आदर्श हिंदू २/प्रकरण-४० महात्माओं के दर्शन

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प्रकरण--४०
महात्माओं के दर्शन

वरुणा गुफा के पक्के मकान में नहीं, उसके निकट पर्णकुटी में भगवती भागीरथी के कूल पर तीन साधु रहते हैं। वरुणा गुफा में निवास करनेवाले साधुओं में दो एक अच्छे चमत्कारी हैं। उनके पास कोई पुत्र-कामना से जाता है, कोई धन-कामना और कोई उनके चमत्कारों की परीक्षा लेने के लिये किंतु इस पर्णकुटी की ओर कोई देखता तक नहीं। कुटी बिलकुल आडंबरशून्य और उसके निवासियों में प्रपंच का लेश नहीं। दिन- रात को साठ घड़ियों में एक बार उनमें से एक संन्यासी नगरी में जाकर चाहे जैसे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, द्विजों के घर से तीन मधुकरी माँग लाला है। माँगने में अड़कर नहीं, सताकर नहीं और रिरियाकर नहीं। नित्य नए तीन गृहस्थों के द्वार पर जाना, सवाल करके दस मिनट राह देखना और फिर जैसी कुछ मिले वैसी लेकर चले जाना, अथवा न मिले तो यों ही चले जाना, इस तरह जो कुछ मिल जाय उसे गंगाजल में धोकर तीनों एक बार पा लेते हैं। बस शरीरकृत्य से निवृत्त होने, आश्रम धर्म का पालन करने और ब्रह्म का चिंतन करने के अतिरिक्त इन्हें कुछ काम नहीं। गीता के भगवद्वाक्य के
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अनुसार संसार जब मोहनिद्रा में शयन करता हुआ खुर्राटे भरता है तब ये तीनों जागते हैं इसलिये "या निशा सर्वभूतानि तस्यां जागर्ति संयमी" का मानो ज्वलंत उदाहरण हैं। इन तीनों में एक गुरू और दो शिष्य मालूम होते हैं। गुरुजी का वय कोई सत्तर अस्सी वर्ष का, एक शिष्य पचास-पचपन साल का होगा और दूसरे की उमर पच्चीस से अधिक नहीं। तीनों का शरीर सुडौल, दुर्बल नहीं और तीनों की मुख की शोभा से उनका तप फूट-फूटकर निकला पड़ता था। तीनों में गुरू का नाम ब्रह्मानंद, ज्येष्ठ शिष्य का भगवदानंद और कनिष्ठ का पूर्णानंद। जब इतना ही लिख दिया गया तब पाठकों से पहेली बुझाकर उन्हें उलझन में झालं रखने और इनका परिचय देने के लिये कागज रँगने से कोई लाभ नहीं। इसलिये मैं ही बतलाए देता हूँ कि इनमें से गुरूजी के यद्यपि किसी ने अभी तक दर्शन नहीं किए थे किंतु बड़ा शिष्य प्रयाग में हमारी यात्रापार्टी को भागीरथी के परले किनारे पर्णकुटी में और छोटा शिष्य अर्वुद गिरिशिखर पर प्रियंवदा को दर्शन दे चुका है। यद्यपि ये लोग घुरहू बाबू को कई बार, कई रूप में "अनेक रूप रूपाय" देख- कर नहीं पहचान सके, यहाँ तक कि पंडित प्रियानाथ नसीरन रंडी को प्रियंवदा मानकर धोखा भी खा चुके परंतु आश्चर्य है कि न मालूम आज इन्होंने केवल एक ही झलक में इन्हें क्योंकर पहचान लिया। कदाचित् इन महात्माओं के तप का प्रभाव हो अथवा पार्टी का सौभाग्य। [ १६४ ]अस्तु! सबके सब दर्शनी गुरू के चरण-कमलों में साष्टांग प्रणाम कर पारी पारी से दोनों शिष्यों को हाथ जोड़कर "नमो नारायण" करते हुए बैठ गए। "आओ बाबा, बड़ा अनुग्रह किया!" कहकर गुरूजी ने उन लोगों का आतिथ्य किया। बहुत देर तक ये लोग टकटकी लगाए मौन होकर गुरुजी के मुखकमल को निरखते हुए बैठे रहे। किसी का हियाव न हुआ कि कुछ पूछें। इनमें से पंडित दीनबंधु, पंडित प्रियानाथ और पंडित गौड़बोले, तीनों तीन प्रश्न विचारकर ले गए थे। पूर्णानंद को देखकर प्रियंवदा के मन का वही पुराना भाव, वही स्त्री जाति के जीवन की सर्वोच्च आकांक्षा, सब सुख होने पर भी अंत:करण में छिपी हुई वही वेदना ताजी हो गई। बूढ़ा भगवानदास जिस चिंता कं मारे सूखा जाता था वह काशी आकर कितने ही अंश में मिट चुकी थी, इस कारण दर्शन करने के सिवाय उसे कोई प्रयोजन सिद्ध करना नहीं था। माँ बेटे बिचारे सीधे सादे किसी गिनती में नहीं। बस यही इस पार्टी के हृद्गत भावों की रिपोर्ट है।

