चन्द्रकान्ता सन्तति 6/22.1

विकिस्रोत से
चंद्रकांता संतति भाग 6  (1896) 
द्वारा देवकीनंदन खत्री
[ ६५ ]

चन्द्रकान्ता सन्तति

बाईसवाँ भाग

1

भूतनाथ की अवस्था ने सबका ध्यान अपनी तरफ खींच लिया। कुछ देर तक सन्नाटा रहा और इसके बाद इन्द्रदेव ने पुनः महाराज की तरफ देखकर कहा-

"महाराज, ध्यान देने और विचार करने पर सबको मालूम होगा कि आजकल आपका दरबार 'नाट्यशाला' (थियेटर का घर) हो रहा है। नाटक खेलकर जो-जो बातें दिखाई जा सकती हैं, और जिनके देखने से लोगों को नसीहत मिल सकती है तथा मालूम हो सकता है कि दुनिया में जिस दर्जे तक के नेक और बद, दुखिया और सुखिया, गम्भीर और छिछोरे इत्यादि पाये जाते हैं, वे सब इस समय (आजकल) आपके यहाँ प्रत्यक्ष हो रहे हैं। ग्रह-दशा के फेर में जिन्होंने दुःख भोगा वे भी मौजूद हैं और जिन्होंने अपने पैर में आप कुल्हाड़ी मारी, वे भी दिखाई दे रहे हैं, जिन्होंने अपने किए का फल ईश्वरेच्छा से पा लिया है, वे भी आए हुए हैं, और जिन्हें अब सजा दी जायेगी, वे भी गिरफ्तार किए गए हैं। बुद्धिमानों का यह कथन है, कि 'जो बुरी राह चलेगा, उसे बुरा फल अवश्य मिलेगा' ठीक है, परन्तु कभी-कभी ऐसा भी होता है कि अच्छी राह चलने वाले तथा नेक लोग भी दुःख के चंगुल में फंस जाते हैं, और दुर्जन तथा दुष्ट लोग आनन्द के साथ दिन काटते दिखाई देते हैं। इसे लोग ग्रह-दशा के कारण कहते हैं, मगर नहीं,इसके सिवाय कोई और बात भी जरूर है। परमात्मा की दी हुई बुद्धि और विचारशक्ति का अनादर करने वाले ही प्रायः संकट में पड़कर तरह-तरह के दुःख भोगते हैं। मेरे कहने का तात्पर्य यही है कि इस समय अथवा आजकल आपके यहाँ सब तरह के जीव दिखाई देते हैं, दृष्टान्त देने के बदले केवल इशारा करने से काम निकलता है। हाँ, मैं यह कहना इन्हीं में ऐसे भी जीव आए हुए हैं, जो अपने किए का नहीं, बल्कि अपने सम्बन्धियों के किए हुए पापों का फल भोग रहे हैं, और इसी से नाते (रिश्ते) और सम्बन्ध का गूढ़ अर्थ भी निकलता है। बेचारी लक्ष्मीदेवी की तरफ देखिए, जिसने किसी का कुछ भी नहीं बिगाड़ा, और फिर भी हद दर्जे की तकलीफ उठाकर भी ताज्जुब है कि जीती बच गई । ऐसा क्यों हुआ? इसके जवाब में मैं तो यही कहूँगा कि राजा गोपालसिंह की बदौलत जो बेईमान दारोगा के हाथ की कठपुतली हो रहे थे, और इस बात की कुछ तो भूल गया, [ ६६ ]भी खबर नहीं रखते थे कि उनके घर में क्या हो रहा है, या उनके कर्मचारियों ने उन्हें कैसे जाल में फंसा रखा है। जिस राजा को अपने घर की खबर न होगी, वह प्रजा का क्या उपकार कर सकता है, और ऐसा राजा अगर संकट में पड़ जाये तो आश्चर्य ही क्या है ! केवल इतना ही नहीं, इनके दुःख भोगने का एक सबब और भी है। बड़ों ने कहा है कि 'स्त्री के आगे अपने भेद की बात प्रकट करना बुद्धिमानों का काम नहीं है' परन्तु राजा गोपालसिंह ने इस बात पर कुछ भी ध्यान न दिया, और दुष्टा मायारानी की मुहब्बत में फंसकर तथा अपने भेदों को बताकर बर्बाद हो गये। सज्जन और सरल स्वभाव होने से ही दुनिया का काम नहीं चलता, कुछ नीति का भी अवलम्बन करना ही पड़ता है। इसी तरह महाराज शिवदत्त को देखिए, जिसे खुशादमियों ने मिल-जुलकर बर्बाद कर दिया। जो लोग खुशामद में पड़कर अपने को सबसे बड़ा समझ बैठते हैं, और दुश्मन को कोई चीज नहीं समझते हैं, उनकी वैसी ही गति होती है, जैसी शिवदत्त की हुई। दुष्टों और दुर्जनों की बात जाने दीजिए, उनके बुरे कामों का तो फल मिलना ही चाहिए, मिला ही है और मिलेगा ही, उनका जिक्रतो मैं पीछे करूँगा, अभी तो मैं उन लोगों की तरफ इशारा