो । उसमे बड़े-बड़े शब्दों और वाक्यों का प्रयोग न किया जाय । बार-बार एक ही शब्द अथवा वाक्य को दुहराना अनुचित है। जहाँ तक हो पत्र में विदेशी शब्दों का उपयोग न किया जावे । निमंत्रण पत्रों की भाषा शुद्ध हिन्दी होना चाहिये । विद्वानो को जो पत्र लिखे जाते हैं उनमें थोडे बहुत कठिन शब्द आ सकते हैं, परन्तु साधारण लोगो को पत्र लिखने में कठिन, अप्रचलित और नये शब्दों का प्रयोग करना ठीक नहीं। शिक्षित लोगो की भाषा व्याकरण की दृष्टि से शुद्ध होनी चाहिये । यदि ऐसा न होगा तो शिक्षित समाज में लेखक का उपहास होगा।

जब किसी के पत्र का उत्तर देना हो तब उस पत्र में लिखी हुई प्रत्येक बात का उचित उत्तर देना चाहिये । यदि कोई बात ऐसी हो जिसका उत्तर ‘हाँ’ या ‘नहीं' में देने से अनर्थ होने की सम्भावना है तो उसका उत्तर न दिया जावे, पर ऐसा अवसर कम आता है। निकट सम्बन्धयों और घनिष्ठ मित्रों के पत्रों में दोनो ओर के कुशल-समाचार की शुभ कामना, बड़ो को प्रणाम ओर छोटो को प्यार अवश्य लिखा जाये । साधारणत निजी पत्रों में और और बातों के साथ आव-हवा, रोग, फसल आदि का भी कभी कभी उल्लेख रहता है। यदि किसी पत्र का उत्तर पाने की विशेष आवश्यकता हो तो अपने पत्र में इस बात की प्रार्थना कर देना अनुचित न होगा।

छोटों बड़ी ओर बराबरी-वालो को पत्र लिखने के लिए जो उपयुक्त शब्द प्रचलित हैं उनको सावधानी से काम में लाना चाहिये । यदि पत्र में किसी दूसरे मनुष्य का उल्लेख हो तो जाति के अनुसार उसके पूर्व ‘पडित', ‘ठाकुर', ‘बाबू' अथवा ‘लाला' शब्द का प्रयोग करना आवश्यक है। यदि शीघ्र ही किसी और उपपद
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का निश्चय न हो सके तो ‘श्रीयुत' शब्द का ही उपयोग किया जावे । नाम के साथ ‘जी' शब्द लगा देने से भी बहुधा आदर प्रकट हो जाता है। प्रतिष्ठित लोगो के साथ “श्रीमान्" जोड़ना और साधारण व्यकि के नाम में “श्रीयुत" लगाना चाहिए । स्त्रियों के नाम के पूर्व “श्रीमती" शब्द की ओर पीछे “देवी" की योजना की जावे । स्त्री का आस्पद पति के प्रास्पद के अनुरूप होता है।

पत्र किसी का भी हो, जब तक विशेष कारण न हो, उसका उत्तर देना आवश्यक है, क्योकि लोग बहुधा उसी को पत्र लिखते हैं जिससे उन्हे कुछ आशा होती है और कभी-कभी पत्र ऐसे लोगो के पास भी लिखने का अवसर आ पड़ता है जिनसे पहिले कभी पत्र-व्यवहार नहीं हुआ। ऐसी अवस्था में पत्र का उत्तर न देने का प्रश्न भली भाति विचार लेना चाहिये । यदि कोई किसी के पत्र का उत्तर नहीं देता है तो पत्र लिखने वाला उसे अपना अपमान समझता है और उत्तर न देने-वाले की ओर बहुधा बुरी धारणा कर लेता है । यदि पन-व्यवहार बहुत दिनो से चल रहा हो अथवा समय-समय पर होता रहा हो तो एक-आध पत्र का उत्तर न देने से विशेष हानि नही । पत्र मिलने के दूसरे या तीसरे दिन उसका उत्तर भेज देना आवश्यक है, क्योकि लोग अपना पत्र भेजने के एक सप्ताह के भीतर ही उसका उत्तर पाने की आशा करते हैं। यदि दो-चार दिन की देरी हो जावे तो वह क्षमा के योग्य है, परन्तु पखवारो या महीनों मे उत्तर देना असभ्यता है । आवश्यक पत्रों का उत्तर बिना विलम्ब के भेजना चाहिये।

आजकल शिक्षा के प्रभाव से पत्रों का पता बहुधा अँगरेजी ढंँग से लिखा जाता है। इस रीति में यह लाभ है कि चिट्ठी पाने- वाले का पता लगाने में चिट्ठी रखा को विशेष कठिनाई नहीं पड़ती। पुराने ढंँग का पता एक लम्बे वाक्य के रूप में रहता है जिसमें से
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मतलब की बातें डाकघर को खोजकर निकालनी पड़ती हैं और उससे समय की बहुत हानि होती है। पते में पाने वाले का नाम आदर-सूचक उपपदों के साथ लिखा जावे । उसको जो उपाधियाँ प्राप्त हो वे भी नाम के साथ लिखी जावें । निजी पत्रों में विद्या सम्बन्धी उपाधियाँ बहुधा छोड़ दी जाती हैं।

गूढ़ विषय का पत्र कभी कार्ड पर न लिखना चाहिये । आज-कल डाक महमूल दूना हो जाने के कारण लोग कार्डों का अधिक व्यवहार करने लगे हैं, परन्तु जहाँ तक हो प्रतिष्ठित लोगो को कार्ड के बदले लिफाफा ही भेजना उचित है। शिष्टाचार का एक साधारण नियम यह भी है कि कार्ड को उत्तर कार्ड में दिया जाय । यद्यपि रजिस्ट्री चिट्ठी विशेष कर मुकद्दमों के सम्बन्ध में भेजी जाती है तो भी बहुत ही आवश्यक निजी पत्र भी रजिस्ट्री करके भेजे जाते हैं । इनकी आवश्यकता तभी होती है जब चिट्टी के खो जाने का अथवा देर से मिलने का भय हो । वेरंग पत्र कभी किसी को न भेजना चाहिये। यदि समय पर टिकट कार्ड या लिफाफा न मिल सके तो इस प्रकार का पत्र भेजा जा सकता है।