जब इन लोगों को बैठे बैठे बहुत देर हो गई तब उकताकर नहीं, क्रोध करके नहीं, क्रोध भी करते तो कर सकते थे क्योंकि इनके आह्निक में विक्षेप पड़ता था, गुरूजी बोले, जिन्होंने इति- हासों और पुराणों का अवलोकन किया है वे स्वीकार करेंगे कि ब्राह्मण जैसे क्रोध में आग हो जाते हैं वैसे क्षमा में पृथ्वी और समुद्र होते हैं। क्रोध बड़े बड़े ऋषि महर्षियों से नहीं
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छूटा। किंतु गुरुजी का सौम्य मुख, भव्य ललाट बतला रहा है कि इनके हृदय में क्रोध का लेश नहीं, अस्तु गुरूजी ने इन लोगों से योंही पूछकर इस तरह इनका मौन तोड़ा --

"बाबा क्यों आए हो? जो कुछ इच्छा हो कहो?"

"महाराज, आप हमारे मन की बात जाननेवाले हैं, त्रिकालदर्शी हैं। आपसे क्या निवेदन करें?"

"नहीं बाबा, मैं आपकी तो क्या अपने मन की बात भी नहीं जानता। जो त्रिकालदर्शी हैं वे हिमालय गिरि-गुहा छोड़कर यहाँ दुनिया को ठगने नहीं आते। मैं तो भिखारी हूँ। काशी के विद्वानों का बड़ाई सुनकर स्वयं उनसे उपदेश की भिक्षा माँगने आया हूँ। आप ही कुछ भिक्षा दीजिए।"

"हैं महात्मा! यह उल्टी गंगा! उलटी गंगा न बहाइए। जो आपसे भीख माँगने आए हैं उनसे भीख! हम जैसे विद्या के दरिद्रो, मन के दरिद्रो, और सब तरह के दरिद्री के पास से शिक्षा की भिक्षा! हाँ भगवान् दत्तात्रेय की तरह यदि आप भी हों तो जुदी बात है।"

जिस समय दीनबंधु की गुरू महाराज से इस तरह की बातें हो रही थीं उसी समय प्रियवंदा ने अपने अंचल में से खोलकर दो अशर्फियाँ भेंट कीं और साथ ही उसकी झोली में कुछ केले, नारंगी, अनार आदि थे वे उनके चरणों में रख- कर प्रणाम किया। "हमने आज मधुकरी पा ली है। संग्रह करना अच्छा नहीं।" कहकर महात्मा ने एक एक करके फल
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सबको बाँट दिए। उनमें से एक अनार उठाकर बहुत देर तक वे उसकी ओर देखते रहे और तब "अखंड सौभाग्यवती पुत्रवती भव" का आशीर्वाद देते हुए उन्होंने उसे प्रियंवदा की झोली में डाल दिया। ऐसे सब कुछ दे दिया किंतु अशर्फियाँ किसी को न दीं। उनके पास लँगोटी के सिवाय कपड़ा नहीं, कंबल नहीं, पुआल के सिवाय बिछौना नहीं और दोनों हाथों को मिलाकर जल पीने के लिये ग्लास वना लेने के अतिरिक्त कोई पात्र नहीं, तुंबी तक नहीं, कठौती तक नहीं, तब यदि उन मुहरों को रखते भी तो कहाँ रखते। खैर कुछ भी न हो किंतु उन्होंने वे किसी को दों नहीं, मुट्ठी को छोड़- कर वे उनके पास से डिगीं तक नहीं। यदि उन्होंने उनका यह अड्डा छुड़ाया भी तो कभी सिर पर, कभी बगल में और कभी कंधे पर रखा किंतु खैंच खाँचकर फिर वही मुट्ठी। यदि दहना हाथ पसीज उठा तो बायें में और बाये से फिर दहने में। कोई आधे घंटे तक इस तरह करक तब वह अशर्फियाँ गोपीबल्लभ को देते हुए से बोले --