करता हूँ जो वास्तव में बुरे नहीं थे, मगर नीति पर न चलने तथा बुरी सोहबत में पड़े रहने के कारण संकट में पड़ गए। मैं दावे के साथ कहता हूँ कि भूतनाथ ऐसा नेक दयावान और चतुर ऐयार बहुत कम दिखाई देगा, मगर लालच और ऐयाशी के फेर में पड़कर यह ऐसा बर्बाद हुआ कि दुनिया भर में मुंह छिपाने और अपने को मुर्दा मशहूर करने पर भी इसे सुख की नींद नसीब न हुई । अगर यह मेहनत करके ईमानदारी के साथ दौलत पैदा करना चाहता तो आज इसकी दौलत का अन्दाज करना कठिन होता, और अगर ऐयाशी के फेर में न पड़ा होता तो आज नाती-पोतों से इसका घर दूसरों के लिए नजीर गिना जाता। इसने सोचा कि मैं मालदार हूँ, होशियार हूँ, चालाक हूँ, और ऐयार हूँ-कुलटा स्त्रियों और रण्डियों की सोहबत का मजा लेकर सफाई के साथ अलग हो जाऊँगा, मगर इसे अद मालूम हुआ होगा कि रण्डियाँ ऐयारों के भी कान काटती हैं। नागर वगैरह के बर्ताव को जब यह याद करता होगा, तब इसके कलेजे में चोट-सी लगती होगी। मैं इस समय इसकी शिकायत करने पर उतारू नहीं हुआ हूँ, बल्कि इसके दिल पर से पहाड़-सा बोझ हटाकर उसे हल्का करना चाहता हूँ, क्योंकि इसे मैं अपना दोस्त समझता था, और मैं समझता हूँ,हां, इधर कई वर्षों से इसका विश्वास अवश्य उठ गया था और मैं इसकी सोहबत पसन्द नहीं करता था, मगर इसमें मेरा कोई कसूर नहीं, किसी का चाल-चलन जब खराब हो जाता है, तब बुद्धिमान लोग उसका विश्वास नहीं करते और शास्त्र की भी ऐसी ही आज्ञा है, अतएव मुझे भी वैसा ही करना पड़ा। यद्यपि मैंने इसे किसी तरह की तकलीफ नहीं पहुँचाई परन्तु इसकी दोस्ती को एकदम भूल गया। मुलाकात होने पर उसी तरह बर्ताव करता था जैसा लोग नये मुलाकाती के साथ किया करते हैं। हाँ, अब जबकि यह अपनी चाल-चलन को सुधारकर आदमी बना है, अपनी भूलों को सोच-समझकर पछता चुका है, एक अच्छे ढंग से नेकी के साथ नामवरी पैदा करता हुआ दुनिया में फिर दिखाई देने लगा है और महाराज भी इसकी योग्यता से प्रसन्न होकर इसके अपराधों को (दुनिया के लिए) क्षमा कर चुके हैं, तब मैंने भी इसके अपराधों को दिल-ही-दिल में क्षमा कर इसे [ ६७ ]अपना मित्र समझ लिया है और फिर उसी निगाह से देखने लगा हूँ, जिस निगाह से पहले देखता था । परन्तु इतना मैं जरूर कहूँगा कि भूतनाथ ही एक ऐसा आदमी है जो दुनिया में नेकचलनी और बदबलनी के नतीजे को दिखाने के लिए नमूना बन रहा है। आज यह अपने भेदों को प्रकट होते देख डरता है और चाहता है कि हमारे भेद छिपे के छिपे रह जायें, मगर यह इसकी भूल है, क्योंकि किसी के ऐब छिपे नहीं रहते। सब नहीं तो बहुत कुछ दोनों कुमारों को मालूम हो ही चुके हैं और महाराज भी जान गए हैं, ऐसी अवस्था में इसे अपना किस्सा पूरा-पूरा बयान करके दुनिया में एक नजीर छोड़ देनी चाहिए और साथ ही इसके (भूतनाथ की तरफ देखते हुए) अपने दिल के बोझ को भी हलका कर देना चाहिए। भूतनाथ, तुम्हारे दो-चार भेद ऐसे हैं जिन्हें सुनकर लोगों की आँखें खुल जायेंगी, और लोग समझेंगे, कि हाँ, आदमी ऐसे-ऐसे काम भी कर गुजरते हैं और उनका नतीजा ऐसा होता है, मगर यह तो कुछ तुम्हारे ही ऐसे बुद्धिमान और अनूठे ऐयार का काम है, कि इतना करने पर भी आज तुम भले-चंगे ही नहीं दिखाई देते हो, बल्कि नेकनामी के साथ महाराज के ऐयार कहलाने की इज्जत भी पा चुके हो। मैं फिर कहता हूँ कि किसी बुरी नीयत से इन बातों का जिक्र मैं नहीं करता, बल्कि तुम्हारे दिल का खुटका दूर करने के साथ-ही-साथ, जिसके नाम से तुम डरते हो, उन्हें तुम्हारा दोस्त बनाना चाहता हूं, अतः तुम्हें बे-खौफ अपना हाल बयान कर देना चाहिए।"