जहाँ तक हो शिक्षित लोगो को पत्र अपने हाथ से लिखा जावे। यदि अस्वस्थता की अवस्था हो अथवा कार्य की अधिकता हो, तो दूसरे में पत्र लिखकर उस पर हस्ताक्षर कर देने से काम चल जाता है, तो भी इस बात का स्मरण रखना चाहिये कि साधारण अवस्था में दूसरे के हाथ से लिखाये हुए पत्र से पाने-वाले को असंतोष होता है और वह पत्र-प्रेरक को कुछ अभिमानी समझने लगता है। छपे हुए साधारण और निमत्रण पत्र को भी लोग असंतोष की दृष्टि से देखते हैं, इसलिये यदि पत्र-भेजने वाला पत्र पाने-वाले की विशेष सहानुभूति प्राप्त करना चाहे तो छपे
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पत्रों में उसे अपने हाथ से दो चार अनुरोध-सूचक शब्द लिख देना चाहिये जिससे पत्र-पाने-वाले पर नैतिक प्रभाव पड़े।

(३) भेंट-मुलाकात में

लोग भेंट या मुलाकात के लिए उन्हीं के पास जाते हैं, जिनसे किसी प्रकार का सम्बन्ध स्नेह अथवा काम-काज होता है। कभी-कभी परिचित व्यक्ति के द्वारा अपरिचित, परन्तु प्रतिष्ठित लोगो से भी भेंट की जाती है। गोसाई जी ने कहा है, इहि मन हठि करि-हौ पहचानी। साधु तें होइ न कारज हानी॥

जिसके घर भेंट करने को जाते हैं उसके सुभीते पर भेंट करने-वाले को अवश्य ध्यान रखना चाहिये। किसी के यहाँ ऐसे समय पर न जाना चाहिये जब उसे किसी से मिलने का अवकाश वा सुभीता न हो। घनिष्ठ मित्र एक दूसरे से बिना किसी संकोच के दिन में कई बार मिलते हैं, पर इस अवस्था में भी शिष्टाचार पालने की आवश्यकता है। किसी के यहाँ बिना किसी आवश्यक कार्य के दिन निकलते ही अथवा भोजन के समय या ठीक दोपहरी में जाना अनुचित है। अधिक रात को भी साधारण अवस्था में किसी के यहाँ न जाना चाहिये। काम-काजी लोगो को समय का बहुत संकोच रहता है, इसलिये किसी के यहाँ प्राय आधे घंटे से अधिक बैठना उचित नहीं है। यदि इस अवधि में महत्व पूर्ण बातचीत पूर्ण हो सके तो बहुत अच्छी बात है। जिस समय किसी मनुष्य की बात-चीत में उदासीनता, शिथिलता अथवा उकताहट दिख पड़े उस समय समझ लेना चाहिये कि उसे मिलने का अधिक सुभीता नहीं है। इसलिये ऐसे संकेत को सूचना समझकर उसके यहाँ से चले आने का उपक्रम करना चाहिये। यदि वह जाने वाले व्यक्ति के प्रस्ताव को सुनकर कुछ अधिक बैठने का अनुरोध करे तो यह अनुरोध मान लिया जावे ओर कुछ समय के पश्चात् उससे विदा ग्रहण की
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जावे । भेंट के लिए आये हुए सज्जन से उसकी जाति और पदके अनुसार ‘प्रणाम', ‘नमस्कार', ‘राम-राम' अथवा ‘वदगी' कहकर उसका अभिवादन करना चाहिये । परिचित लोगो को इस बात के लिए न ठहरना चाहिये कि जब दूसरा अभिवादन करेगा तब हम उसका उत्तर देंगे। भेंट होने पर एक दुमरे का मुँह देखते रहना और कुछ न कहना बड़ी असभ्यता है । इसलिए मुख्य प्रयोजन अथवा और किसी उपयुक्त विषय पर चर्चा दे देनी चाहिए । यदि दिन में एक से अधिक बार भेंट हो तो प्रत्येक बार मिलने पर भी अभिवादन करने में कोई हानि नहीं है। जहाँ तक हो अभिवादन के पश्चात् थोड़ी-बहुत-चातचीत अवश्य कर ली जावे । यदि ओर कुछ न हो तो केवल कुशल-प्रश्न से ही काम चल सकता है।

किसी के यहाँ जाकर उसके कागज-पत्र, पुस्तकें अथवा दूसरे पदार्थ उठाना धरना अथवा उन्हें बड़े ध्यान से देखना अनुचित है। भेंट करने-वाले को उसी कोठे में बैठना चाहिए जो बैठक के लिए नियत हो और उस स्थान में तभी प्रवेश करना चाहिए जब गृह-स्वामी अथवा कोई अन्य पुरुष वहाँ उपस्थित हो । पुरुषों की अनुपस्थिति में किसी के यहा जाना संदेह की दृष्टि से देखा जाता है, इसलिये सभ्य लोगो को इस दोष से बचना चाहिये । जिन लोगो में पर्दे का विशेष प्रचार नहीं है उनके पास अनुमति मिलने पर स्त्रियों के उप- स्थित रहते हुए भी जा सकते हैं । यद्यपि पश्चिमीय देशो में दरवाजा बंद रहने पर बाहर से पुकारने के लिए साँकल खटखटाना अथवा किवाड़ भड़कना अनुचित नही समझा जाता, तथापि हमारे देश में इन कार्यो को अनुचित समझते हैं। किसी के दरवाजे जाकर जोर जोर से और लगातार पुकारना भी अनुचित है। दो एक बार पुकारने पर मिलने वाले को यह देखने के लिए ठहर जाना चाहिये
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कि कदाचित् आवाज सुनकर कोई द्वार खोलने को और कुछ सूचना देने को आवे ।

गृह-स्वामी को उचित है कि वह अपने यहाँ आने वाले सज्जन का उसकी योग्यता के अनुसार स्वागत करे और उसे आदर पूर्वक बिठावे । कुशल प्रश्न के पश्चात् उससे कुछ ऐसी बात करना चाहिये जो उसकी रुचि के अनुकूल हो अथवा उसके काम-काज से सम्बध रखती हो। उसके आने का कारण पूछने की उतावली कभी न की जावे । वह बात-चीत में बहुधा आप ही प्रकट हो जाता है अथवा कुछ समय के पश्चात् चतुराई से पूछा जा सकता है । यदि तुम्ह अधिक समय न हो और बेठने वाले के कारण तुम्हारे किसी आवश्यक कार्य में हानि होने की सम्भावना हो तो तुम्हे अपनी कठिनाई नम्रता-पूर्वक और चतुराई से जता देना चाहिये। ऐसे अवसर पर शिष्टाचार का अधिक पालन करने से लाभ के बदले हानि होगी। मिलने-वाले को भी उचित है कि वह गृह- स्वामी के सुभीते का पूरा ध्यान रक्खे और उसके कुछ कहने से अप्रसन्न न हो । यदि किसी मुलाकाती को हमारे यहाँ बैठने में अधिक समय लग जावे तो हमारा कर्त्तय यह है कि हम उससे कुछ जल पान करने के लिए निवेदन करें और यदि उसके अस्वीकृत करने पर भी हमे यह अनुमान हो कि आग्रह करने पर उसे आपत्ति न होगी तो हमे चाय, फल अथवा मिष्टान्न से उसकी तृप्ति करना चाहिये।