"बाबा, इन्हें जाकर गंगाजी में डाल आ। उसी में हमारा खजाना है।"

सुनकर गोपीबल्लभ कुछ हिचकिचाया भी सही, कुछ शर्माया भी सही परंतु उनकी आज्ञा माथे चढ़ाकर डाल अवश्य आया। "आप जैसे महात्मा के अशर्फियाँ भेंट करने में इसका अपराध ही है। आप क्षमा करें।" यह कहकर प्रियानाथ हाथ जोड़ने
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लागे। "नहीं बाबा इस माई का कोई दोष नहीं। हमारे पास रखने की जगह ही नहीं। नहीं तो हम ही क्यों देते?" कह- कर उन्होंने आश्वासन किया और सब कहने लगे --

"अच्छा, तुम नहीं छेड़ते हो तो मैं ही कहता हूँ। सुनो! मान लो कि आप तीनों विद्वानों में से एक (गौड़बोले की ओर इशारा करके) महाशय प्रारब्ध की परिभाषा पूछने आए हैं। जो लोग उद्योग में सफल हो जाते हैं वे उसे प्रधान और जिनका भाग्य फल जाता है वे प्रारब्ध को मुख्य मानते हैं। जिसे जिसमें फायदा होता है उसी पर उलकी श्रद्धा बढ़ती है। हैं यह अंधेरी कोठरी। शास्त्र का सिद्धांत ता आप जैसे पंडितों से क्या कहूँ? हाँ! मेरा अनुभव कहता है कि प्रारब्ध की सहायता से ही उद्योग हो सकता है और उद्योग ही नसीब को बनानेवाला है। जीव पर पूर्व जन्म में उद्योग करने से जो संस्कार पैदा होते है वे ही हमारा नसीब है किंतु यदि केवल प्रारब्ध ही मुख्य मान ली जाय तो सृष्टि के आरंम्भ में जीव जब उत्पन्न हुआ तब उसके लिये नसीब कहाँ था। इसलिये जिधर उसकी प्रवृत्ति हुई वही उसका उद्योग और उस उद्योग का परिणाम ही प्रारब्ध है। शारीरांत होने पर धर्मराज संचित और क्रियमाण कर्मों का लेखा लगाकर प्राणी को स्वर्ग और नरक देते हैं।"

"तब तो महाराज, परमेश्वर कोई वस्तु नहीं।"

"राम राम! हर हर! ऐसा कभी न कहो भगवान् कर्तुमकर्तुमन्यथाकर्त्तु समर्थ है। वह वास्तव में हमें नट-
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मर्कवत् नचाता है। उसके लिये हम कठपुतलियां हैं। उसने कर्म से हमको स्वतंत्र किया है और फल उसके हाथ में है। आकाश में उड़कर हवा के झोंके से पतंग जैसे इधर उधर भटकने पर भी डोरी उड़ानेवाले के हाथ में है, वैसे ही हम उसके हाथ की पतंग है। हवा के झोंके पाप पुण्य के संस्कार है, दूसरे की पतंग से, आँधी बबूले से अथवा बनावट की खराबी से फट जाना, टूट पड़ना उन संस्कारों के फल हैं। हम यदि प्राकाश में उड़ाने के बाद उसे उतार लेने में समर्थ न हों तो कसर हमारी है। किंतु परमेश्वर यावत् त्रुटियों से रहित है, परिपूर्णत्तम है।"

इतने ही में गंगाजी में नाव में बैठे हुए कितने ही यात्रियों में से वंशी की आवाज आई। कानों पर भानक पड़ते ही पंडित प्रियानाथ को भगवान् मुरली मनोहर की झांकी याद आ गई। वह बोले --

"महाराज, इस शुष्क विषय को जाने दीजिए। और कोई बात छेड़िए!"

