चन्द्रकांता सन्तति 4/14.5

विकिस्रोत से
चंद्रकांता संतति भाग 4  (1896) 
द्वारा देवकीनन्दन खत्री

[ ८७ ]

5

कल्याणसिंह के ताली बजाने के साथ ही बहुत से आदमी हाथों में नंगी तलवारें लिए हुए उसी कोठरी में से निकल आये जिसमें से कल्याणसिंह निकला था, मगर शेर- अली खाँ की मदद के लिए केवल एक वही नकाबपोश उस कमरे में था, जो दरवाजा खोलने के साथ ही उन्हें दिखाई दिया था। विशेष बातचीत का समय तो नहीं मिला मगर नकाबपोश ने शेरअलीखाँ से इतना अवश्य कहदिया कि "आप अपनी मदद के लिए अभी किसी को भी न बुलाइए, इन लोगों के लिए अकेला मैं ही बहुत हूँ, यदि मेरी बात पर आपको विश्वास न हो तो जल्दी से इस कमरे के बाहर हो जाइए

यद्यपि सैकड़ों आदमियों के मुकाबले में केवल एक नकाबपोश का इतना बड़ा हौसला दिखाना विश्वास करने योग्य न था, मगर शेरअली खाँ खुद भी जवांमर्द और दिलेर आदमी था, इस सबब से या शायद और किसी सबब से उसने नकाबपोश की बातों पर विश्वास कर लिया और किसी को बुलाने के लिए उद्योग न करके अपने बिछौने के नीचे से तलवार निकालकर लड़ने के लिए स्वयं भी तैयार हो गया।

यह नकाबपोश असल में भूतनाथ था जो सरयूसिंह के कहे मुताबिक शेरअली खाँ के पास आया था। उसे विश्वास था कि शेरअली खाँ कल्याणसिंह की मदद के लिए तैयार हो जायगा मगर जब उसने कमरे के बाहर से उन दोनों की बातें सुनीं और शेर- अली खाँ को नेक, ईमानदार, इन्साफपसन्द और सच्चा बहादुर पाया तो बहुत प्रसन्न हुआ और जी-जान से उसकी मदद करने के लिए तैयार हो गया। हमारे पाठक यह [ ८८ ]तो जानते ही हैं कि भूतनाथ के पास भी कमलिनी का दिया हुआ एक तिलिस्मी खंजर है जिसे भूतनाथ पर कई तरह का शक और मुकदमा कायम होने पर भी कमलिनी ने अपनी बात को याद करके अभी तक नहीं लिया था। आज उसी खंजर की बदौलत भूतनाथ ने इतना बड़ा हौसला किया और बेईमानों के हाथ से शेरअली खाँ को बचा लिया।

जिस समय कल्याणसिंह ने भूतनाथ का मुकाबला करना चाहा, उस समय भूतनाथ ने फुर्ती से अपने चेहरे की नकाब उलट दी और ललकार कर कहा, "आज बहुत दिनों पर तुम लोग भूतनाथ के सामने आये हो, जरा समझ कर लड़ना।"

इतना कहकर भूतनाथ ने तिलिस्मी खंजर से दुश्मनों पर हमला किया, इस नीयत से कि किसी की जान भी न जाय और सब के सब गिरफ्तार कर लिए जायें।

सबसे पहले उसने खंजर का एक साधारण हाथ कल्याणसिंह पर लगाया जिससे उसकी दाहिनी कलाई जिसमें नंगी तलवार का कब्जा था, कटकर जमीन पर गिर पड़ी, साथ ही इसके तिलिस्मी खंजर की तासीर ने उसके बदन में बिजली पैदा कर दी और वह बेहोश होकर जमीन पर गिर पड़ा।

जिस समय कल्याणसिंह और उसके साथियों ने भूतनाथ का नाम सुना, उसी समय उनकी हिम्मत का बँटवारा हो गया। आधी हिम्मत तो लाचारी के हिस्से में पड़- कर उनके पास रह गई और आधी हिम्मत उनके उत्साह के साथ निकलकर वायुमण्डल की तरफ पधार गई । भूतनाथ चाहे परले सिरे का बहादुर हो या न हो मगर उसके कर्मों ने उसका नाम बहादुरी और ऐयारी की दुनिया में बड़े रौब और दाब के साथ मशहूर कर रक्खा था। कोई चाहे कैसा ही बहादुर और दिलेर आदमी क्यों न हो, मगर अपने मुकाबले में भूतनाथ का नाम सुनते ही उसकी हिम्मत टूट जाती थी। यहाँ वही मामला हुआ और दुश्मनों की पस्तहिम्मती ने उनकी कस्मत का फैसला भी शीघ्र ही कर दिया।

