पाँच फूल/⁠जिहाद

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पाँच फूल  (१९२९) 
द्वारा प्रेमचंद

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हुत पुरानी बात है। हिन्दुओं का एक काफिला‌ अपने धर्म की रक्षा के लिए पश्चिमोत्तर के पर्वत-प्रदेश से‌ भागा चला आ रहा था। मुद्दतों से उस प्रान्त में हिन्दू और मुसलमान साथ-साथ रहते चले आये थे। धार्मिक द्वेष का नाम न था। पठानों के जिरगे हमेशा लड़ते रहते थे। उनकी तलवारों पर कभी जङ्ग न लगने पाता था। बात-बात पर उनके दल संगठित हो जाते थे। शासन की कोई व्यवस्था न थी। हरएक जिरगे और कबीले की व्यवस्था अलग थी। आपस के झगड़ों को निपटाने का भी तलवार के सिवा और कोई साधन न था। जान का बदला
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जान था, खून का बदला खून ; इस नियम में कोई अपवाद न था। यही उनका धर्म था, यही ईमान। मगर उस भीषण रक्त-पात में भी हिन्दू-परिवार शान्ति से जीवन व्यतीत करते थे। पर एक महीने से देश की हालत बदल गई है। एक मुल्ला ने न-जाने कहाँ से आकर अनपढ़ धर्म-शून्य पठानों में धर्म का भाव जागृत कर दिया है। उसकी वाणी में कोई ऐसी मोहिनी है कि बूढ़े, जवान, स्त्री-पुरुष खिँचे चले आते हैं। वह शेरों की तरह गरजकर कहता है--'खुदा ने तुम्हें इसलिए पैदा किया है कि दुनिया को इस्लाम की रोशनी से रोशन कर दो, दुनिया से कुफ्र का निशान मिटा दो। एक काफ़िर के दिल को इस्लाम के उजाले से रोशन कर देने का सवाब सारी उम्र के रोज़े, नमाज़ और ज़कात से कहीं ज्यादा है, जन्नत की हूरें तुम्हारी बलाएँ लेंगी और फ़रिश्ते तुम्हारे कदमों की खाक माथे पर मलेंगे, खुदा ख़ुद तुम्हारी पेशानी पर बोसे देगा।' और सारी जनता यह आवाज़ सुनकर मजहब के नारों से मतवाली हो जाती है। इसी धार्मिक उत्तेजना ने कुफ्र और इस्लाम का भेद उत्पन्न कर दिया है। प्रत्येक पठान जन्नत का सुख भोगने के लिए अधीर हो उठा है। उन्हीं हिन्दुओं पर जो सदियों से शान्ति के साथ रहते थे, हमले होने
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लगे हैं। कहीं उनके मन्दिर ढाये जाते हैं, कहीं उनके देवताओं को गालियाँ दी जाती हैं। कहीं उन्हें ज़बरदस्ती इस्लाम की दीक्षा दी जाती है। हिन्दू संख्या में कम हैं, असङ्गठित हैं, बिखरे हुए हैं, इस नई परिस्थिति के लिए बिलकुल तैयार नहीं। उनके हाथ-पाँव फूले हुए हैं, कितने ही तो अपनी जमा-जथा छोड़कर भाग खड़े हुए हैं, कुछ छिपे हुए इस आँधी के शान्त हो जाने का अवसर देख रहें हैं। यह काफ़िला भी उन्हीं भागनेवालों में था। दोपहर का समय था। आसमान से आग बरस रही थी। पहाड़ों से ज्वाला-सी निकल रही थी। वृक्ष का कहीं नाम न था। ये लोग राज-पथ से हटे हुए, पेचीदा औघट रास्तों से चले आ रहे थे। पग-पग पर पकड़ लिये जाने का खटका लगा हुआ था। यहाँ तक कि भूख, प्यास और ताप से विकल होकर अन्त को लोग एक उभरी हुई शिला की छाँह में विश्राम करने लगे। सहसा कुछ दूर पर एक कुँआ नजर आया। वहीं डेरे डाल दिये। भय लगा हुआ था कि जेहादियों का कोई दल पीछे से न आ रहा हो। दो युवकों ने बंदूकें भरकर कन्धे पर रक्खीं और चारों तरफ़ गश्त करने लगे। बूढ़े कम्बल बिछाकर कमर सीधी करने लगे। स्त्रियाँ बालकों को गोद से उताकर माथे का पसीना
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पोंछने और बिखरे हुए केशों को सँभालने लगी। सभी के चेहरे मुरझाये हुए थे। सभी चिन्ता और भय से त्रस्त हो रहे थे, यहाँ तक कि बच्चे भी ज़ोर से न रोते थे।

