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भ्रमरगीत-सार/१३८-ऊधो! मन माने की बात

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बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ १३७

 

ऊधो! मन माने की बात।

जरत पतंग दीप में जैसे, औ फिरि फिरि लपटात॥
रहत चकोर पुहुमि पर, मधुकर! ससि[] अकास भरमात।
ऐसो ध्यान धरो हरिजू पै छन इत उत नहिं जात॥
दादुर रहत सदा जल-भीतर कमलहिं नहिं नियरात।
काठ फोरि घर कियो मधुप पै बंधे अंबुज के पात॥
बरषा बरसत निसिदिन, ऊधो! पुहुमी पूरि अघात।
स्वाति-बूंद के काज पपीहा छन छन रटत रहात॥
सेहि[] न खात अमृतफल भोजन तोमरि को ललचात।
सूर कृस्न कुबरी रीझे गोपिन देखि लजात॥१३८॥

  1. ससि=चन्द्रमा।
  2. सेहि=साही, पशु।