भूतनाथ–ठीक है, मगर क्या करूँ, मेरी जुबान नहीं खुलती, मैंने ऐसे-ऐसे बुरे काम किए हैं कि जिन्हें याद करके आज मेरे रोंगटे खड़े हो जाते हैं, और आत्महत्या करने की इच्छा होती है, मगर नहीं, मैं बदनामी के साथ दुनिया से उठ जाता पसन्द नहीं करता, अतएव जहाँ तक हो सकेगा, एक दफे नेकनामी अवश्य पैदा करूंगा।

इन्द्रजीतसिंह-नेकनामी पैदा करने का ध्यान जहाँ तक बना रहे अच्छा ही है,परन्तु मैं समझता हूं कि तुम नेकनामी उसी दिन पैदा कर चुके जिस दिन हमारे महाराज ने तुम्हें अपना ऐयार बनाया, इसलिए कि तुमने इधर बहुत ही अच्छे काम किये हैं,और वे सब ऐसे थे कि जिन्हें अच्छे-से-अच्छा ऐयार भी कदाचित् नहीं कर सकता था।चाहे तुमने पहले कैसी ही बुराई और कैसे ही खोटे काम क्यों न किये हों, मगर आज हम लोग तुम्हारे देनदार हो रहे हैं, तुम्हारे अहसान के बोझ से दबे हुए हैं, और समझते हैं कि तुम अपने दुष्कर्मों का प्रायश्वित्त कर चुके हो ।

भूतनाथ-आप जो कुछ कहते हैं, वह आपका बड़प्पन है, परन्तु जो मैंने कुछ कुकर्म किए हैं, मैं समझता हूँ कि उनका कोई प्रायश्चित्त ही नहीं है, तथापि अब तो मैं महाराज की शरण में आ ही चुका हूँ, और महाराज ने भी मेरी बुराइयों पर ध्यान न देकर मुझे अपना दासानुदास स्वीकार कर लिया है, इससे मेरी आत्मा सन्तुष्ट है और मैं अपने को दुनिया में मुंह दिखाने योग्य समझने लगा हूँ। मैं यह भी समझता हूँ कि आप जो कुछ आज्ञा कर रहे हैं, यह वास्तव में महाराज की आज्ञा है, जिसे मैं कदापि उल्लंघन नहीं कर सकता, अतः मैं आज अपनी अद्भुत जीवनी सुनाने के लिए तैयार हूँ, परन्तु

