[ १३५ ]
ज्यों त्रिदोष उपजे जक लागति, निकसत बचन न सूधो॥ आपन तौ उपचार करौ कछु तब औरन सिख देहु। मेरे कहे बनाय न राखौ थिर कै कतहूँ गेहु॥
जौ तुम पद्मपराग छांड़िकै करहु ग्राम-बसबास[१]। तौ हम सूर यहौ करि देखैं निमिष छांड़हीं पास॥१२८॥