बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ १३५
ल्याए हरि-कुसलात धन्य तुम घर घर पार्यो गोल[१]॥ कहन देहु कह करै हमारो बरि उड़ि जैहै झोल[२]। आवत ही याको पहिंचान्यो निपटहि ओछो तोल॥ जिनके सोचन रही कहिबे तें, ते बहु गुननि अमोल। जानी जाति सूर हम इनकी बतचल[३] चंचल लोल॥१२७॥