इतना कहकर भूतनाथ ने एक लम्बी साँस ली, और महाराज सुरेन्द्रसिंह की [ ६८ ]तरफ देखा।

सुरेन्द्रसिंह-भूतनाथ, यद्यपि हम लोग तुम्हारा कुछ-कुछ हाल जान चुके हैं,मगर फिर भी तुम्हारा पूरा-पूरा हाल तुम्हारे ही मुंह से सुनने की इच्छा रखते हैं। तुम बयान करने में किसी तरह का संकोच न करो। इससे तुम्हारा दिल भी हल्का हो जायेगा, और दिन-रात जो तुम्हें खुटका बना रहता है, वह भी जाता रहेगा।

भूतनाथ-जो आज्ञा !

इतना कहकर भूतनाथ ने महाराज को सलाम किया और अपनी जीवनी इस तरह बयान करने लगा-

भूतनाथ को जीवनी

भूतनाथ-सबके पहले मैं वही बात कहूँगा, जिसे आप लोग अभी नहीं जानते,अर्थात् मैं नौगढ़ के रहने वाले और देवीसिंह के सगे चाचा जीवनसिंहजी का लड़का हूँ ।मेरी सौतेली माँ मुझे देखना पसन्द नहीं । ती थी और मैं उसकी आँखों में काँटे की तरह गड़ा करता था। मेरे ही सबब से मेरी माँ की इज्जत और कदर थी और उस बाँझ को कोई पूछता भी न था, अतएव वह मुझे दुनिया से ही उठा देने की फिक्र में लगी और यह बात मेरे पिता को भी मालूम हो गई, इसलिए जबकि मैं आठ वर्ष का था तो मेरे पिता ने मुझे अपने मित्र देवदत्त ब्रह्मचारी के सुपुर्द कर दिया जो तेजसिंह गुरु थे और महात्माओं की तरह नौगढ़ की उसी तिलिस्मी खोह में रहा करते थे,जिसे राजा वीरेन्द्रसिंहजी ने फतेह किया। मैं नहीं जानता कि मेरे पिता ने मेरे विषय में उन्हें क्या समझाया और क्या कहा, परन्तु इसमें कोई सन्देह नहीं कि ब्रह्मचारी मुझे अपने लड़के की तरह मानते, पढ़ाते-लिखाते और साथ-साथ ऐयारी भी सिखाते थे, परन्तु जड़ी-बूटियों के प्रभाव से उन्होंने मेरी सूरत में बहुत बड़ा फर्क डाल दिया था,जिसमें मुझे कोई पहचान न ले । मेरे पिता मुझे देखने के लिए बराबर उनके पास आया करते थे।

इतना कहकर भूतनाथ कुछ देर के लिए चुप रह गया और सबके मुंह की तरफ देखने लगा!

सुरेन्द्रसिंह--(ताज्जुब के साथ) ओफ-ओह ! क्या तुम जीवनसिंह के वही लड़के हो, जिसके बारे में उन्होंने मशहूर कर दिया था कि उसे जंगल में से शेर उठा ले गया ?

भूतनाथ--(हाथ जोड़कर) जी हाँ !

तेजसिंह--और आप वही हैं, जिसे गुरुजी 'फिरकी' कहकर पुकारा करते थे,क्योंकि आप एक जगह ज्यादा देर तक बैठते न थे ।

भूतनाथ--जी हां।

1. चन्द्रकान्ता पहले भाग के छठे बयान में तेजसिंह ने अपने गुरु के बारे में राजा वीरेन्द्रसिंह से कुछ कहा था। [ ६९ ]देवीसिंह-यद्यपि मैं बहुत दिनों से आपको भाई की तरह मानने लग गया हूँ,परन्तु आज यह जानकर मेरी खुशी का कोई ठिकाना नहीं रहा कि आप वास्तव में मेरे भाई हैं, मगर यह तो बताइए कि ऐसी अवस्था में शेरसिंह आपके भाई क्योंकर हुए? वह कौन हैं ?