जिस समय कल्याणसिंह बेहोश होकर जमीन पर गिरा उसी समय एक सिपाही ने भूतनाथ पर तलवार का वार किया । भूतनाथ ने उसे तिलिस्मी खंजर पर रोका और इसके बाद खंजर उसके बदन से छुआ दिया जिसका नतीजा यह निकला कि दुश्मन की तलवार दो टूक हो गई और वह बेहोश होकर जमीन पर गिर पड़ा । इसी बीच में बहा- दुर शेरअली खाँ ने दो सिपाहियों को जान से मार गिराया जिन्होंने उस पर हमला किया था । निःसन्देह कल्याणसिंह के साथी इतने ज्यादा थे कि शेरअलीखाँ को मार देते या गिरफ्तार कर लेते, मगर भूतनाथ की मुस्तैदी ने ऐसा न होने दिया। उस कमरे में खुलकर लड़ने की जगह न थी और इस सबब से भी भूतनाथ को फायदा ही पहुँचा । जितनी देर में शेरअली खां ने अपनी हिम्मत और मर्दानगी से चार आदमियों को बेकाम किया उतनी देर में भूतनाथ की चालाकी और फुर्ती की बदौलत तीस आदमी बेहोश होकर जमीन पर गिर पड़े । भूतनाथ बदन पर भी हलके दो-चार जख्म लगे, साथ ही इसके भूतनाथ को इस बात का भी विश्वास हो गया कि शेरअली खाँ जो कई जख्म खा चुका था ज्यादा देर तक इन लोगों के मुकाबले में ठहर न सकेगा अतएव उसने सोचा [ ८९ ]कि जहाँ तक हो सके, इस लड़ाई का फैसला जल्द ही कर देना चाहिए। ताज्जुब नहीं कि अपने साथियों को गिरते देखकर दुश्मनों का जोश बढ़ जाय, मगर उधर तो मामला ही दूसरा हो गया । अपने साथियों को बिना जख्म खाये गिरते और बेहोश होते देख दुश्मनों को बड़ा ही ताज्जुब हुआ और उन्होंने सोचा कि भूतनाथ केवल ऐयार, बहादुर और लड़ाका ही नहीं है बल्कि वह किसी देवता का प्रबल इष्ट भी रखता है जिससे ऐसा हो रहा है । इस खयाल के साथ ही उन लोगों ने भागने का इरादा किया मगर ताज्जुब की बात थी कि वह रास्ता, जिधर से वे लोग आये थे, एकदम बन्द हो गया था। इस सबब से पीठ दिखाकर भागने वालों की जान पर भी आफत आई। इधर तो शेरअली खाँ की तलवार ने कई सिपाहियों का फैसला किया और उधर भूतनाथ ने तिलिस्मी खंजर का कब्जा दबाया जिससे बिजली की तरह चमक पैदा हुई और भागने वालों की आँखें एकदम बन्द हो गईं। फिर क्या था, भूतनाथ ने थोड़ी ही देर में तिलिस्मी खंजर की बदौलत बाकी बचे हुओं को भी बेहोश कर दिया और उस समय गिनती करने पर मालूम हुआ कि दुश्मन के सिर्फ पैंतालीस आदमी थे, कल्याणसिंह ने यह बात झूठ कही थी कि मेर साथ सौ सिपाही इस मकान में मौजूद हैं या आना ही चाहते हैं।

इतनी बड़ी लड़ाई और कोलाहल का चुपचाप निपटारा होना असम्भव था। शोरगुल, मारकाट और धरो-पकड़ो की आवाज ने मकान के बाहर तक खबर पहुँचा दी। पहरेवाले सिपाहियों में से एक सिपाही ऊपर चढ़ आया और यहाँ का हाल देख घबराकर नीचे उतर गया और अपने साथियों को खबर की। उसी समय यह बात चारों तरफ फैल गई और थोड़ी ही देर में राजा वीरेन्द्रसिंह के बहुत से सिपाही शेरअलीखाँ के कमरे में आ मौजूद हुए। उस समय लड़ाई खत्म हो चुकी थी और शेरअलीखां तथा भूतनाथ, जिसने पुनः अपने चेहरे पर नकाब चढ़ा ली थी, बेहोश, जख्मी और मरे हुए दुश्मनों को खुशी की निगाहों से देख रहे थे । शेरअलीखाँ ने राजा वीरेन्द्रसिंह आदमियों को देख कर कहा, "तहखाने की एक गुप्त राह से राजा वीरेन्द्रसिंह का दुश्मन कल्याणसिंह इतने आदमियों को लेकर बुरी नीयत से यहाँ आया था मगर (भूतनाथ की तरफ इशारा करके) इस बहादुर की मदद से मेरी जान बच गई और राजा वीरेन्द्रसिंह का भी कुछ नुकसान न हुआ । अब तुम लोग जहाँ तक जल्द हो सके, जिनमें जान है, उन्हें कैदखाने भिजवाने का और मुर्दो के जलवा देने का बन्दोबस्त करो और इस कमरे को भी साफ करा दो।"

इसके बाद उस कोठरी में जिसमें से कल्याणसिंह और उसके साथी लोग निकले थे, ताला बन्द करके शेरअलीखाँ भूतनाथ का हाथ पकड़े हुए कमरे के बाहर सहन में निकल आया और एक किनारे खड़ा होकर बातचीत करने लगा।

शेरअली--इस समय आपके आ जाने से केवल मेरी जान ही नहीं बची बल्कि राजा वीरेन्द्रसिंह का भी बहुतकुछ फायदा हुआ, हाँ, यह तो कहिए आप यहाँ कैसे आ पहुंचे ? किसी ने आपको रोका नहीं?