"अच्छा तो आप शायद भक्ति की व्याख्या सुनना चाहते हैं परंतु परसों आपका (दीनबंधु के लिये) इनसे जो संभाषण हुआ उससे बढ़कर मैं क्या कहूँ? वही इसका निचोड़ है। यदि आपको विशेष जानना हो तो श्रीमद्भागवत से बढ़कर कोई इसका शिक्षक नहीं। उसी का मनन कीजिए। उसमें केवल भक्ति का ही निरूपण हो सो नहीं। उसमें भक्ति, ज्ञान, वैराग्य
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सब कुछ है। सबके सब ओतप्रोत भरे हैं। जैसा अधि- कारी हो वैसी ही सामग्री यदि इकट्ठा एक ग्रंथ में देखनी हो तो भागवत देखो। उसमें पाँच वर्ष के बालक बीस वर्ष की युवती और साठ वर्ष के बूढ़े सबके लिये समान सामग्री है। दुनिया में चाहे भक्ति से हो, ज्ञान से हो बंधमोक्ष से छुटकारा पाने के लिये भागवत से बढ़कर कोई ग्रंथ नहीं।"

"अब एक ही महाशय के प्रश्न का मुझे उत्तर देना है। इनका प्रश्न बड़ा गहन है, कठिन है। यदि सरल है तो इतना सरल कि दो पंक्तियों में उत्तर आ जाय। और कठिन है तो इतना कि पोथे रँग डालने पर भी निवृत्ति नहीं।"

"बेशक महाराज (दीनबंधु हाथ जोड़कर बोले) ऐसा ही है। बड़े बड़े पंडितो की मैंने सिर मारते देखा है फिर मैं बिचारा किस गिनती में? परंतु आप जैसे महात्मा की सूत्र रूप दो पंक्तियाँ ही मेरे लिये बहुत हैं।"

"अच्छा बहुत हैं तो भगवान् श्रीकृष्णचंद्र ने गीता में धनु- र्धर अर्जुन को जो उपदेश दिया है उसका सार, राम राम! सार का क्या सार हो। वेदों का सार तो गीता ही है। अस्तु, मर्म यही है कि रागद्वेष छोड़कर अपने वर्णाश्रम धर्म के अनुकूल कर्म करना, उसके फल की आकांक्षा छोड़ देना और हम उसके कर्ता नहीं हमारे कान पकड़ करा लेनेवाला कोई और ही है, परमात्मा है। बस यही है। इसमें कर्तव्यपालन की शिक्षा है। भगवान् ने अर्जुन की कायरता जुड़ाकर उसे
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कर्त्तव्यपरायण बनाने के लिये कौरव जैसे प्रबल शत्रुओं का संहार करवाया है, और विराट् दर्शन से दिखला दिया है कि इसका कर्ता मैं और तू केवल निमित्त है।"

"हाँ महाराज, इतने से में तीनों के प्रश्नों का सूत्र रूप से सार आ गया। परंतु महाराज, आजकल हम सांसारिक जीवों की बड़ी दुर्दशा है। गृहस्थाश्रम का निर्वाह महा कठिन है।"