यदि किसी मित्र या परिचित व्यक्ति से बाहर अथवा सड़क पर भेंट हो तो वहाँ घण्टो खड़े रहकर बात-चीत करना उचित नहीं। यदि विषय लम्बा हो तो कुछ दूर तक साथ-साथ चल कर बात- चीत कर ली जाये, पर ऐसा न हो कि किसी को दूसरे की बात सुनने के लिए विवश होकर कई जरीब जाना पड़े।
[ ७६ ]यदि किसी बड़े आदमी के यहांँ मिलने को जाना हो तो उनके अवकाश का पूरा पता लगा लेना चाहिये और जाकर किसी के द्वारा अपने आने की सूचना भिजवा देना चाहिये। उन सज्जन के पास पहुंँचने पर उपयुक्त आसन ग्रहण करना उचित है और संक्षेप में उन्हें भेंट का तात्पर्य बता देना चाहिये । कार्य हो जाने पर कुछ समय अोर बेठना अनुचित न होगा । इसके पश्चात् पृवेक्ति महाशय की आज्ञा लेकर चले आना योग्य है। किसी के यहांँ कभी न जाना जैसा अनुचित है उसी प्रकार बार-बार जाना अयोग्य है । यदि किसी के यहां जाने से जाने वाले को ऐसा जान पड़े कि उसके जाने से गृह-स्वामी को खेद होता है तो ऐसे मनुष्य के यहाँ उसे कभी न जाना चाहिये । कहा भी है—

वचनन में नहिं मधुरता, नेनन में न सनेह ।
तहाँ न कवहुँ जाइये, कचन घरपे मेह ॥

एक दूसरे के यहाँ आने-जाने से परस्पर मेल-मिलाप बढ़ता है, इसलिये यदि कोई परिचित व्यक्ति अथवा मित्र, जिसके साथ आवागमन का सम्बन्ध है, बहुत समय तक किसी के यहाँ न जावे, तो दूसरे मनुष्य को उसके यहाँ उपयुक्त अवसर पर जाना अनुचित न होगा। इससे इस बात का भी निर्णय हो जायगा कि यह मनुष्य जाने वाले से किसी प्रकार अप्रसन्न तो नहीं है। बहुधा उच्च स्थिति के महानुभाव निम्न-स्थिति के लोगों के यहांँ मिलने नहीं पाते । यदि उन्हीं का काम हो तो भी वे इन्हें बुलाने को सवारी भेज देते हैं। दो-चार बार ऐसे महानुभावो की इच्छा-पूर्ति की जा सकती है, पर उनके बढ़ते हुए दुराग्रह को कम करने की आवश्यकता है । ये लोग निमन्त्रण पाकर भी अपने से छोटे लोगों के यहाँ आने की कृपा नहीं करते जिससे शिष्टाचार की बड़ी अव- हेलना होती है। ऐसी अवस्था में सज्जनों का यह कर्तव्य है कि
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ये सदाचारी कंगाल के यहांँ भले ही चले जायें, पर दुरिचारी महाजन के द्वार पर न झांँके।

मुलाकाती के जाने के पूर्व हमें पान, सुपारी, इलायची आदि से उसका आदर करना चाहिये । जिस समय वह जाने लगे उसकी योग्यता के अनुसार खड़े होकर या द्वार तक जाफर अथवा दस कदम बाहर चलकर उसे अभिवादन-सहित विदा देना चाहिये।

( ४ ) परस्पर व्यवहार में

समाज में कुछ एसे व्यवहार होते हैं जो बदले के रूप में केवल उन्हीं व्यक्तियो के साथ किये जाते हैं जिन्होंने जैसा व्यवहार दूसरों के साथ किया है। कभी-कभी एसे व्यवहार इस आशा से भी आरम्भ किये जाते हैं कि आगे इन व्यहारा का बदला मिलेगा और कुछ परिचय बढ़ेगा। दूसरे के यहाँ बेठने को जाना इसी प्रकार का व्यवहार है जिसमे व्यवहार करने वाला मनुष्य इस बात की आशा करता है कि हम जिसके यहाँ जाते हैं यह भी कभी हमारे यहाँ आवे । यदि व्यवहार एक ही ओर से कुछ समय तक होता रहे ओर दूसरी ओर से प्रति-व्यवहार न किया जाय ता ऐसा व्यवहार बहुत दिन तक नहीं चल सकता । इसी प्रकार यदि कोई मनुष्य किसी की बीमारी की अवस्था में अथवा संकट के समय उमके यहाँ जावे, तो उसका भी कर्तव्य है कि ऐसे अवसर पर यह उसके यहाँ अवश्य जावें।

यदि किसी के यहाँ से हमारे यहाँ रुपये-पैसे के रूप में अथवा वस्त्र आदि के रूप में व्यवहार आवे तो हमें उसका हिसाब रखना चाहिये और उसके यहाँ वेसा ही कोई अवसर आने पर उतना ही व्यवहार करना चाहिये। यदि हम किसी अनिवार्य कारण से उस अवसर पर स्वयं उपस्थित न हो सके तो हमे दूसरे के द्वारा अथवा डाका से व्यवहार भिजवा देना चाहिये।
[ ७८ ]भोजन के सम्बन्ध में भी परस्पर व्यवहार पालने की आवश्यकता है। जो व्यवहारी मनुष्य हमारे यहाँ भोजन करने को आवे उसके यहाँ हमे भी अवश्य जाना चाहिये । खान-पान के सम्बन्ध में जहाँ तक हो जाति-बंधन की रक्षा करते हुए इसी प्रकार का व्यवहार पालने की आवश्यकता है।

विवाह तथा दूसरे उत्सवों में जो लोग हमारी जैसी सहायता करते हैं उनके साथ हमे वैसा ही व्यवहार करने की आवश्यकता है। यदि कोई हमारे साथ बारात में जाता है तो हम भी समय निकालकर उसके साथ ऐसे अवसर पर जाना आवश्यक है।

गमी में प्रति व्यवहार पालने को अत्यन्त आवश्यकता है । यह ऐसा अवसर है कि इस समय किये गये उपकारो को लोग शीघ्र नहीं भूलते और सदैव इस बात के लिए तत्पर रहते हैं कि हम अपने उपकारी के संकट में सहायक होवें । जहाँ स्त्रियों में भी ऐसा व्यवहार प्रचलित है यहाँ स्त्रियों का भी कर्तव्य है कि वे अपनी सकट-ग्रस्त सखियो के यहाँ सहानुभूति प्रकट करने की जावें।