दोनों युवकों में एक लम्बा, गठीला, रूपवान् है। उसकी आँखों से अभिमान की रेखाएँ-सी निकल रही हैं, मानो वह अपने सामने किसी की हक़ीक़त नहीं समझता, मानो उसकी एक-एक गति पर आकाश के देवता जय-घोष कर रहे हैं। दूसरा छोटे कद का, दुबला-पतला, रूपहीन-सा आदमी है, जिसके चेहरे से दीनता झलक रही है, मानो उसके लिए संसार में कोई आशा नहीं, मानो वह दीपक की भाँति रो-रोकर जीवन व्यतीत करने ही के लिए बनाया गया है। उसका नाम धर्मदास है, इसका ख़जाँचन्द।

धर्मदास ने बन्दूक़ को ज़मीन पर टिकाकर एक चट्टान पर बैठते हुए कहा--तुमने अपने लिए क्या सोचा ? कोई लाख-सवा लाख की सम्पत्ति रही होगी तुम्हारी ?

ख़जाँचन्द ने उदासीन भाव से उत्तर दिया--लाख-सवा लाख की तो नहीं, हाँ पचास-साठ हजार की जरूर थी। तीस हज़ार तो नकद ही थे।

'तो अब क्या करोगे ?'

'जो कुछ सिर पर आवेगा झेलूँगा। रावलपिंडी में
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दो-चार सम्बन्धी हैं, शायद कुछ मदद करें। तुमने क्या सोचा है ?'

'मुझे क्या राम ! अपने दोनों हाथ अपने साथ हैं। वहाँ भी इन्हीं का सहारा था, आगे भी इन्हीं का सहारा है।'

'आज और कुशल से बीत जाय, तो फिर कोई भय नहीं।'

'मैं तो मना रहा हूँ कि एकाध शिकार मिल जाय। एक दरजन भी आ जायँ,तो भूनकर रख दूँ।'

इतने में चट्टानों के नीचे से एक युवती हाथ में लोटा और डोर लिये निकली और सामने कुँए की ओर चली। प्रभात की सुनहरी, मधुर अरुणिमा मूर्तिमान हो गई थी।

दोनों युवक उसकी ओर बढ़े, लेकिन ख़ज़ाचँन्द तो दो-चार कदम चलकर रुक गया, धर्मदास ने युवती के हाथ‌ से लोटा-डोर ले लिया और ख़जाँचन्द की ओर सगर्व नेत्रों से ताकता हुआ कुँए की ओर चला, ख़जाँचन्द ने फिर बन्दूक सँभाली और अपनी झेंप मिटाने के लिए आकाश की ओर ताकने लगा। इसी तरह वह कितनी ही बार धर्मदास के हाथों पराजित हो चुका था। शायद उसे इसका अभ्यास हो गया था। अब इसमें लेश-मात्र भी सन्देह न था कि श्यामा का प्रेमपात्र धर्मदास है। ख़जाँ-
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चन्द की सारी सम्पत्ति धर्मदास के रूप-वैभव के आगे तुच्छ थी। परोक्ष ही नहीं, प्रत्यक्ष रूप से भी श्यामा कई बार ख़जाँचन्द को हताश कर चुकी थी, पर वह अभागा निराश होकर भी न-जाने क्यों उस पर प्राण देता था। तीनों एक ही बस्ती के रहनेवाले, एक साथ खेलनेवाले थे। श्यामा के माता-पिता पहले ही मर चुके थे। उसकी बुआ ने उसका पालन-पोषण किया था। अब भी वह बुआ ही के साथ रहती थी। उसकी अभिलाषा थी कि ख़जाँचन्द उसका दामाद हो, श्यामा सुख से रहे और उसे भी जीवन के अन्तिम दिनों के लिए कुछ सहारा हो जाय। लेकिन श्यामा धर्मदास पर रीझी हुई थी। उसे क्या खबर थी कि जिस व्यक्ति को वह पैरों से ठुकरा रही है, वही उसका एक मात्र अवलम्ब है। ख़जाँचन्द ही वृद्धा का मुनीम, खजांची, कारिन्दा सब कुछ था, और यह जानते हुए भी कि श्यामा उसे इस जीवन में नहीं मिल सकती। उसके धन का यह उपयोग न होता, तो वह शायद अब तक उसे लुटाकर फकीर हो जाता।

