बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ १३६
आपु कहत हम सुनत अचंभित जानत हौ जिय सुल्लभ॥ रेख न रूप बरन जाके नहिं ताकों हमैं बतावत। अपनी कहो[१] दरस वैसे को तुम कबहूँ हौ पावत? मुरली अधर धरत है सो, पुनि गोधन बन बन चारत? नैन बिसाल भौंह बंकट[२] करि देख्यो कबहुँ निहारत?