यदि हमें किसी उत्सव के अवसर पर दूसरे के यहांँ से पहिले- पहल निमन्त्रण आवे तो जब तक कोई विशेष कारण न हो तब तक हमें उस निमंत्रण का पालन करना चाहिये । इसी प्रकार यदि किसी नये स्थान से पहिले पहिल व्यवहार आये तो हमे उसे स्वीकार कर लेना चाहिये और स्मरण रखके उसे किसी उपयुक्त अवसर पर नियम पूर्वक लौटा देना चाहिये। ऐसे अनेक व्यवहार है जो किसी न किसी और से पहिले-पहिल आरम्भ किये जाते हैं और उनमें यह नहीं देखा जाता कि दूसरी ओर से यह व्यवहार कभी हुआ है या नहीं । गमी में इस प्रकार का एक पक्षीय विचार कभी न करना चाहिये, क्योकि यह पुण्य का कार्य है।
[ ७९ ]कई लोग ऐसे भी होते हैं जो यह चाहते हैं कि दूसरे लोग हमारे यहांँ आवें पर हम उनके यहांँ न जाना पड़े। इस प्रकार के लोगो को सोचना चाहिये कि ये सब व्यवहार परस्पर हैं और बिना आदान प्रदान के थोड़े समय म बंद हो जाता है। कई लोगो को देखा है जो दुसरे के यहांँ उसके मरने पर भी नहीं जाते। आश्चर्य नहीं कि दूसरे लोग भी उनके साय ऐसा ही व्यवहार करें। किसी कवि ने कहा है,

झुके अपनेसे, उससे झुक जाइये ।
रुके अपनेसे, उससे रुक जाइये ॥

( ५ ) गुण-कथन में

संसारी काम-काज म अनेक अवसर एसे आते हैं कि जब हमें किसी के गुण को प्रकट करने की आवश्यकता होती है । नौकरी आदि के लिए जो सिफारिश की जाती है यह भी एक प्रकार का गुण-कथन है । यद्यपि लोगों की दृष्टि में और स्वभाव से भी बहुत कम ऐसे मनुष्य है जो सर्वथा निर्दोष हो तथापि गुण-कथन म हम जहाँ तक हो किसी व्यक्ति, के साधारण दोषों को छिपाकर उसके गुणों का ही परिचय देना चाहिए । हाँ, यदि दोषों को छिपाने से विशेष हानि होने की सम्भावना हो तो गुण-कथन म विशेष विस्तार न किया जाय।

यदि कभी किसी के दोष प्रकट करने का अवसर आ जाय तो वे निन्दा के रूप में अथवा घृणा के साथ कभी न प्रकट किय जावें‌। किसी के दोष प्रकट करने का अपगघ तभी क्षमा किया जा सकता है जब उससे सुनने-वाले को विशेष लाभ अथया चेतावनी प्राप्त हो सके । केवल इसी प्रेरणा के आधार पर द्वेष प्रकट करने-वाला मान हानि के अभियोग से रक्षा पा सकता है; क्योकि यह अपराध राज नियमों के अनुसार दण्डनीय है। शिष्टाचार की दृष्टि से और
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राजकीय नियमो से भी चोर को चोर और वेश्या को वेश्या कहना दण्डनीय अपराध है । यदि कोई विशेष प्रयोजन न हो तो किसी के दोष प्रकट करके मनुष्य को स्वयं हल्का होना उचित नहीं। अपने जाति-वालो और कुटुम्ब वालो के दोष बताना तो और भी निन्दनीय समझा जाता है ।

किसी की प्रशंसा बहुत बढ़ाकर करना उचित नहीं, क्योकि उसमे लोगो को मिथ्यापन का सन्देह होने लगता है। जिस समय जिसके जितने गुणो को प्रकट करने की आवश्यकता हो उस समय उसके उतने ही गुण प्रकट किये जावें। यदि कोई किसी का साधारण परिचय ही पूछे तो उस समय उसकी गुणावली पर विस्तृत व्याख्यान देना अनावश्यक और अनुचित है । गुण-गान इस सावधानी से किया जावे कि उस से व्यग्यं की ध्वनि न निकले ओर सुनने-वाले को ऐसा न जान पड़े कि वक्ता अपनी इच्छा के विरुद्ध गुण-गान कर रहा है। यदि हमारे दो भले शब्द कह देने से किसी का महत्व पूर्ण कार्य सिद्ध होता है तो हमे अपनी इच्छा के विरुद्ध भी उन शब्दों के कहने में आनाकानी न करना चाहिये ।

यदि हम से कोई प्रशंसा-पत्र मांगे और हमें उस व्यक्ति के आचरण से पूरा संतोष न हो तो उस समय हमारा यह कर्त्तव्य है कि या तो किमी उचित उपाय से प्रशंसा पत्र देने के अवसर को टाल दे अथवा ऐसा प्रशंसा-पत्र लिख देवें जिस में प्रशसा की मात्रा साधारण हो । किसी भी अवस्था में ऐसा प्रशंसा पत्र न दिया जावे और न ऐसा गुण-कथन किया जावे जिसमे स्पष्ट मिथ्यापन हो । बार-बार लोगो की सिफारिश करने अथवा उसे प्रशंसा पत्र देने से उस गुण-कथन का मूल्य घट जाता है, इसलिए लोगो की बहुत सावधानी से दूसरो को प्रशंसा करनी चाहिये।
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विवाहादि कार्यो में बहुधा ऐसा अवसर आजाता है कि लोग किसी व्यक्ति के गुणों को न पूछकर उसके दोष पूछते हैं। ऐसी अवस्था में उत्तर-देने-वाले को उचित है कि यह साधारण रीति से इतनी ही सूचना दे देवे कि अमुक मनुष्य के साथ सम्बन्ध होना ठीक है या नही। यदि प्रश्न पूछने-वाला मनुष्य चतुर होगा तो वह उत्तर-देने वाले मनुष्य के इतने ही संकेत से बहुत-कुछ समझ जायगा और उसे किसी व्यक्ति के दोष प्रकट करने के लिए बाध्य न करेगा।

लोगों को विदाई देने के लिए जो सभायें की जाती हैं उनमें केवल गुण-गान ही किया जाता है। कोई-कोई स्पष्ट-वक्ता ऐसे अवसर पर भी कभी-कभी दोषों का कुछ संकेत कर देते हैं, पर ऐसा संकेत केवल इसीलिये किया जावे कि उससे प्रशंसित सज्जन का आगे कुछ लाभ हो। यदि सार्वजनिक सभाओ में किसी सज्जन की सार्वजनिक कार्यवाही की आलोचना करना हो तो उसमें गुणों और दोषों का उचित मिश्रण अनुचित नहीं समझा जाता।