भूतनाथ–वास्तव में शेरसिह मेरा सगा भाई नहीं है, बल्कि गुरुभाई और उन्हीं ब्रह्मचारीजी का लड़का है, मगर हाँ, लड़कपन ही से एकसाथ रहने के कारण हम दोनों में भाई-जैसी मुहब्बत हो गई थी।

तेजसिंह-आजकल शेरसिंह कहाँ हैं ?

भूतनाथ-मुझे उनकी कुछ भी खबर नहीं है, मगर मेरा दिल गवाही देता है कि अब वे हम लोगों को दिखाई न देंगे।

वीरेन्द्रसिंह–सो क्यों ?

भूतनाथ—इसीलिए कि वे भी अपने को छिपाये और हम लोगों से मिले-जुले रहते और साथ ही इसके ऐबों से खाली न थे।

सुरेन्द्रसिंह-खैर, कोई चिन्ता नहीं, अच्छा तब ?

भूतनाथ -अतः मैं उन्हीं ब्रह्मचारीजी के पास रहने लगा। कई वर्ष बीत गए।पिताजी मुझसे मिलने के लिए कभी-कभी आया करते थे, और जब मैं बड़ा हुआ तो उन्होंने मुझे अपने से जुदा करने का सबब भी बयान किया और वे यह जानकर बहुत प्रसन्न हुए कि मैं ऐयारी के फन में बहुत तेज औरहोशियार हो गया हूँ। उस समय उन्होंने ब्रह्मचारी जी से कहा कि इसे किसी रियासत में नौकर रख देना चाहिए तब इसकी ऐयारी खुलेगी।मुख्तसिर यह कि ब्रह्मचारीजी की ही बदौलत मैं गदाधरसिंह के नाम से रणधीरसिंहजी के यहाँ और शेरसिंह महाराज दिग्विजयसिंह के यहां नौकर हो गये और यह जाहिर किया गया कि शेरसिंह और गदाधरसिंह दोनों भाई हैं, और दोनों आपस में प्रेम भी ऐसा ही रखते थे।

उन दिनों रणधीरसिंहजी की जमींदारी में तरह-तरह के उत्पात मचे हुए थे और बहुत से आदमी उनके जानी दुश्मन हो रहे थे। उनके आपस वालों को तो इस बात का विश्वास हो गया था कि अब रणधीरसिंहजी की जान किसी तरह नहीं बच सकती, क्योंकि उन्हीं दिनों उनका ऐयार श्रीसिंह दुश्मनों के हाथों से मारा जा चुका था, और खूनी का कुछ पता नहीं लगता था । कोई दूसरा ऐयार भी उनके पास नहीं था, इसलिए वे बड़े ही तरदुद में पड़े हुए थे। यद्यपि उन दिनों उनके यहां नौकरी करना अपनी जान खतरे में डालना था, मगर मुझे इन बातों की कुछ भी परवाह न हुई। रणधीरसिंहजी भी मुझे नौकर रखकर बहुत प्रसन्न हुए। मेरी खातिरदारी में कभी किसी तरह की कमी नहीं करते थे। इसके दो सबब थे, एक तो उन दिनों उन्हें ऐयार की सख्त जरूरत थी, दूसरे मेरे पिता से और उनसे कुछ मित्रता भी थी जो कुछ दिन के बाद मुझे मालूम हुई ।

रणधीरसिंहजी ने मेरा ब्याह भी शीघ्र ही करा दिया। सम्भव है कि इसे भी मैं उनकी कृपा और स्नेह के कारण समझू, पर यह भी हो सकता है कि मेरे पैर में गृहस्थी की बेड़ी डालने और कहीं भाग जाने लायक न रखने के लिए उन्होंने ऐसा किया हो, क्योंकि [ ७० ]अकेला और बेफिक्र आदमी कहीं पर जन्म भर रहे और काम करे, इसका विश्वास लोगों को कम रहता है । खैर, जो कुछ हो मतलब यह है कि उन्होंने मुझे बड़ी इज्जत और प्यार के साथ अपने यहाँ रखा और मैंने भी थोड़े ही दिनों में ऐसे अनूठे काम कर दिखाए कि उन्हें ताज्जुब होता था। सच तो यह है कि उनके दुश्मनों की हिम्मत टूट गई और वे दुश्मनी की आग में आप ही जलने लगे।

