भ्रमरगीत-सार/१५३-मधुकर! ये मन बिगरि परे
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मधुकर! ये मन बिगरि परे।
समुझत नाहिं ज्ञानगीता को हरि-मुसुकानि अरे॥
बालमुकुंद-रूप-रसराचे तातें बक्र खरे।
होय न सूधी स्वान पूँछि ज्यों कोटिक जतन करे॥
हरि-पद-नलिन बिसारत नाहीं सीतल उर संचरे।
जोग गंभीर[१] है अंधकूप तेहि देखत दूरि डरे॥
हरि-अनुराग सुहाग भाग भरे अमिय तें गरल गरे।
सूरदास बरु ऐसेहि रहिहैं कान्हबियोग-भरे॥१५३॥
- ↑ गँभीर=गहरा।