मृत-पुरुषो की निंदा करना अत्यन्त निन्दनीय है, क्योंकि जिस पुरुष की निंदा की जाती है यह उसका उत्तर देने को आ ही नहीं सकता। ययार्थ में मृत पुरुष की निन्दा करने वाले व्यक्ति को पूरा कायर कहना चाहिये, क्योकि जिस स्वतंत्रता से यह मरे मनुष्य की बुराई कर सकता है उस प्रकार वह उसके जीवन-काल में निन्दा न कर सकता। नित स्वर्गवासी सज्जनो के लिए शोक-सभायें की जाती है, उनमें उनके केवल-गुण-गान की आवश्यकता है और उसी से सभा के संचालकों की उदारता प्रकट हो सकती है तथा उपस्थित जनता को संतोष एवं उपदेश प्राप्त हो सकता है। शोक-सभाओ के प्रस्ताओ की नकल मृत-पुरुष के किसी मुख्य-संबंधी के पास अवश्य भेजी जावे। सार्वजनिक कार्य-कर्ताओ और प्रसिद्ध

हि० शि०—६

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पुरुषों की मृत्यु पर शोक-सभा करना जनता का एक प्रधान

कर्तव्य है।

कभी-कभी लोगो को अपने किसी घनिष्ठ मित्र के नाम किसी व्यक्ति को परिचय-पत्र देना पड़ता है। यह परिचय पत्र तब तक न दिया जावे जब-तक लिखने वाले को यह मालूम न हो कि जिस व्यक्ति को परिचय पत्र दिया जाता है उससे लेखक का घनिष्ठ मित्र अप्रसन्न तो नहीं है। साथ ही पत्र देने वाले को यह भी जान लेना चाहिये कि अनुगृहीत व्यक्ति परिचय पत्र का पात्र है या नहीं।

गुण-कथन और चापलूसी के अन्तर पर ध्यान रखने की आवश्यकता है। यद्यपि असाधारण गुण-कथन में चापलूसी का थोड़ा-बहुत अाभास अवश्य रहता है, तथापि उसमे स्वार्थ सिद्ध करने की नीच और कपट-मय प्रवृत्ति नहीं रहती। नीति की सूक्ष्म दृष्टि से साधारण गुण-कथन में भी चापलूसी दिखती है, तथापि शिष्टाचार के विचार से उसकी अल्प मात्रा क्षमा के योग्य है।

(६) पहुनई और अतिथि-सत्कार में

लोगो को अपने ऐसे मित्रों और नातेदारों के यहाँ कभी-कभी जाकर कुछ दिन रहने का काम पड़ता है, जो किसी दूसरे स्थान में रहते हैं। कभी तो पहुनई करने का अवसर ही आजाता है और कभी यह अवकाश के समय इच्छा से की जाती है । मित्र और नातेदारो के यहाँ से बहुधा पहुनई के लिए निमन्त्रण भी आ जाता है। जो कुछ हो, पहुनई में जाने के पूर्व इस बात का मन में विश्वास अवश्य कर लेना चाहिए कि जिनके यहाँ पहुनई में जाना है उनकी इसके लिए हार्दिक इच्छा है या नहीं, क्योंकि कभी कभी पहुनई के लिए केवल शिष्टाचार की ऊपरी दृष्टि से अनुरोध किया जाता है।

जिसके यहां पहुनाई में जाना है उसकी आर्थिक और कौटुम्बिक परिस्थिति पर ध्यान अवश्य रखना चाहिये । यदि उसकी स्थिति
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साधारण हो अथवा उसके यहाँ कुटुम्ब की अधिकता के कारण अथवा और किसी कारण से रसोई बनाने की कुछ अड़चन है तो उसके यहाँ चार। छ दिन से अधिक न ठहरना चाहिये । मित्र के यहाँ पहुँचने पर पाहुने को किसी न किसी तरह यह बात प्रगट कर देना चाहिये कि वह कितने दिन तक ठहरने वाला है, जिससे गृह स्वामी को उसके आदर सत्कार का प्रबंध करने के लिए अवसर मिल जावे । पाहुने को अपनी प्रस्तावित अवधि से अधिक न ठहरना चाहिये, जब तक इसके लिए गृह-स्वामी को ओर से विशेष आग्रह न हो । आतिथेय के यहाँ रहते हुए, पाहुने को भोजन के निश्चित समय पर उपस्थित रहना आवश्यक है जिसमें घर-वालों को उसके लिए अनावश्यक प्रतीक्षा न करनी पड़े । दूसरे के यहाँ जो भोजन बने उसे संतोष पूर्वक पाना चाहिये, चाहे वहाँ पाहुने की रुवि के अनुकूल न हो । यदि तुम्ह किसी वस्तु विशेष से अरुचि हो अथवा विकार होने का भावना हो तो रसोइ करने- वाले के पास तुम्हे इस बात की सूचना नम्रता पूर्वक पहुँचा देना चाहिये । इस बात का ध्यान अवश्य रखना चाहिये कि भोजन परिमाण से अधिक न पाया जावे और न कम भी किया जावे।

जिसके यहाँ पहुनई में जाना हो उसके लड़के-बच्चो के लिए मिठाई, खिलोने अथवा टोपी, रूमाल आदि ले जाना बहुत आवश्यक है। पहुनई समाप्त कर घर को लौटते समय लड़के बच्चो को योग्यतानुसार दो एक रुपये दे देना किसी प्रकार अनुचित नहीं है। गृह-स्वामी के नौकर-चाकरों और रसोइये को भी कुछ मामूली रकम पुरस्कार में दी जावे । पहुनई को अवधि में मनुष्य को इस बात की सावधानी रखना चाहिये कि उसका ऊपरी खर्च गृह-स्वामी को न देना पड़े। पाहुने को यह भी उचित नहीं है कि वह किसी बाहरी आदमी को अपने साथ गृह-स्वामी के यहाँ
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भोजन करने के लिए लावे । यदि पहुनई की अवधि में कोई दुसरे मित्र पाहुने का निमन्त्रण करे तो उसे वह निमंत्रण स्वीकार करने के पूर्व गृह-स्वामी से इस काम के लिए अनुमति ले लेना चाहिए ओर यदि इसमे उसकी कुछ खेद हो तो पाहुने को वह निमंत्रण उस समय स्वाकृत नहीं करना चाहिये । कभी-कभी ऐसा होता कि गृह स्वामी किसी दूसरी जगह निमंत्रित किया जाता है और उसके साथ शिष्टाचार-वश पाहुने को भी निमन्त्रण दिया जाता ऐसी अवस्था में पाहुने को अधिकार है कि वह उस निमन्त्रण को स्वीकार करे अथवा न करे। तो भी अस्वीकृति इस प्रकार की जावे कि निमन्त्रण देने वाले को बुरा न लगे।