कायदे की बात है कि जब किसी के हाथ से दो-चार काम अच्छे निकल जाते हैं और चारों तरफ उसकी तारीफ होने लगती है, तब वह अपने काम की तरफ से कुछ बेफिक्र हो जाता है । वही हाल मेरा भी हुआ।

आप जानते ही होंगे कि रणधीरसिंहजी का दयाराम नामक एक भतीजा था जिसे वह बहुत प्यार करते थे, और वही उनका वारिस होने वाला था। उसके मां-बाप लड़कपन ही में मर चुके थे, मगर चाचा की मुहब्बत के सबब उसे भी बाप के मरने का दुःख मालूम न हुआ। वह (दयाराम) उम्र में मुझसे कुछ छोटा था, मगर मेरे और उसके बीच में हद दर्जे की दोस्ती और मुहब्बत हो गई थी। जब हम दोनों आदमी घर पर मौजूद रहते तो बिना मिले जी नहीं मानता था। दयाराम का उठना-बैठना मेरे यहाँ ज्यादा होता था, अक्सर रात को मेरे यहाँ खा-पीकर सो जाता था, और उसके घर वाले भी इसमें किसी तरह का रंज नहीं मानते थे।

जो मकान मुझे रहने के लिए मिला था, वह निहायत उम्दा और शानदार था।उसके पीछे की तरफ एक छोटा-सा नजरबाग था, जो दयाराम के शौक की बदौलत हरदम हरा-भरा, गुजान और सुहावना बना रहता था। प्रायः संध्या के समय हम दोनों दोस्त उसी बाग में बैठकर भांग-बूटी छानते और संध्योपासन से निवृत्त हो बहुत रात गये तक गप-शप किया करते।

जेठ का महीना था और गर्मी हद दर्जे की पड़ रही थी। पहर रात बीत जाने पर हम दोनों दोस्त उसी नजरबाग में दो चारपाइयों के ऊपर लेटे आपस में धीरे-धीरे बातें कर रहे थे। मेरा खूबसूरत और प्यारा कुत्ता मेरे पायताने की तरफ एक पत्थर की चौकी पर बैठा हुआ। बात करते-करते हम दोनों को नींद आ गई।

आधी रात से कुछ ज्यादा बीती होगी, जब मेरी आँख कुत्ते के भौंकने की आवाज से खुल गई। मैंने उस पर कुछ विशेष ध्यान न दिया और करवट बदलकर फिर आँखें बन्द कर लीं, क्योंकि वह कुत्ता मुझसे बहुत दूर और नजरबाग के पिछले हिस्से की तरफ था, मगर कुछ ही देर बाद वह मेरी चारपाई के पास आकर भौंकने लगा, और पुनः मेरी आंख खुल गई । मैंने कुत्ते को अपने सामने बेचैनी की हालत में देखा, उस समय वह जुबान निकालते हुए जोर-जोर से हांफ रहा, और दोनों अगले पैरों से जमीन खोद रहा था।

