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जौ लगि नाहिं गोपालहिं देखति बिरह दहति मेरी छाती॥ निमिष एक मोहिं बिसरत नाहिंन सरद-समय की राती। मन तौ तबही तें हरि लीन्हों जब भयो मदन बराती॥ पीर पराई कह तुम जानौ तुम तो स्याम-सँघाती। सूरदास स्वामी सों तुम पुनि कहियो ठकुरसुहाती[१]॥१७४॥