धर्मदास पानी लेकर लौट ही रहा था कि उसे पश्चिम की ओर से कई आदमी घोड़ों पर सवार आते दिखाई
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दिये। ज़रा और समीप आने पर मालूम हुआ कि कुल पाँच आदमी हैं। उनकी बन्दूकों की नलियाँ धूप में साफ चमक रही थीं। धर्मदास पानी लिये हुए दौड़ा कि कहीं रास्ते ही में सवार उसे न पकड़ लें। लेकिन कन्धे पर बन्दूक और एक हाथ में लोटा-डोर लिये वह बहुत तेज़ न दौड़ सकता था। फ़ासला दो सौ गज से कम न था। रास्ते में पत्थरों के ढेर टूटे-फूटे पड़े हुए थे। भय होता था कि कहीं ठोकर न लग जाय, कहीं पैर न फ़िसल जाय। उधर सवार प्रतिक्षण समीप होते जाते थे। अरबी घोड़ों से उसका मुकाबला ही क्या, उस पर मंजिलों का धावा हुआ। मुश्किल से पचास कदम गया होगा कि सवार उसके सिर पर आ पहुँचे और तुरन्त उसे घेर लिया। धर्म- दास बड़ा साहसी था; पर मृत्यु को सामने खड़ो देखकर उसकी आँखों में अँधेरा छा गया, उसके हाथ से बन्दूक छूटकर गिर पड़ी। पाँचों उसी के गाँव के महसूदी पठान थे। एक पठान ने कहा--उड़ा दो सिर मरदूद का। दगाबाज़ काफ़िर !

दूसरा--नहीं-नहीं, ठहरो अगर यह इस वक्त भी इस्लाम कबूल कर ले, तो हम इसे मुआफ़ कर सकते हैं। क्यों धर्मदास, तुम्हें इस दगा की क्या सज़ा दी जाय ? [ ६३ ]
हमने तुम्हें रात-भर का वक्त फ़ैसला करने के लिए दिया था। भगर तुम रात ही को हमसे दग़ा करके भाग निकले। इस दग़ा की सज़ा तो यही है कि तुम इसी वक्त जहन्नुम पहुँचा दिये जाओ, लेकिन हम तुम्हें फिर एक मौक़ा देते हैं। वह आख़िरी मौक़ा है। अगर तुमने अब भी इस्लाम न क़बूल किया, तो तुम्हें दिन की रोशनी देखनी नसीब न होगी।

धर्मदास ने हिचकिचाते हुए कहा--जिस बात को अक्ल नहीं मानती, उसे कैसे......

पहले सवार ने आवेश में आकर कहा--मज़हब को अक्ल से कोई वास्ता नहीं।

तीसरा--कुफ़ है ! कुफ़ है !

पहला--उड़ा दो सिर मरदूद का, धुआँ इस पार।

दूसरा--ठहरो-ठहरो, मार डालना मुश्किल नहीं, जिला लेना मुश्किल है। तुम्हारे और साथी कहाँ हैं धर्मदास ?

धर्मदास--सब मेरे साथ ही हैं।

दूसरा--कलामे शरीफ़ की क़सम, अगर तुम सब खुदा और उसके रसूल पर ईमान लाओ, तो कोई तुम्हें तेज़ निगाहों से देख भी न सकेगा।

धर्मदास--आप लोग सोचने के लिए और कुछ मौक़ा न देंगे? [ ६४ ]इस पर चारों सवार चिल्ला उठे--नहीं, नहीं, हम तुम्हें न जाने देंगे, यह आखिरी मौका है।

इतना कहते ही पहले सवार ने बन्दूक छतिया ली और नली धर्मदास की छाती की ओर करके बोला--बस बोलो, क्या मंजूर है ?

धर्मदास सिर से पैर तक कॉपकर बोला--अगर मैं इस्लाम कबूल कर लूँ, तो मेरे साथियों को तो कोई तकलीफ़ न दी जायगी ?

दूसरा--हाँ, अगर तुम जमानत करो कि वे भी इस्लाम कबूल कर लेंगे।

पहला--हम इस शर्त को नहीं मानते। तुम्हारे साथियों से हम खुद निपट लेंगे। तुम अपनी कहो, क्या चाहते हो ? हाँ या नहीं ?