"बाबा, गृहस्थों में तो हजारों अच्छे भी मिलेंगे। दुनिया- दारी के बोझे से दबे रहकर वे कुछ करते कराते भी हैं किंतु साधु रूप धारी नर-पिशाचों की वास्तव में दुर्दशा है। उनमें भले विरले और बुरे बहुत हैं। जब पेट और उन्हें खाने को मिल जाता है तब बुराई ही बुराई सूझती है। जिनका भिक्षा से गुजारा होता है वे तो बिचारे फिर भी कुछ हैं किंतु देखो ना इन लाखों रुपए कं धन सम्पत्तिवाले मठाधीशों को! इनमें दाताओं के उद्देश्य के अनुसार परोपकार करनेवाले कितने हैं ? हाँ यदि वेश्या नचानेवालों को ढूँढ़ने जाओ तो दस बीस मिल सकते हैं। परमेश्वर इन्हें अब भी सुबुद्धि दे। अब भी ये लोग भगवतसेवा में, विद्या-प्रचार में और परोपकार में अपना तन मन धन अर्पण करें। भैया, दुनिया का उपकार जितना एक स्वार्थत्यागी साधु से हो सकता है उतना सौ गृहस्थों से नहीं क्योंकि उन बिचारों को कुटुंब-पालन से फुरसत नहीं और हमें ब्रह्मविचार और परोपकार के सिवाय कुछ काम नहीं।" [ १७१ ]
इस तरह बहुत देर तक इधर उधर की बातें होती रहीं, बीच बीच में वही कभी ज्ञान, कभी वैराग्य और कभी भक्ति का निरूपण होता रहा और ऐसे गुरु महाराज का बहुत सा समय लग जाने पर लज्जित होते होते उन्हें साष्टांग दंडवत प्रणाम करते, उनसे शुभाशिष लेते लेते थे लेग लौट आए। छोटे चेले पूर्णानंद की जबानी पंडित प्रियानाथ को मालूम हो गया इन्होंने रूप रंग से भी जान लिया कि भगवादानंद ही कांता- नाथ के श्वसुर हैं और चातुर्मास्य भर उन्होंने मौन व्रत धारण किया है। अनेक मौनी बाबा जबान न हिलाने पर भी, सिर हिलाकर, हाथ पैर हिलाकर और आँखें नचाकर अपने मन का भाव दूसरों को समझा देते हैं, जो चाहे तो मांग लेते हैं और कितने ही "गूँ गूँ गूँ गूँ" करके अर्द्धस्फुट शब्दों से अपना काम निकाल लेते हैं किंतु यह बिलकुल चुप, निश्चेष्ट बैठे रहते हैं। ऐसे बैठे रहते हैं मानो समाधि चढ़ाने का अभ्यास करते हों। अस्तु प्रियंवदा से भी मौका पाकर नेत्रों के संकेत से पति को जतलाए बिना न रहा गया कि "यह पूणानंद वही साधु हैं जिन्होंने बूढ़ी माँ के सामने मुझसे कहा था कि तू काशी आकर यदि हमारे गुरू दर्शन करेगी तो अवश्य तेरी मनोकामना सिद्ध होगी। बस महात्मा के दिए हुए इस प्रसाद से ही मनोकामना की सिद्धि है।"

तीनों पंडितों का उत्तर से जैसे संतोष हुआ वैसे उन्हें आश्चर्य भी कम नहीं हुआ। इस विषय में तीनों में परस्पर
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बातें भी बहुत देर त हुई। तीनों ने अपने मन में और कभी एक दूसरे से कहा भी कई बार कि "यह महाराज योगबल के बिना कैसे जान गए कि हम क्या प्रश्न करेंगे, कदाचित् दुनियादारी का सवाल हो तो कुछ अटकल भी लगा लेते!" खैर मकान पर जब पहुँचे तब इन लोगों के आश्चर्य का पारा- वार न रहा, किवाड़ खोलते ही चौखट के भीतर से वे ही दोनों अशर्फियाँ जो गंगा में डाली गई थीं खन्न खान्न करती हुई धरती पर गिरीं। बस यह चमत्कार देखकर ज्यों ही पंडितजी भागे हुए वरुणा गुफा पर फिर उन महात्माओं के दर्शन के लिये गए तो वह पर्णकुटी शून्य थी! बम हाथ मलते, पछताते और अपनी बुद्धि को कोसते रह गए। पारब्ध को दोष देकर उन्होंने संतोष किया।

इस तरह इनकी यात्रा समाप्त हुई। काशी आने से यद्दपि इन्हें कष्ट भी कम न हुआ परंतु भगवान् भूतभावन के अनुग्रह से, भगवती गंगा की कृपा से और पंडित पंडितायिन के इष्ट बल से महात्मा ने वह फल ही ऐसा दिया कि उनका आशी- र्वाद सच्चा हो गया। थोड़े ही काल में प्रियंवदा की आकृति से विदित हो गया कि उसका पेट भारी है। उसने यदि लज्जा से न कहा तो न सही किंतु उसके मुख के भाव ने उसके मन के भाव की चुगली खा दी।

अस्तु समस्त देवों सहित काशी को और पंडित दीनबंधु को प्रणाम कर, पार्टी वहाँ से बिदा हो गई।