मैं अपने कुत्ते की आदतों को खूब जानता और समझता था, पतः उसकी ऐसी अवस्था देखकर मेरे दिल में खुटका हुआ और मैं घबराकर उठ बैठा। अपने मित्र भी उठाकर होशियार कर देने की नीयत से मैंने उसकी चारपाई की तरफ देखा, मगर चारपाई खाली पाकर मैं बेचैनी के साथ चारों तरफ देखने लगा और उठकर चारपाई के नीचे खड़े होने के साथ ही मैंने अपने सिरहाने के नीचे से खंजर निकाल लिया। उस समय मेरा [ ७१ ]नमकहलाल कुत्ता मेरी धोती पकड़कर बार-बार खींचने और बाग के पिछले हिस्से तरफ चलने का इशारा करने लगा और जब मैं उसके इशारे के मुताबिक चला तो धोती छोड़कर आगे-आगे दौड़ने लगा। कदम बढ़ाता हुआ मैं उसके पीछे-पीछे चला। समय मालूम हुआ कि मेरा कुत्ता जख्मी है, उसके पिछले पैर में चोट आई है, इसलिए पैर उठाकर दौड़ता था। अतः कुत्ते के पीछे-पीछे चलकर मैं पिछली दीवार के पास पहुँचा जहाँ मालती और मोमियाने की लताओं के सबब घना कुंज और पूरा अन्धक हो रहा था। कुत्ता उस झुरमुर के पास जाकर रुक गया और मेरी तरफ देखक दुम हिलाने लगा। उसी समय मैंने झाड़ी में से तीन आदमियों को निकलते हुए देखा ज बाग की दीवार के पास चले गए और फुर्ती से दीवार लाँघकर पार हो गए। उन तीनों से एक आदमी के हाथ में एक छोटी-सी गठरी थी जो दीवार लाँघते समय उसके हाथ छूटकर बाग के भीतर ही गिर पड़ी। निःसन्देह वह गठरी लेने के लिए भीतर को लौटत मगर उसने मुझे और मेरे कुत्ते को देख लिया था, इसलिए उसकी हिम्मत न पड़ी।

गठरी गिरने के साथ ही मैंने जफील बजाई और खंजर हाथ में लिए हुए ही उस आदमी का पीछा करना चाहा अर्थात् दीवार की तरफ बढ़ा, मगर कुत्ते ने मेरी धोती पकड़ ली और झाड़ी की तरफ हट कर खींचने लगा, जिससे मैं समझ गया कि इस झाड़ी में भी कोई छिपा हुआ है, जिसकी तरफ कुत्ता इशारा कर रहा है। मैं सम्हल कर खड़ा हो गया और गौर के साथ उस झाड़ी की तरफ देखने लगा। उसी समय पत्तों की खड़-खड़ाहाट ने विश्वास दिला दिया कि इसमें कोई और भी है । मैं इस खयाल से कि जिस तरह पहले तीन आदमी दीवार लांघ कर भाग गये हैं, उसी तरह इसको भी भाग जाने न दूंगा, घूमकर दीवार की तरफ चला गया। उस समय मैंने देखा कि एक चार डंडे की सीढ़ी दीवार के साथ लगी हुई है, जिसके सहारे वे तीनों निकल गये थे। मैंने वह सीढ़ी उठाकर उस गठरी के ऊपर फेंक दी जो उसके हाथ से छूट कर गिर पड़ी थी, क्योंकि मैं उस गठरी की हिफाजत का भी खयाल कर रहा था।

सीढ़ी हटाने के साथ ही दो आदमी उस झाड़ी में से निकले और बड़ी बहादुरी के साथ मेरा मुकाबला किया, और मैं भी जी तोड़कर उनके साथ लड़ने लगा । अन्दाज से मालूम हो गया कि गठरी उठा लेने की तरफ ही उन दोनों का विशेष ध्यान है। आप सुन चुके हैं कि मेरे हाथ में केवल खंजर था, मगर उन दोनों के हाथ में लम्बे-लम्बे लट्ठ थे और मुकाबला करने में भी वे दोनों कमजोर न थे । अतः मुझे अपने बचाव का ज्यादा खयाल था और मैं तब तक लड़ाई खतम करना नहीं चाहता था, जब तक मेरे आदमी न आ जायें, जिन्हें जफील देकर मैंने बुलाया था।

आधी घड़ी से ज्यादा देर तक मेरा उनका मुलाबला होता रहा। उसी समय मुझे रोशनी दिखाई दी और मालूम हुआ कि मेरे आदमी चले आ रहे हैं।उनकी तरफ देखकर मेरा ध्यान कुछ बँटा ही था कि एक आदमी के हाथ का लट्ठ मेरे सिर पर बैठा और मैं चक्कर खाकर जमीन पर गिर पड़ा।