धर्मदास ने जहर का घूँट पीकर कहा--मैं खुदापर ईमान लाता हूँ।

पाँचों ने एक स्वर से कहा--अलहम्द व लिल्लाह ! और बारी-बारी से धर्मदास को गले लगाया।

श्यामा हृदय को दोनों हाथों से थामे यह दृश्य देख रही थी। वह मन में पछता रही थी कि मैंने क्यों इन्हें [ ६५ ]
पानी लाने भेजा। अगर मालूम होता कि विधि यों धोखा देगा, तो मैं प्यासों मर जाती ; पर इन्हें न जाने देती। श्यामा से कुछ दूर खज़ाँचन्द भी खड़ा था। श्यामा ने उसकी ओर क्षुब्ध नेत्रों से देखकर कहा--अब इनकी जान बचती नहीं मालूम होती।

खज़ाँचन्द--बन्दूक़ भी हाथ से छूट पड़ी है।

श्यामा--न-जाने क्या बातें हो रही हैं। अरे ग़ज़ब ! दुष्ट ने उनकी ओर बन्दूक तानी है।

खज़ाँ--ज़रा और समीप आ जायँ, तो मैं बन्दूक चलाऊँ। इतनी दूर की मार इसमें नहीं है।

श्यामा--अरे ! देखो वे सब धर्मदास को गले लगा रहे हैं। यह माजरा क्या है ?

खज़ाँ--कुछ समझ में नहीं आता।

श्यामा--कहीं इसने क़लमा तो नहीं पढ़ लिया ?

खज़ाँ--नहीं, ऐसा क्या होगा। धर्मदास से मुझे ऐसी आशा नहीं है।

श्यामा--मैं समझ गई। ठीक यही बात है। बन्दूक चलाओ।

खज़ाँ०--धर्मदास बीच में हैं। कहीं उन्हें न लग जाय।

श्यामा--कोई हर्ज़ नहीं। मैं चाहती हूँ, पहला निशाना
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धर्मदास ही पर पड़े। कायर ! निर्लज्ज ! प्राणों के लिए धर्म त्याग दिया ! ऐसी बेहयाई की ज़िन्दगी से मर जाना कहीं अच्छा है। क्या सोचते हो ? क्या तुम्हारे हाथ-पाँव भी फूल गये ? लाओ बन्दूक मुझे दे दो। मैं इस कायर को अपने हाथों से मारूँगी।

खज़ाँ०--मुझे तो विश्वास नहीं होता कि धर्मदास...

श्यामा--तुम्हें कभी विश्वास न आवेगा। लाओ बन्दूक़ मुझे दे दो। खड़े ताकते हो। क्या जब वे सिर पर आ जायँगे तब बन्दूक चलाओगे ? क्या तुम्हें भी यही मंज़र है कि मुसलमान होकर जान बचाओ ? अच्छी बात है, जाओ श्यामा अपनी रक्षा आप कर सकती है। मगर उसे अब मुँह न दिखाना।

खज़ाँचन्द ने बन्दूक चलाई। एक सवार की पगड़ी को उड़ाती हुई गोली निकल गई। जेहादियों ने 'अल्लाहो- अकबर !' की हाँक लगाई। दूसरी गोली चली और एक घोड़े की छाती पर बैठी। घोड़ा वहीं गिर पड़ा। जेहादियों ने फिर 'अल्लाहो अकबर !' की सदा लगाई और आगे बढ़े। तीसरी गोली आई। एक पठान लोट गया। पर इसके पहले कि चौथी गोली छूटे, पठान खजाँचन्द के सिर पर पहुँच गये और बन्दूक उसके हाथ से छीन ली। [ ६७ ]एक सवार ने खज़ाँचन्द की ओर बन्दूक तानकर कहा--उड़ा दूँ सिर मरदूद का ? इससे खून का बदला लेना है !

दूसरे सवार ने जो इनका सरदार मालूम होता था कहा--नहीं-नहीं, यह दिलेर आदमी है। ख़ज़ाँचन्द, तुम्हारे ऊपर दग़ा, खून और कुफ़्र, ये तीन इल्ज़ाम हैं, और तुम्हें क़त्ल कर देना ऐन सवाब है, लेकिन हम तुम्हें एक मौक़ा और देते हैं। अगर तुम अब भी खुदा और रसूल पर ईमान लाओ, तो हम तुम्हें सीने से लगाने को तैयार हैं। इसके सिवा तुम्हारे गुनाहों का और कोई कफ़ारा (प्रायश्चित्त) नहीं है। यह हमारा आखिरी फ़ैसला है। बोलो, क्या मंजूर है ?