कभी-कभी पहुनई कुटुम्ब-सहित की जाती है । इस अवस्था पाहुने के घर के लोगो को रसोई-कार्य में गृह-स्वामिनी की सहायता करना चाहिये । पाहुनी को गृह-स्वामिनी के साथ चर्चा चलाना उचित नहीं जिसमें परस्पर मन मुटाव हो जाने की आशंका हो । गृह-स्वामिनी की अवस्था और सम्बन्ध के विचार पाहुनी को आते और जाते समय उसका भेंट आदि से उचित सत्कार करना चाहिये । यदि गृह स्वामिनी किसी भले घर की स्त्रियों के यहाँ बेठने जाने और पाहुनी से भी साथ चलने के लिए आग्रह करे तो कोई विशेष कारण न होने पर उसे गृह-स्वामिनी साथ जाना चाहिये । इसी प्रकार पाहुना भी गृह-स्वामी के साथ उसके मित्रों के यहाँ बैठने को जा सकता है।

जितने समय तक पाहुना अपने मित्र या सम्बन्धी के घर जा रहे उतने समय तक उसे बहुधा उसी कोठे या स्थान में रहना चाहिये जो उसके लिए नियत किया गया हो । यदि उसका सम्बन्ध में ऐसा हो कि यह स्त्रियों के पास भी पा जा सकता हो तो सूचना देकर यह घर के भीतर भी अपना कुछ समय बिता सकता है। यदि
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ऐसा न हो, तो उसे आवश्यकता पड़ने पर और सूचना देने पर ही घर के भीतरी भाग में जाना चाहिये । आते जाते समय सभ्यता-पूर्वक थोड़ा-बहुत खाँस देने से स्त्रियो को पुरुषों की उपस्थिति की सूचना मिल सकती है। इस संकेत का उपयोग उस समय भी किया जा सकता है जब स्त्रियाँ घर के किसी भीतरी भाग में भी बैठी हो। स्त्रियों के बीच में अचानक पहुँच जाना और उनको अपनी मर्यादा का पालन करने के लिए अवसर न देना असभ्यता के चिह्न हैं।

यदि आतिथेय को अपने काम-काज के लिए अधिक समय तक बाहर रहने की आवश्यकता पड़ती हो और घर में एक-दो स्त्रियों को छोड़ कोई बड़े लड़के या पुरुष न हो, तो पाहुने को उचित है कि वह गृह स्वामी के घर लोटने के समय तक वस्ती में किसी दूसरे मित्र के पास अथवा दर्शनीय स्थान देखने में अपना समय बितावे, क्योकि पर्दा करने वाला स्त्रियों के पास पुरुषों की अनुपस्थिति में रहना सन्देह को दृष्टि से देखा जाता है। यदि पाहुने के ठहरने का स्थान ऐसा हो कि उसका सब विस्तार बाहरी कोठे में ही हो सकता है ना वह पुरुषों को अनुपस्थिति में अपने स्थान ही में रह सकता है।

पाहुने का उचित सत्कार करने की अोर गृह-स्वामी को विशेष ध्यान देना चाहिये । यथा सम्भव वह पाहुने के साथ बैठकर भोजन करे और यदि पाहुना बाहर गया हो तो भोजन के लिए उसकी प्रतीक्षा करे । मुख्य भोजनों के पूर्व पाहुने के लिए जल-पान का प्रबन्ध कराना भी आवश्यक है। भोजन समय-समय पर हेरफेर के साथ तैयार कराया जावे और जहाँ तक हो वह पाहुने की स्थिति के अनुरूप हो । भोजन स्वच्छ पात्रों में और उचित परिमाण में परसा जावे। पाहुने से, भोजन करते समय, कुछ अधिक भोजन
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के लिए थोड़ा-बहुत अनुरोध करना अनुचित नहीं है, पर परिमाण से अधिक परसना अथवा खिलाना निन्दनीय है।

पाहुने के आगमन के समय उसका आदर-सहित स्वागत करना चाहिये और यदि उसके आने के निश्चित समय की सूचना मिल जावे तो उसे स्टेशन से अथवा घर से बाहर कुछ दूरी पर लेने के लिए जाना चाहिये । इसी प्रकार पाहुने की विदाई के समय भी उसके साथ कुछ दूर जाकर आदर-सत्कार की त्रुटियो के लिए क्षमा माँगना चाहिये।

पाहुने को उचित है कि वह अपने घर पहुंँचने पर अातिथेय अपनी निक्षेम-कुशल का पत्र भेजे और कुछ समय तक पत्र-व्यवहार जारी रक्खे जिसमें गृह-स्वामी की ओर उसकी कृतज्ञता प्रमथ होवे। उसे यह भी उचित है कि आगे चलकर किसी उपयुक्त समय पर वह अपने उस मित्र को अपने घर उसी प्रकार पहुनई करने लिए निमन्त्रण दे जिस प्रकार उसने उसे दिया था।

( ७ ) शारीरिक शुद्धि में

शारीरिक शुद्धि केवल स्वास्थ की दृष्टि से ही नहीं, कि वल्कि शिष्टाचार की दृष्टि से भी अवश्यक है । आजकल पढ़े लिखे लोगो में बहुत सी ऐसी बातो का विचार किया जाता है जिन पर अपने लोग विशेष ध्यान नहीं देते । उदाहरणार्थ, बाल बनवाने के ही प्रश्न को लीजिये । अंपढ़ यह लोग बहुधा एक पखवाड़े तक हजामत नहीं बनवाते, परन्तु शिक्षित लोग सप्ताह में कम से कम दोबार अवश्यक बाल वनवाते हैं। जेन्टल मैनों के चाल तो प्रायः प्रति-दिन बनये जाते है और यदि नाई न मिले तो वे अपने ही हाथ से हजामत कर लेते हैं। इसी प्रकार लोगो को नख कटवाने का अथवा अपने दांत से काटने का ध्यान रखना चाहिये नख बढ़ जाने पर उनके सिरे पर मैल का जो कालापन आ जाता है वह घृणित दिखाई देता है
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नखो को दांतों से कभी न काटना चाहिये और दूसरो के सामने तो यह काम कभी न किया जावे । नाक के भीतर के बाल भी समय समय पर कटवा लिये जावें जिसमें वे अपनी बाढ़ से बुडौलपन को बढ़ती न करें। जो लोग सिर के बाल बड़े-बड़े रखना पसंद नहीं करते उन्हें समय-समय पर अपने बाल छोटे करा लेना चाहिये।

