भ्रमरगीत-सार/१७५-ऊधौ! बिरहौ प्रेमु करै

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ऊधौ! बिरहौ प्रेमु करै।[१]

ज्यों बिनु पुट पट गहै न रंगहिं[२], पुट गहे रसहि परै॥
जौ आँवौ[३] घट दहत अनल तनु तौ पुनि अमिय भरै।
जौ[४] धरि बीज देह अंकुर चिरि तौ सत फरनि फरै॥
जौ सर सहत सुभट संमुख रन तौ रबिरथहि सरै।
सूर गोपाल प्रेमपथ-जल तें कोउ न दुखहिं डरै॥१७५॥

  1. बिरहौ प्रेमु करै=विरह से भी प्रेम होता या बढ़ता है।
  2. ज्यों
    बिनु पुट...रंगहि=जैसे बिना पुट दिए कपड़े पर रंग नहीं चढ़ता।
  3. आँवा=आवाँ जिसमें मिट्टी के बरतन पकते हैं।
  4. जौ धरि बीज...फरै=जब बीज चिरकर देह में अंकुर धारण करता है तब सैंकड़ों
    प्रकार के फल फलता है।