चारों पठानों ने कमर से तलवारें निकाल ली और उन्हें खज़ाँचन्द के सिर पर तान दिया, मानो 'नहीं' का शब्द मुँह से निकलते ही चारों तलवारें उसके गर्दन पर चल जायँगी।

खज़ाँचन्द का मुखमण्डल विलक्षण तेज से आलोकित हो उठा। उसकी दोनों आँखें स्वर्गीय ज्योति से चमकने लगी। दृढ़ता से बोला--तुम एक हिन्दू से यह प्रश्न कर रहे हो ? क्या तुम समझते हो कि जान के खौफ़ से वह
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अपना ईमान बेच डालेगा ? हिन्दू को अपने ईश्वर तक पहुँचने के लिए किसी नबी, वली या पैग़म्बर की जरूरत नहीं !

चारो पठानों ने कहा--काफ़िर ! काफ़िर !

खज़ाँ०--अगर तुम मुझे काफिर समझते हो, तो समझो। मैं अपने को तुमसे ज़्यादा खुदा-परस्त समझता हूँ। मैं उस धर्म को मानता हूँ, जिसकी बुनियाद अक्ल पर है। आदमी में अक्ल ही खुदा का नूर (प्रकाश) है और हमारा ईमान हमारी अक्ल ......

चारों पठानों के मुँह से निकला 'काफ़िर ! काफ़िर!' और चारों तलवारें एक साथ ख़ज़ाँचन्द की गर्दन पर गिर पड़ी। लाश ज़मीन पर फड़कने लगी। धर्मदास सिर झुकाये खड़ा रहा। वह दिल में खुश था कि अब खज़ाँचन्द की सारी सम्पत्ति उसके हाथ लगेगी और वह श्यामा के साथ सुख से रहेगा ; पर विधाता को कुछ और ही मंजूर था। श्यामा अब तक मर्माहत-सी खड़ी यह दृश्य देख रही थी। ज्यों ही खज़ाँचन्द जमीन पर गिरा, वह झपटकर लाश के पास आई और उसे गोद में लेकर आँचल से रक्त प्रवाह को रोकने की चेष्टा करने लगी। उसके सारे कपड़े खून से तर हो गये। उसने बड़ी सुन्दर बेल-बूटोंवाली साड़ियाँ पहनी
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होंगी; पर इस रक्त-रञ्जित साड़ी की शोभा अतुलनीय थी। बेल-बूटोंवाली साड़ियाँ रूप की शोभा बढ़ाती थीं, यह रक्त-रञ्जित साड़ी आत्मा की छवि दिखा रही थी।

ऐसा जान पड़ा, मानो खज़ाँचन्द की बुझती आँखें एक अलौकिक ज्योति से प्रकाशमान् हो गई हैं। उन नेत्रों में कितना सन्तोष, कितनी तृप्ति, कितनी उत्कण्ठा भरी हुई थी। जीवन में जिसने प्रेम की भिक्षा भी न पाई, वह मरने पर उत्सर्ग जैसे स्वर्गीय रत्न का स्वामी बना हुआ था।

धर्मदास ने श्यामा का हाथ पकड़कर कहा--श्यामा, होश में आओ, तुम्हारे सारे कपड़े ख़ून से तर हो गये हैं। अब रोने से क्या हासिल होगा ? ये लोग हमारे मित्र हैं, हमें कोई कष्ट न देंगे। हम फिर अपने घर चलेंगे और जीवन के सुख भोगेंगे।

श्यामा ने तिरस्कार-पूर्ण नेत्रों से देखकर कहा--तुम्हें अपना घर बहुत प्यारा है, तो जाओ। मेरी चिन्ता मत करो। मैं अब न जाऊँगी। हाँ, अगर अब भी मुझसे कुछ प्रेम हो, तो इन लोगों से इन्हीं तलवारों से मेरा भी अन्त करा दो। [ ७० ]धर्मदास करुणा-कातर स्वर से बोला--श्यामा, यह तुम क्या कहती हो, तुम भूल गई कि हमसे-तुमसे क्या बातें हुई थीं ? मुझे ख़ुद ख़ज़ाँचन्द के मारे जाने का शोक है; पर भावी को कौन टाल सकता है ?