दांतों और जीभ तथा आँखों और कानो की स्वच्छता पर भी विशेष ध्यान दिया जावे। जो लोग लहसुन और प्याज खाते हैं अथवा जिन्हें तम्बाकू खाने, बीड़ी पीने अथवा और किसी दुर्गंध. कारी व्यसन की आदत हो उन्हें दूसरों से बात-चीत करने के पूर्व लौंग, इलायची, जायपत्री अथवा कावबचिनी से अपने मुख की दुर्गंध दूर कर लेना चाहिये। यदि किसी समय ये साधन उपलब्ध न हों तो केवल कुल्ले ही से काम चला लिया जाय । किसी किसी की यह आदत होती है कि वे बहुधा मुँहासे फोड़ा करते हैं अथवा बार-बार नाक में अंगुली डालकर उसे साफ करते रहते हैं। ये काम स्वयं घृणित है और दूसरे लोगो के सामने इनकी घृणा और भी बढ़ जाती है।

लोगों को चाहिये कि हाथो को सदैव शुद्ध रक्खें। यह बात उस समय ओर भी आयश्यक है जब किसी से हाथ मिलाने का अथवा किसी को छूंने का काम पड़े। कुछ लोग कागज, पुस्तक के पन्ने अथवा ताश सरकाने के लिए अंँगुली को मुख-रस से अपवित्र करते हैं और उससे अपवित्र की हुई वस्तु दूसरे को दे देते हैं। यह क्रिया बहुत ही अनुचित है। कई लोग डाक टिकट को भी जीभ से गीला करके चिपकाते हैं। यह कार्य और दृश्य बहुत ही घृणित हैं। यदि इन कामों के लिए समय पर पानी न मिले तो सिर के पसीने से काम लिया जा सकता, है जो उस घृणित-द्रव पदार्थ से कहीं अच्छा है।
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समझा जाता है। बड़े लोगों के सामने अनुचित हँसी को रोकना बहुत आवश्यक है। जहाँ तक हो पुरुषों को कठिन से कठिन दुख में भी रोना अथवा बहुत विलाप करना उचित नहीं है । यद्यपि हदय का दुख कभी कभी बिना रोये शान्त नहीं होता, तथापि पुरुषों को अत्यन्त धैर्य धारण करना चाहिये। किसी किसी जाति में स्त्रियाँ अपने सम्बन्धियो से मिलने पर भेंट करती हुई जोर जोर से रोती हैं, पर ऐसा करना उचित नहीं। स्त्रियों को बाजार में या सड़क पर अपनी नातेदारिनों से भेंट करते समय कभी न रोना चाहिये।

कई लोग बहुधा धन, पदवी अथवा विद्या के अभिमान में हाथ जोड़कर किये गये प्रणाम का उत्तर केवल सिर हिलाकर या एक हाथ उठाकर देते हैं। ऐसा करना शिष्टाचार के विरुद्ध है । कोई- कोई लोग केवल मुख से ही प्रणाम का उत्तर दे दते हैं और हाथ से कुछ भी संकेत नहीं करते। कुछ लोग हाथ न जोड़कर केवल मुंँह से ही प्रणाम या नमस्कार कहते हैं। ऐसे लोगों को उन्हीं की रीति के अनुसार उत्तर देना अनुचित नहीं है। कुछ लोग ऐसे भी पाये जाते हैं जो अँगरेजो की नकल करके केवल एक अंगुली उठाकर प्रणाम का उत्तर देते हैं, ऐसा करना भी अशिष्टता है। कई लोग मुसलमानों को देखा-देखी आवश्यकता से अधिक भुककर और हाथ को कई बार माथे तक ले जाकर प्रणाम करते हैं। यह क्रिया हिन्दुस्थानी शिरावार की गम्भीरता के विरुद्ध और बनावटी समझी जाती है। ऊंँचे पदाधिकारियो से अवश्य ही उनकी मर्यादा के अनुसार नम्रता पूर्वक प्रणाम करना चाहिये । जब तक विशेष परिचय अथवा प्रेम-भाव न हो तब तक किसी से बहुत दूरी पर रहकर प्रणाम न किया जावे । जो लोग मूक प्रणाम करते हैं उन्हें उसी रीति से उत्तर देना आवश्यक है।
[ ९१ ]कसरती लोग बहुधा अकड़कर या झुमकर चलते है, पर उनका यह कार्य शिष्टाचार के अनुकूल नहीं माना जा सकता। दुबले पतले और बूढ़े आदमियों का इस प्रकार चलना तो उपहास के योग्य है। कई-लोग हाथ पाँव फटकारकर ऐसी विचित्र चाल चलते हैं जिसे देखकर लोगों को हंँसी आजाती है। बहुधा किसी एक चाल में चलने का अभ्यास कुछ समय में ऐसा पक्का हो जाता है कि यह कठिनाई से छूटता है, इसलिए किसी को भी धनावटी चाल चलने की आदत न डालनी चाहिये। जहाँ तक हो चलने की रीति न बिलकुल धीमी हो ओर न बिलकुल सपाटे की। लोगों को सदैव अपने बांये हाथ की ओर चलना चाहिये और अपने को दूसरे के तथा दूसरो को अपने धक्के से बचाना चाहिये।

जहांँ चार आदमी बैठे हो वहाँ पैर फैलाकर अथवा दूसरो की ओर पैर करके बैठना उचित नहीं । कुर्सी पर दोनो या एक पर रखकर बैठना अथवा पैरों को नीचे रखकर उन्हें हिलाते रहना अशिष्ट समझा जाता है। अधिक प्रतिष्ठित लोगो की बराबरी से बिना उनका इन्छा के न बैठना चाहिये। फर्श पर जूता पहिने अथवा मैले पाँव से बैठना ठीक नहीं।

किसी की ओर लगातार टकटकी लगाकर देखना अनुचित है।चलते समय लोट-लौटकर पीछे देखना या बार बार दायें- बायें देखना उचित नहीं है। बातचीत करते समय सुननेवाले की ओर देखकर बातचीत करना चाहिये और उसकी बात सुनते समय भी वैसी ही दृष्टि रखना चाहिये । जब कोई मनुष्य स्नान अथवा भोजन करता हो या कपड़े पहिनता हो, तब जहाँ तक हो सके, उसकी पोर आवश्यकता से अधिक दृष्टि न डाली जाय । कभी कभी लोग परिचित लोगो से भी कारण वशात् आँख बचाकर निकल जाते हैं, पर ऐसा बहुधा न किया जावे । किसी की ओर
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तिरछी दृष्टि से और यथा-सम्भव, क्रोध भरे नेत्रों से देसना उचित नहीं है। जिन लोगो की दृष्टि मंद होती है ये कभी कभी दूसरों की ओर देखते हुए भी यथार्थ में उनको कुछ दूरी पर देख नहीं सकते। इसलिये यदि ऐसे लोग आँखें मिलाने पर भी कुछ न बोलें तो इसे उनका दोष न समझना चाहिये और स्वयं उनसे बात-चीत आरम्भ कर देना चाहिये।

