भ्रमरगीत-सार/१२६-ऊधो! कछु कछु समुझि परी

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ऊधो! कछु कछु समुझि परी।

तुम जो हमको जोग लाए भली करनि करी॥
एक बिरह जरि रहीं हरि के, सुनत अतिहि जरी।
जाहु जनि अब लोन लावहु देखि तुमहिं डरी॥
जोग-पाती दई तुम कर बड़े जान[१] हरी।
आनि आस निरास कीन्ही, सूर सुनि हहरी[२]॥१२६॥

  1. जान=सुजान, चतुर।
  2. हहरी=दहल गई।