श्यामा--अगर यह भावी थी, तो यह भी भावी है कि मैं अपना अधम जीवन उस पवित्र आत्मा के शोक में काटूँ, जिसका मैंने सदैव निरादर किया।

यह कहते-कहते श्यामा का शोकोद्गार, जो अब तक क्रोध और घृणा के नीचे दबा हुआ था, उबल पड़ा और वह ख़ज़ाँचन्द के निस्पन्द हाथों को अपने गले में डालकर रोने लगी।

चारों पठान यह अलौकिक अनुराग और आत्म-समर्पण देखकर करुणार्द्र हो गये। सरदार ने धर्मदास से कहा--तुम इस पाकीज़ा ख़ातून से कहो, हमारे साथ चले। हमारी ज़ात से इसे कोई तकलीफ़ न होगी। हम इसकी दिल से इज्ज़त करेंगे।

धर्मदास के हृदय में ईर्ष्या की आग धधक रही थी। वही रमणी, जिसे वह अपनी समझे बैठा था, इस वक्त उसका मुँह भी नहीं देखना चाहती थी। बोला--श्यामा, तुम चाहे इस लाश पर आँसुओं की नदी बहा दो; पर यह
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ज़िन्दा न होगी। यहाँ से चलने की तैयारी करो। मैं साथ के और लोगों को भी जाकर समझाता हूँ। ये ख़ान लोग हमारी रक्षा करने का ज़िम्मा ले रहे हैं। हमारी जायदाद, ज़मीन, दौलत सब हमको मिल जायगी। ख़ज़ाँचन्द की दौलत के भी हमीं मालिक होंगे। अब देर न करो। रोने-धोने से अब कुछ हासिल नहीं।

श्यामा ने धर्मदास को आग्नेय नेत्रों से देखकर कहा--और इस वापसी की क़ीमत क्या देनी होगी ? वही जो तुमने दी है ?

धर्मदास यह व्यंग न समझ सका। बोला--मैंने तो कोई क़ीमत नहीं दी। मेरे पास था ही क्या।

श्यामा--ऐसा न कहो। तुम्हारे पास वह ख़ज़ाना था, जो तुम्हें आज कई लाख वर्ष हुए ऋषियों ने प्रदान किया था, जिसकी रक्षा रघु और मनु, राम और कृष्ण, बुद्ध और शङ्कर, शिवाजी और गोविन्दसिंह ने की थी। उस अमूल्य भाण्डार को आज तुमने तुच्छ प्राणों के लिए खो दिया। इन पाँवों घर लौटना तुम्हें मुबारक हो। तुम शौक़ से जाओ। जिन,तलवारों ने वीर ख़ज़ाँचन्द के जीवन का अन्त किया, उन्होंने मेरे प्रेम का भी फ़ैसला कर दिया। जीवन में इस वीरात्मा का मैंने जो निरादर और अपमान किया, इसके
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साथ जो उदासीनता दिखाई, उसका अब मरने के बाद प्रायश्चित्त करूँगी। यह धर्म पर मरनेवाला वीर था, धर्म को बेचनेवाला कायर नहीं। अगर तुममें अब भी कुछ शर्म और हया है, तो इसका क्रिया-कर्म करने में मेरी मदद करो और यदि तुम्हारे स्वामियों को यह भी पसन्द न हो, तो रहने दो, मैं खुद सब कुछ कर लूँगी।

पठानों के हृदय दर्द से तड़फ उठे। धर्मान्धता का प्रकोप शान्त हो गया। देखते-देखते वहाँ लकड़ियों का ढेर लग गया। धर्मदास ग्लानि से सिर झुकाये बैठा था और चारों पठान लकड़ियाँ काट रहे थे। चिता तैयार हुई और जिन निर्दय हाथों ने खज़ाँचन्द की जान ली थी, उन्हीं ने उसके शव को चिता पर रक्खा। ज्वाला प्रचण्ड हुई। अग्निदेव अपने अग्नि-मुख से उस धर्म-वीर का यश गा रहे थे!