(९) स्वाभाविक क्रियाओं में

जॅभाई लेते समय मुँह को हाथ से ढंक लेना चाहिये जिसमे दूसरो को बाये हुए मुंँह का विचित्र दृश्य न देख पड़े और उस पर इस क्रिया का प्रभाव भी न पड़े। बड़े लोगो के जॅभाई लेने पर चापलूस लोग बहुधा चुटकियां बजाते है । यद्यपि बड़े लोगो के सम्बन्ध से यह काम निन्दनीय समझा जाता है तथापि छोटे बच्चों के जॅभाई लेने पर चुटकियां बजाना बहुत आवश्यक है। क्योंकि इससे उनका ध्यान दूसरी ओर आकर्षित होने पर जॅभाई के पश्चात् उनके जबड़े यथा-स्थान मिल जाते हैं और वे दुर्घटना से रक्षा पा लेते हैं। जॅभाई के समय मुंँह को हथेली के द्वारा बंद करने से बड़ी उमर के लोग भी उस दुर्घटना से बच सकते हैं।

छींक आने पर लोगो को आस पास बैठे हुए मनुष्यो से कुछ दूर हट जाना चाहिये अथवा अपना मुंँह एक ओर फेर लेना चाहिये जिससे दूसरो पर अपवित्र छींटे न पड़ें। लगातार छींकें आने पर तो छींकनेवाले को अपने स्थान से उठ जाना अत्यन्त आवश्यक है। छींक चुकने के पश्चात् उसे अपना मुँह अच्छी तरह पोछ लेना चाहिये । शिष्टाचार के फेर में पड़कर छींक को रोकना उचित नहीं, क्योंकि इससे स्वास्थ्य सम्बन्धी हानि होने की सम्भा- वना है। यदि छींक आने पर नाक के आस पास रूमाल लगा लिया जावे तो उससे दूसरो का बहुत कुछ बचाव हो सकता है।
[ ९३ ]अंगरेजो में दूसरे लोगों के सामने डकार लेना परम घृणित समझा जाता है। यद्यपि हिन्दुस्थानी समाज में इस क्रिया को उतनी घृणा को दृष्टि से नही देखते तथापि इसे थोड़ा बहुत अशिष्ट अवश्य समझते हैं । स्ययं डकार बुरी वस्तु नहीं है और उससे डकार लेने वाले को स्वास्थ सम्धीबन्धी लाभ भी होता है, पर उससे जो दुर्गंध सी फेलती है यह दूसरो के लिए हानिकारक है। जॅमाई के समान डकार लेने में भी हाथ का उपयोग किया जा सकता है और उसमे दुर्गन्ध का निवारण हो सकता है। जो बात डकार के सम्बन्ध में कही गई है यही कुछ हेर फेर के साथ हिचकी के सम्बन्ध में भी कही जा सकती है।

खांसते समय मुंँह पर हाथ लगा लेना चाहिये जिससे पास बैठे हुए लोगो को किसी प्रकार असुविधा न हो । सभा-समाज में यदि खांसी कुछ उग्र-रूप धारण करे और साधारण से अधिक समय तक चले तो खांसने-वाले को वहां से उठ जाना चाहिये जिससे दुसरो के कार्य में विन्घन हो । खांसी बहुधा ऐसा रोग है कि किसी एक का खांसना सुनकर आसपास बैठे हुए लोग भी खांसने लगते हैं और इस सम्मिलित कोलाहल से दूसरे लोगो के काम- काज में अथवा सभा-समाजो के कार्य में बाधा आ जाती है, इस-लिये जिसे खांसी को कुछ भी शिकायत हो उसे ऐसे अवसर पर भुँजी हुई लोंगो का उपयोग करना चाहिये निससे खांसी कुछ शान्त हो जाती है।

इनके अतिरिक्त बुर स्वाभाविक क्रियाएँ ऐसी हैं जिनको सदैव दुसरो की दूष्टि बचाकर करना चाहिये । इन क्रियाओ के पश्चात् और दूसरो के समीप पाने अथवा उन्हें छूने के पूर्व, हाथ पॉव और मुख की शुद्धि कर लेना परम आवश्यक है जिसमे दूसरे को कोई ग्लानि न हो । यदि इनमें से कोई एक क्रिया मनुष्य की विर-
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शता के कारण दूसरे के सामने हो जाय तो उन्हें उसके प्रति उपहास, घृणा अथवा तिरस्कार प्रकट न करना चाहिये, वरन सहानुभूति का व्यवहार करना उचित है। स्वाभविक क्रियाओं मे सदैव इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि किसी के सामने जो विगाडने-वाली कोई क्रिया न की जावे।

सोने-वाले को सोने के पूर्व इस बात की सावधानी रख लेना चाहिए कि सोते समय कोई गुप्त अग उधर न जायँ। सोते हुए मनुष्य को किसी विशेष आवश्यकता के बिना जगाना उचित नहीं, पर यदि उसके कुछ अग खुल जायँ तो उसे धीरज-पूर्वक सचेत कर देना चाहिए। जिन स्थान में कोई व्यकि सोता हो उसके पास हल्ला अथवा जोर से बातचीत करना अनुचित है।



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यह कार्य भारत में सार्वजनिक डोमेन है क्योंकि यह भारत में निर्मित हुआ है और इसकी कॉपीराइट की अवधि समाप्त हो चुकी है। भारत के कॉपीराइट अधिनियम, 1957 के अनुसार लेखक की मृत्यु के पश्चात् के वर्ष (अर्थात् वर्ष 2024 के अनुसार, 1 जनवरी 1964 से पूर्व के) से गणना करके साठ वर्ष पूर्ण होने पर सभी दस्तावेज सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आ जाते हैं।


यह कार्य संयुक्त राज्य अमेरिका में भी सार्वजनिक डोमेन में है क्योंकि यह भारत में 1996 में सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आया था और संयुक्त राज्य अमेरिका में इसका कोई कॉपीराइट पंजीकरण नहीं है (यह भारत के वर्ष 1928 में बर्न समझौते में शामिल होने और 17 यूएससी 104ए की महत्त्वपूर्ण तिथि जनवरी 1, 1996 का संयुक्त प्रभाव है।