भूतनाथ--मुझे कोई भी नहीं रोक सकता। तेजसिंह ने मुझे एक ऐसी चीज दे रक्खी है जिसकी बदौलत मैं राजा वीरेन्द्रसिंह की हुकूमत के अन्दर महल छोड़ कर जहाँ [ ९० ]चाहे वहाँ जा सकता हूँ, कोई रोकने वाला नहीं । यहाँ मेरा आना कैसे हुआ इसका जवाब भी देता हूँ। मुझे और इन्द्रदेव के ऐयार सरयूसिंह को किसी तरह इस बात की खबर लग गई कि राजा शिवदत्त और कल्याणसिंह कैद से छूट गये हैं और बहुत से लड़ाकों को लेकर तहखाने के रास्ते से रोहतासगढ़ में पहुँच फसाद मचाना चाहते हैं । इस खबर ने हम दोनों को होशियार कर दिया । सरयूसिंह तो दुश्मनों के साथ भेष बदले हुए तहखाने में जा घुसा और मैं बाहर से इन्तजार करने के लिए आया था। यह न समझियेगा कि मैं सीधा आप के पास चला आया, नहीं, मैं हर तरह का इंतजाम करने के बाद यहां आया हूँ । इस समय इस किले के अन्दर वाली फौज लड़ने के लिए तैयार और मुस्तैद है, बहा- दुर लोग चौकन्ने और महल के सब दरवाजों पर मुस्तैद हैं, तोपें गोले उगलने के लिए तैयार हैं, और ऐयारों के जाल भी हर तरफ फैले हुए हैं । मगर इस बात की खबर मुझे कुछ भी नहीं है कि तहखाने के अन्दर क्या हो रहा है या क्या हुआ ।

शेरअलीखां--बेशक तहखाने के अन्दर दुश्मनों ने जरूर गहरा उत्पात मचाया होगा। अफसोस ! आज ही के दिन राजा वीरेन्द्रसिंह वगैरह को तहखाने के अन्दर जाना था।

भूतनाथ--इस खबर ने तो मुझे और भी बदहवास कर रक्खा है। क्या करूं, तहखाने का कुछ भी भेद मुझे मालूम नहीं है और न उसके पेचीले तथा मकड़ी के जाले की तरह उलझन डालने वाले रास्तों की ही मुझे अच्छी तरह खबर है, नहीं तो इस समय मैं अवश्य तहखाने के अन्दर पहुंच जाता और अपनी बहादुरी तथा ऐयारी का तमाशा दिखलाता !

शेरअली–-बेशक ऐसा ही है। इस समय मेरा दिल भी इस खयाल से बेचैन हो रहा है कि तहखाने के अन्दर जाकर राजा साहब की कुछ भी मदद नहीं कर सकता। अभी थोड़ी ही देर हुई जब मेरे दिल में यह बात पैदा हुई कि जिस राह से कल्याणसिंह और उसके मददगार इस कमरे में आये हैं उसी राह से हम लोग भी तहखाने के अन्दर जाकर कोई काम करें, मगर बड़े ताज्जुब की बात है कि वह रास्ता भी बन्द हो गया। जहाँ तकमैं खयाल करता हूँ यह काम कल्याणसिंह के किसी पक्षपाती का नहीं है ।

भूतनाथ--मैं भी ऐसा ही समझता हूँ। (कुछ सोच कर) हाँ एक बात और भी मेरे ध्यान में आती है।

शेरअली--वह क्या ?

भूतनाथ--यह तो निश्चय हो ही गया कि हम लोग किसी तरह तहखाने के अन्दर जाकर मदद नहीं कर सकते और न इस किले में रहने में ही किसी तरह का फायदा है। शेरअली बेशक ऐसा ही है।

भूतनाथ--तब हमको खोह के उस मुहाने पर पहुंचना चाहिए जिस राह से दुश्मन लोग इस तहखाने में आये हैं। ताज्जुब नहीं कि दुश्मन लोग अपना काम करके या भाग के उसी राह से तहखाने के बाहर निकलें। यदि ऐसा हुआ तो निःसन्देह हम लोग कोई अच्छा काम कर सकेंगे। [ ९१ ]शेरअली—(खुश होकर) ठीक है, बेशक ऐसा ही होगा, तो अब विलम्ब करना उचित नहीं है, चलिए और जल्दी चलिए।

भूतनाथ--चलिए, मैं तैयार हूँ।

इतना कहकर भूतनाथ और शेरअलीखां ने राजा वीरेन्द्रसिंह के आदमियों की लाशों को उठवाने और जिन्दों को कैद करने के विषय में पुनः समझा-बुझा कर तथा और भी कुछ कह-सुनकर किले के बाहर का रास्ता लिया और बहुत जल्द उस ठिकाने जा पहुंचे जहां के लिए इरादा कर चुके थे।