पठानों ने खज़ाँचन्द की सारी जङ्गम सम्पत्ति लाकर श्यामा को दे दी। श्यामा ने वहीं एक छोटा-सा मकान बनवाया और वीर ख़ज़ाँचन्द की उपासना में जीवन के दिन काटने लगी। उसकी वृद्धा बुआ तो उसके साथ रह गई और सब लोग पठानों के साथ लौट गये ; क्योंकि अब
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मुसलमान होने की शर्त न थी। ख़ज़ाँचन्द के बलिदान ने धर्म के भूत को परास्त कर दिया। मगर धर्मदास को पठानों ने इस्लाम की दीक्षा लेने पर मजबूर किया। एक दिन नियत किया गया। मसजिद में मुल्लाओं का मेला लगा, और लोग धर्मदास को उसके घर से बुलाने आये। पर उसका वहाँ पता न था। चारों तरफ़ तलाश हुई। कहीं निशान न मिला।

साल-भर गुज़र गया। सन्ध्या का समय था। श्यामा अपने झोपड़े के सामने बैठी भविष्य की मधुर कल्पनाओं में मग्न थी। अतीत उसके लिए दुःख से भरा हुआ था। वर्तमान केवल एक निराशामय स्वप्न था। सारी अभिलाषाएँ भविष्य पर अवलम्बित थीं। और भविष्य भी वह जिसका इस जीवन से कोई सम्बन्ध न था। आकाश पर लालिमा छाई हुई थी। सामने की पर्वतमाला स्वर्णमयी शान्ति के आवरण से ढकी हुई थी। वृक्षों की कॉपती हुई पत्तियों से सरसराहट की आवाज़ निकल रही थी, मानो कोई वियोगी आत्मा पत्तियों पर बैठी हुई सिसकियाँ भररही हो।

उसी वक्त एक भिखारी फटे हुए कपड़े पहने झोपड़ी के सामने खड़ा हो गया। कुत्ता ज़ोर से भूँक उठा। श्यामा ने चौंककर देखा और चिल्ला उठी--धर्मदास ! [ ७४ ]धर्मदास ने वहीं जमीन पर बैठते हुए कहा--हाँ श्यामा, मैं अभागा धर्मदास ही हूँ। साल-भर से मारा-मारा फिर रहा हूँ। मुझे खोज निकालने के लिए इनाम रख दिया गया है। सारा प्रान्त मेरे पीछे पड़ा हुआ है। इस जीवन से अब ऊब उठा हूँ। पर मौत भी नहीं आती।

धर्मदास एक क्षण के लिए चुप हो गया। फिर बोला--क्यों श्यामा, क्या अभी तुम्हारा दिल मेरी तरफ़ से साफ़ नहीं हुआ ? तुमने मेरा अपराध क्षमा नहीं किया ?

श्यामा ने उदासीन भाव से कहा--मैं तुम्हारा मतलब नहीं समझी।

'मैं अब भी हिन्दू हूँ। मैंने इस्लाम नहीं क़बूल किया है।'

'जानती हूँ।'

'यह जानकर भी तुम्हें मुझ पर दया नहीं आती ?'

श्यामा ने कठोर नेत्रों से देखा और उत्तेजित होकर बोली--तुम्हें अपने मुँह से ऐसी बातें निकालते शर्म नहीं आती ! मैं उस धर्मवीर की ब्याहता हूँ जिसने हिन्दू-जाति का मुख उज्ज्वल किया है। तुम समझते हो कि वह मर गया ? यह तुम्हारा भ्रम है। वह अमर है। मैं इस समय
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भी उसे स्वर्ग में बैठा देख रही हूँ। तुमने हिन्दू-जाति को कलङ्कित किया है। मेरे सामने से दूर हो जाओ।

धर्मदास ने कुछ जवाब न दिया। चुपके से उठा, एक लम्बी साँस ली और एक तरफ़ चल दिया।

प्रातःकाल श्यामा पानी भरने जा रही थी तब उसने रास्ते में एक लाश पड़ी हुई देखी। दो-चार गिद्ध उस पर मँडरा रहे थे। उसका हृदय धड़कने लगा। समीप जाकर देखा और पहचान गई। यह धर्मदास की लाश थी !

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यह कार्य संयुक्त राज्य अमेरिका में भी सार्वजनिक डोमेन में है क्योंकि यह भारत में 1996 में सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आया था और संयुक्त राज्य अमेरिका में इसका कोई कॉपीराइट पंजीकरण नहीं है (यह भारत के वर्ष 1928 में बर्न समझौते में शामिल होने और 17 यूएससी 104ए की महत्त्वपूर्ण तिथि जनवरी 1, 1996 का संयुक्त प्रभाव है।